अनुच्छेद 20 (भारत का संविधान)
निम्न विषय पर आधारित एक शृंखला का हिस्सा |
भारत का संविधान |
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उद्देशिका |
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संबधित विषय |
अनुच्छेद 20 (भारत का संविधान) | |
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मूल पुस्तक | भारत का संविधान |
लेखक | भारतीय संविधान सभा |
देश | भारत |
भाग | भाग 3 |
विषय | मूल अधिकार |
प्रकाशन तिथि | 1949 |
उत्तरवर्ती | अनुच्छेद 21 (भारत का संविधान) |
अनुच्छेद 20 भारत के संविधान का एक अनुच्छेद है। यह संविधान के भाग 3 में शामिल है और मूल अधिकारों का हिस्सा है। यह अनुच्छेद अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण प्रदान करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार किसी अपराध के लिए भूतलक्षी (घटना के बाद बने क़ानून द्वारा) दंड नहीं दिया जा सकता; एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दंड नहीं दिया जा सकता; और व्यक्ति को स्वयं अपने ख़िलाफ़ किसी अपराध में दोषसिद्ध किये जाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
दोहरा दंड (double jeopardy) अमेरिकी संविधान की अवधारणा है; भारतीय संविधान इसका प्रतिषेध करता है। यह सुनिश्चित करता है कि यदि किसी को किसी अपराध के लिए एक बार दंडित किया जा चुका है तो उसी अपराध के लिए उसे दुबारा न दण्डित किया जाय।
इसी तरह किसी को स्वयं उसे अपने द्वारा किये गए अपराध को साबित करने के लिए साक्ष्य (सबूत या गवाही) देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
पृष्ठभूमि[संपादित करें]
मूल पाठ[संपादित करें]
“ | (१) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिये सिद्ध-दोष नहीं ठहराया जायेगा, जब तक कि उसने अपराधारोपित क्रिया करने के समय किसी प्रवृत्त विधि श का अतिक्रमण न किया हो, और न वह उससे अधिक दंड का पात्र होगा जो उस अपराध के करने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन दिया जा सकता था।
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” |
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ (संपा॰) प्रसाद, राजेन्द्र (1957). भारत का संविधान. पृ॰ # – वाया विकिस्रोत. [स्कैन ]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
विकिस्रोत में इस लेख से संबंधित मूल पाठ उपलब्ध है: |