सन्त चरणदास

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चरणदास की प्रतिमा (चरणदास मंदिर, पुरानी दिल्ली)

सन्त चरणदास (१७०६ - १७८५) भारत के योगाचार्यों की शृंखला में सबसे अर्वाचीन योगी के रूप में जाने जाते है। आपने 'चरणदासी सम्प्रदाय' की स्थापना की । इन्होंने समन्वयात्मक दृष्टि रखते हुए योगसाधना के साथ भक्ति को विशेष महत्व दिया।

परिचय[संपादित करें]

सन्त चरणदास का जन्म गांव देहरा, जिला अलवर, राजस्थान में च्यवनगौत्रीय भृगुवंशी ढूसर परिवार में विक्रमी संवत् 1760 अर्थात् 1703 ईस्वी में हुआ । उनके पिताजी का नाम श्री मुरलीधर दास और माताजी का नाम कुंजो देवी था । हरियाणा के गांव ढोसी से निकलकर जो भी परिवार दूसरे गांवों में बसे उनको ढूसर बोला गया जिनमें ब्राह्मणों के साथ अन्य जातियों के परिवार भी ढूसर ही कहलाते हैं । उनसे आठ पीढ़ी पहले उनके पूर्वज श्री शोभनदास जी की भक्ति से प्रसन्न होकर श्री युगल सरकार जी ने आठ पीढ़ी उपरांत उनके परिवार में चरणदास जी के रूप में जन्म का वरदान दिया था । अतः सन्त चरणादास जी को भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है ।

सन्त चरणदास के बचपन का नाम रणजीत था । बालक रणजीत को पांच वर्ष की अल्पायु में ही गांव के बाहर नदी के किनारे शुकदेव मुनि ने दर्शन दिये थे । अल्पायु में ही वे तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े और शुकताल में श्रीगंगाजी के तट पर शुकदेव मुनि ने पुनः दर्शन देकर गुरुदीक्षा प्रदान की और नाम रखा श्री श्याम चरणदास। उसके बाद वे पुरानी दिल्ली में आकर रहने लगे और 14 वर्ष तक भक्ति और तप किया । फिर वे श्रीवृन्दावन में चले गये जहां श्रीराधा-कृष्ण युगल सरकार ने उन्हें दर्शन दिये और देश में भक्ति का प्रचार करने को कहा जो कि उनके अवतार का मुख्य उद्देश्य था।

सन्त चरणदास पुनः दिल्ली आकर रहने लगे और अपनी भक्ति और तप से मानवमात्र के दुखों को दूर करने लगे । उनकी ख्याति सुनकर दिल्ली के तत्कालीन बादशाह मुहम्मदाशाह उनके पास आने लगे और उनका शिष्यत्व ग्रहण किया । सन्त चरणदास ने छः महीने पहले ही ईरान से नादिरशाह के दिल्ली पर आक्रमण की भविष्यवाणी मुहम्मदशाह को लिखित रुप में दी थी । नादिरशाह का भी दिल्ली लूटने के दौरान सन्त जी से आमना-सामना हुआ । सन्तजी के तेज के सामने नादिरशाह नतमस्तक हो गया और उनके कहने पर दिल्ली छोड़कर ईरान को लौट गया ।

सन्त चरणदास जी कृष्ण-भक्ति की सशक्त डोर लिए जीवन के लक्ष्य साधन हेतु अष्टांग योग की साधना का प्रचार करने लगे । 79 वर्ष की अवस्था में सन् 1739 विक्रमी अथवा 1782 ई0 में चरणदास जी समाधिस्थ हुए। इनकी समाधि दिल्ली में स्थित है। जामा मस्जिद के पास इनका अखाड़ा इनके बताये अनुशासनों के अनुसार सक्रिय है। हजारों योग अनुयायी आज भी इनके बताये मार्ग पर साधनाशील हैं । उनके वैष्णव मत के शुकसम्प्रदाय की सौ से अधिक गद्दियां पूरे भारतवर्ष में स्थापित हैं ।

कृतियाँ[संपादित करें]

