हम्मीर चौहान

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हम्मीर चौहान का किला

हम्मीर देव रणस्तम्भपुरा के अंतिम चौहान राजा थेे। उन्हें मुसलमान कालक्रमों और साहित्य में 'हमीर देव' के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने रणथंभोर पर १२८२ से १३०१ तक राज्य किया। वे रणथम्भोर के सबसे महान शासकों में सम्मिलित हैं। हम्मीर देव का कालजयी शासन, चौहान काल की अमर वीरगाथा माना जाता है।[1] हम्मीर देव चौहान को चौहान काल का 'कर्ण' भी कहा जाता है। पृथ्वीराज चौहान के बाद इनका ही नाम भारतीय इतिहास में अत्यन्त महत्व रखता है। राजस्थान के रणथम्भोर साम्राज्य का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतिभा सम्पन्न शासक हम्मीर देव को ही माना जाता है। इस शासक को चौहान वंश का उदित नक्षत्र कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।

हम्मीरदेव के महानायकत्व को लेकर अनेक कवियों ने काव्यग्रन्थ रचे हैं, जिनमें नयचन्द्र सूरि द्वारा रचित 'हम्मीर महाकाव्य', जोधराज द्वारा रचित हम्मीर रासो, सुधीर मौर्य कृत 'हम्मीर-हठ', और चन्द्रशेखर द्वारा रचित हम्मीर-हठ प्रमुख हैं।

परिचय[संपादित करें]

डॉ॰ हरविलास शारदा के अनुसार हम्मीर देव जैत्रसिंह का प्रथम पुत्र था और इनके दो भाई थे जिनके नाम सूरताना देवबीरमा देव थे। डॉक्टर दशरथ शर्मा के अनुसार हम्मीर देव जैत्रसिंह का तीसरा पुत्र था वहीं गोपीनाथ शर्मा के अनुसार सभी पुत्रों में योग्यतम होने के कारण जैत्रसिंह को हम्मीर देव अत्यंत प्रिय था। हम्मीर देव के पिता का नाम जैत्रसिंह चौहान एवं माता का नाम हीरा देवी था। यह महाराजा जैत्रसिंह चौहान के लाडले एवं वीर बेटे थे। हमीर एक महान् योद्धा था।उसके शासनकाल का अधिकांश समय युद्धो मे व्यतीत हुआ। अपने 18 वर्ष के शासनकाल में दिग्विजय और अश्वमघ यज्ञ का आयोजन किया। पुरोहित विश्वरूप ने उसे अश्वमेध यज्ञ करवाया था। नयनचंद सूरी ने हम्मीर की विजयो का क्रमबद्ध वर्णन किया है। अलाउद्दीन के 1301 के आक्रमण को भी उसने विफल कर दिया था किन्तु अंत मे गलत चिह्न देखकर क्षत्राणियोके जौहर कर लेने से वह वापस अलाउद्दीन की सेना पर टूट पङा और लङता मारा गया। ।[2]

राव हम्मीर देव चौहाण रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि॰सं॰ १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है। हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था। राव हम्मीर देव चौहाण रणथम्भौर “रणतभँवर के शासक थे। ये पृथ्वीराज चौहाण के वंशज थे। इनके पिता का नाम जैत्रसिंह था। ये इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। जब हम्मीर वि॰सं॰ १३३९ (ई.स. १२८२) में रणथम्भौर (रणतभँवर) के शासक बने तब रणथम्भौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारम्भ होता है।हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहाण वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे। इन्होने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

जलालुद्दीन खिलजी ने वि॰सं॰ १३४७ (ई.स. १२९०) में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। सबसे पहले उसने छाणगढ (झाँइन) पर आक्रमण किया। मुस्लिम सेना ने कड़े प्रतिरोध के बाद इस दुर्ग पर अधिकार किया। तत्पश्चात् मुस्लिम सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ी। उसने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया लेकिन हम्मीर देव के नेतृत्व में चौहान वीरों ने सुल्तान को इतनी हानि पहुँचाई, कि उसे विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा। छाणगढ़ पर भी चौहानों ने दुबारा अधिकार कर लिया। इस आक्रमण के दो वर्ष पश्चात् मुस्लिम सेना ने रणथम्भौर पर दुबारा आक्रमण किया, लेकिन वे इस बार भी पराजित होकर दिल्ली वापस आ गए। वि॰सं॰ १३५३ (ई.स. १२९६) में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना। वह सम्पूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाने की आकांक्षा रखता था। हम्मीर के नेतृत्व में रणथम्भौर के चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ़ बना लिया और राजस्थान के विस्तृत भूभाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली के निकट चौहानों की बढ़ती हुई शक्ति को नहीं देखना चाहता था, इसलिए संघर्ष होना अवश्यंभावी था।

