संसदीय प्रणाली

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संसदीय प्रणाली (Saṁsadīya Praṇālī ) लोकतान्त्रिक शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका अपनी लोकतान्त्रिक वैधता विधायिकता (संसद) से प्राप्त करती है तथा विधायिकता के प्रति उत्तरदायी होती है। इस प्रकार संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका परस्पर सम्बन्धित (जुड़े हुए) होते हैं। इस प्रणाली में राज्य का मुखिया तथा सरकार का मुखिया अलग-अलग व्यक्ति होते हैं। कार्यपालिका ही प्रमुख शासक होता है | भारत में संसदीय शासन प्रणाली है। इसके विपरीत अध्यक्षीय प्रणाली (presidential system) में प्रायः राज्य का अध्यक्ष सरकार (कार्यपालिका) का भी अध्यक्ष होता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि अध्यक्षीय प्रणाली में कार्यपालिका अपनी लोकतान्त्रिक वैधता विधायिका से नहीं प्राप्त करती। इस प्रणाली में राष्ट्रपति शासक होता है|

संसदात्मक शासन प्रणाली (डॉ. धीरज बाकोलिया, प्रोफ़ेसर-राजनीति विज्ञान, राज. लोहिया महाविद्यालय, चूरू,राजस्थान, भारत)

Ø   शासन के वर्गीकरण का आधार कार्यपालिका और विधायिका (व्यवस्थापिका) का पारस्परिक सम्बन्ध है, यदि कार्यपालिका विधायिका या संसद के प्रति उतरदायी है तो वह संसदीय सरकार है, इसके विपरित अध्यक्षात्मक प्रणाली में ये दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र रहती है

Ø  अर्थ एवं परिभाषा-

Ø   इस शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उतरदायी होती है, इसमें व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है, इसे उतरदायी अथवा मंत्रिमण्डलात्मक सरकार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें मंत्रिमण्डल के पास सरकार की वास्तविक शक्तियां होती है और वह संसद के अधीन होता है, राज्य का अध्यक्ष केवल नाममात्र या दिखावे का अध्यक्ष होता है

Ø   गेटेल के अनुसार- “संसदात्मक सरकार उसे कहते है जिसमें प्रधानमन्त्री और मंत्रिपरिषद से निर्मित वास्तविक कार्यकारिणी अपने सभी कार्यों के लिए क़ानूनी रूप से व्यवस्थापक मण्डल के प्रति उतरदायी होती है “

Ø  संसदात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएं-

Ø  1. राज्य का मुखिया नाममात्र का प्रमुख-

Ø   इसकी मुख्य विशेषता यही है कि संवैधानिक दृष्टि से राज्य के मुखिया के पास बहुत सारी शक्तियां होती है, परन्तु व्यवहार में वह उनका प्रयोग नहीं करता, व्यवहार में मंत्रिपरिषद इस शक्ति का प्रयोग करती है

Ø  2. नाममात्र और वास्तविक कार्यपालिका का भेद-

Ø   इस प्रणाली में कार्यपालिका के रूप में नाममात्र तथा वास्तविक का भेद किया जाता है, राज्य का प्रधान नाममात्र की तथा मंत्रिपरिषद वास्तविक कार्यपालिका होती है, इंग्लैण्ड, भारत, जापान आदि देशों में ऐसा ही है

Ø  3. व्यवस्थापिका व कार्यपालिका में घनिष्ठ सम्बन्ध-

Ø   संसदीय प्रणाली में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका एक-दूसरे से पृथक न होकर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है, कार्यपालिका की नियुक्ति व्यवस्थापिका में से की जाती है और कार्यपालिका अपने कार्यों और नीतियों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उतरदायी होती है

Ø  4. कार्यकाल की अनिश्चितता-

Ø   इस शासन व्यवस्था में मंत्रिपरिषद का कार्यकाल निश्चित नहीं होता, मंत्रिपरिषद तभी तक पद पर रहती है जब तक उसे निम्न सदन का विश्वास प्राप्त हो

Ø  5. सामूहिक उतरदायित्व-

Ø   इस शासन में वास्तविक कार्यपालिका का निर्माण करने वाले मंत्री सामूहिक रूप से व्यवस्थापिका के प्रति उतरदायी होते है, संसदीय शासन का नियम है- “ सब एक के लिए व एक सब के लिए “

Ø  6. प्रधानमन्त्री का नेतृत्व-

Ø   संसदीय शासन में प्रधानमन्त्री मंत्रिमण्डल का नेता होता है, वह मंत्रिमण्डल रूपी मेहराब की आधारशिला है, संसद के निम्न सदन में बहुमत दल का नेता होने के कारण वह सदन का भी नेता होता है

Ø   प्रो. लास्की के अनुसार- “ मंत्रिमण्डल के निर्माण, जीवन और मरण में वह केन्द्रीय स्थिति रखता है “