योगी चरणदास जी ने अपने साधना परक व्यावहारिक अनुभवों के आधार पर लोककल्याण हेतु अनेक ग्रन्थों की रचना की जिसमें से 17 लघु ग्रंथ प्राप्य हैं। इन ग्रंथों में हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग एवं लययोग अर्थात् योगचातुष्ट्य की सभी साधनाओं का सार रूप समीक्षात्मक तौर पर समाहित किया गया है। इन सभी 17 रचनाओं में से कुछ हैं-

  • भक्तिसागर
  • अष्टांगयोग
  • षट्कर्म हठयोगवर्णन

अष्टांगयोग तथा षट्कर्म हठयोगवर्णन में प्रश्नोत्तर शैली में हैं। अष्टांगयोग में 153 दोहा और अष्टपदी छन्द में गुरु-शिष्य संवाद दिया गया है। इसी प्रकार षट्कर्म हठयोग ग्रंथ भी कुल 41 दोहा और अष्टपदी छन्द के रूप में गुरू शिष्य संवाद शैली में प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ् में चरणदास जी की साधनानुभूति साधकों के लिए ग्रंथ को महत्व को स्वमेव बढ़ देती है।

अष्टांगयोग ग्रंथ की विषयवस्तु[संपादित करें]

अष्टांग योग ग्रंथ शिष्य की जिज्ञासाओं का समाधान गुरूवचनों द्वारा की जाने वाली संवाद शैली मे प्रस्तुत किया गया है। शिष्य का प्रश्न शुरू होता है कि मैं योग साधना में पूर्णतः (निपट) आज्ञानी हूँ, कृपया मुझे योग के आठ अंगों के बारे में समझाइये तथा उनको साधने की (अभ्यास करने की) विधि बतलाइये। यह भी स्पष्ट कीजिये की इसे 'अष्टांग योग' क्यों कहा जाता है। गुरू वंदना के बाद शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में चरणदास जी गुरूवचन के रूप में अष्टांग योग तथा उनके अलग-अलग अंगों की साधना विधि को बतलाने का आश्वासन इस आधार पर देते है कि पहले साधक को इन्हें समझने के लिए संयम का पालन करना होता है जिससे योग के अभ्यास में बाधा नहीं होती है।

यहाँ 'गुरुवचन' से यह भी ध्वनित होता है कि योग 'समझने का विषय' नही नहीं है। यह अभ्यास के सोपान हैं तथा तथा 'होने का विषय' है। अर्थात् योग को समझ कर योगी नहीं बना जा सकता, योग करके (साधना द्वारा) ही योगी हुआ जा सकता है। योग क्रियापरक धातु है।

संयम की साधना का चरणदास द्वारा दिया गया यह सर्वथा नवीन प्रस्तुतीकरण है जो उनकी व्यावहारिक मौलिकता का अनूठा उदाहरण है। यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि पूर्व योग ग्रंथों में योग की साधना का प्रारंम्भ यम से शुरू होता है जबकि चरणदास जी के समय में सामाजिक सांस्कृतिक परिवर्तनों के कारण योग साधना के क्रम में संयम से शुरूआत को व्यावहारिक माना गया है। क्योकि इनके समय तक खान-पान रहन-सहन आदि में अनेक गिरावटों का और अनेक प्रदूषण शुरू हो चुके थे। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्त्ति अनेकों सामाजिक राजनैतिक परिवर्तनों के कारण दैनिक जीवनचर्या के मूल्यों को भुला बैठे थे। जो भी हो चरणदास जी द्वारा संयम की प्रतिपदित आवश्यकता योग साधकों हेतु आज अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्थान पा चुकी है।

शिष्य प्रश्न और गुरू के वचन (उत्तर) के रूप में चरणदास जी के इस अष्टांग योग ग्रंथ के वर्ण्य विषय निम्नांकित है-

अष्टांगयोग :- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) सामाधि।
षट्कर्म :- 1) नेति (सूत्रनेति) 2) धौति 3) वस्ति 4) कुंजल (गजकरणी) 5) नोलि 6) त्राटक ।

