"ज्वार": अवतरणों में अंतर

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आयुर्वेद में ज्वर या मलेरिया के लक्षण क्या हैं?
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आयुर्वेद में ज्वर मलेरिया कितने तरह के बताए हैं?

आयुर्वेद में कोरोना या कोविड़ जैसे ज्वर का नाम मंथर ज्वर किसने बताया है?

आयुर्वेद में ज्वर या मलेरिया की स्थाई चिकित्सा क्या है?..


ज्वर या Fever क्या है और क्यों होता है...
सामान्यतः ज्वर या बुखार (Fever) से शरीर की उस अवस्था का संकेत मिलता है, जिसमें देह की गर्मी (ताप) बढ़ जाती है।
मान्यता हैं की पित्त के असंतुलित होने से ज्वर पनपने लगता है। ज्वर के कारण यकृत या लिवर भी खराब हो सकता है।

आयुर्वेद में छोटे बड़े, सूक्ष्म या स्थल, साध्य या असाध्य ५८ तरह के ज्वर बताए गए हैं।
आयुर्वेद की जड़मूल ज्वर नाशक ओषधियां...
चिरायता, महा सुदर्शन अर्क, काढ़ा, क्वाथ, हरड़, आंवला, देव, बेल मुरब्बा, नीम छाल, सिरकोना, कायफल, कालमेघ, अमृता, अमलताश,
पुटपक्क विषम ज्वारंतक लोह, जयमंगल रस, महालक्ष्मी विलास रस, संजीवनी वटी, वन तुलसी, पीपल ६४ प्रहरी, गिलोय सत्व, गोदंती भस्म, त्रिभुवन कीर्ति रस आदि ५८ जड़ी बूटी, ओषधियां ज्वर का जड़ से कम तमाम कर देती हैं।

उपरोक्त इन्हीं योगों से अमृतम ने फ्लू की माल्ट Flukey malt का निर्माण आयुर्वेद की ५००० वर्ष पुरानी पद्धति से योग्य आयुर्वेदाचार्यों की देख रेख में किया है। ख ओनली ऑनलाइन उपलब्ध है।

ज्वर होने की वजह....
ज्वर यति शरीराणि इति ज्वरः
प्रथवा ज्वरो यास्त्यूष्णमा बिना।
ज्वर को शरीर में ऊष्मा उत्पन्न करने के लिए सैलों की शक्ति का ह्रास माना जाता है।
वैज्ञानिक शब्दों में कह सकते हैं कि अनूर्जता (एनर्जी) या बाहरी प्रभाव जन्य शारीरिक प्रक्रिया का रूप है।

यूनानी का मत है कि शरीर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग हृदय में किसी कारण वश हुए ऊष्माधिक्य से अंग-प्रत्यंग तप्त होकर ज्वर (हुम्मा) की अवस्था पैदा होती है।
चरक संहिता के महर्षि चरक ने कहा है कि दैहिक व मानव सन्ताप ज्वर का मुख्य लक्षण है।
ज्वर के तीन लक्षण स्मरण रखने चाहिए'-प्राय: स्वेद (पसीना) न प्राना, शरीर में ताप तथा शरीर में कुछ न कुछ वेदना होना।
भगवान शिव की क्रोधाग्नि से उपजा - ज्वर
ज्वरोत्पत्ति विषयक सुश्रुतोक्त ऐतिहासिक कथानक यह है कि दक्ष प्रजापति द्वारा किए अपमान से कुपित रुद्र के श्वास से ज्वर की उत्पत्ति हुई है।

चरक संहिता के हिसाब से..ज्वर की सम्प्राप्ति यह है कि मिथ्या आहार तथा विहार (अर्थात् शरीर को हितकारी पदार्थ का सेवन अन्य क्रियाएँ ऐसी करना जो शरीर को हानिप्रद हों इससे वात कफ प्रकुपित होकर, आमाशय में आश्रित होने पर रस के साथ में समस्त शरीर में व्याप्त होते हैं और कोष्ठाग्नि को बाहर निकाल कर (त्वचा गत होकर) ताप की उत्पति हो जाती है।
ज्वर के लक्षण....
श्रम, चित्त की अस्थिरता, विवर्णता, मुख का स्वाद खराब होना, आँखों से पानी गिरना, प्रांखों में जल भरा होना, ठंड-हवा धूप में बैठने की इच्छा होना।
जंभाई, अंगड़ाई, भारीपन, रोंगटे खड़े होना।
अरुचि, आँखों के सामने अँधेरा तथा कुछ सर्दी अनुभव होना यह ज्वर के पूर्वरूप हैं।
विशेषतः वातज ज्वर में जम्भाई, पित्तज में आंखों की जलन तथा कफज में खाने में अरुचि होते हैं।

स्वदावरोधः संतापः सर्वांगग्रहणं तथा।
युगपद्यत्र रोग च ज्वरो व्यपदिश्पते॥

मिथ्याहार विहाराभ्यां दोषा ह्यमायाश्रया।
बहिनिरस्य कोष्ठाग्नि ज्वरदाः स्यु रसानुगाः।।

सामान्यतो विशेषात्तु जृम्भाऽत्वर्थ समीरणात। पित्तान्नयनोदीहः कफादन्नारुचिर्भवत।।

यह भी माना जाता है कि ज्वर संक्रमण (Infection), मसूरी (Vaccine), अभिघात, लसिका (serum), आदि के सूतीवेध प्रभृति कारणों से भी उत्पन्न होते हैं।

ज्वर के स्वेदावराध, शरीर में वेदना तथा ताप-तीन लक्षण प्रमुख हैं। ज्वर के भेदों में लक्षण विशेष रूप के पाये जाते हैं।

सुश्रुत ने ज्वरोत्पत्ति के प्रसंग में ही निर्देश कर दिया है कि ज्वर के आठ प्रकार होते हैं - वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तज, वातकफज, कफपित्तज, तथा आगन्तुज ज्वर।
इन ज्वरात्मक कारणों के अनुसार कहे गये आठ भेदों के अतिरिक्त अन्य प्रकार भी किए गए हैं।
सिद्धांत रूप से वातादि दोष भेद से वर्णित आठ ज्वरों को स्मरण रखना चाहिए। इसके कारण तथा लक्षण उन्हीं दोषों के अनुसार होते हैं।

आजकल चिकित्सक ज्वर का ज्ञान करने के लिए तापमापक यन्त्र (thermometer) का प्रयोग करते हैं। इसको शरीर के मलाशय, योनि, मुखगुहा (जिह्वा के अधोभाग में), वंक्षण (काँख) में प्रयुक्त कर सकते हैं।
मलाशय (गुदा) का ताप मुख के ताप से एक अंश अधिक रहता है। ९८.४ फा० ताप प्राकृत (Normal) समझना चाहिए।

ज्वर के दस उपद्रव होते हैं-खांसी, मूर्छा, अरुचि, वमन, तृषा, अतिसार मलावरोध, हिक्का, श्वास, शरीर में टूटने की सी पीड़ा।
इन उपद्रवों से मुक्त तथा बलवान रोगी का ज्वर सुखसाध्य है।
असाध्य ज्वर के अनेक लक्षण बताए गए हैं यथा-जो ज्वर अनेक बलवान कारणों से उत्पन्न हुआ हो,सर्व या अनेक लक्षण अति प्रमाण में उपस्थित हों, जिसके उत्पन्न होते ही इन्द्रियों की शक्ति नष्ट हो जाए तो ज्वर को असाध्य मानना चाहिए।
(आयुर्वेदचिकित्सा संहिता)

आयुर्वेद में ज्वर की सामान्य चिकित्सा के प्रकरण में बताया है कि रोगी को वायुरहित स्थान में रखें, परन्तु वायु के आगमन (Ventilation) का उचित प्रबन्ध रहे।
गर्म तथा भारी वस्त्र पहनें। पकाया हुआ जल दें। नवीन ज्वर में शक्ति के अनुसार आमदोष पाचनार्थ लंघन कराये।

ज्वरी लंघनं प्रोक्तं ज्वरमध्येतु पाचनम्।
ज्वरांते भेषजं दद्याज्वरमुक्ते विरेचनम्॥
Amrutam सूत्र

चरकोक्त ज्वर चिकित्सा सुत्र स्मरण रखें कि प्रारम्भ में लंघन, मध्य में पाचन, अन्त में मुख्य औषय तथा ज्वर मुक्ति पर विरेचन रोगी को देना चाहिए।
वातदोष का सात दिवस पित्तदोष का १० दिन और कफ दोष का १२ दिन में परिपाक होता है। लंघन के बाद अवशिष्ट दोषों के पाचन तथा जठराग्नि को प्रदीप करने के लिए मूंग का जूस, यवागू आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।

उक्त उपक्रमों के उपरांत (वातज में ७वें दिन, पित्तज में १०वें दिन तया कफत्र में १२वें दिन ओषधि प्रदान करें और सामान्यत: सुश्रुतमतानुसार ज्वर में दसवें दिन ओषधि दें।
गुडूची, धनियां, नीम की छाल लाल, चंदन, पद्मारव -सब मिलाकर २ तोला लें और १६ गुना जल लेकर चौथाई अंश का काढ़ा शेष रह जावे, तो छान कर प्रातः सायं दें (गुडूच्यादि क्वाथ)।
इसी तरह पंचतिक्त क्वाथ, धान्यपटोल क्वाथ, सारवादि कल्क हितकर हैं।
महाज्वरांकुशरस (२ रत्ती ३ वार नींबू रस से),

ज्वरधूमकेतुरसं १-१ गोली दो बार), अदरक रस से), सर्वज्वरहर रस (अदरक के रस से १-१ गोली दो बार),
गोदन्ती भस्म (१-३ रत्ती ३ बार मधु से) प्रभृति औषधि लाभकर हैं।
दोषों की अधिकता का अनुमान करके अनुमान या मिश्रण भेद करें।
ज्वरों में मृत्युजय रस (वातज में दही, पित्तज में पित्तपापड़ा जल, त्रिदोषज व कफज में अदरक का रस के साथ) सामान्यतः मधु पंचामृत के साथ दिन में ३-४ बार १-१ गोली प्राचीन काल से बहुत प्रचलित है।

वास्तव में ज्वरधूमकेतु-हिंगुलेश्वर रस-कल्पतरु रस, पित्तज में चंद्रकला रस-धान्याक हिम, कफज में विभुन कीतिरस वनप्सादि क्वाथ विशेष हितकारी हैं। -

ज्वर में उत्पन्न प्रतिसार वमन, शूल दाह, प्रलाप कोष्ठबद्धता कास, पिपासा आदि का भी उपचार करें। ज्वर मुक्ति पर विरेचन और तदनन्तर लघु आहार प्रारम्भ करने का विधान है।

ज्वर का चिकित्साक्रम...
ज्वर के चिकित्सा सिद्धांतों का विशद विचार संहिताओं, विशेषतः चरक संहिता, में किया गया है और साथ ही कतिपय सामान्य विधियों का वर्णन हुप्रा है । नव ज्वर में नौ बातों का निषेध है-और इनका पथ्य न करने पर कई उपद्रवों की संभावना होती है ।

