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उद्योतन सूरि

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आचार्य उद्योतनसूरि भारतीय वाङ्मय के बहुश्रुत विद्वान् थे । उनकी एकमात्र कृति कुवलयमालाकहा (कुवलयलमाला कथा) उनके पाण्डित्य एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा का पर्याप्त निष्कर्ष है । उन्होंने न केवल सिद्धान्त ग्रन्थों का गहन अध्ययन और मनन किया था, अपितु भारतीय साहित्य की परम्परा और विधाओं के भी ज्ञाता थे। अनेक प्राचीन कवियों की अमर कृतियों का अवगाहन करने के अतिरिक्त लौकिक कलाओं और विश्वासों के भी वे जानकार थे । अतः सिद्धान्त, साहित्य और लोक-संस्कृति के सुन्दर सामञ्जस्य का प्रतिफल है उनकी कृति कुवलयमालाकहा। कुडुंगद्वीप, जुगसमिला-दृष्टान्त, प्रियंकर एवं सुन्दरी की कथा, रण्युन्दुर आदि के दृष्टान्त धार्मिक वर्णनों में जान डाल देते हैं। धर्मकथा होते हुए भी कुवलयमाला की साहित्यिकता बाधित नहीं हुई है।

उद्योतनसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में 'कुवलयमालाकहा' की रचना विक्रम संवत् ८३५ के चैत्र वदी १४, ईस्वी संवत् ७७९ मार्च माह की २१ तारीख को १३००० श्लोक प्रमाण के रूप में पूर्ण की गई थी। लगभग १०० वर्ष पूर्व आचार्य जिनविजयमुनि की जानकारी में यह ग्रन्थ आया था। उन्होंने सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ, सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ग्रन्थांक ४६ के रूप में प्राकृत भाषा में सम्पादन कर प्रकाशित कराया ।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]