शारीरिक शिक्षा

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शारीरिक शिक्षा प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के समय में पढ़ाया जाने वाला एक पाठ्यक्रम है। इस शिक्षा से तात्पर्य उन प्रक्रियाओं से है जो मनुष्य के शारीरिक विकास तथा कार्यों के समुचित संपादन में सहायक होती हैं।[1]

यदि कोई सर्वेक्षण किया जाए और व्यक्तियों से पूछा जाए कि शारीरिक शिक्षा शब्द शुनकर उन्हें क्या समझ आया, तो उत्तर सम्भवतः यह हो सकता है कि शारीरिक शिक्षा खेल गतिविधि, खेल शिक्षा, खेल प्रशिक्षण से सम्बन्धित ज्ञान है। स्वास्थ्य शिक्षा, योग के बारे में शिक्षा या वैयक्तिक औचित्य से सम्बन्धित कोई भी क्रीड़ा।

शारीरिक शिक्षा उपरोक्त सभी और उससे भी कुछ अधिक है। यद्यपि उपरोक्त गतिविधियाँ शारीरिक शिक्षा से जुड़ी हैं, किन्तु ये सब शारीरिक शिक्षा के बारे में नहीं हैं। संक्षेप में शारीरिक शिक्षा किसी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वरूप में सकारात्मक परिवर्तन लाने हेतु शारीरिक गतिविधि या गति का उपयोग करती है। यह शिक्षा का एक व्यापक क्षेत्र है जो शारीरिक कल्याण और गतिविधि और शिक्षा के अन्य क्षेत्रों के मध्य सम्बन्धों से सम्बन्धित है।

शारीरिक शिक्षा दो भिन्न शब्दों, शारीरिक और शिक्षा से मिलकर बना है। शारीरिक अर्थात् शरीर अथवा किसी एक या सभी शारीरिक विशेषताओं से सम्बन्धित, जिसमें शारीरिक शक्ति, शारीरिक सहनशक्ति, शारीरिक औचित्य, शारीरिक उपस्थिति और शारीरिक स्वास्थ्य शामिल हैं। शिक्षा अर्थात् जीवन की प्रस्तुति या व्यवस्थित निर्देश और प्रशिक्षण।

यदि इन दो शब्दों के संयुक्त अर्थ को देखते हैं, तो हम समझ सकते हैं कि शारीरिक शिक्षा किसी व्यक्ति के निज शरीर का उपयोग करके शरीर के विकास और रक्षणावेक्षण, चालक कौशल और शारीरिक क्षमताओं को विकसित करने के उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु एक व्यवस्थित प्रशिक्षण है। स्वस्थ जीवन शैली जीने की आदत बनाना और पूर्ण जीवन जीने के लिए भावनाओं को नियन्त्रित करने की क्षमता विकसित करना।

आधुनिक सन्दर्भ में, शारीरिक शिक्षा केवल शारीरिक संचलन के माध्यम से शारीरिक औचित्य के बजाय समग्र औचित्य और कल्याण प्राप्त करने पर जोर देती है। वस्तुतः शारीरिक शिक्षा को अब संचलन शिक्षा कहा जाता है। यह इंगित करता है कि कुशल संचालक गतिविधि विकसित करने हेतु शरीर कैसे चलता है।

संचलन मूलतः यान्त्रिक सिद्धान्तो द्वारा नियन्त्रित होता है। एक व्यक्ति को उन शक्तियों को जानना चाहिए जो संचलन के दौरान शरीर पर कार्य करती हैं ताकि गति सार्थक हो। संचलन विभिन्न कारकों से प्रभावित होती है जैसे शारीरिक औचित्य, भय और चिन्ता से सम्बन्धित भावनात्मक पहलू और, वायुमण्डलीय परिवर्तन।