ई.स. १२९९ में अलाउद्दीन की सेना ने गुजरात पर आक्रमण किया था। वहाँ से लूट का बहुत सा धन दिल्ली ला रहे थे। मार्ग में लूट के धन के बँटवारे को लेकर कुछ सेनानायकों ने विद्रोह कर दिया तथा वे विद्रोही सेनानायक राव हम्मीरदेव की शरण में रणथम्भौर चले गए। ये सेनानायक मीर मुहम्मद शाह और कामरू थे। सुल्तान अलाउद्दीन ने इन विद्रोहियों को सौंप देने की माँग राव हम्मीर से की, हम्मीर ने उसकी यह माँग ठुकरा दी। क्षत्रिय धर्म के सिद्धान्तों का पालन करते हुए राव हम्मीर ने, शरण में आए हुए सैनिकों को नहीं लौटाया। शरण में आए हुए की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझा। इस बात पर अलाउद्दीन क्रोधित होकर रणथम्भौर पर युद्ध के लिए तैयार हुआ।

अलाउद्दीन की सेना ने सर्वप्रथम छाणगढ़ पर आक्रमण किया। उनका यहाँ आसानी से अधिकार हो गया। छाणगढ़ पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया है, यह समाचार सुनकर हम्मीर ने रणथम्भौर से सेना भेजी। चौहान सेना ने मुस्लिम सैनिकों को परास्त कर दिया। मुस्लिम सेना पराजित होकर भाग गई, चौहानों ने उनका लूटा हुआ धन व अस्त्र-शस्त्र लूट लिए। वि॰सं॰ १३५८ (ई.स. १३०१) में अलाउद्दीन खिलजी ने दुबारा चौहानों पर आक्रमण किया। छाणगढ़ में दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में हम्मीर स्वयं युद्ध में नहीं गया था। वीर चौहानों ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन विशाल मुस्लिम सेना के सामने कब तक टिकते। अन्त में सुल्तान का छाणगढ़ पर अधिकार हो गया।

तत्पश्चात् मुस्लिम सेना रणथम्भौर की तरफ बढ़ने लगी। तुर्की सेनानायकों ने हमीर देव के पास सूचना भिजवायी, कि हमें हमारे विद्रोहियों को सौंप दो, जिनको आपने शरण दे रखी है। हमारी सेना वापिस दिल्ली लौट जाएगी। लेकिन हम्मीर अपने वचन पर दृढ़ थे। उसने शरणागतों को सौंपने अथवा अपने राज्य से निर्वासित करने से स्पष्ट मना कर दिया। तुर्की सेना ने रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। तुर्की सेना ने नुसरत खाँ और उलुग खाँ के नेतृत्व में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। दुर्ग बहुत ऊँचे पहाड़ पर होने के कारण शत्रु का वह पहुचना बहुत कठिन था। मुस्लिम सेना ने घेरा कडा करते हुए आक्रमण किया लेकिन दुर्ग रक्षक उन पर पत्थरों, बाणों की बौछार करते, जिससे उनकी सेना का काफी नुकसान होता था। मुस्लिम सेना का इस तरह घेरा बहुत दिनों तक चलता रहा। लेकिन उनका रणथम्भौर पर अधिकार नहीं हो सका।

अलाउद्दीन ने राव हम्मीर के पास दुबारा दूत भेजा की हमें विद्रोही सैनिकों को सौंप दो, हमारी सेना वापस दिल्ली लौट जाएगी। हम्मीर हठ पूर्वक अपने वचन पर दृढ था। बहुत दिनों तक मुस्लिम सेना का घेरा चलूता रहा और चौहान सेना मुकाबला करती रही। अलाउद्दीन को रणथम्भीर पर अधिकार करना मुश्किल लग रहा था। उसने छल-कपट का सहारा लिया। हम्मीर के पास संधि का प्रस्ताव भेजा जिसको पाकर हम्मीर ने अपने आदमी सुल्तान के पास भेजे। उन आदमियों में एक सुर्जन कोठ्यारी (रसद आदि की व्यवस्था करने वाला) व कुछ रोना नायक थे। अलाउद्दीन ने उनको लोभ लालच देकर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया। इनमें से गुप्त रूप से कुछ लोग सुल्तान की तरफ हो गए।

दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी। राजपूतों के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नहीं सके वे भाग छूटे भागते हुए मुसलमान सैनिको के झण्डे राजपूतों ने छीन लिए व वापस राजपूत सेना दुर्ग की ओर लौट पड़ी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानों के झण्डो को दुर्गे की ओर आते देखकर समझा की राजपूत हार गए अतः उन्होंने जोहर कर अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया। किले में प्रवेश करने पर जौहर की लपटों को देखकर हमीर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। उसने प्रायश्चित करने हेतु किले में स्थित शिव मन्दिर पर अपना मस्तक काट कर शंकर भगवान के शिवलिंग पर चढा दिया। अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो उसने लौट कर दुर्ग पर कब्जा कर लिया। हम्मीर अपने वचन से पीछे नहीं हटा और शरणार्थियों को नहीं लोटाया चाहे इसके लिए उसे अपने पुरे परिवार की बलि ही क्यों न देनी पड़ी। इसलिए कहा गया है,,,

सिंह सवन सत्पुरूष वचन, कदली फलत इक बार
तिरया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार
(भावार्थ : कई चीजें सिर्फ एक बार ही होती हैं जैसे सिंह का सन्तान जनन, सच्चे लोगों की बात, केले में फल आना, स्त्री को विवाह के समय तेल/उबटन लगना। इसी प्रकार हम्मीर देव का हठ है, वे जो ठानते हैं उस पर दुबारा विचार नहीं करते।)

हम्मीर देव का हठ उसकी निडरता का प्रतीक रहा है। वो एकमात्र चौहान शासक था जिसने स्वतंत्र शासन को अपना स्वाभिमान समझा। हम्मीर देव की यही स्वाभिमानता महाराणा प्रताप को दिल से भा गई और प्रताप ने मुगल शासक अकबर की जीवन पर्यन्त अधिनता स्वीकार नहीं की।

राज्यारोहण[संपादित करें]

डॉक्टर दशरथ ने माना है कि हम्मीर देव चौहान के पिता महाराजा जैत्रसिंह ने हम्मीर का राज्यारोहण सन् 1282 में अपने ही जीवनकाल में कर दिया था। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर ज्येष्ठ पुत्र नहीं था तथापि वह रविवार को माघ मास में विक्रम संवत 1339 को राजगद्दी पर बैठा था। वहीं प्रबंधकोष के अनुसार हम्मीर देव चौहान का राज्यारोहण विक्रम संवत् 1343 के करीब बताया गया है।

हम्मीर महाकाव्य एवं प्रबंधकोष दोनों महाकाव्यों की रचना हम्मीर देव के समकालीन थी, दशरथ शर्मा ने हम्मीर देव का राज्याभिषेक विक्रम संवत् 1339 से 1343 के बीच ही स्वीकारा है और उनके पिता जैत्रसिंह ने हम्मीर देव को वसीयत के रूप में रणथम्भौर साम्राज्य का विस्तृत साम्राज्य संभलाया था लेकिन हम्मीर देव चौहान महत्वाकांक्षी शासक इस साम्राज्य से संतुष्ट नहीं था। भारतवर्ष के ऐतिहासिक शासकों में हम्मीर देव चौहान को हठीराजा हठपति रणपति एवं रणप्रदेश का चौहान नाम से पहचान बनाई। महाराजा हम्मीर देव चौहान के प्रिय घोड़े का नाम बादल था वही हम्मीर देव चौहान की रानी का नाम रंगदेवी और इनकी पुत्री का नाम पद्मला था जो कि हम्मीर देव को अत्यंत प्रिय थी। हम्मीर देव शैव धर्म का अनुयायी एवं भगवान शिव का परम भक्त था।

हम्मीरकालीन इतिहास के स्रोत[संपादित करें]