नवज्वरे दिवास्वनस्नानभ्यंगात्रनैथुनम्॥
क्रोध प्रवात व्यायामान् कषायांश्च विवर्जयेत्॥
(चरक. चिकित्सा. ३-१३८)

चिकित्सा सूत्र में लंघन का सर्वप्रथम महत्त्व है,
ज्वरे लंघनमेवादावुपदिष्टमृते ज्वरात्-
(चरक चि. ३-१३६)
क्योंकि इसके द्वारा आमाशय में रहने वाला साम दोष जो, स्रोतों को प्रावृत्त करके ज्वर उत्पन्न करता है, पच जाता है।
लंघन (लंघनं लाधवाय यलंघनम् ) अर्थात् सामान्य व्यावहार में-उपवास से दोषों का पाचन हो जाता है।

(प्राहार पचति शिखी दोषानाहारजितः) अन्यथा रोगी द्वारा निरन्तर भोजन करने से प्रभूत माम रस की उत्पत्ति होती रहती हैं।

लंघन व वहण सिद्धान्त ....
ज्वर चिकित्सा के सिद्धान्तों की व्यापकता तथा अन्यत्र उपयोगिता के दृष्टिकोण से यह उल्लेखनीय है कि रोगों की चिकित्सा के सामान्यतः छः घटक चरक ने प्रतिपादित क्रिये हैं-
लंघन, बृहण,रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन तथा स्तम्भन और इनमें से लंघन को दशभेदों में विभाजित कर दिया है, जिससे लंघन का अर्थ केवल 'उपवास' ही न रहकर विस्तृत हो गया है।
इसके अतिरिक्त चिकित्सा के दो समूहों-सन्तर्पण तथा अपतर्पण-में, लंघन अपतर्पण क्रम में समाविष्ट है।

प्रस्तुत सामान्य सिद्धान्त ज्वर के अतिरिक्त विविध व्याधियों के उपचार में सदैव प्राधारभूत रहते हैं। इन सिद्धान्तों का चरक ने विविध प्रसंगों में में विशद या संक्षेप में प्रतिपादन किया है।

ज्वर के प्रसग में लंघन विषयक रूपरेखा में, लंघन के फटा का उल्लेख है कि उसके सम्यक् पालन करने से दोषों का नाश हो जाता है।
जठराग्नि के प्रदीप्त हो जाने से ज्वर की समाप्ति, लघुता, क्षुधा उत्पत्ति तथा भोजन में रुचि--जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं।
जब तक प्राण का विरोध या क्षय न हो तब तक लंघन उपादेय है।
हीन, मध्य तथा प्रतिमात्रा में लक्षणों का वर्णन किया है, उनके अनुसार सम्यक् लंघन के लक्षण प्रकट होने तक ही रोगी को क्रिया करानी चाहिये।

चतुष्प्रकारा सशुद्धिः पिपासा मारुतातपो।
पाचनान्युपवासश्च व्यायामश्चेति लंघनम्।।
(चरक. सूत्र. २२-१८)

लंघनैः क्षपिते दोषे दीप्तेग्नौ लाघवे सति।
स्वास्थ्य क्षुत रुचिः पक्तिबलमोजश्य जायते।।
(अष्टांग. चकित्सा...१)

आमदोष के पाचक उपायों में, लंघन, स्वेदन, काल, तिक्तरस से संस्कृत मवागू को महत्त्व प्रदान किया गया है, इनसे शनैः शनैः ज्वर शान्त हो जाता है।

ज्वर में उष्ण जल पान का विशेष प्रयोग करना चाहिये। इसके कई द्रव्यों को मिश्रितकर जल- निर्माण किये जाते हैं।
साम या सन्तर्पण जल तरुण ज्वर तथा प्रामाशयस्थ दोषों में कफ की बहुलता होने पर वमन का निर्देश किया गया है। जब कि दोनों का उत्क्लेश हो रहा हो, अन्यथा हृद्रोग, श्वास, पानाह मोह आदि उपद्रव हो जाते है, क्योंकि 'अनुपस्थित दोष' में वमन का निषेध है।

इसके उपरान्त मवागू का प्रयोग किया जाता है जिसमें होने वाले कतिपय लाभों का वर्णन दिया गया है और मद्यज ज्वर, ग्रीष्मऋतु पितकफोत्वगता तथा रक्तपित्त में मवागू का निषेध है।
तदुपरान्त तर्पणं तथा दन्तधावन का विधान है। छः दिन व्यतीत हो जाने के पश्चात् अपक्व दोष में पाचन तथा निराम दोष में शमन कषाय पान कराना चाहिये।

ज्वर में कषाय-पान विशेष चर्चा का विषय है। तरुण ज्वर में कषाय पान का निषेध है' अर्थात् कषाय या कसैला रस निषिद्ध है न कि कषाय या क्वाथ।
इसी प्रकार घृतपान महत्त्वपूर्ण है।

कफ के मन्द होने पर,वात पित्तोल्वण ज्वर में दोषों का पाक हो जाने पर, दस दिन के उपरान्त प्रोषध सिद्ध घृत का पान कराना चाहिये।

परन्तु कफ की प्रधानता रहने पर घृतपान अनुचित है। जीर्ण ज्वर में घृत देने का जो उपक्रम है, वह तीनों दोषों का नाश करता है और जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि को जल शान्त कर देता है, उसी प्रकार घृत से जीर्णता को प्राप्त ज्वर समाप्त हो, ऐसी उपमापूर्वक व्याख्या की गयी है।

वमितं लघित काले यवागूभिरुपादेत्॥
यथास्वौषधसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः।
(चरकः चिकित्सा. ३-१४६)

ज्वरपेयाकषायाश्च सपिः क्षीरं विरेचनम्।
षडहे षडहे देयं वीक्ष्य दोष बलाबलम्।।

स्तम्यन्ते न विपच्यन्ते कुर्वन्ति विषमज्वरम् ।।
दोषा बद्धाः कषायेण स्तम्भित्वात्तरुणे ज्परे।
(चरक. चिकित्सा. ३-१६१)

यथा प्रज्वलति वेश्म परिषिञ्चन्ति वारिणा।
नराः शान्तिमभिप्रेत्य तथा जीर्ण ज्वरे घृतम् ॥
(चरक चिकित्सा.१-३८)

(स्नेहाद्वातं शमयति, शैत्यात् पित्तं
नियच्छति, संस्कारात्तुजयेत्कफम्)।

इसके उपरान्त दाह. तृष्णा, वातपित्त प्रधानता, दोष बद्धता तथा प्रच्युत दोषों की स्थिति में (निराम ज्वर में) दुग्धपान का विधान है, जिसमें क्षीरपाक भी सम्मिलित हो जाता है।

तत्पश्चात् आवश्यकतानुसार विरेचन तथा निरूहअनुवासन बस्ति की अवस्था भेद से योजना की गयी है।

विशेषत: शिर सम्बन्धी विकृति को शान्त करने के लिए नस्य का विधान है।

ज्वर की बाह्य चिकित्सा में कतिपय उपक्रम समाविष्ट हैं। इस क्रम में शीत ज्वरों में अभ्यंग, प्रदेह, परिषेक अवगाहन तथा उष्ण कारणों से उत्पन्न ज्वर में शीतलाभ्यंग, प्रदेह-परिषेक करना चाहिये।

इनसे बहिर्यागों से उत्पन्न घर शान्त हो जाते हैं।
ज्वर में विविध पेया, शाक, यूष तथा मांस रस का प्रयोग किया जाता है।

ज्वर में प्रायः अग्निमांद्य हो जाता है, अत: इसके लिए उचित उपक्रम करना चाहिये। इस सामान्य चिकित्सा सूत्र के प्रतिरिक्त दोषानुसार अथवा ज्वरभेदों के उपक्रम सिद्धान्त पृथक् हो सकते हैं।

विषम ज्वर क्या है?...
सुश्रुत ने बताया है कि प्रारम्भ से ही अल्प या निर्बल दोष अथवा ज्वर मुक्ति हो जाने पर अवशिष्ट अल्पदोष मिथ्या आहार-विहार से पुनः प्रकुपित होकर रस आदि धातुओं में से किसी को भी प्राप्त होकर विषम ज्वर को उत्पन्न करता है।
'यह गर्मी या सर्दी लगने के बाद अनियमित काल में आता है ओर वेग, काल आदि में विषमता रखता है।

अतः इसे विषमज्वर कहा गया है
(विरमो विषमारम्भ क्रियाकालोऽनुषङ्गवान) और यह भी कहा है कि जो छोड़कर पुनः हो जाय (मुक्तानुबन्धित्वं विषमत्वम)। १ .

आयुर्वेद में विषमज्वर की उत्पत्ति में भूतों का अभिषंग भी कारण कहा गया है।

दोषाऽल्यऽहित सम्भूती ज्वरोत्सृष्टस्य वा पुनः। धातुमन्यतमं प्राप्त करोति विषमज्वरम्।।

सुश्रुत के टीकाकार डल्हण के अनुसार 'पर' का अर्थ भूत (परो हेतुः स्वभावो वा विषमे कैश्चिदीरित:) है, जिसके अन्तर्गत जीवाणु से विषमज्वर उत्पत्ति होना अभिप्रेत है।
(आगन्तुरनुधो हि प्रायशो विषमज्वरे)।
इस प्रकार विषमज्वर (Malaria) का कारण हिमज्वरी (Plasmodium) है, जिसके कि चार प्रकार पाए जाते है-तृतीयक हिमज्वरी (Plasmodium vivax), चतुर्थक हिमज्वरी (P. Malaria), मारात्मक हिमज्वरी (P. Falciparum) तथा अंडाकृतिक हिमज्वरी (P. Ovale) | इनका संवहन मच्छरों से होता है।

विषम ज्वर पाँच प्रकार का होता है-सन्तत (लगातार ७, १० या बारह दिन तक रहे), सतत (दिन-रात में दो वार चढ़े)

तृतीयक (तीसरे दिन पाए) तथा चातुर्थिक (चौथे दिन आए) । इनके अग्रेजी पर्याय क्रमशः (Remittent Fever, Double Quotidian Fever, Quotidian Fever, Tertian Fever तथा Quartan Fever होते हैं।

यह पांचों प्रकार प्राय: त्रिदोषात्मक ही होते हैं फिर भी वात, पित्त, कफ की पृथक बहुलता पाई जाती है। सामान्य रूप से मलेरिया के दो वर्ग भी बनाए जा सकते हैं -
एक जाड़े से चढ़ने वाला और वारी से पाने वाला, दूसरा जाड़े से न चढ़ने वाला और सदा ही बना सा रहना।