संचलन सभी मनुष्यों हेतु अभिन्नांग है। इसमें गमनीय संचलन, जैसे दौड़न, कूर्दन आदि शामिल हैं, जो आवश्यक संचलन हैं, और अगमनीय संचलन जैसे मुड़ना, घूमना आदि शामिल हैं। संचलन भी संचार का एक साधन है। संचलन शिक्षा में, व्यक्तियों को आत्मान्वेषण की स्वतन्त्रता होती है और उन्हें संचलनों से जुड़ी समस्याओं का स्वयं समाधान खोजने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है। वे ऐसे तरीके चुनते हैं जो उनकी क्षमताओं हेतु सबसे उपयुक्त होते हैं और वे संचलन करते हैं जो वे चाहते हैं। संचलन शिक्षा कक्षाओं में, छात्रों को संचलन के अपने तरीकों का पालन करने की स्वतन्त्रता दी जाती है।

इसलिए, यह आवश्यक है कि शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम में अपनाए जाने वाला पाठ्यक्रम मनुष्य की समग्र औचित्य पर केन्द्रित हो जो कि आज के युवाओं और देश की भी आवश्यकता है, व्यक्तियों को अपनी समग्र औचित्य को महत्त्व देने हेतु शिक्षित करना और उन्हें इसका सुधार और आकलन करने का परामर्श देना।

शारीरिक शिक्षा का परिचय[संपादित करें]

किसी भी समाज में शारीरिक शिक्षा का महत्व उसका अकटायुद्धोन्मुख प्रवृत्तियों, धार्मिक विचारधाराओं, आर्थिक परिस्थिति तथा आदर्श पर निर्भर होती है। प्राचीन काल में शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य मांसपेशियों को विकसित करके शारीरिक शक्ति को बढ़ाने तक ही सीमित था और इस सब का तात्पर्य यह था कि मनुष्य आखेट में, भारवहन में, पेड़ों पर चढ़ने में, लकड़ी काटने में, नदी, तालाब या समुद्र में गोता लगाने में सफल हो सके। किंतु शारीरिक शिक्षा के उद्देश्य में भी परिवर्तन होता गया और शारीरिक शिक्षा का अर्थ शरीर के अवयवों के विकास के लिए सुसंगठित कार्यक्रम के रूप में होने लगा। वर्तमान काल में शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम के अंतर्गत व्यायाम, खेलकूद, मनोरंजन आदि विषय आते हैं। साथ साथ वैयक्तिक स्वास्थ्य तथा जनस्वाथ्य का भी इसमें स्थान है[2]। कार्यक्रमों को निर्धारित करने के लिए शरीररचना तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान, मनोविज्ञान तथा समाज विज्ञान के सिद्धान्तों से अधिकतम लाभ उठाया जाता है। वैयक्तिक रूप में शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य शक्ति का विकास और नाड़ी स्नायु संबंधी कौशल की वृद्धि करना है तथा सामूहिक रूप में सामूहिकता की भावना को जाग्रत करना है। शारीरिक शिक्षा कहलाती है।[3]

इतिहास[संपादित करें]

नन्हें जिम्नास्ट का प्रशिक्षण
कराते सीखते बच्चे
जिम्नास्टिक्स का प्रशिक्षण (हारलेम, 1962)

संसार के सभी देशों में शारीरिक शिक्षा का महत्व दिया जाता रहा है। ईसा से २५०० वर्ष पहले चीन देशवासी बीमारियों के निवारणार्थ व्यायाम में भाग लेते थे। ईरान में युवकों को घुड़सवारी तीरंदाजी तथा सत्य प्रियता आदि की शिक्षा प्रशिक्षण केन्द्रों में दी जाती थी। यूनान में खेलकूद की प्रतियोगिताओं का बड़ा महत्त्व होता था। शारीरिक शिक्षा से मानसिक शक्ति का विकास होता था, सौंदर्य में वृद्धि होती थी तथा रोगों का निवारण होता था। स्पार्टा में जगह जगह व्यायामशालाएँ बनी हुई थी। रोम में शारीरिक शिक्षा, सैनिक शिक्षा तथा चारित्रिक शिक्षा में परस्पर घनिष्ट संबंध था और राष्ट्र की रक्षा करना इन सबका उद्देश्य था। पाश्चात्य देशों के धार्मिक विचारों में परिवर्तन होने के कारण तपस्या तथा शारीरिक यातनाओं पर बल दिया जाने लगा। किंतु आगे चलकर खेलकूद, तैराकी, व्यायाम तथा अस्त्र-शस्त्र के अभ्यास में लोगों की अभिरुचि पुन: जगी। इस काल के माइखल ई. मांटेन, जे.जे. रूसो, जॉन लॉक, तथा कमेनियस आदि शिक्षाशास्त्रियों ने शारीरिक शिक्षा का आवाहन किया।