  1. बलबन तथा गाध शिलालेख
  2. न्यायचन्द्र सूरी द्वारा रचित हम्मीर महाकाव्य
  3. जोधराज शारंगधर द्वारा रचित हम्मीर रासो
  4. चन्द्रशेखर वाजपेयी द्वारा रचित हम्मीर हठ प्रबंध महाकाव्य
  5. मुस्लिम लेखक अमीर खुशरों की कृतियाँ
  6. जियाउद्दीन बरनी के ऐतिहासिक ग्रंथ
  7. हम्मीर देव द्वारा रचित श्रृंगारहार
  8. सूरतादेव द्वारा रचित हम्मीर पद्य काव्य
  9. विद्या पति द्वारा रचित रूप परीक्षा
  10. भट्टखेमा द्वारा रचित हम्मीर चौहान री उपलब्धियाँ
  11. बीरमादेव द्वारा रचित रणघाटिनगर काव्य
  12. सूरजन हाडा के समकालीन का सूरजनचरित्र आदि
  13. सुधीर मौर्य का ऐतिहासिक उपन्यास 'हम्मीर हठ'[3] (राजमंगल प्रकाशन, 2020)

हम्मीर महाकाव्य[संपादित करें]

हम्मीर महाकाव्य के रचियता नयचन्द्र सूरी हैं। इस महाकाव्य में रणथम्भौर के महान शासक हम्मीर देव चौहान के साम्राज्य का विस्तार से वर्णन किया गया है। हम्मीर महाकाव्य भारतीय इतिहास की एक महान कृति है। नयचन्द्र सूरी ने इस महाकाव्य में जैत्रसिंह व उससे पहले वाले रणथम्भौर शासकों का भी सारांश रूप में वर्णित किया है। पद्य रूप में लिखा यह महाकाव्य रणथम्भौर साम्राज्य के विभिन्न पहलुओं की जानकारी का महत्वपूर्ण स्त्रौत है। यह महाकाव्य हम्मीर की वीरता के गान से ओतप्रोत है। इस महाकाव्य में बताया गया है कि मालवा (वर्तमान गुजरात) के राजा भोज को एवं गडमंडलगढ़ के राजा अर्जुन को पराजित करने वाला हम्मीर देव चौहान एक महान राजपूत था और सही भी है कि महान व्यक्तियों के बारे में ही महाकाव्य जैसे बड़े ग्रंथ लिखे जाते है। राजस्थान के दो महान शासक थे जिनके महाकाव्य लिखे गए और वो थे पृथ्वीराज चौहान और हम्मीर देव चौहान

हम्मीर रासो[संपादित करें]

इस महान ग्रंथ की रचना जोधराज ने की थी। इन्होंने नीवगढ़ वर्तमान नीमराणा अलवर के राजा चन्द्रभान चौहान के अनुरोध पर हम्मीर रासौ नामक प्रंबधकाव्य संवत 1875 में लिखा। रणथम्भौर के राजा हम्मीर देव चौहान के विजय अभियानों से चन्द्रभान काफी प्रभावित थे। इस प्रंबधकाव्य में रणथम्भौर के प्रसिद्ध शासक हम्मीर देव का चरित्र वीरगाथा काल की छप्पय पद्धति पर वर्णन किया गया है। इस में बताया गया है कि हम्मीर देव चौहान ने शरणागत की रक्षा के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया। राजा हम्मीर ने कई बार दिल्ली शासक जलालुद्दीन खिलजी को पराजित किया और अलाउद्दीन खिलजी जैसे शासक के दाँत खट्टे कर दिए। हम्मीर रासौ हम्मीर की वीरगाथाओं के साथ ओजस्वी भाषा में बहुत अच्छा महाकाव्य है। इस महाकाव्य में बताया गया है कि मुहम्मदशाह मंगोल दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी की बेगम से बेहद प्यार करता था और उसका धन लूटकर के वो वहां से भाग गया था, जिसे अलाउद्दीन खिलजी पकड़ना चाहता था। हम्मीर रासौ में अलाउद्दीन खिलजी की बेगम का नाम चिमना बताया गया है। संवत 1902 में चन्द्रशेखर वाजपेयी ने हम्मीर हठ ग्रंथ लिखा था। इसमें भी इस घटनाक्रम का जिक्र किया गया है। हम्मीर रासौ के अनुसार रणथम्भौर साम्राज्य उज्जैन से लेकर मथुरा तक एवं मालवा (गुजरात) से लेकर अर्बुदाचल तक हम्मीर देव बढ़ा दिया था। हम्मीर रासौ से ज्ञात होता है कि हम्मीर देव उज्जैन को जीतकर महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग में शिव की पूजा की थी एवं अजमेर को जीतकर पुष्कर में शाही स्नान किया था। हम्मीर रासौ के कुछ पद्य उद्यत है :-