Ø  7. राजनीतिक सजातीयता-

Ø   इसका अर्थ है कि सभी मंत्री मंत्रिमण्डल में एक टीम की भान्ति कार्य करते है और जनता के सामने अपने मतभेद प्रकट नहीं करते, मंत्री प्रायः एक ही दल से सम्बन्धित होते है, परन्तु यदि संयुक्त सरकार हो तो एक से भी अधिक दलों से सम्बद्ध हो सकते है, इस परिस्थिति में वे निश्चित नीति व कार्यक्रम को तय करके कार्य करते है

Ø  8. गोपनीयता-

Ø   जब मंत्री अपना पद सम्भालते है, तो उन्हें संविधान के प्रति वफादार होने और सरकार के रहस्यों को गुप्त रखने की शपथ लेनी पड़ती है

Ø  9. विधानमण्डल का विघटन-

Ø   संसदीय सरकार में कभी-कभी किसी मसले पर कार्यपालिका और विधानमण्डल में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है, इस स्थिति में मुख्य कार्यपालिका को विधानमण्डल विघटन का अधिकार होता है ताकि वह उस समय नए चुनाव करवाकर मतदाताओं का निर्णय प्राप्त कर सके

Ø  10. व्यक्तिगत जिम्मेदारी-

Ø   जहां मंत्रियों की संसद के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी होती है, वहीँ प्रत्येक मंत्री अपने विभाग के कार्यों के लिए स्वयं भी जिम्मेदार होता है, संसद के सदस्य उससे प्रश्न पूछ सकते है और उसके विभाग की आलोचना भी कर सकते है

Ø  संसदात्मक शासन के गुण-

Ø  1. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का एकीकरण-

Ø   इसका सबसे बड़ा गुण यही है कि इसमें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का एकीकरण कर दिया जाता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें सामंजस्य और सहयोग रहता है, इससे शासन में सुगमता रहती है

Ø  2. लचीलापन-

Ø   यह प्रणाली लचीली होती है, इसमें परिस्थितियों के अनुसार सरकार को परिवर्तित किया जा सकता है, ऐसा सम्भव है कि शान्तिकाल में जो सरकार कुशलतापूर्वक देश का संचालन करती हो, युद्धकाल में न कर सके, ऐसी अवस्था में समयानुकूल सरकार या उसके नेतृत्व में परिवर्तन सम्भव है

Ø  3. उतरदायी शासन-

Ø   इस व्यवस्था में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उतरदायी होती है, इसमें अयोग्य कार्यपालिका को एक निश्चित अवधि तक सहन करना आवश्यक नहीं होता, यदि कार्यपालिका संसद का विश्वास खो देती है तो उसे पदमुक्त किया जा सकता है

Ø  4. राजनीतिक चेतना-

Ø   संसदीय शासन में जनता राजनीतिक दृष्टि से जागृत होती है, उसे राजनीतिक शिक्षा मिलती है, विभिन्न राजनीतिक दल विरोधी विचारधाराओं को जनता के सम्मुख रखते है, संसद में वाद-विवाद होता है तथा विरोधी विचार व्यक्त किए जाते है, इससे जनता में राजनीतिक चेतना आती है

Ø  5. विरोधी दलों का महत्व-

Ø   विरोधी दल न केवल शासन पर अंकुश रखते है बल्कि किसी भी समय शासन बदलने के लिए भी तैयार रहते है, शक्तिशाली विरोधी दल के कारण सरकार जनता के प्रति अपने उतरदायित्वों का निर्वाह करने हेतु सदैव सजग रहती है तथा निरंकुश बनने का दुस्साहस नहीं कर पाती

Ø  6. राष्ट्राध्यक्ष का निष्पक्ष परामर्श-

Ø   इस प्रणाली में राष्ट्राध्यक्ष राजा या राष्ट्रपति का किसी भी राजनीतिक दल से सम्बन्ध नहीं होता, वह निष्पक्ष एवं तटस्थ परामर्शदाता की भान्ति होता है, वह शासन को संकट के समय उचित परामर्श देता है और यदि शासन कोई गलत कार्य करने लगे तो वह उसे चेतावनी भी देता है

Ø  7. शासन निरंकुश नहीं हो पाता-

Ø   इस प्रणाली में कार्यपालिका के ऊपर व्यवस्थापिका का नियंत्रण बना रहता है, इस नियंत्रण का उपयोग व्यवस्थापिका भिन्न-भिन्न तरीकों से करती है, जैसे प्रश्न पूछना, निन्दा प्रस्ताव, कार्य स्थगन प्रस्ताव, कटौती प्रस्ताव, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव और अन्त में अविश्वास प्रस्ताव द्वारा सरकार को हटा सकती है

Ø  8. लोकमत का आदर-

Ø   इस व्यवस्था में मंत्री संसद के सदस्य होते है और संसद सदस्य जनता के प्रतिनिधि होते है, अतः स्वाभाविक रूप से वे लोकमत का आदर करते है