ऊनविंशतितम शताब्दी में पेस्टोलोजी और फ्रोवेल ने एक स्वर से बतलाया कि छोटे बच्चों की शिक्षा में खेलों का प्रमुख स्थान है।

जर्मनी में जोहान क्रिस्टॉफ फ्रीड्रिक गूट्ज (Johann Christoph Guts Muths) ने शारीरिक शिक्षा में दौड़, कूद, प्रक्षेप, कुश्ती आदि प्रक्रियाओं के साथ साथ यांत्रिक व्यायामों का प्रचार किया। फ्रीडरिक लूडविक जान (Friedrich Ludvig John) के नेतृत्व में लोकप्रिय व्यायामशालाओं की स्थापना संबंधी आंदोलन का सूत्रपात हुआ और यह आंदोलन शीघ्र विभिन्न देशों में व्यापक हो गया। वास्तव में वर्तमान शारीरिक शिक्षा का आंदोलन सन् १७७५ ई. में जर्मनी में ही प्रारंभ हुआ।

डेनमार्क में फ्रांज नाख्तिगाल (Franz Nachtegall) ने शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में अगला कदम बढ़ाया। आपकी विचारधारा जर्मनी की विचारधारा से बहुत कुछ मिलती जुलती थी और आपके ही सहयोग से सन् १८१४ ई. में स्कूलों के लिए शारीरिक शिक्षा का कार्यक्रम निर्धारित किया गया।

स्वीडन देश में शारीरिक शिक्षा का श्रेय पर हैनरिक लिंग (Per Henrik Ling) को प्राप्त हुआ। आप शारीर-रचना तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान के विद्यार्थी थे। आपने एक व्यायाम पद्धति निकाली जिसने बाद में चलकर चैकित्सिक व्यायाम की संज्ञा पाई। सन् १८१४ में आपने स्टाकहोम में रॉयल जिम्नास्टिक सेंट्रल इंस्टीट्यूट की स्थापना की। इस संस्था के अनुसंधान कार्य शारीरिक जगत् में विख्यात हैं।

जर्मनी, स्वीडन तथा डेनमार्क देशों के शारीरिक शिक्षापद्धति के सिद्धांत हॉलैंड, बेल्जियम, स्विटजरलैंड आदि देशों में भी पहुँचे। किंतु इन देशों में समुचित नेतृत्व के अभाव से उन सिद्धांतों का पूर्ण रूप से कार्यान्वयन न हो सका। ग्रेट ब्रिटेन में आर्चिबाल्ड मेकलारेन (Archibald Maclaren) ने अपने यहाँ के स्कूलों के कार्यक्रम में स्वीडन के जिमनास्टिक्स तथा अन्य खेलों का समावेश करवाया।

अमरीका में शारीरिक शिक्षा का इतिहास सन् 1820 से प्रारंभ होती है। इसी वर्ष जर्मनी के दो शरणार्थी जिनके नाम चार्ल्स बेक (harles Beck) और चार्ल्स फोलेन (Charles Follen) थे, अमरीका पहुंचे ओर वहाँ व्यायामशिक्षक नियुक्त हुए। इन्हीं के प्रयासों द्वारा सन् १८५० ई. में 'अमरीकन टरनरबंड' संगठन की स्थापना हुई। सन् १८६० ई. में डॉ॰ डीओ लिविस (Dio Lewis) के प्रयत्न से अमरीका के स्कूलों के पाठ्यक्रम में शारीरिक शिक्षा को स्थान प्राप्त हुआ।

सोवियत संघ में छोटे बच्चों को बचपन में ही आग, पानी तूफान से बचने की शिक्षा दी जाती थी। १२ वर्ष तक केवल शारीरिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। उसके उपरांत कुल ऐसी व्यावहारिक कसरतें भी कराई जाती हैं जो उनके लिए भविष्य में टैंक, ट्रैक्टर तथा इंजन आदि के चलाने में उपयोगी हों। चुवकों को पुष्ट और सशक्त बनाने के लिए जिम्नास्टिक का आधार लिया जाता था और खेलकूद की प्रतियोगिता के लिए सुगठित किया जाता था।