यह बताया ही जा चुका है कि विषम ज्वर कायाणु मैथुनी तथा अमैथुनी चक्रों में भ्रमण करते हैं। जिस समय रक्तकण को विदीर्ण कर विभक्तक (Shiozont) की अवस्था पार करते हुए अंशुकेतु (Merozite) नामक छोटे जीवाण (प्लाज्मोडियम नामत मलेरिया के प्रमुख जीवाणु के रक्त में रहते हुए अपनी वृद्धि करते हुए) बाहर निकलते हैं और नवीन रक्तकण पर आक्रमण करते हैं, तभी रोगी को शीत के साथ ज्वर चढ़ता है।

परिपक्व होकर बाहर निकलने का समय जीवाणुओं (पूर्वोक्त जातियों मे) भिन्न होने से ज्वर के वेग में भी भिन्नता मिलती हैं।

सारांशत: शरीर को दूषित करने वाले तीन दोष या जीवाणु धातुओं में लीन रहा करते हैं तथा अपनी वृद्धि (स्थिति) के अनुसार ज्वर के वेग को उत्पन्न करते हैं।

विषमज्वर की सम्प्राप्ति के उल्लेख के समय ही लक्षणों का संकेत मिलता है। इसके प्रारम्भ या बढ़ने का समय निश्चित नहीं होता।

तापक्रम में भी विषमता मिलेगी। प्रथम अवस्था में मन में बेचनी, उदासीनता, सन्धियों में दर्द कपकपी गुदा का तापक्रम १०४-१०५ डिग्री तक; द्वितीय अवस्था पर ज्वर का अत्यन्त तीव्र वेग, २-३ घण्टे तक १०३-१०६ डिग्री तक ज्वर रहने के बाद तृतीय अवस्था में पसीना आकर रोगी को शान्ति मिलती है, ज्वर उतरता है।

विषमज्वर के प्रधान लक्षण.... कम्प, नियमित ज्वर, प्लीहा व यकृत वृद्धि रक्ताल्पता (दौर्बल्य) हैं। इसका संचयकाल प्रातः तीन सप्ताह मानते हैं। विषमज्वर के वमन, न्यूमोनिया, उदय रोग, रक्तातिसार, अन्धता, नाड़ी-शूल प्रादि उपद्रव हैं।

ज्वर की आयुर्वेदिक चिकित्सा...
विषमज्वर का चिकित्सासूत्र यह है कि जो दोष सबसे अधिक प्रबल हो, उसी की सर्वप्रथम चिकित्सा करें। वमन विरेचन तथा स्निग्ध उष्ण अन्न पान द्वारा विषमज्वर का शमन करना चाहिए।

अनागत बाधा प्रतिषेध के रूप में मच्छर के काटने से रक्षा, मच्छरों का नाश करना, प्रतिरोध विज्ञापन का वितरण आदि कार्य संक्रमण काल में करें तथा नीम के पत्ते-काली मिर्च पीस कर बनी गोलियां भी सेवन कराते रहें। इससे रोग का बचाव रहता है।
(अमृतम पत्रिका)

विषमज्वर से पीड़ित रोगी को मुस्तादि क्वाय (मोथा, कटेरी, गुडूची, सोंट, आंवला का काढ़ा बनाकर) में ४ रत्ती पीपल का चूर्ण तथा १ तोला मधु पंचामृत शहद मिला कर प्रातः सायं पिलायें।

तुलसी के रस में काली मिर्च चूर्ण मिला कर सेवन करने से सभी प्रकार की अवस्थाओं में लाभ होता है।
अमृतम हरड़ चूर्ण ३ ग्राम मधु पंचामृत शहद के साथ २-३ बार सेवन करायें।

इसके साथ ही किराततिक्तादि क्वाथ, पटोलादि क्वाथ, निम्बादि क्वाथ, कलिंगादि क्वाथ आदि लाभकर हैं।

अगर यह सब प्राचीन शास्त्रोक्त ओषधियां उपलब्ध न हो सके, तो अमृतम द्वारा निर्मित FLUKEY Malt ६ से आठ महीने तक जल या दूध से सेवन करें।
साथ में Keyliv Capsule रात को लेवें। यह लिवर की रक्षा करता है।

चरक चिकित्सा सुत्र में
व्यवहृत ओषधियों में बृहत्सर्वज्वरहर लौह २ रत्ती ५ ग्राम गुड़ के साथ गर्म जल से २ बार लेते रहें।

विषमज्वरान्तक-लौह (१-१ गोली दो बार जल से) ज्वराशनि रस (१-१ गोली पान के रस से २-३ बार), सुदर्शन चूर्ण (१-१ माशा गर्म जल से २ बार),

सुदर्शन अर्क (किसी औषधि के साथ), मृत्युजय रस, श्रीजयमंगल रस (उचित अनुपान से) आदि प्रमुख हैं। विशेष प्रकारों या अवस्थाओं में आवश्यकता के अनुसार इनको मिश्रण का प्रयोग करना चाहिये।

जहाँ मलेरिया में सप्तपर्ण, करंज, कालमेव, द्रोणपुष्पी आदि वनस्पतियाँ उपयोगी हैं वहाँ महातिक्ता (Qunine) को विभिन्न योगों द्वारा प्रयुक्त करते हैं।

वातश्लैष्मिक ज्वर क्या है?...
इस विषय के अन्तर्गत श्लैष्मिक ज्वर, वातश्लैष्मिक ज्वर, कल्फोवणघातक सन्निपात या फ्लू (Influenza) पाते हैं।

यह ज्वर महामारी के रूप में अधिक संक्रमित होता है, यह आयुर्वेद का अभिमत है। इसका उपसर्ग भी तीव्र प्रकार का देखा जाता है।

ज्वर के सामान्य लक्षण-त्रय वर्णन के समय बताया जाता था कि स्वेद का अवरोध (पसीना न आना) ज्वरों में पाया जाता है।

वातश्लष्मज्वर के प्रसंग में यह अपवाद (विकृतिविषम समवायारब्ध) है अर्थात् इसमें पसीना अधिक आता है।

सामान्य रूप से वातश्लैष्मिक के लक्षण सुश्रत में इस प्रकार वर्णित है'-
शरीर गीले कपड़े भीगा सा रहना, सन्धियों में पीड़ा, निद्रा की अधिकता, शरीर का भारीपन, सिर में दर्द, जुकाम, खाँसी, पसीने का अधिक पाना, ज्वर का मध्यम वेग, मुख सूखना।

प्रमुख बात यह है कि रोग का आक्रमण होते ही कुछ काल में रोगी शारीरिक दौर्बल्य विशेष अनुभव करता है।

चिकित्सा विज्ञान के अनुसन्धान के अनुसार रोग का कारण शोणप्रियाणु प्रजाति के श्लेष्मक दण्डाणु (Bacillus Influenza) है, जो कि निस्यनन्दनशील
अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अन्य जीवाणु भी वातश्लैष्मिक ज्वर की उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

स्तमित्यं पर्वणां भेदो निद्रा गौरभेव च।
शियोग्रहः प्रतिश्याय: कास: स्वेदाप्रवर्तनम्।
संतापो मध्यवेगश्च वातश्लेष्मज्वराकृतिः।।

यह जीवाणु श्वास यन्त्र में पहुंचकर शोथ, व्रण प्रभृति विकार करते हैं या आहार नलिका की श्लैष्मिक कला में प्रदाह करके ज्वर करते हैं या सम्पूर्ण धातुओं को दूषित करके कफवातोल्वण सन्निपात करते हैं।

यह विषधातुओं को विकृत कर मारक सिद्ध होता हुआ फुफ्फुसों में विष पहुंचाकर उक्त लक्षणों के साथ वायु की नलियों को कफ में भर देता है।
जब विष आमाशय तथा पक्वाशय में पहुंचता है,तो वमन, अतिसार आदि लक्षण भी होते है।
मूलतः वह जीवाणु वायु (निःश्वास ) द्वारा फुफ्फुसों में पहुंचकर रोग की उत्पत्ति करता है।

श्वास मार्ग की श्लैष्मिका में शोथ हो जाता है। ज्वर ३ से १० दिन तक स्थायी रहता है और नाड़ी ८०-६० प्रति मिनट तक पहुंच सकती है।

इस रोग के चार प्रकार मिलते हैं- प्रथम ज्वर युक्त भेद में तीव्र शिरःशूल के साथ बुखार एकदम १०२-१०४ अंश तक पहुंचता है। ज्वर रोज उतरता है और प्राय: ८ दिन तक चल सकता है! सांस शीघ्र आना, कमजोरी आदि भी लक्षण होते हैं।

द्वितीय फौफ्फुसिक भेद में ३-४ दिन ज्वर आने के बाद फुस्फुस सम्बन्धी विकार तथा न्यूमोनिया के समान लक्षण हो जाते हैं।

मुख पर प्रति नीलिमा रहती है, इससे १२-२४ घण्टे बाद मृत्यु हो जाती है।

तृतीय आन्त्रिक भेद में ज्वर कम तथा पाचन संस्थान सम्बन्धित विकार होते हैं।

यह महामारी की अवस्था में नहीं पाया जाता परन्तु किसी स्थान पर सीमित होने पर यह भेद विशेष पाया जायेगा।

चतुर्थ वातिक भेद में ज्वर, वेदना, प्रलाप, मूर्छा प्रभृति नाड़ी संस्थान सम्बन्धी विकार देखने में पाते हैं।

जब यह ज्वर किसी स्थान पर संक्रमित होता है, तो निदान करने में सरलता रहती है और जब एक दो रोगी मिलते हैं, तो प्रतिश्याय, दण्डकज्वर, न्यूमोनिया, विषमज्वर, प्रसूतिज्वर, मस्तिष्कावरणशोथ तथा आ
न्त्रपुच्छशोक से भेद करते हुए सापेक्षा निदान (Differential dignosis) करना पड़ता है।

मन्थर ज्वर क्या है?... इसके लक्षण कोरोना वायरस से बहुत मिलते हैं। यह भी एक संक्रमण रोग है, जो तेजी से फेल कर लोगों को तत्काल मृत्यु के मुख में फूंचा देता है।
सुश्रुत ने ओपसर्गिक रोगों के निर्देश के समय दुष्ट आहार, पेय द्रव आदि (सहभोजनात) के संसर्ग से भी ज्वरादि का होना बताया है।
आन्त्रिक ज्वर या मन्थर ज्वर (Typhoid) इसी वर्ग का प्रसिद्ध रोग है, इसे लोक में मोती झाला या मोतीझरा कहा जाता है।

आंत्रवासी तृणाणुयों के आंत्रक वर्ग का प्रधान तन्द्राभ जीवाणु (Bac. illns Typhosus) तथा दुर्गन्ध युक्त स्थान, धातु क्षीणता, विकृत भोजन, दूषित जल से उत्पन्न वायु, जल की वृद्धि होकर सहसा कम हो जाना आदि प्रकारों से प्राविक ज्वर माना जाता है।

यह जीवाणु रोगी के आंत्र के क्षत मूवाशय, पित्ताशय, प्लीहा रक्त पीडिकाओं से प्राप्त होता है।