[1]

कब हठ करे अलावदी, रणतभँवर गढ़ आहि।
कबै सेख सरनै रहै, बहुरयों महिम साहि।।
सूर सोच मन में करौ, पदवी लहौ न फेरि।
जो हठ छंडो राव तुम, उत न लजै अजमेरि।।
सरन राखि सेख न तजौ, तजौ सीस गढ़ देस।
रानी राव हम्मीर को, यह दीन्हौ उपदेस।।
[2]
राव धुँक गिरने लगत, तरू टूट और पाहर।
रण देसा रो केहरी, रणतभँवर रो नाहर।।
हठी बलि बल ना हट्यो, शरणागत को मान।
बादल पीठ लावण चढ़्यो, राव भृकुटि तान।।
गच्च गच्च भई खच्च खच्च, बजहिं राव तलवार।
खिलजी सैना उठत गिरै, सुण राव की ललकार।।

हम्मीर हठ प्रबंधकाव्य[संपादित करें]

हम्मीर हठ प्रंबधकाव्य के रचियता चन्द्रशेखर कवि थे। इनका जन्म संवत् 1855 में मुअज्जमाबाद जिला फतेहपुरहपुर]] मे हुआ था, इनके पिता मनीराम जी राव [भट] भी एक अच्छे कवि थे। चन्द्रशेखर कुछ दिनों तक दरभंगा और 6 वर्ष तक जोधपुर नरेश महाराज मानसिंह के यहाँ रहे और अंत में यह पटियाला नरेश कर्मसिंह के यहाँ गए और जीवन भर पटियाला में ही रहे। इनका देहांत संवत् 1932 में हुआ था। इनका हम्मीर हठ प्रंबधकाव्य हिन्दी के वीरगाथा काल की कालजयी अनमोल रचना मानी जाती है। हम्मीर हठ में चन्द्रशेखर ने श्रेष्ठ प्रणाली का अनुसरण करते हुए वास्तविकता को दर्शाया है, कवि ने हम्मीरशरणागतणागत के प्रति निष्ठावान होने का अच्छा खासा प्रभाव इस ग्रंथ डालाडाला है। कवि ने हम्मीर के लिए लिखा है कि महाकाव्य उनके लिखे जाते हैं जो महान होते है और तिरिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार जैसे वाक्य महान व्यक्तियों की शोभा बढ़ाते हैं। चन्द्रशेखर कवि द्वारा लिखित कुछ पद्य जो हम्मीर हठ प्रंबधकाव्य में अंकित है-
[1]
उदै भानु पच्छिम प्रतच्छ, दिन चंद प्रकासै।
उलटि गंग बरू बहै, काम रति प्रीति बिवासै।।
तजै गौरि अरधांग, अचल धारू आसन चलै।
अचल पवन बरू होय, मेरू मंदर गिरि हल्लै।।
सुर तरू सुखाय लौमस मरै, मीर संक सब परिहरौ।
मुख बचन वीर हम्मीर को, बोलि न यह कबहुँ टरौ।।
[2]
आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के,
गाज ते दराज कोप नजर तिहारी है।
जाके डर डिगत अडोल गढ़धारी डग,
मगत पहार औ डुलति महि सारी है।
रंक जैसो रहत ससंकित सुरेश भयो,
देस देसपति में अतंक अति भारी है।
भारी गढ़ धारी सदा जंग की तयारी,
धाक मानै ना तिहारी या हम्मीर हठ धारी है।
[3]
भागै मीरजादे पीरजादे औ अमीरजादे,
भागै खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागै गज बाजि रथ पथ न संभारै, परेै,
गोलन पै गोल सूर सहिम सकाय कै।
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि,
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै।
जैसे लगे जंहल में ग्रीष्म की आगि,
चलै भागि मृग महिष बराह बिललाय कै।
[4]
थोरी थोरी बैसवारी नवल किसौरी सबै,
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरती।
बसन बिभुषन बिराजत बिमल वर,
मदन मरोरनि तरिक तन तोरती।
प्यारै पातसाह के परम अनुराग रंगी,
चाय भरी चायल चपल दृग जोरती।
काम अबला सी कलाधार की कला सी,
चारू चंपक लता सी चपला सी चित चोरती।