भारतवर्ष में शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय व्यायाम पद्धति का प्रमुख स्थान है। यह विश्व की सबसे पुरानी व्यायाम प्रणाली है। जिस समय यूनान, स्पार्टा ओर रोम में शारीरिक शिक्षा के झिलमिलाते हुए तारे का अभ्युदय हो रहा था उस समय भी भारतवर्ष में वैज्ञानिक आधार पर शारीरिक शिक्षा का ढाँचा बन चुका था ओर उस ढाँचे का प्रयोग भी हो रहा था। आश्रमों तथा गुरुकुलों में छात्रगण तथा अखाड़ों और व्यायामशालाओं में गृहस्थ जीवन के प्राणी उपयुक्त व्यायाम का अभ्यास करते थे। इन व्यायामों में दंड-बैठक, मुगदर, गदा, नाल, धनुर्विद्या, मुष्टि, वज्रमुष्टि, आसन, प्राणायाम, भस्त्रिका प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, नवली, नेती, धौति, वस्ती, इत्यादि प्रक्रियाएँ प्रमुख थीं।[4]

भारतीय व्यायाम पद्धति में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस पद्धति के द्वारा ध्यान को एकाग्र करना, चित्तवृत्ति का निरोध करना तथा स्मरण शक्ति आदि की वृद्धि करना सुगम्यता संभव है। इसी विशेषता से आकर्षित होकर अन्य देशों में इन व्यायामों का बड़ी तीव्र गति से प्रचार और प्रसार हो रहा है। यही नहीं, कहीं कहीं पर तो इन व्यायामों के विभिन्न अनुसंधान केंद्र स्थापित कर दिए गए हैं।

मनोविज्ञान के युग का प्रारम्भ होते ही शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम तथा संगठन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश हुआ। फलत: बच्चों की अभिरुचि, प्रवृत्ति, उम्र तथा क्षमता को ध्यान में रखकर शारीरिक शिक्षा के पाठों का निर्माण हुआ।

शैशव काल में ड्रिल को हटाकर छोटे छोटे यांत्रिक खेल तथा कसरतों पर अधिक बल दिया गया। इसके बाद जिमनास्टिक्ल की ओर युवकों को आकर्षित किया गया। सारी कसरतें संगीत की लय पर युवकों में अधिक सुखद और रुचिकर बनाने के प्रयास हुए। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र बहुत विस्तृत बना दिया गया। आज यह विषय अन्तर्राष्ट्रीय आदान प्रदान का एक सुलभ साधन हो गया है। शारीरिक शिक्षा का क्षेत्र बहुत विस्तृत बना दिया गया। आज यह विषय अन्तर्राष्ट्रीय आदान प्रदान का एक सुलभ साधन हो गया है। शारीरिक शिक्षा सामाजिक सुधार के लिए अत्यंत उपयोगी समझी जाती है। इसके द्वारा पारस्परिक सहयोग तथा ऊँच नीच का भेदनिवारण संभव माना जाता है। संवेगनियंत्रण के सक्रिय पाठ पढ़ने का अवसर भी प्राप्त होता है। इसी कारणवश बच्चों की शिक्षा को शारीरिक शिक्षा के आधार पर ही निर्धारित करना उचित समझा जाता है। शारीरिक शिक्षा के क्षेत्र में युवतियों का प्रमुख स्थान होता जाता है।

सभी प्रगतिशील देशों में इस शिक्षा के कार्यक्रमों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं तथा समारोहों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। इस विषय में प्रशिक्षण देने के लिए शारीरिक शिक्षा महाविद्यालय खुले हैं जहाँ पर अध्यापक तथा अध्यापिकाएँ प्रावधान के अनुसार तीन वर्ष दो वर्ष या एक वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। शारीरिक-परिपक्वता परीक्षा वर्तमानकालीन शारीरिक शिक्षा का प्रमुख विषय है और इसके लिए वय के अनुसार विभिन्न स्तर बनाए गए हैं।

