धनुर्वेद

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धनुर्वेद यजुर्वेद का एक उपवेद है। इसके अन्तर्गत धनुर्विद्या या सैन्य विज्ञान आता है। दूसरे शब्दों में, धनुर्वेद, भारतीय सैन्य विज्ञान का दूसरा नाम है। धनुर्वेद वह शास्त्र है जिसमें धनुष चलाने की विद्या का निरूपण हो। प्राचीन काल में प्रायः सभी सभ्य देशों में इस विद्या का प्रचार था। भारत के अतिरिक्त फारस, मिस्र, यूनान, रोम आदि के प्राचीन इतिहासों और चित्रों आदि के देखने से उन सब देशों में इस विद्या के प्रचार का पता लगता है। भारतवर्ष में तो इस विद्या के बड़े बड़े ग्रंथ थे जिन्हें क्षत्रियकुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे। मधुसूदन सरस्वती ने अपने प्रस्थानभेद नामक ग्रंथ में धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद लिखा है।

वैशम्पायन द्वारा रचित 'नीतिप्रकाश' या 'नीतिप्रकाशिका' नामक ग्रन्थ में धनुर्वेद के बारे में जानकारी है। यह ग्रंथ मद्रास में डॉ॰ आपर्ट द्वारा 1882 में सम्पादित किया गया। धनुर्वेद के अलावा इस ग्रन्थ में राजधर्मोपदेश, खड्गोत्पत्ति, मुक्तायुधनिरूपण, सेनानयन, सैन्यप्रयोग एवं राजव्यापार पर आठ अध्यायों में तक्षशिला में वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को दिया गया शिक्षण है। इस ग्रंथ में राजशास्त्र के प्रवर्तकों का उल्लेख है।

प्रयोजन[संपादित करें]

वसिष्ठ विरचित धनुर्वेदसंहिता के निम्नलिखित श्लोक में धनुर्वेद का प्रयोजन स्पष्ट किया गया है-

दुष्टदस्युचोरादिभ्यः साधुसंरक्षणं धर्म्मतः।
प्रजापालनं धनुर्वेदस्य प्रयोजनम्॥
(अर्थ : दुष्ट, दस्यु (लुटेरे), चोर आदि से धर्मपूर्वक साधुओं (सज्जनों) की रक्षा करना और प्रजा का पालन करना धनुर्वेद का उद्देश्य है।)

इतिहास[संपादित करें]

धनुर्वेद का उल्लेख अति प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। अग्निपुराण में इसे ज्ञान की अठारह शाखाओं में में से एक बताया गया है जिनकी शिक्षा भृगु द्वारा दी जाती थी। महाभारत में भी इसका उल्लेख है (धनुर्वेदस्य सूत्रं च यत्र सूत्रं च नागरम्)। शुक्रनीति में धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद बताया गया है और इसके पाँच भाग बताए गए हैं। अग्निपुराण तथा साम्राज्यलक्ष्मीपीठिका में धनुर्वेद पर अलग से अध्याय हैं। विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है कि शतक्रत (इन्द्र), धनुर्वेद के रूप हैं। [1]