अष्टांगयोग ग्रन्थ का आरम्भिक भाग नीचे दिया गया है-

शिष्यवचन

व्यासपुत्र धनि धनि तुम्हीं, धनि धनि यह अस्थान। मम आशा पूरी करी, धनि धनि वह भगवान ॥ 1
तुम दर्शन दुरलभ महा, भये जु मोको आज। चरण लगो आपा दियो, भये जु पूरण काज॥ 2
चरणदास अपनो कियो, चरणन लियो लगाय। शिरकरधरिसबकछुदियो, भक्ति दई समुझाय॥ 3
बालपने दरशन दिये, तबहीं सब कुछ दीन। बीज जु बोया भक्तिका, अब भया वृक्ष नवीन॥ 4
दिन दिन बढ़ता जायगा, तुम किरपा के नीर। जब लगमाली ना मिला, तबलग हुता अधीर॥ 5
अरू समुझाये योगही, बहु भांति बहु अंग। उरधरेता ही कही, जीतन बिद अनंग॥ 6
अरू आसन सिखलाइया, तिनकी सारी विद्धि॥ तुम्हरी कृपा सो होहिंगे, सबहीसाधन सिद्धि॥ 7
इक अभिलाषा और है, कहि न सकूं सकुचाय। हिये उठै मुख आयकरि, फिरि उलटी ही जाय॥ 8

गुरूवचन

सतगुरू से नहिं सकुचिये, एहो चरणहि दास। जो अभिलाषा मन विषे, खोलि कहौ अब तास॥ 9

शिष्यवचन

सतगुरू तुम आज्ञा दई, कहूँ आपनी बात। योगअष्टांग बुझाइये, जाते हियो सिरात॥ 10
मोहि योग बतलाइये, जोहै वह अष्टांग। रहनीगहनी विधिसहित, जाके आठो आंग॥ 11
मत मारग देखे घने,हृां सियरे भये प्रान। जो कुछ चाहौ तुम करौ, मैं हौं निपट अयान॥ 12

गुरूवचन

योग अष्टांग बुझाइहैं, भिन्न सब अंग। पहिले संयम सीखिये, जाते होय न भंग॥ 13

शिष्यवचन

संयम काको कहत ह हैं, कहौ गुरू शुकदेव। सो सबही समुझाइये, ताको पावै भेव॥ 14

गुरूवचन

प्रथम सूक्ष्म भोजन खावै। क्षुधा मिटैं नहि आलस आवै॥
थोड़ासा जल पीवन लीजै। सूक्ष्म बोलै वाद न कीजै॥
बहुत नींद भर सोवै नहीं। दूजा पुरूष न राखै पाहीं॥
खट्टा चरपरा खार न खावै। बीरज क्षींण होन नहीं पावै॥ 15
करै न काहू बैरी मीता। जगवस्तु की रखे न चीता॥
निश्चल हवे मनको ठहरावै। इन्द्रिन के रस सब बिसरावै॥
तिरया तेल नाहिं देह छुवावै। अष्ट सुगन्ध अंग नहिं लावै॥
पुरूषन की राखै नहि आसा। गुरूका रहै चरणही दासा॥ 16
काम क्रोध मद लोभ अरू राखै ना अभिमान।
रहै दीनताई लिये, लगै न माया बान॥ 17

सन्त चरणदास की वाणी निम्नलिखित 17 ग्रन्थों में विस्तृत है जिनका प्रकाशन श्री खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन, मुम्बई ने भक्तिसागरादि 17 ग्रन्थ के नाम से प्रकाशित किया है ।

1. ब्रजचरित्र 2. अमरलोक अखण्डधाम वर्णन 3. अष्टाङ्गयोग 4. षट्कर्म हठयोग वर्णन 5. योगसन्देश सागर 6. ज्ञानस्वरोदय 7. हंसोपनिषद 8. धर्मजहाज 9. सर्वोपनिषद 10. तत्वयोगोपनिषद 11. योगशिखोपनिषद 12. तेजबिन्दु उपनिषद 13. भक्ति पदार्थ 14. मनविकृत करण गुटकासार 15. श्रीब्रह्मज्ञानसार 16. शब्द वर्णन 17. भक्तिसागर वर्णन.

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]