विभिन्न स्तरों पर शारीरिक शिक्षा के संवर्धन के लिए संघ तथा संस्थाएँ स्थापित की गई हैं। ये संस्थाएँ समय समय पर प्रादेशिक, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएँ भी आयोजित करती हैं। इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए प्रतियोगियों को विशिष्ट प्रशिक्षण दिया जाता है। यही कारण है कि विश्व की प्रतियोगिताओं में दैनन्दिन प्रगति होती जाती है।

लक्ष्य और उद्देश्य[संपादित करें]

शारीरिक शिक्षा "संचलन के माध्यम से शिक्षा" है। इसका लक्ष्य हमारी शारीरिक क्षमता को अधिकतम करना है, जिससे हम जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वस्थ, ज्ञानवान्, कुशल, रचनात्मक, उत्पादक और प्रभावशाली बन सकें। इस प्रकार, शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन हेतु इष्टतम और सम्पूर्ण विकास के साथ खेल प्रतियोगिताओं में इष्टतम प्रदर्शन करना है। शारीरिक शिक्षा और मनोरंजन की राष्ट्रीय योजना के अनुसार, "शारीरिक शिक्षा का लक्ष्य प्रत्येक बच्चे को शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ बनाना और उसमें ऐसे वैयक्तिक और सामाजिक गुणों का विकास करना होना चाहिए जो उसे दूसरों के साथ सुख से रहने, और एक अच्छे नागरिक के रूप में निर्माण करने में सहायता करता है।"

उद्देश्य[संपादित करें]