हम्मीर देव के प्रमुख उद्देश्य[संपादित करें]

  1. चौहान साम्राज्य का विस्तार करके रणथम्भौर राज्य को सुदृढ़ बनाना
  2. मुगलो से हिन्दू धर्म की रक्षा करना
  3. साम्राज्य वादी महत्वाकांक्षा
  4. पृथ्वीराज चौहान सा साम्राज्य बनाना
  5. मुगल आक्रांताओं से देश की सुरक्षा करना

हम्मीर देव चौहान की प्रमुख उपलब्धियाँ[संपादित करें]

हम्मीर महाकाव्य से ज्ञात होता है कि हम्मीर देव ने धार के परमार वंश के शासक महाराजा भोज द्वितीय को पराजित किया था इस विजय को डॉक्टर दशरथ शर्मा ने 1282 ईस्वी के लगभग माना है। दशरथ शर्मा के अनुसार हम्मीर चौहान ने मांडलगढ़ उदयपुर के राजा जयसिम्हा को पराजित करके बंदी बनाकर रणथम्भौर में रखा था, बाद हम्मीर देव ने उसे इस बात पर छोड़ दिया कि वो रणथम्भौर साम्राज्य को हमेशा कर देता रहेगा और हर संभव रणथम्भौर साम्राज्य के हित में ही कार्य करेगा। हम्मीर देव ने वर्तमान माउंट आबू के राजा प्रतापसिंह को परास्त करने के बाद मार दिया था। हम्मीर देव की प्रमुख विजयों में शामिल है :-

इस प्रकार डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा ने हम्मीर देव चौहान को सौलह नृप मर्दानी एवं डॉ॰ दशरथ शर्मा ने सौलह विजय का कर्ण कहकर पुकारा है। हम्मीर देव ने जहाँ पर आक्रमण किया वो ही साम्राज्य रणथम्भौर साम्राज्य का हिस्सा बन गया और शायद इसी कारण हम्मीर देव चौहान को भारत का हठी सम्राट कहाँ जाने लगा।

हम्मीर षष्ठा एकादशम् विजया: हठी रणप्रदेश: वसै,'चौहान: मुकटा: बिरचिता सूरी सरणागतम् रणदेसा रमै:

हम्मीर देव चौहान का तिथिवार घटनाक्रम[संपादित करें]

