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मेंढक

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मेढक या मण्डूक
सामयिक शृंखला: ट्रायासिक – वर्तमान
लाल-अक्षी वृक्ष मेंढक (Litoria chloris)
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: प्राणी
संघ: रज्जुकी
वर्ग: उभयचर
गण: अनुरा
मेरम, 1820
विश्व में मेंढक का वितरण (काले रंग में)

मेंढक (तत्सम: मण्डूक) उभयचर वर्ग का जन्तु है जो जल तथा भूमि पर दोनों स्थानों रह सकता है। यह एक शीतरक्ती प्राणी है अर्थात् इसके शरीर का तापमान वातावरण के ताप के अनुसार घटता या बढ़ता रहता है। शीतकाल में यह ठंडक से बचने के लिए पोखर आदि की निचली सतह की मिट्टी लगभग दो फुट की गहराई तक खोदकर उसी में पड़ा रहता है। यहाँ तक कि कुछ खाता भी नहीं है। इस क्रिया को शीतनिष्क्रियता कहते हैं। इसी तरह की क्रिया ग्रीष्मकाल में होती है जिसे ग्रीष्म निष्क्रियता कहते हैं। भारत में पाई जाने वाली सामान्य जाति राना टिग्रिना है। उनमें अपने शत्रुओं से छिपने हेतु रंग परिवर्तन की क्षमता होती हैं, जिसे छद्मावरण कहा जाता है। इस रक्षात्मक रंग परिवर्तन क्रिया को अनुहरण कहते हैं।

मेंढक चतुष्पाद प्राणी होते हैं। पिछले दो पैर अगले पैरों से बड़े होतें हैं। जिसके कारण यह लम्बी उछाल लेता है। अगले पैरों में चार-चार तथा पिछले पैरों में पाँच-पाँच झिल्लीदार उँगलिया होतीं हैं, जो इसे तैरने में सहायता करती हैं। मेंढकों का आकार ९.८ मिलीमीटर से लेकर ३० सेण्टीमीटर तक होता है। नर साधारणतः मादा से आकार में छोटे होते हैं। मेंढकों की त्वचा में विषग्रन्थियाँ होतीं हैं, परन्तु ये शिकारी स्तनपायी, पक्षी तथा साँपों से इनकी सुरक्षा नहीं कर पाती हैं।

भेक या दादुर तथा मेंढक में कुछ अंतर है जैसे दादुर अधिकतर जमीन पर रहता है, इसकी त्वचा शुष्क एवं झुर्रीदार होती है जबकि मेंढक की त्वचा कोमल एवं चिकनी होती है। मेंढक का सिर तिकोना जबकि टोड का अर्द्ध-वृत्ताकार होता है। भेक के पिछले पैर की अंगुलियों के बीच झिल्ली भी नहीं मिलती है। परन्तु वैज्ञानिक वर्गीकरण की दृष्टि से दोनों बहुत हद तक समान जंतु हैं तथा उभयचर वर्ग के एनुरा गण के अन्तर्गत आते हैं। मेंढक प्रायः सभी जगहों पर पाए जाते हैं। इसकी ५००० से अधिक प्रजातियों की खोज हो चुकी है। वर्षा वनों में इनकी संख्या सर्वाधिक है। कुछ प्रजातियों की संख्या तेजी से कम हो रही है।

आकारिकी

मण्डूक की त्वचा श्लेष्मा से ढकी होने के कारण चिकनी तथा फिसलनी होती है। इसकी त्वचा सदैव आर्द्र रहती है। इसकी ऊपरी सतह धानी हरे रंग की होती है, जिसमें अनियमित धब्बे होते हैं, जबकि नीचे की सतह हल्की पीली होती है। यह कभी पानी नहीं पीता; बल्कि त्वचा द्वारा इसका अवशोषण करता है।

मण्डूक का शरीर शिर व धड़ में विभाजित रहता है। पुच्छगर्दन का अभाव होता हैं। मुख के ऊपर एक जोड़ी नासिका द्वार खुलते हैं। उभय नेत्र बाहर की ओर निकली व निमेषक झिल्ली से ढकी होती हैं ताकि जल के भीतर नेत्रों का सूरक्षा हो सके। नेत्रों के दोनों ओर कर्णपटह उपस्थित होते हैं, जो ध्वनि संकेतों को ग्रहण करने का कार्य करते हैं। अग्र व पश्चपाद चलने फिरने, टहलने व गड्ढा बनाने का काम करते हैं। अग्रपाद में चार अंगुलियाँ होती हैं; जबकि पश्चपाद में पाँच होती हैं। तथा पश्चपाद लंबे व मांसल होते हैं। पश्चपाद की झिल्लीयुक्त अंगुलि जल में तैरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें लैंगिक द्विरूपता देखी जाती है। नर मण्डूक में ध्वनि उत्पन्न करने वाले वाक् कोष के साथ अग्रपाद की पहली अंगुलि में मैथुनांग होते हैं। ये अंग मादा में नहीं मिलते हैं।

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