रोगी के मलमूत्र दूषित जल या बर्फ शर्वत आदि, जीवाणु युक्त हवा या जल से दूषित भोजन आदि मक्षिका द्वारा (मक्खियां जीवाण युक्त पल पर बैठकर फिर भोजन पर बैठती हैं) तब इस रोग का संक्रमण होता है। इसके लक्षण कोरोना जैसे ही बताएं हैं।

रोग का जीवाणु पाचनमार्ग में क्षुद्रान्त्र में पहुंचकर वृद्धि करते हुए अन्त्रगत लसीका पिण्डों से (लसीकावाहनियों द्वारा) आन्त्रकला (मेजेन्ट्री) में पहुंचता है और यहां से रक्त में (रक्त से प्लीहा मज्जा आदि स्थानों को) प्रसरण करते हैं।

क्षुद्र तया बृहद प्रान्त्र की श्लेष्मकला (म्यूकसमेम्बरेन) लाल हो जाती है।
प्रान्त्रस्य लसीकाग्रथियों का शोथ क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होती हुई सातवें दिन क्षत रूप में परिणित होने लगती है।

सर्वाधिक विकृति क्षुद्रान्त्र के निचले भाग (तृतीयांश) में पाई जाती है। इन क्षतों के रक्तस्राव भी होता है।

जब क्षत विशेष गहरे हो जाते हैं तो उदरकला तक पहुंचकर सोथ (पेरीटोनायटिम) उत्पन्न हो जाता है।

दूसरे सप्ताह तक ऐसी अवस्था चलते रहने के बाद तीसरे सप्ताह में व्रणों के सड़े हुए भाग का गलना तथा चौथे सप्ताह व्रणों का रोपण प्रारम्भ हो जाता है।

इस प्रकार शरीर में जीवाणु प्रविष्ट होते होते १०-१४ दिन में रोग प्रकट हो जाता है, तब तक (गुप्तावस्था में) अरुचि प्रालस्य शिरः शूल, बेचैनी, विविध शरीर के अंगों में पीड़ा, प्रांखों के सामने अन्धेरा पा जाना प्रभृति पूर्वरूप होते रहते हैं।

तथा क्रमशः दौर्बल्य पाना प्रारम्भ हो जाता है। इन दस दिनों के संवयकाल पश्चात् प्रथम सप्ताह में ज्वर शनैः शनैः बढ़ता है और सायं दो अंश उतरता है।

प्रातः काल १०६-१०५ अंश तक पहुचना है। प्रायः नाड़ी की गति ६० तथा श्वास की गति ३० प्रति मिनट होती है।
जिह्वा मटमैली, प्रारम्भ में निबन्ध अन्त में पतला मल, ७.८ बार दस्त आना पेट फूलना व गुड़गुड़ाना, मुख उदासीन व कुछ खुला हुआ सा, रात्रि में प्रलाप व विक्लता, कुछ खाँसी शिरःशूल तथा विशेषतः उदर व छाती पर गुलाबी रंग के सूक्ष्म दाने ७.१२वें दिन निकलते हैं।
प्लीहावृद्धि तथा मन्द हृदयता क्षुधानाश आदि भी होते हैं। द्वितीय सप्ताह में उच्चतम ज्वर, अतिसार (मल) में जीवाणु, प्रांत्रस्थ पेयर ग्रंथियों तथा श्लेष्मल कला के टुकड़े, अननदि अस्पष्ट प्रलाप नाड़ी गति प्रालस्यदौर्बल्य में बुद्धि शिरःशूल, न्यूनता, तन्द्रा प्लीहावृद्धि तथा दाँत जीभ प्रादि पर मैल जम जाना प्रमुख लक्षण हैं।

इस सम्पूर्ण काल में तापमान उच्च सीमा पर पहुंचता है और दाने (Rose spots) स्पष्ट गुच्छों में व उभरे हुए होते हैं । तृतीय सप्ताह में ज्वर धीरे-धीरे उतरता है। रोगी की दुर्बलता बढ़ती है।

जिह्वा की स्वच्छता, स्थिति में प्रायः सुधार प्रारम्भ, प्लीहा के परिमाण में कमी, मानसिक स्थिति में लाभ होने लगता है।

चतुर्थ सप्ताह में रोग सन्निवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है । सभी लक्षण मन्द होकर शरीर का तापक्रम स्वाभाविक (नार्मल) से कम तथा नाड़ी की गति मन्द चलती है। इस प्रकार शनैः शनैः रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। मानसिक स्थिति में जो अव्यस्थित हो जाती है, अब सुधरने लगती है।

यदि रोग तीव्र प्रकार का हुप्रा तो द्वितीय सप्ताह (से ही जो कुछ सुधार की स्थिति आ जाती है वह न होकर) में हृकायावरोध तथा प्रान्त्रस्थ वर्णों से अधिक रक्तस्राव होकर मृत्यु हो सकती है । तृतीय सप्ताह में उक्त अरिष्ट लक्षणों के साथ ही मूत्रावरोध, मलमूत्र का अनैच्छिक उत्सर्ग उपस्थित होता है।

अधिकतर इसी सप्ताह के बाद मृत्यु हो सकती है। चौथे या उसके उपरान्त के सप्ताह में प्रांत्र का भेदन तथा प्रान्त्रावरण प्रदाह होकर या इससे भी शीघ्र मृत्यु संभव हो सकती है।

मन्थर ज्वर यानि कोरोना या कोविड वायरस से हानि

इस रोग में स्मृति नाश, सन्धि, शोथ, पित्ताश्मरी, मूकता. कशेरुकाओं का शोथ, अस्थ्यावरण शोथ, हृदयावरण या फुफ्फुसावरण शोथ सांस की बीमारी, ह्रदय घात, फेंफड़ों का संक्रमण तथा श्वसनकज्वर इत्यादि अनेक उपद्रव हैं।

यद्यपि लक्षणों के स्पष्ट होने पर इस रोग के निदान (निर्णय) करने में कठिनता नहीं होती है तथापि उसे मस्तिष्कसुषुम्नाज्वर,
घातकविषमज्वर,
माल्टाज्वर,
न्यूमोनिया,
इन्फ्यूलेंजा,
कालाजार,
मैंनिजायटिस
आदि से रोग को पृथक करना चाहिए रोग के सही निदान करने के लिए आयुर्वेद पद्धति का प्रयोग उचित है। अतः ऐसे रोगी को तुरंत Flukey malt खाना आरंभ करना चाहिए।
मन्थर ज्वर के प्रधान लक्षण... (ज्वर क्रमशः चढ़ना, शिरःशूल इत्यादि चौथे पैराग्राफ के प्रारम्भ में वर्णित लक्षण), रक्तसंवर्धन तथा परीक्षा
(Blood culture & test)
मूल की डायजो कसौटी (Doizo test)
मल तथा मूत्र संवर्ष, विडाल कसोटी (widal test)।

रोग का पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु आक्रमण कम घातक होता है। क्योंकि शरीर में प्रतिरोधक शक्ति (Imumity) उत्पन्न हो चुकती है।
रोग सारे वर्ष में विशेष रूप से वर्षाकाल तथा शीतकाल में अधिक उपसर्ग होता है। प्रायः बालकों तथा जवानों में पाया जाता है।
प्रथम वर्ष तथा २५ वर्ष बाद रोग असाध्य तथा १५-२५ वर्ष की आयु तक साध्य माना गया है।

आन्त्रिक ज्वर के कई प्रकार मिल सकते हैं-उपांत्रिक ज्वर (Paratyphoid Fever) जो कि ए, बी, सी, तीन प्रकार के जीवाणु से उत्पन्न होता है, चलनशील (एम्बुलेटरी), उष्णदेशीय (ट्रोपिकल), गंभीर भेद (ग्रेव), भ्रमजनक (प्रोपाकिंग), मृदुभेद (एवाटिन) आन्त्रिक ज्वर तथा न्यूमो-मैनिंगोनेफोटायफाइड। -


एलोपैथी या अन्य चिकित्सा पद्धति में कोरोना रूपी मंथर ज्वार का स्थाई उपचार नहीं है।
आयुर्वेद में इस रोग को मिटाने हेतु अनेकों संक्रमण नाशक ओषधियां का उल्लेख है। सावधानी से रोगी का उपचार इन उपायों द्वारा करना चाहिए।

सर्वप्रथम रोग प्रतिरोधक चिकित्सा (टायफाइड से बचाव) लिखी जाती है।

आन्त्रिक ज्वर में रोगी की आतें संक्रमित होकर ग्लेन लगती हैं। चूंकि ६० प्रतिशत व्यक्ति दूषित जल से ही इस रोग से पीड़ित होते हैं।
अतः जल तथा दूध उस समय ओटाकर सेवन करें। नाली, पाखाना आदि की सफाई, चिकित्सक या परिचारक के हाथों की सफाई, रोगी के थूक, मल मूत्र
को निर्जन्तु करके नष्ट कर देना, मुख को गूलर के काढ़े में शुद्ध सुहागा थोड़ा , डालकर प्रक्षालन करना, रोगी को पूर्ण विश्राम, खाने आदि में स्वच्छता को, रखें, रोगी का गृह पृथक् होना-प्रकाश व उचित हवा से सम्पन्न होना तथा पान्त्रि ज्वर प्रतिरोधक मसूरी (T. A. B. Prophylatic Vaccine) आदि उपाय हैं।

इस रोग की रोगनाशक चिकित्सा (टायफाइड) के रोगी का मुख्य इलाज जिसमें उपरोक्त कुछ उायों का भी समावेश है।
इस प्रकार है लौंग कुचल कर पानी में उबाल लें और छान कर 'लवंगोदक' रख लें इसको प्यास लगने पर रोगी को दें।

पतला आहार पदार्थ, जौ का जल तथा आयु के अनुसार दूध २-३ सेर तक ही देना चाहिए।
भोजन में पिष्टमय में पदार्थ (स्टार्च) अधिक, प्रोटीन मध्यम तथा स्निग्ध पदार्थ (फैट) अति न्यून हों।
यह ध्यान रखें कि रोग के प्रारम्भ में ज्वर उतारने की कोई औषधि न दें।
पानी या षडंगपानीय आदि देते रहे। आमदोष के कुछ क्षीण हो जाने पर गाय का दूध चौगुने पानी में (पकाते समय पीपल की पोटली डाल दें) 'क्षीर पाक' करके करते जब ज्वर पूर्णत: समाप्त हो जाये पुराने चावल की पेय तथा इसके बाद अन्य लघु प्रहार सेवन करना चाहिए। मलावरोध न हो, इसका प्रयत्न करते रहे।