आजकल इस विद्या का वर्णन कुछ ग्रंथों में थोड़ा बहुत मिलता है, जैसे, शुक्रनीति, कामन्दकीनीति, अग्निपुराण, वीरचिन्तामणि, वृद्धशार्ङ्गधर, युद्धजयार्णव, युक्तिकल्पतरु, नीतिमयूख, इत्यादि । धनुर्वेदसंहिता नामक एक अलग पुस्तक भी मिलती है। अग्निपुराण में ब्रह्मा और महेश्वर इस वेद के आदि प्रकटकर्ता कहे गए हैं। पर मधुसूदन सरस्वती लिखते हैं कि विश्वामित्र ने जिस धनुर्वेद का प्रकाश किया था, यजुर्वेद का उपवेद वही है। उन्होंने अपने प्रस्थानभेद में विश्वामित्रकृत इस उपवेद का कुछ संक्षिस ब्योरा भी दिया है। उसमें चार पाद हैं— दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद। प्रथम दीक्षापाद में धनुर्लक्षण ('धनुस्' के अंतर्गत सब हथियार लिए गए हैं) और अधिकारियों का निरूपण है। आयुध चार प्रकार के कहे गए हैं—मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त, और यंत्रमुक्त । मुक्त आयुध, (जैसे चक्र) अमुक्त आयुध (जैसे, खड्ग), मुक्तामुक्त (मुक्त भी, अमुक्त भी , जैसे, भाला, बरछा)। मुक्त को 'अस्त्र' तथा अमुक्त को 'शस्त्र' कहते हैं। अधिकारी का लक्षण कहकर फिर दीक्षा, अभिषेक, शकुन आदि का वर्णन है। संग्रहपाद में आचार्य का लक्षण तथा अस्त्र-शस्त्रादि के संग्रह का वर्णन है। तृतीयपाद में संप्रदाय, सिद्ध, विशेष-विशेष शस्त्रों के अभ्यास, मंत्र, देवता और सिद्धि आदि विषय हैं। प्रयोग नामक चतुर्थ पाद में देवाञ्चन, सिद्धि, अस्त्रशस्त्रादि के प्रयोगों का निरूपण है।

वैशम्पायन के अनुसार शार्ङ्ग धनुस् में तीन जगह झुकाव होता है पर वैणव (अर्थात् बाँस) के धनुस् का झुकाव बराबर क्रम से होता है। शार्ङ्ग धनुस् साढ़े छः हाथ का होता है और अश्वारोहियों तथा गजारोहियों के काम का होता है। रथी और पैदल के लिये बाँस का ही धनुस् ठीक है। अग्निपुराण के अनुसार चार हाथ का धनुस् उत्तम, साढ़े तीन हाथ का मध्यम और तीन हाथ का अधम माना गया है। जिस धनुष के बाँस में नौ गोँठे हों उसे 'कोदण्ड' कहना चाहिए। प्राचीन काल में दो डोरियों की गुलेल भी होती थी जिसे 'उपलक्षेपक' कहते थे। डोरी पाट की बनी तथा कनिष्ठा उँगली के बराबर मोटी होनी चाहिए। बाँस छीलकर भी डोरी बनाई जाती है । हिरन या भैंसे की ताँत की डोरी भी बहुत मजबूत बन सकती है (वृद्धशार्ङ्गधर)। बाण दो हाथ से अधिक लम्बा और छोटी उँगली से अधिक मोटा न होना चाहिए। शर (तीर) तीन प्रकार के कहे गए हैं—जिसका अगला भाग मोटा हो वह स्त्रीजातीय हैं, जिसका पिछला भाग मोटा हो वह पुरुषजातीय और जो सर्वत्र बराबर हो वह नपुंसक जातीय कहलाता है। स्त्रीजातीय शर बहुत दूर तक जाता है। पुरुषजातीय भिदता खूब है और नपुंसक जातीय निशाना साधने के लिये अच्छा होता है। बाण के फल (आगे वाला भाग) अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे, आरामुख, क्षुरप्र, गोपुच्छ, अर्धचंद्र, सूचीमुख, भल्ल, वत्सदन्त, द्विभल्ल, काणिक, काकतुंड, इत्यादि। तीर में गति सीधी रखने के लिये पीछे पखों का लगाना भी आवश्यक बताया गया है। जो बाण सारा लोहे का होता है उसे 'नाराच' कहते हैं। उक्त ग्रंथ में लक्ष्यभेद, शराकर्षण आदि के सम्बन्ध में बहुत से नियम बताए गए है। रामायण, महाभारत, आदि में शब्दभेदी बाण मारने तक का उल्लेख है। अंतिम हिंदू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज के संबंध में भी प्रसिद्ध है कि वे शब्दभेदी बाण मारते थे ।

