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जयदीप कर्णिक, हिन्दी संपादक
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हम अरण्यरोदन कब तक करेंगे? हमें झूठे आशावाद से बचकर हिन्दी भाषा के लिए कुछ कठोर कदम उठाने होंगे। एक समय था जब अखबार पढ़कर भाषा सीखी जाती थी, जबकि आज के दौर में भाषा बिगड़ न जाए इसलिए हम बच्चों को अखबार पढ़ने से मना करते हैं। उदाहरण के लिए 'घट रही है पेड़ों की पापुलेशन', यह हमें कहाँ ले जाएगा।
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अजहर हाशमी, हिन्दी संपादक
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देश स्वाधीन है परंतु वैचारिक और मानसिक दृष्टि से हम आज भी दास हैं। इसी कारण हिन्दी को 'कू़ड़े-करकट का ढेर' और अंग्रेज़ी को 'अमृत-सागर' समझने की हमारी मान्यता आज भी नहीं बदली है। हिन्दी भाषा को, अब अंग्रेज़ी से नहीं, भारतीयों से भय है।