औषधि चिकित्सा में सौभाग्य वटी, १०० मिलीग्राम प्रात: सायं देते हैं।
अग्निश्वर रस (१०० मिलीग्राम गर्म जल से दो बार), चन्द्रशेखर रस (२०० मिलीग्राम अदरक के रस के साथ २ बार),
वृहत्कस्तूरी भैरव रस (मधु पंचामृत से १०० मिलीग्राम दो बार)
ज्वरादि अभ्रक रस (२ रत्ती ३ बार मधु से)-प्रभृति औषधियों में दोपोलवणता के अनुसार
मुक्तापिष्टि (१०० मिलीग्राम)
प्रवाल भस्म (१०० मिलीग्राम) को मिश्रण करके योग करना चाहिए।
अति तीव्र ताप होने पर बर्फ की थैली तथा प्राणेश्वर रस, अतिसार होने पर दूध आदि की कमी तथा महागंधक एवं संजीवनी वटी १००/१०० मिलीग्राम
तीन सौ मिलीग्राम भुने जीरे के साथ (पेट फूल जाने पर तारपीन का तेल जल में मिला कर सेंक करें)।

अनिद्रा होने पर सर्पगन्धा चूर्ण १०० मिलीग्राम ४ बार पानी के साथ,
संज्ञाल्पता व प्रलाप होने पर उक्त औषधियों के साथ योगेन्द्र रस तथा चतुर्भुज रस (१००/१०० मिलीग्राम र का मिश्रण)
हृदय दौर्बल्य नाड़ी शैथिल्य में मकरध्वज (१०० MG) या मृत संजीवनी रस (१०० mg) या विश्वेश्वर रस (१०० mg) का भी मिश्रण उचित रहता है। इसी प्रकार अन्य लाक्षणिक उपचार करें।

संहत्यास्पङमूलत: फुफ्फुसस्यऽसव्ये
पाशर्वे सव्यतो वा द्वयोग
जिघांसन्ति श्वास यंत्रविषोत्था
दोषास्तमाच्छ्वास कष्टं ज्वरञ्च।।



श्वसनक ज्वर क्या है?...
श्वसनक ज्वर को ही कर्कटक सन्निपात या न्यूमोनिया कहते हैं। यह रोग श्वास संस्थान या फुफ्फुस सम्बन्धित रोग है, परन्तु इसे सन्निहत ज्वरों में समाविष्ट कर लिया है और मुख्य विकृति या लक्षणों के अनुरूप फुफ्फुस प्रदाह (Pneumonia) नामकरण किया गया है।

इसका तात्पर्य फुफ्फुस पाक से लगाना चाहिए। तीव्र ज्वर के साथ फुफ्फुस के अवयवों में शोथ, कोप समूह प्रादाहिक रक्त रस से अवरुद्ध होकर, छाती की वेदना सहित खाँसी आदि से लाल-काला कफ निकलता है, संक्रमक तीव्र रहता है जो कि श्वसनक दण्डाणु रोग द्वारा प्रमुखतः सम्पन्न होता है।
यही सामान्य रूप से श्वसनक ज्वर (न्यूमोनिया) है।' रोगोत्पादक कारणों, फुफ्फुस या उससे सम्बंधित अवयवों की विकृति के (स्थान भेद) अनुसार इस रोग के दो प्रकार किये जा सकते हैं। अ) खण्डीय श्वसन ज्वर (Lobar-Pneumonia)

फुफ्फुस गोलाणु (Pneumococia) की विकृति से फुफ्फुस में दोषमयता होती है।
मुख्यशलाकाकार जीवाणु (Diplococus Pneumonia) के चार भेदों में से प्रथम तीन जातियां न्यूमोनिया की विशेष उत्पत्ति करते हैं।
परंतु अनुकूल अवस्थानों की स्थिति में ही इनसे विकृति की संभावता समझनी चाहिए।
यथा-शीत से रक्षा करने के लिए वस्त्रों का अभाव, शीत का अधिक स्पर्श, में अचानक ठण्ड लग जाना, दूषित धूलि युक्त वायु में निवास करना, प्रति परिश्रम, वक्षः स्थल पर आघात या फफ्फसों में प्रत्यक्षतः उत्तेजना, उचित ऋतु (वर्षा, शिशिर तथा बसन्त विशेषतः) और शारीरिक दुर्बलता, प्रायः युवावस्था में रोग पाया जाता है और रोगी से पूछने पर जल में भीगने या शीत लग जाने का इतिहास मिलता है।

श्वसनक ज्वर रोगी के थूक या कफ (खाँसी या छींक आदि) से जीवाणु निकल कर वायु मण्डल में श्वास-प्रश्वास द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के वायु में मिल कर नासा या मुख मार्ग में पहुंच जाते हैं।

और शारीरिक दौर्बल्य या शीत आक्रमण वश श्वसन क्रिया से फुफ्फुस में पहुंच जाते हैं, जिससे संक्रमण होकर एक पार्श्व या दोनों पाश्वों के फुफ्फुस खण्डों (प्रायः नीचे भाग) में शोथ उत्पन्न होता है।'

शोथ के स्थान पर रक्ताधिक्य होकर फुफ्फुसाकृति (आयतन) में वृद्धि तथा रुग्ण स्थान की अधिक घनता हो जाती है । इस क्रिया में व्यतीत ५ घण्टे -२४ घण्टों के बाद ३, ५, ७ या १० दिन तक फुफ्फुस ठोस बड़ा रह कर कोषाओं (सैल्स) ठोस होने के अतिरिक्त स्थान शोणित युक्त स्राव से पूर्ण हो जाता है।

इन दिनों के समय के बाद फुफ्फुस मुलायम होकर द्रवीभूत (स्रावित) होना प्रारम्भ होता है। इसका कुछ भाग रक्त में मिलता रहता है और शेष थूक में प्रात्रा रहता है।
श्वास शब्द भी शनैः शनैः प्रणालिक से कोष्ठिक अवस्था में आकर फुफ्फुस स्वस्थ हो जाते हैं। इस प्रकार तीन अवस्यायें होती हैं-रक्त संग्रहावस्था (Enlargement) स्रावणवस्था (Exudation) तथा रोगोपशमावस्था (Grey hcpotization)।

शीत लगकर सहसा रोग का आक्रमण होते ही रोगी बेचैन हो उठता है।
कम्प के साथ १०-१२ घण्टे के बाद ज्वर १०४ अंश तक बढ़कर शिरःशूल, अग्निमांद्य, पसलियों में पीड़ा, शुष्ककोस, पिपासा, युवापुरुषों के वमन, मलावृत जिह्वा, कटिमूल, कोष्ठबद्धता, श्वास, गति ५०-६० बार प्रति मिनट (कष्टकारक या गंभीर) तथा नाड़ी गति १२०-१३० तक (पूर्ण, कठिन, उठलती-पी होना आदि लक्षण होने लगते हैं।
यह सन्ततस्वरूप का ज्वर ८.८ दिन तक १ अंश से अधिक घटता-बढ़ता नहीं।
रोगी की छाती पर दबाव तथा हल्की पीड़ा भी अनुभव होती है २-१ घण्टे बाद खांसी में गाढ़ा, चिपचिपा मैला-सा कफ तथा दूसरे दिन ईंट के समान रक्ताभ कफ निकलता है।
निद्रावश हल्का प्रताप, प्रौठों पर फुन्सियां, रक्तमिप्रित श्लेष्मा, छाती के विकृतपार्श्व में वेदना इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं।

ज्वर ५, ७, ९ या ११वें दिन उतरता है और अन्य उक्त लक्षण भी एकाएक कम होने लगते हैं- यदि १२वें दिन उवर शान्त होता है तो धीरे-धीरे उतरेगा।
इसके बाद अन्य लक्षण यद्यपि शोध समाप्त हो जाते हैं तथापि फुफ्फुस की विकृति कुछ दिन बनी रहती है और दुर्वलता भी अनुभव होती रहती है।

रोग के अत्यन्त प्रबल होने (उक्त समय में शान्त न होने) पर द्वितीयावस्था और फिर अन्त में तृतीयावस्था में पूयसंचय होने लगता है।
यदि रोगी दो सप्ताह में स्वस्थ नहीं होता, तो फुफ्फुस के प्राकृत होने में विलम्ब समझा जाता है।
न्यूमोनिया के अनेक उपद्रव हैं-
पूयोरस, फुफ्फुसावरणशोक,
मस्तिष्कावरणशोथ,
फौफ्फुसिक विधि तथा
कर्दम (एब्सेस एण्ड ग्रैग्नीन),
राजयक्ष्मा,
हृदयावरणलोय,
प्राध्यान,
कर्णभूतशोक इत्यादि।
रोगियों की मृत्यु हृत्कायविरोध (हार्टफेलियर) से १४-२० प्रतिशत होती है।
रोग असाध्य होने पर ४-१० में दिन मृत्यु प्राय: देखी गई है।

(ब) प्रणाली श्वसनक ज्वर (Brancho Pneumocnia)

इस रोग में मुख्य कारण न्यूमोनियाणु (Pnenmococus, Pneumoमें bacillus)हैं।

इसके उपसर्ग में प्राघात, शीत लगना, मद्यपान, भूखा रह जाना, धातुक्षय, रासायनिकध्र म्र का फुफ्फुस में प्रवेश होना इत्यादि सहायता पहुंचाते हैं तथा मसूरका, रोहिणी, कालाजार, विषमज्वर, पान्त्रिकज्वर मादि रोगों में उपद्रव स्वरूप हो सकता है।
परन्तु गौण प्रकार का प्राय: यह रोग मिलता है।

पूर्वोक्त लिखित संक्रमण प्रकार से कीटाणु फुफ्फुस को वायु प्रणालियों में शोथ उत्पन्न कर देते हैं।
सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर वायु प्रणालियों में यह उपसर्ग पहुंचता है और इनके मार्ग को तंग करता है।
अतः फुफ्फुसों में हल्की कूजन सी सब जगह सुनी जा सकती। इस प्रकार वायु कोष्ठों (एल्वियोल्स) में रक्त की वृद्धि होकर जितनी सूजन बढ़ती जाती है, उतना ही मेधातु (दूषित) पाता है।
परन्तु संघनन (कन्सोलीडेशन) की मर्यादा अल्प तथा अस्पष्ट चिह्नों युक्त मिलती है। वक्ष के पावों में श्वासनिकाशोध (बोंकायटिस),
अर्धविसर्गीज्वर (रेमीटेन्ट).
कास, श्वासकृच्छता,
पाण्डुवर्ण की प्राकृति,
वक्ष पीड़ा रहित (प्रायः),
श्लेष्मामिश्रित पूय मादि लक्षण हाते हैं।
ज्वर ४, ५ या ७ दिन तक १०२ अंश तक चढ़ता हुमा क्रमशः उतर जाता है। प्रथम सप्ताह में नाड़ी की गति १००-११० प्रतिमिनट तक, शरीर से स्वेदाधिक्य, पुनः कष्टदायक-प्रगम्भीर श्वास-प्रश्वास लक्षण होते हैं।

ज्वरावस्था साध्य होने पर १-२ दिन में क्रमश: बुखार उतर जाता है और रोग का भी शनैः शनैः शमन होता है।
रोग की वर्धनशील प्रकृति होने से ज्वर की अवधि भी लम्बी हो जाया करती है।