वर्णित विषय[संपादित करें]

वसिष्ठकृत धनुर्वेद में वर्णित प्रमुख विषय निम्नलिखित हैं-

धनुर्वेद का परिचय, प्रयोजन और महत्व ; धनुर्वेद के शिक्षक के लक्षण ; वेधविधि (निशाना लगाने की विधि) ; चापप्रमाणम् (धनुष का आकार) ; वर्ज्जितधनुः (कैसी धनुष वर्जित है) ; गुण लक्षण (धनुष की डोरी के गुण) ; शरलक्षण (तीर की विशेषताएँ) ; फललक्षण (तीर के अग्रभग के आकार-प्रकार) ; तीर के मुख के अनुसार उनके कार्य ; तीर के ऊपर विषलेपन ; गुणमुष्टिः (डोरी को खींचना) ; धनुर्मुष्टिसन्धानम् (डोरी छोड़ना); लक्ष्यम् (निशाना) ; लक्ष्याभ्यासस्वरूपाणि (निशाने लगाने के अभ्यास) अनध्याय (कब अभ्यास नहीं करना चाहिए) ; श्रमक्रिया (धनुष चलाने की पूरी प्रक्रिया); लक्ष्यस्खलनविधिः () ; शीघ्र सन्धानम् (जल्दी निशाना लगना) ; दूरपातित्वं () ; दूरपतित्वम् (दूर के निशाने) ; हीनगतिसमूहः (); शुद्धगतयः (ठीक गति क्या हो) ; दृढचतुष्कम् () ; काष्ठछेदनम् (काठ में छेद करना) ; अस्त्र (पाशुपतास्त्रम् , आदि) ; औषधिः ; संग्रामविधि: ; व्यूहादिभिर्युद्धकथनम् (व्यूह आदि के द्वारा युद्ध का वर्णन) ; सेनानयः (सेना का प्रशिक्षण) ; पदातिक्रमः (पैदल सेना) ; अश्वक्रम ; हस्तिक्रम ; रथक्रम ; शिक्षा ; हन्तव्याहन्तव्योपदेशः (किसे नहीं मारन चाहिए) ।

विभिन्न पाण्डुलिपियाँ[संपादित करें]

श्री ई डॅ कुलकर्णी ने 'धनुर्वेद और इसका कोशविज्ञान में योगदान' (The Dhanurveda and its contribution to lexicography' (Bulletin of the Deccan College Research Institute Vol. 3, 1952)) नामक लेख में धनुर्वेद पर अनेकों ग्रन्थों का उल्लेख किया है- वसिष्ठ कृत धनुर्वेद (प्रकाशित), विश्वामित्र कृत धनुर्वेद (यह पाण्डुलिपि तिरुपति पुस्तकालय संख्या 7493b है), जमदग्नि कृत धनुर्वेद, औषानस कृत धनुर्वेद, वैशम्पायन कृत धनुर्वेद, सार्ङ्गधर कृत वीरचिन्तामणि (सार्ङ्गपद्धति में प्रिन्ट किया गया), शिव द्वारा कहा गया धनुर्वेद (दरबार पुस्तकालय, नेपाल संख्या 557), विक्रमादित्य कृत धनुर्वेदप्रकरण (वीरेश्वरीयम) (दरबार पुस्तकालय, नेपाल संख्या 2(82), कोदण्डमण्डन (रॉयल एशियाटिक सोसायटी की मुम्बई शाखा की पाण्डुलिपि), दिलीपभूभृत कृत कोदण्डशास्त्र (ओरिएण्टल पुस्तकालय वडोदरा), धनुर्विद्यादीपिका, धनुर्विद्यारम्भप्रयोग, नरसिंह भट्ट कृत धनुर्वेदचिन्तामणि, ईसापसंहिता, कोदण्डचतुर्भुज, सारसंग्रह, संग्रामविधि, (दरबार पुस्तकालय, नेपाल)।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]