ईस्वी घटनाक्रम
1282 हम्मीर देव चौहान का राज्यारोहण
1286 हम्मीर द्वारा गढ़मंडल पर विजय एवं बादल महल का निर्माण
1288 हम्मीर चौहान द्वारा रणथम्भौर साम्राज्य का विस्तार
1288 परमार शासक भीम द्वितीय पर हम्मीर की विजय एवं उज्जैन पर अधिकार, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का पुनर्निर्माण और क्षिप्रा नदी में शिव की महापूजा करना
1289 टोंक करौली अर्थात त्रिभुवन गोपालपुर पर अधिकार
1290 जलालुद्दीन खिलजी पर प्रथम विजय
1291 जलालुद्दीन खिलजी पर हम्मीर देव की द्वितीय विजय
1292 जलालुद्दीन खिलजी पर हम्मीर की तीसरी विजय, भीमसर शासक अर्जुन पर हम्मीर की विजय एवं उदयपुर मांडलगढ़ पर हम्मीर की विजय
1293 चितौड़गढ़ प्रतापगढ़ पर हम्मीर की विजय एवं मालवा काठल प्रदेश के नरेशों पर हम्मीर की विजय
1294 रणथम्भौर दुर्ग में हम्मीरदेव द्वारा रूद्राभिषेक करवाना
1295 काठियावाड़ शासकों पर हम्मीर की विजय
1296 पुष्कर अजमेर पर विजय एवं पुष्कर झील में हम्मीर द्वारा शाही स्नान करना और ब्रह्माजी की उपासना करना, चम्पानगरी पर हम्मीर की विजय, ग्वालियर श्योपुर एवं झाइन पर हम्मीर की विजय, कोटा बूँदी तारागढ़ एवं सम्पूर्ण हाडौती क्षेत्र पर हम्मीर की विजय और विराटनगर अर्थात वर्तमान जयपुर पर हम्मीर देव की विजय
1297 भरतपुर पर अधिकार
1298 मथुरा पर हम्मीर देव का आक्रमण (युद्ध)
1299 दिल्ली सल्तनत के आसपास हम्मीर देव द्वारा लूटपाट करवाना
1299-1300 उलुगुखां एवं नुसरतखां पर हम्मीर देव का आक्रमण
1299-1300 अलाउद्दीन खिलजी व हम्मीर देव की सेना में युद्ध और मुगगलों की पराजय
1300 रणथम्भौर दुर्ग पर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 9 माह 16 दिन का विश्व का सबसे बड़ा घेरा डालना
1300 रणथम्भौर दुर्ग की प्राकृतिक खाइयों में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा बारूद भरवाना
17 दिसम्बर 1300 हम्मीर देव चौहान द्वारा महाकोटियजन यज्ञ का प्रारम्भ और देश विदेश के विद्वानों द्वारा गुप्त रास्तों से रणथम्भौर यज्ञ में आना
17 फरवरी 1301 महाकोटियजन यज्ञ की पूर्णाहुति
18 फरवरी 1301 हम्मीर देव चौहान व अलाउद्दीन खिलजी में रणथम्भौर का भयानक युद्ध प्रारम्भ
02 जुलाई 1301 रणथम्भौर युद्ध में हम्मीर देव के बड़े भाई बीरमादेव को वीरगति प्राप्त हुई।
11 जुलाई 1301 महाराजा हम्मीर देव चौहान द्वारा मुगलों पर चढ़ाई करना, हम्मीर देव के सेनानायकों अर्थात रणमल एवं रतिपाल द्वारा रणथम्भौर दुर्ग के गुप्त रास्तों से मुगलों को अवगत करवाना, हम्मीर देव चौहान द्वारा भगवान शिव को गर्दन काटकर चढ़ाना, हम्मीर की राणी रंगदेवी द्वारा सैकड़ों दासियों के साथ आग में कुदकर शाका करना।

विद्वानों की दृष्टि में हम्मीर देव चौहान[संपादित करें]

 • हम्मीर महाराजा ब्राह्मणों का आदर करता था तथा भारतीय दर्शन, विद्यालयों तथा जैन संस्थाओं का संरक्षक एवं साहित्यों का महान प्रेमी था।

सिंह सवन सत्पुरूष वचन, कदली फलत इक बार
तिरया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार - न्यायचन्द्र सूरी

 • महाराजा हम्मीर देव चौहान भारतीय राजपूताना के उन साहसी सपूतो में से था जो अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता को मुस्लिम आक्रांताओं से बचाने में मर मिटना अपना कर्तव्य समझता था और चौहान कुल की परम्परा भी। - डॉ॰ किशोरी लाल

 • महाराजा हम्मीर ने चौहानों के डूबे हुए सूर्य को रणथम्भौर में खूब चमकीला बना दिया था। - इतिहासकार नयन भट्ट

 • चौहानों में ऐसा शासक हम्मीर देव चौहान ही था जिसने महाकोटियजन यज्ञ का महान आयोजन कर देश विदेश से महान महान राजाओं व विद्वानों को आमंत्रित किया एवं अपने हठ के कारण इस शासक को भारतीय इतिहास में हठी महाराजा के नाम से अंकित किया गया। - डॉ॰ गोपीनाथ शर्मा

 • हम्मीर देव के बराबर विपदाओं का सामना करना हर किसी के वश में नहीं था, लेकिन इतनी विकट परिस्थितियों में भी वो अपनी धैर्यता, वीरता के कारण भारतीय उपमहाद्वीप का सिंह बन बैठा। - डॉ॰ दशरथ शर्मा

 • सिंह का शासन खत्म हो गया, इन रण की घाटियों में आज विश्वासघात के कारण अंतत: कुफ्र का गढ़ इस्लाम का सदन हो गया। - अमीर खुसरो

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Jadunath Sarkar 1960, पृ॰ 32.
  2. Empty citation (मदद)
  3. "Hammir Hath | Rajmangal Publishers | Hindi Book Publishers in Amroha Auraiya Mau". Rajmangal Publishers (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2023-01-03.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

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