यह रोग प्राय: बाल्यावस्था, वृद्धावस्था तथा दुर्बलता की अवस्था में होता है। परन्तु बुढ़ापे में होने वाली विकृति खतरनाक होती है।
बालकों में २ साल की आयु तक यह रग अधिक पाया जाता है और साथ में साथ में मध्यकर्णशोध, उरःपूय, मतिसार प्रादि भी उत्पन्न हो जाते हैं।
मृत्यु संख्या कम देखने में आती है।

आयुर्वेदिक अमृतम चिकित्सा....
- यह श्वसनकज्वर प्रायः विशेषज होता है। प्रायः साधारण रूप से जो दोष वृद्धि पर हो उसे घटायें और घटे हुए दोष की वृद्धि करनी चाहिए, जो उपद्रव अधिक हो उसकी चिकित्सा पहले करना चाहिए।

कफ की वृद्धि जब तक शमन न हो तब तक लंवन तथा लघु पथ्य दें।
मामदोषपाचनार्थ स्वेद हितकारक है । इस प्रकार चिकित्सा इन तीन उद्देश्यों द्वारा करना चाहिएजीवाणु की क्रिया को नष्ट करना, व्याधि या विशेष लक्षणों का शमन तथा रोगी बल (हृदयादि) को रक्षा।

रोगी को शुद्ध हवादार कमरे में रखना, पूर्णविश्राम देना, मृदु विरेचन देनाः सुपाच्य लघु पेया, फलों का रस, दूध देया प्राथमिक उपचार है।
वक्ष पर पुराने घी सेंधा नमक मिलाकर मलें, इससे दर्द भी शांत होगा और कफ निकलेगा।


त्रिभुवनकीति २०० mg, शृंगभस्म १०० mg , मुक्ताभस्म १०० mg, रससिन्दूर ५० mg-इनको मिलाकर ६ मात्रायें बनाये और ४-४ घण्टे पर amrutam Flukey malt तथा एक चम्मच मधु पंचामृत के साथ दें।
औषधि क्रम इस प्रकार एक सप्ताह चलाने से रोगी पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।
प्रात: ७ बजे महादित्य रस रत्ती, अदरक के रस से १० बजे वृहत् कस्तूरी भैरव पान के रस तथा मधु से, दोपहर १ बजे बसन्ततिलक रस मधु तया पीपल चूर्ण के साथ, ४ बजे सायं रस तुलसी रस व मधु के साथ और रात्रि को १ बजे कनकसुन्दर रस मधु से सेवन कराये।
इसमें अवस्थानुसार परिवर्तन वांछनीय है। अन्य लक्षण विशेषों हृदयअवसाद, श्वासकष्ट, श्यावता पावशूल, प्रलाप, रक्तष्ठीवन, कफनिस्सरण, कष्ट, नाड़ी की गति चिन्ताजनक निद्रानाश, आनाह या उदरशूल, हिक्का, शीतकाय या रक्तसंचार में शिथिलता प्रादि की आवश्यक शांति करते रहें।

रोगी के बल का संरक्षण करने की ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए।

ग्रन्थिकज्वर क्या है?...
इस रोग के अग्निरोहिणो, प्लेग, ताऊन आदि कई नाम हैं। यह तीव्र संक्रामक रोगमहामारी की तरह फैलता है और प्राय: असाध्य होकर जनसंहार करता चला जाता है। इसका संक्रमण वर्षाकाल से प्रारम्भ होकर शीतऋतु के अन्त तक विशेष रूप से हुआ करता है।

इस रोग का कारक (seed) ग्रन्यिक दण्डाणु (Bacilius Pestis), कर्ता (Sower) चूहे व पिस्सू तया क्षेत्र (Soil) मनुष्य है।
पिस्स् (जिनोप्सीला चेप्रोपिस) चूहों पर रहती है और इसकी आमाशय में प्लेग के जीवाणु भरे रहते हैं।
जव चूहे मरने लगते हैं, तो पिस्सू अपने जीवन निर्वाह के लिये मनुष्य को दंश करता है।

स्मरण रहे कि प्लेग जीवाणु प्रथमावस्था में चूहे के रक्त में विद्यमान होते हैं, जब यह मक्षिका चूहे को काटती है तो रक्त के साथ जीवाणु भी खींच लेती है तब, पिस्सू मनुष्य को प्राय: पैर में या सोते हुए मनुष्य को ग्रीवा ग्रादि में काट कर लसीका वाहनी नलियों द्वारा ऊपर-जाकर रक्त में मिल जाता है और प्राय: ३ दिन में तथा २ से १५ दिन तक अथवा यदि तीव्र विष हुप्रा तो २-१ घण्टे में ही रोग उत्पन्न हो जाता है।'

कक्षाभागेषु में स्फोटा जायन्ते मांसदारुणः।
अन्तर्दाहज्वरकरा दीप्त पावकसन्निभाः।

आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत ने कहा है कि इस रोग में वंक्षण तथा कक्षा भाग में मांस को विदीर्ण करने वाले, प्रज्वलित अग्नि के समान, अन्तर्दाह, ज्वर उत्पन्न करने वाले स्फोट उत्पन्न हो जाते हैं।
वस्तुतः पिस्सू द्वारा किये गये दंश के समीप स्थान को लसीका ग्रन्थियाँ (Lymphatic glands), जो कि जीवाणु प्रवेश के समय विरोधी प्रयत्न करती हैं, उसकी वृद्धि हो जाती है।

जंवा (वंक्षण) की ग्रन्थियाँ सबसे अधिक फूलती हैं। अन्य लक्षणों में अकस्मात् तीव्र ज्वर, रोगी की विशिष्टं प्राकृति, चेहरा शोथयुक्त, प्रलाप क्षधा का लोप, अनिद्रा आदि प्रमुख हैं।
३-४ दिन में ज्वर की तीव्रता कम होकर नाड़ी गति अनियमित हो जाती है और दिन में फूली हुई वेदना युक्त ग्रन्थियों में पूय पड़ जाती है।
यदि प्रथम सप्ताह तक ग्रंथि बैठती नहीं है तो द्वितीय सप्ताह में पक जाती है। यदि ६ व ७वें दिन रोगी की मृत्यु न हो अर्थात् रोग सौम्य होकर ५वें दिन लक्षणों में कमी अनुभव होने लगती है।

प्लेग के ग्रन्थिक (Bubaonic),
दोषमय (septicaemic),
फौफ्फुसिक (pneumonic),
मस्तिष्कावरणीय (Merningeal),
जलांतक लक्षण युक्त (Hydropholic),
तालुग्रन्थिक (tonsillar)
नामक ६ भेद होते हैं।
पूर्व पक्तियों में वणित ग्रन्थिक प्लेग ही ८० प्र. श. पाया जाता है। निदान करते समय उपदंश या फिरंग जन्य लसीका वृद्धि विषमज्वर टायफाइड, निमोनिया से पृथक् रहना चाहिए।

निदानमत्र सामान्यं संकुलावसयादिकम्।
विशिष्टं तु रक्तचरंजीवाणु-संभवम्।
ते स्पर्श श्वसनादिभ्य: संक्रामन्ति नरान्मरम्।
भूम्ना तद्रोग जुष्टेभ्यो मूषिकेभ्यश्च संक्रम:।।


रोग प्रायः असाध्य (त्रिदोषज) है और ७, १ या १५ दिन में रोगी को मारक, ग्रन्थिक प्लेग (६०-७० प्र. श. मारक) है।
फौफ्फुसिक-दोषमय प्रकार विशेष घातक है।
ग्रीवा-कक्षा की ग्रंथि अधिक घातक होती है।
तन्द्रा, प्रलाप, नाड़ी गति, तीव्रता, रक्त भार में कणी, रक्त में जीवाणु मिलता शरीर में स्थान स्थान पर रक्तस्राव आदि असाध्य लक्षण होते हैं।

अमृतम आयुर्वेदिक चिकित्सा ...
चूंकि, मकान में चूहों की अधिकता, मकानों में सील, निवास स्थान के समीप सड़न बदबू, अशुद्ध जल, सोने तथा पहनने का गलत प्रबन्ध, मक्खियों की अधिकता तथा भोजन की गड़बड़ी आदि रोग संक्रमण में सहायक होते हैं।
अतः चिकित्सा की दृष्टि से उनमें सुधार करना चाहिए।

प्लेग फैलने के समय रोगी को अलग कमरे में रखें और यदि चूहे घर में बहुत मर रहे हो तो अपने घर को भी त्याग दें, कभी-कभी अपना नगर (बस्ती) छोड़ने की अावश्यकता पड़ सकती है।

रोगी प्रकाशव हवा युक्त स्थान में रहे तथा शैया पर ही मलमूत्र का प्रबन्ध कर दें। रोगी की तथा उसके आसपास की वस्तुओं के निर्जन्तुकरण विधि पर विशेष ध्यान देते हुए परिचारक एवं सम्बन्धित मनुष्यों को रोग के संक्रमण से अपनी सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।

औषधि चिकित्सा में रत्नागिरिरस २ रत्ती ४.४ घण्टे वाद, पीपल, पुराना घनियाँ, अदरक रस तथा फ्लू की माल्ट एवं मधु के साथ मिला कर दें।

इसी प्रकार चंडेश्वर रस (२ रत्ती दो बार मधु से)
वेताल रस (२ रत्ती दो बार अदरक रस से), सन्निपातभैरव रस (१-१ गोली उचित अनुपात से),

सूचिका भरण रस (१-१ गोली नारियल के जल से), कालानल रस (१–१ गोली उचित अनुपात से) तथा मृतसंजीवनी सुरा (उचित मात्रा में पिलायें)।

ये प्लेग में लाभकारक सिद्ध हुई हैं।
ग्रन्थि पर जलधनियाँ पीसकर लेप करें और प्रति २-३ घण्टे पर बदलते रहें अथवा नागफनी व आमाहल्दी की लुगदी कुछ दिनों तक गर्म करके बांधते रहें।
ग्रन्थि में पूय पड़ जाने पर शस्त्रकर्म भी किया जा सकता है।
प्रमुख रोग के साथ उत्पन्न अन्य लक्षणोंविबन्ध, पिपासा, प्रलाप, तीव्र ताप, वमन अतिसार, शीतकाय, मूत्रावरोध, रक्त, पत्ति, सैयावरण, कास, श्वास आदि की शांति के लिए यत्नपूर्वक उपचार करें। -

सन्निपात ज्वर क्या है?...वात, पित्त तथा कफ की सम्मिलित विकृति से सन्निपात ज्वर होता है। इसके सामान्यतः क्षण में दाह-शांति का अनुभव।

अस्थि, शिर सन्धि में विशेष वेदना, मांतुनों से भरे काले या लाल नेत्र-विस्फारित या अन्दर को प्रविष्ट, कानों में शब्द का अनुभव तथा वेदना।
गले में चुभन, तन्द्रा, मूर्छा, भ्रम, प्रलाप, कास, अरुचि, जिह्वा खुरदरी व जुली हुई सम्पूर्ण अंगों में शिथिलता।