Ø  संसदात्मक शासन के दोष-

Ø  1. अस्थिर शासन-

Ø   संसदात्मक शासन प्रणाली में सरकार को स्थिर बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सतारूढ़ दल के पीछे संसद में पूर्ण बहुमत हो, यदि ऐसा नहीं है, तो शासन की स्थिति अस्थिर बनी रहती है, कभी भी मंत्रिमण्डल का तख्ता उलट सकता है, अकेले बिहार में तीन वर्ष में सात मंत्रिमण्डल बने

Ø  2. तानाशाही का भय-

Ø   संसदीय शासन में बहुमत दल का मंत्रिमण्डल होता है, पूर्ण बहुमत होने से सरकार मनमानी कर सकती है, प्रधानमन्त्री विशेष परिस्थितियों में निम्न सदन को भंग कर सकता है

Ø  3. दुर्बल शासन-

Ø   इस व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति पर शासन की जिम्मेदारी नहीं होती, प्रधानमन्त्री अन्य मंत्रियों का नेता मात्र होता है, उसे विभिन्न प्रकार के दबावों में काम करना पड़ता है, अतः शिघ्र एवं प्रभावशाली निर्णय नहीं लिए जा सकते

Ø  4. शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के प्रतिकूल-

Ø   इस प्रणाली में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की शक्तियों का पूर्ण रूप से एकीकरण हो जाता है, इससे सामान्य जनता की स्वतन्त्रता के लिए संकट उत्पन्न हो सकता है, ऐसी व्यवस्था स्वेच्छाचारी बन सकती है

Ø  5. संकटकाल के लिए अनुपयुक्त-

Ø   संकटकाल में तुरंत निर्णय लेने की आवश्यकता होती है परन्तु संसदीय शासन मंत्रिमण्डल की राय जानने और सर्वसम्मती पैदा करने में बहुत समय बर्बाद कर सकता है, इस प्रकार विलम्ब होने से राष्ट्र को बहुत हानि हो सकती है

Ø  6. नौकरशाही का प्रभाव-

Ø   मंत्रिमण्डल में मंत्री अपनी प्रशासनिक योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक प्रभाव को देखकर नियुक्त किए जाते है, मंत्रियों के पास कई बार ऐसे विभाग आ जाते है जिनके बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता, मंत्री अपने काम में विशेषज्ञ नहीं होते, इसलिए सरकारी कामकाज के लिए वे नौकरशाही पर निर्भर हो जाते है

Ø  7. अनाड़ियों का शासन-

Ø   इसमें मंत्री बनने के लिए केवल व्यवस्थापिका का सदस्य होना आवश्यक होता है, योग्य, विद्वान और दक्ष व्यक्ति राजनीति के झमेले में नहीं पड़ना चाहते, इसलिए केवल सामान्य स्तर के व्यक्ति ही व्यवस्थापिका के सदस्य बनते है

Ø  संसदीय शासन की सफलता की शर्तें-

Ø  1. द्विदलीय व्यवस्था-

Ø   बहुदलीय व्यवस्था के बजाय द्विदलीय व्यवस्था आवश्यक है ताकि सरकार के निर्माण में आसानी हो, यदि ऐसा न हो तो कम से कम प्रतियोगी दल व्यवस्था होनी चाहिए अर्थात चुनाव में दलों का मुकाबला बराबरी का हो

Ø  2. सुदृढ़ प्रतिपक्ष-

Ø   एक सशक्त विरोधी दल संसदीय लोकतंत्र में अनिवार्य है, जब बहुमत दल होता है तो एक विरोधी दल भी होना चाहिए जो वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत कर सके

Ø  3. नियतकालीन चुनाव-

Ø   इस व्यवस्था में सरकार उतरदायी होती है, नियतकालीन चुनाव ही वह माध्यम है जिससे सरकार को जनता के प्रति उतरदायी बनाया जा सकता है

Ø  4. संसदीय सर्वोच्चता-

Ø   संसदीय शासन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दू संसद होती है, अतः सरकार के अन्य अंगों कार्यपालिका और न्यायपालिका की तुलना में उसकी सर्वोच्चता बनाए रखी जानी चाहिए

Ø  5. स्पीकर की निष्पक्षता-

Ø   संसदीय शासन का राजनीतिक खेल संसद के भीतर स्पीकर की देख-रेख में खेला जाता है, यदि स्पीकर निष्पक्ष आचरण नहीं करे तो संसदीय व्यवस्था लड़खड़ा जाएगी


शासन प्रणालियाँ
लाल : अध्यक्षीय प्रणाली
नारंगी : संसदीय प्रणाली
हरा : संसदीय गणतंत्र जहाँ अध्यक्ष का चुनाव संसद करती है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]