  • शारीरिक शिक्षा का मूल्य: शारीरिक शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्तियों को शारीरिक शिक्षा के मूल्य और स्वस्थ और सक्रिय जीवन शैली में इसके योगदान के बारे में जागरूक करना और इसकी सराहना करना है।
  • अनुशासन में रुचि विकास: एक सुविकसित शारीरिक शिक्षा योजना का केन्द्र शिक्षा के प्रति पहल, उत्साह और प्रतिबद्धता दिखाते हुए उच्च स्तर की रुचि और व्यक्तिगत जुड़ाव को प्रोत्साहित करने वाली होनी चाहिए।
  • इष्टतम शारीरिक औचित्य और स्वास्थ्य प्राप्ति: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रमों का लक्ष्य किसी व्यक्ति की शारीरिक औचित्य और स्वास्थ्य का विकास तथा अपनी शारीरिक क्षमता के इष्टतम स्तर पर कार्य करना है। इसका उद्देश्य सर्वोत्तम स्वास्थ्य हेतु निद्रा, व्यायाम, भोजन आदि जैसे स्वस्थ आदतों का विकास करना है।
  • संचलन के बारे में जागरूकता: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम को व्यक्ति को यह अनुभव कराना चाहिए कि संचलन संचार, अभिव्यक्ति और सौन्दर्य प्रशंसा हेतु एक रचनात्मक माध्यम है। शारीरिक शिक्षा के माध्यम से मौलिक संचलन कौशल में दक्षता नृत्य जैसे अधिक विशिष्ट कौशल के विकास का समर्थन करती है।
  • अंग तन्त्रों का विकास: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य सभी अंग तन्त्रों जैसे श्वसन तन्त्र, परिसंचरण तन्त्र, पाचन तन्त्र, तन्त्रिका तन्त्र और पेशी तन्त्र का विकास करना है। इससे शारीरिक दक्षता और क्षमता में वृद्धि होती है।
  • तन्त्रिकापेशीय समन्वय: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम की योजना इस तरह से विकसित की जानी चाहिए कि यह तन्त्रिका तन्त्र और पेशी तन्त्र के मध्य बेहतर सम्बन्ध बनाए रखने में सहायता करे। यह शरीर के विभिन्न अंगों के बीच नियन्त्रण और सन्तुलन विकसित करने में सहायता करता है।
  • भावनात्मक विकास: प्रतियोगिताएँ खेल का एक अनिवार्य भाग हैं और साफल्य और वैफल्य से चिह्नित होती हैं। शारीरिक शिक्षा भावनात्मक स्थैर्य विकसित करने में सहायता करती है और साफल्य और वैफल्य को शालीनता से स्वीकार करना सिखाती है। ये गुण व्यक्ति के जीवन भर काम आते हैं। क्रीडांगण पर विभिन्न परिस्थितियाँ घटित होती हैं जिससे व्यक्ति क्रोध, सुख, ईर्ष्या, भय, ऐकल्य आदि भावनाओं को नियन्त्रित करना सीखते हैं। यह उन्हें भावनात्मक रूप से सन्तुलित बनाता है।
  • सामाजिक विकास: शारीरिक शिक्षा सामाजिक विकास की ओर ले जाती है क्योंकि यह व्यक्ति को सामाजिक सम्पर्क और समूह में रहने के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है जो उसे विभिन्न परिस्थितियों में समायोजित होने और सम्बन्ध बनाने में सहायता करती है। सहयोग, आज्ञाकारिता, तटस्थता, त्याग, निष्ठा, खेल भावना, आत्मविश्वास जैसे गुणों का विकास होता है। इन लक्षणों के विकास से व्यक्ति को एक अच्छा मनुष्य बनने में मदद मिलती है और एक स्वस्थ समाज का निर्माण भी होता है।
  • संचालक कौशल विकास: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम व्यक्ति को विभिन्न खेलों और कई अन्य शारीरिक गतिविधियों में सफल सहभागिता हेतु आवश्यक संचालक कौशल विकसित करने में सहायता करता है।
  • आनन्द और सन्तुष्टि: एक शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम शारीरिक गतिविधि के माध्यम से आनन्द और सन्तुष्टि प्रदान करता है।
  • मूल्यांकन कौशल का विकास: एक सुविकसित शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम प्रतिभागियों को विभिन्न प्रकार की शारीरिक गतिविधियों का ज्ञान और समझ दिखाने और अपने और दूसरों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में सहायता करता है।
  • व्याख्यात्मक विकास: शारीरिक शिक्षा व्यक्तियों के बीच व्याख्यात्मक क्षमता विकसित करने में सहायता करती है जहाँ वे अपने स्थानीय और अन्तःसांस्कृतिक सन्दर्भ दोनों में शारीरिक गतिविधि पर गंभीर रूप से विचार कर सकते हैं।
  • चरित्र निर्माण: एक सुसंरचित शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम वांछनीय जीवन परिणामों पर आधारित होना चाहिए जैसे सदाचार, स्वाभिमान, आत्मसाक्षम्य और दृढ़ता जैसे चरित्र गुणों का निर्माण, जिसमें तनाव के स्तर को कम करना, सकारात्मक विकास का अनुभव करना, शैक्षणिक उपलब्धि को बढ़ावा देना, चुनौतीपूर्ण जीवन लक्ष्य निर्धारण हेतु तैयार रहना, और सामाजिक समर्थक व्यवहार शामिल हैं।
  • उपचारात्मक मूल्य: शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम सुरक्षा आदतें सिखाता है जहाँ कोई व्यक्ति सुधारात्मक अभ्यासों के बारे में सीख सकता है जिससे व्यक्तियों के मध्य सुरक्षा आदतों का वृद्धि मिलेगा।
  • इष्टतम खेल प्रदर्शन: शारीरिक शिक्षा एक व्यक्ति को इष्टतम खेल प्रदर्शन स्तर पर लाती है।
  • प्रभावी नागरिकता: अन्ततः, शारीरिक शिक्षा कार्यक्रम एक प्रभावी नागरिक प्रस्तुत करता है जो बेहतर तरीके से देश की सेवा करता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

==बाहरी कड़ियाँ==शारीरिक शिक्षा

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "Physical training in schools should be compulsory, says leading head". www.telegraph.co.uk. अभिगमन तिथि 2021-09-28.
  2. Wong, Alia (2019-01-29). "Gym Class Is So Bad, Kids Are Skipping School to Avoid It". The Atlantic (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2021-09-28.
  3. "Physical training in schools should be compulsory, says leading head". www.telegraph.co.uk. अभिगमन तिथि 2021-09-28.
  4. "National Physical Education Standards-SHAPE America Sets the Standards". www.shapeamerica.org. अभिगमन तिथि 2021-09-28.