थूक में कफ के साथ पित्त या रक्त आना, शिर को इधर उधर घुमाना, प्यास, निद्रानाश, हृदय प्रवेश में पीड़ा, स्वेद मल-मूत्र का अल्प तथा विलम्ब से आना, विशेष कमजोरी न माना, कण्ठ में घुर्घराहट होना।
शरीर पर सांवले या लाल वर्ण के चकत्ते पड़ जाना।

वाणी में असमर्थता, मुख नासा प्रभृति स्रोतों में पाक, पाचन में विलम्ब तथा दोष परिपाक में देरी होना-लक्षण चरक में उल्पेख किए गए हैं। -

पाश्चात्य मतानुसार इस प्रसंग में सेप्टीकीमिया (Septicemia) रोग प्राप्त होता है, इसमें उपरोक्त लक्षणों से न्यूनता या प्रधिकता पाई जाती है।
आयुर्वेद में वर्णित निम्नोक्त सन्निपात ज्वर के भेदों के विशिष्ट लक्षणानुसार माधुनिक रोगों से किया जा सकता है।
वास्तव में सन्निपात ज्वर सर्व-षातुओं तथा अंगों को प्रभावित कर देता है।

सन्निपात ज्वर के भेद विषयक प्रकरण में चरक ने दोषों की उल्वणता के अनुसार १३ प्रकार बताये हैं। भावमिश्र प्रादि प्राचार्यों के अनुसार शीतांग, तन्द्रिक, प्रलापक, रक्तष्ठीवी, भुग्नत्र, अभिन्यास जिह्वक, सन्धिक, अन्तक, रुग्दाह, चितविभ्रम, कणंक, कण्ठग्रह-ये तेरह भेद लक्षणों की प्रधानता के प्राधार पर नाम रखकर वर्णन किए गए हैं।

अमृतम चिकित्सा...
दोषों तथा मलों की प्रवृत्ति का अभाव होने पर जठराग्नि के नाश हो जाने से तथा सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त होना यह रोग असाध्य तथा इसके विपरीत स्थिति होने पर कृच्छसाध्य होता है।
यह चरकोक्त साध्यासाध्यता विषयक सामान्य नियम है । सातवें, दसवें, ग्यारहवें दिन क्रमश: वातज, पित्तज, कफज सन्निपात ज्वर अत्यन्त प्रबल होकर शांत हो जाता है या रोगी की मृत्यु हो जाती है।
त्रिदोषमर्यादा में मतभेद है फिर भी मृत्यु या जीवन धातुपाक तथा मलपाक पर प्राधारित होता है।

शास्त्रीय चिकित्सा सूत्र के अनुसार रोग में लंधन, बालुका स्वेदन, नस्य निष्ठीवन, लेह, अंजन उपचारों द्वारा ज्वर में पाम तथा कफ को नष्ट करने के पश्चात वात-पित्त का शमन करें। दोपोल्वणता के आधार पर उपचार करना चाहिए।
जो लक्षण या उपद्रव बलवान हो, उसके निवारण के लिए विशेष प्रयत्न करें । सन्निपात ज्वर में त्रिनेत्र रस, वृहत् कस्तूरी भैरव, चतुर्भुज रस, सन्निपातसूर्यरस, सूतराज रस, समीरपन्नग रस, त्रिभुवनकीर्ति रस त्रैलोक्य चितामणि रस प्रादि अवस्थानुसार प्रयोग किये जाते हैं । लाक्षणिक चिकित्सा में विभिन्न उपचारों तथा औषधियों का प्रयोग करें।




















[[चित्र:Sorghum harvest.jpg|300px|thumb|right|ज्वार]]
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[[चित्र:Sorghum.wild-India-Tamil word27.1.jpg|300px|thumb|right|ज्वार के दाने]]
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15:49, 12 मई 2022 का अवतरण

आयुर्वेद में ज्वर मलेरिया कितने तरह के बताए हैं?

आयुर्वेद में कोरोना या कोविड़ जैसे ज्वर का नाम मंथर ज्वर किसने बताया है?

आयुर्वेद में ज्वर या मलेरिया की स्थाई चिकित्सा क्या है?..


ज्वर या Fever क्या है और क्यों होता है... सामान्यतः ज्वर या बुखार (Fever) से शरीर की उस अवस्था का संकेत मिलता है, जिसमें देह की गर्मी (ताप) बढ़ जाती है। मान्यता हैं की पित्त के असंतुलित होने से ज्वर पनपने लगता है। ज्वर के कारण यकृत या लिवर भी खराब हो सकता है।

आयुर्वेद में छोटे बड़े, सूक्ष्म या स्थल, साध्य या असाध्य ५८ तरह के ज्वर बताए गए हैं। आयुर्वेद की जड़मूल ज्वर नाशक ओषधियां... चिरायता, महा सुदर्शन अर्क, काढ़ा, क्वाथ, हरड़, आंवला, देव, बेल मुरब्बा, नीम छाल, सिरकोना, कायफल, कालमेघ, अमृता, अमलताश, पुटपक्क विषम ज्वारंतक लोह, जयमंगल रस, महालक्ष्मी विलास रस, संजीवनी वटी, वन तुलसी, पीपल ६४ प्रहरी, गिलोय सत्व, गोदंती भस्म, त्रिभुवन कीर्ति रस आदि ५८ जड़ी बूटी, ओषधियां ज्वर का जड़ से कम तमाम कर देती हैं।

उपरोक्त इन्हीं योगों से अमृतम ने फ्लू की माल्ट Flukey malt का निर्माण आयुर्वेद की ५००० वर्ष पुरानी पद्धति से योग्य आयुर्वेदाचार्यों की देख रेख में किया है। ख ओनली ऑनलाइन उपलब्ध है।

ज्वर होने की वजह.... ज्वर यति शरीराणि इति ज्वरः प्रथवा ज्वरो यास्त्यूष्णमा बिना। ज्वर को शरीर में ऊष्मा उत्पन्न करने के लिए सैलों की शक्ति का ह्रास माना जाता है। वैज्ञानिक शब्दों में कह सकते हैं कि अनूर्जता (एनर्जी) या बाहरी प्रभाव जन्य शारीरिक प्रक्रिया का रूप है।

यूनानी का मत है कि शरीर के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग हृदय में किसी कारण वश हुए ऊष्माधिक्य से अंग-प्रत्यंग तप्त होकर ज्वर (हुम्मा) की अवस्था पैदा होती है।

चरक संहिता के महर्षि चरक ने कहा है कि दैहिक व मानव सन्ताप ज्वर का मुख्य लक्षण है। ज्वर के तीन लक्षण स्मरण रखने चाहिए'-प्राय: स्वेद (पसीना) न प्राना, शरीर में ताप तथा शरीर में कुछ न कुछ वेदना होना। भगवान शिव की क्रोधाग्नि से उपजा - ज्वर ज्वरोत्पत्ति विषयक सुश्रुतोक्त ऐतिहासिक कथानक यह है कि दक्ष प्रजापति द्वारा किए अपमान से कुपित रुद्र के श्वास से ज्वर की उत्पत्ति हुई है।

चरक संहिता के हिसाब से..ज्वर की सम्प्राप्ति यह है कि मिथ्या आहार तथा विहार (अर्थात् शरीर को हितकारी पदार्थ का सेवन अन्य क्रियाएँ ऐसी करना जो शरीर को हानिप्रद हों इससे वात कफ प्रकुपित होकर, आमाशय में आश्रित होने पर रस के साथ में समस्त शरीर में व्याप्त होते हैं और कोष्ठाग्नि को बाहर निकाल कर (त्वचा गत होकर) ताप की उत्पति हो जाती है। ज्वर के लक्षण.... श्रम, चित्त की अस्थिरता, विवर्णता, मुख का स्वाद खराब होना, आँखों से पानी गिरना, प्रांखों में जल भरा होना, ठंड-हवा धूप में बैठने की इच्छा होना। जंभाई, अंगड़ाई, भारीपन, रोंगटे खड़े होना।

अरुचि, आँखों के सामने अँधेरा तथा कुछ सर्दी अनुभव होना यह ज्वर के पूर्वरूप हैं।

विशेषतः वातज ज्वर में जम्भाई, पित्तज में आंखों की जलन तथा कफज में खाने में अरुचि होते हैं।

स्वदावरोधः संतापः सर्वांगग्रहणं तथा। युगपद्यत्र रोग च ज्वरो व्यपदिश्पते॥

मिथ्याहार विहाराभ्यां दोषा ह्यमायाश्रया।

बहिनिरस्य कोष्ठाग्नि ज्वरदाः स्यु रसानुगाः।।

सामान्यतो विशेषात्तु जृम्भाऽत्वर्थ समीरणात। पित्तान्नयनोदीहः कफादन्नारुचिर्भवत।।

यह भी माना जाता है कि ज्वर संक्रमण (Infection), मसूरी (Vaccine), अभिघात, लसिका (serum), आदि के सूतीवेध प्रभृति कारणों से भी उत्पन्न होते हैं।

ज्वर के स्वेदावराध, शरीर में वेदना तथा ताप-तीन लक्षण प्रमुख हैं। ज्वर के भेदों में लक्षण विशेष रूप के पाये जाते हैं।

सुश्रुत ने ज्वरोत्पत्ति के प्रसंग में ही निर्देश कर दिया है कि ज्वर के आठ प्रकार होते हैं - वातज, पित्तज, कफज, वातपित्तज, वातकफज, कफपित्तज, तथा आगन्तुज ज्वर।

इन ज्वरात्मक कारणों के अनुसार कहे गये आठ भेदों के अतिरिक्त अन्य प्रकार भी किए गए हैं। 

सिद्धांत रूप से वातादि दोष भेद से वर्णित आठ ज्वरों को स्मरण रखना चाहिए। इसके कारण तथा लक्षण उन्हीं दोषों के अनुसार होते हैं।

आजकल चिकित्सक ज्वर का ज्ञान करने के लिए तापमापक यन्त्र (thermometer) का प्रयोग करते हैं। इसको शरीर के मलाशय, योनि, मुखगुहा (जिह्वा के अधोभाग में), वंक्षण (काँख) में प्रयुक्त कर सकते हैं। मलाशय (गुदा) का ताप मुख के ताप से एक अंश अधिक रहता है। ९८.४ फा० ताप प्राकृत (Normal) समझना चाहिए।

ज्वर के दस उपद्रव होते हैं-खांसी, मूर्छा, अरुचि, वमन, तृषा, अतिसार मलावरोध, हिक्का, श्वास, शरीर में टूटने की सी पीड़ा।

इन उपद्रवों से मुक्त तथा बलवान रोगी का ज्वर सुखसाध्य है। 

असाध्य ज्वर के अनेक लक्षण बताए गए हैं यथा-जो ज्वर अनेक बलवान कारणों से उत्पन्न हुआ हो,सर्व या अनेक लक्षण अति प्रमाण में उपस्थित हों, जिसके उत्पन्न होते ही इन्द्रियों की शक्ति नष्ट हो जाए तो ज्वर को असाध्य मानना चाहिए। (आयुर्वेदचिकित्सा संहिता)

आयुर्वेद में ज्वर की सामान्य चिकित्सा के प्रकरण में बताया है कि रोगी को वायुरहित स्थान में रखें, परन्तु वायु के आगमन (Ventilation) का उचित प्रबन्ध रहे।

गर्म तथा भारी वस्त्र पहनें। पकाया हुआ जल दें। नवीन ज्वर में शक्ति के अनुसार आमदोष पाचनार्थ लंघन कराये।

ज्वरी लंघनं प्रोक्तं ज्वरमध्येतु पाचनम्। ज्वरांते भेषजं दद्याज्वरमुक्ते विरेचनम्॥ Amrutam सूत्र

चरकोक्त ज्वर चिकित्सा सुत्र स्मरण रखें कि प्रारम्भ में लंघन, मध्य में पाचन, अन्त में मुख्य औषय तथा ज्वर मुक्ति पर विरेचन रोगी को देना चाहिए। 

वातदोष का सात दिवस पित्तदोष का १० दिन और कफ दोष का १२ दिन में परिपाक होता है। लंघन के बाद अवशिष्ट दोषों के पाचन तथा जठराग्नि को प्रदीप करने के लिए मूंग का जूस, यवागू आदि की व्यवस्था करनी चाहिए।

उक्त उपक्रमों के उपरांत (वातज में ७वें दिन, पित्तज में १०वें दिन तया कफत्र में १२वें दिन ओषधि प्रदान करें और सामान्यत: सुश्रुतमतानुसार ज्वर में दसवें दिन ओषधि दें। गुडूची, धनियां, नीम की छाल लाल, चंदन, पद्मारव -सब मिलाकर २ तोला लें और १६ गुना जल लेकर चौथाई अंश का काढ़ा शेष रह जावे, तो छान कर प्रातः सायं दें (गुडूच्यादि क्वाथ)।

इसी तरह पंचतिक्त क्वाथ, धान्यपटोल क्वाथ, सारवादि कल्क हितकर हैं। 

महाज्वरांकुशरस (२ रत्ती ३ वार नींबू रस से),

ज्वरधूमकेतुरसं १-१ गोली दो बार), अदरक रस से), सर्वज्वरहर रस (अदरक के रस से १-१ गोली दो बार),
गोदन्ती भस्म (१-३ रत्ती ३ बार मधु से) प्रभृति औषधि लाभकर हैं। 

दोषों की अधिकता का अनुमान करके अनुमान या मिश्रण भेद करें। ज्वरों में मृत्युजय रस (वातज में दही, पित्तज में पित्तपापड़ा जल, त्रिदोषज व कफज में अदरक का रस के साथ) सामान्यतः मधु पंचामृत के साथ दिन में ३-४ बार १-१ गोली प्राचीन काल से बहुत प्रचलित है।

वास्तव में ज्वरधूमकेतु-हिंगुलेश्वर रस-कल्पतरु रस, पित्तज में चंद्रकला रस-धान्याक हिम, कफज में विभुन कीतिरस वनप्सादि क्वाथ विशेष हितकारी हैं। - 

ज्वर में उत्पन्न प्रतिसार वमन, शूल दाह, प्रलाप कोष्ठबद्धता कास, पिपासा आदि का भी उपचार करें। ज्वर मुक्ति पर विरेचन और तदनन्तर लघु आहार प्रारम्भ करने का विधान है।

ज्वर का चिकित्साक्रम... ज्वर के चिकित्सा सिद्धांतों का विशद विचार संहिताओं, विशेषतः चरक संहिता, में किया गया है और साथ ही कतिपय सामान्य विधियों का वर्णन हुप्रा है । नव ज्वर में नौ बातों का निषेध है-और इनका पथ्य न करने पर कई उपद्रवों की संभावना होती है ।

नवज्वरे दिवास्वनस्नानभ्यंगात्रनैथुनम्॥ क्रोध प्रवात व्यायामान् कषायांश्च विवर्जयेत्॥ (चरक. चिकित्सा. ३-१३८)

चिकित्सा सूत्र में लंघन का सर्वप्रथम महत्त्व है, ज्वरे लंघनमेवादावुपदिष्टमृते ज्वरात्- (चरक चि. ३-१३६) क्योंकि इसके द्वारा आमाशय में रहने वाला साम दोष जो, स्रोतों को प्रावृत्त करके ज्वर उत्पन्न करता है, पच जाता है। लंघन (लंघनं लाधवाय यलंघनम् ) अर्थात् सामान्य व्यावहार में-उपवास से दोषों का पाचन हो जाता है।

(प्राहार पचति शिखी दोषानाहारजितः) अन्यथा रोगी द्वारा निरन्तर भोजन करने से प्रभूत माम रस की उत्पत्ति होती रहती हैं।

लंघन व वहण सिद्धान्त .... ज्वर चिकित्सा के सिद्धान्तों की व्यापकता तथा अन्यत्र उपयोगिता के दृष्टिकोण से यह उल्लेखनीय है कि रोगों की चिकित्सा के सामान्यतः छः घटक चरक ने प्रतिपादित क्रिये हैं- लंघन, बृहण,रूक्षण, स्नेहन, स्वेदन तथा स्तम्भन और इनमें से लंघन को दशभेदों में विभाजित कर दिया है, जिससे लंघन का अर्थ केवल 'उपवास' ही न रहकर विस्तृत हो गया है। इसके अतिरिक्त चिकित्सा के दो समूहों-सन्तर्पण तथा अपतर्पण-में, लंघन अपतर्पण क्रम में समाविष्ट है।

प्रस्तुत सामान्य सिद्धान्त ज्वर के अतिरिक्त विविध व्याधियों के उपचार में सदैव प्राधारभूत रहते हैं। इन सिद्धान्तों का चरक ने विविध प्रसंगों में में विशद या संक्षेप में प्रतिपादन किया है।

ज्वर के प्रसग में लंघन विषयक रूपरेखा में, लंघन के फटा का उल्लेख है कि उसके सम्यक् पालन करने से दोषों का नाश हो जाता है।

जठराग्नि के प्रदीप्त हो जाने से ज्वर की समाप्ति, लघुता, क्षुधा उत्पत्ति तथा भोजन में रुचि--जैसे लक्षण उत्पन्न होते हैं। 

जब तक प्राण का विरोध या क्षय न हो तब तक लंघन उपादेय है। हीन, मध्य तथा प्रतिमात्रा में लक्षणों का वर्णन किया है, उनके अनुसार सम्यक् लंघन के लक्षण प्रकट होने तक ही रोगी को क्रिया करानी चाहिये।

चतुष्प्रकारा सशुद्धिः पिपासा मारुतातपो। पाचनान्युपवासश्च व्यायामश्चेति लंघनम्।। (चरक. सूत्र. २२-१८)

लंघनैः क्षपिते दोषे दीप्तेग्नौ लाघवे सति। स्वास्थ्य क्षुत रुचिः पक्तिबलमोजश्य जायते।। (अष्टांग. चकित्सा...१)

आमदोष के पाचक उपायों में, लंघन, स्वेदन, काल, तिक्तरस से संस्कृत मवागू को महत्त्व प्रदान किया गया है, इनसे शनैः शनैः ज्वर शान्त हो जाता है।

ज्वर में उष्ण जल पान का विशेष प्रयोग करना चाहिये। इसके कई द्रव्यों को मिश्रितकर जल- निर्माण किये जाते हैं। साम या सन्तर्पण जल तरुण ज्वर तथा प्रामाशयस्थ दोषों में कफ की बहुलता होने पर वमन का निर्देश किया गया है। जब कि दोनों का उत्क्लेश हो रहा हो, अन्यथा हृद्रोग, श्वास, पानाह मोह आदि उपद्रव हो जाते है, क्योंकि 'अनुपस्थित दोष' में वमन का निषेध है।

इसके उपरान्त मवागू का प्रयोग किया जाता है जिसमें होने वाले कतिपय लाभों का वर्णन दिया गया है और मद्यज ज्वर, ग्रीष्मऋतु पितकफोत्वगता तथा रक्तपित्त में मवागू का निषेध है। तदुपरान्त तर्पणं तथा दन्तधावन का विधान है। छः दिन व्यतीत हो जाने के पश्चात् अपक्व दोष में पाचन तथा निराम दोष में शमन कषाय पान कराना चाहिये।

ज्वर में कषाय-पान विशेष चर्चा का विषय है। तरुण ज्वर में कषाय पान का निषेध है' अर्थात् कषाय या कसैला रस निषिद्ध है न कि कषाय या क्वाथ।

इसी प्रकार घृतपान महत्त्वपूर्ण है। 

कफ के मन्द होने पर,वात पित्तोल्वण ज्वर में दोषों का पाक हो जाने पर, दस दिन के उपरान्त प्रोषध सिद्ध घृत का पान कराना चाहिये।

परन्तु कफ की प्रधानता रहने पर घृतपान अनुचित है। जीर्ण ज्वर में घृत देने का जो उपक्रम है, वह तीनों दोषों का नाश करता है और जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि को जल शान्त कर देता है, उसी प्रकार घृत से जीर्णता को प्राप्त ज्वर समाप्त हो, ऐसी उपमापूर्वक व्याख्या की गयी है।

वमितं लघित काले यवागूभिरुपादेत्॥ यथास्वौषधसिद्धाभिर्मण्डपूर्वाभिरादितः।

(चरकः चिकित्सा. ३-१४६)

ज्वरपेयाकषायाश्च सपिः क्षीरं विरेचनम्। षडहे षडहे देयं वीक्ष्य दोष बलाबलम्।।

स्तम्यन्ते न विपच्यन्ते कुर्वन्ति विषमज्वरम् ।। दोषा बद्धाः कषायेण स्तम्भित्वात्तरुणे ज्परे। (चरक. चिकित्सा. ३-१६१)

यथा प्रज्वलति वेश्म परिषिञ्चन्ति वारिणा। नराः शान्तिमभिप्रेत्य तथा जीर्ण ज्वरे घृतम् ॥ (चरक चिकित्सा.१-३८)

(स्नेहाद्वातं शमयति, शैत्यात् पित्तं

नियच्छति, संस्कारात्तुजयेत्कफम्)। 

इसके उपरान्त दाह. तृष्णा, वातपित्त प्रधानता, दोष बद्धता तथा प्रच्युत दोषों की स्थिति में (निराम ज्वर में) दुग्धपान का विधान है, जिसमें क्षीरपाक भी सम्मिलित हो जाता है।

तत्पश्चात् आवश्यकतानुसार विरेचन तथा निरूहअनुवासन बस्ति की अवस्था भेद से योजना की गयी है। 

विशेषत: शिर सम्बन्धी विकृति को शान्त करने के लिए नस्य का विधान है।

ज्वर की बाह्य चिकित्सा में कतिपय उपक्रम समाविष्ट हैं। इस क्रम में शीत ज्वरों में अभ्यंग, प्रदेह, परिषेक अवगाहन तथा उष्ण कारणों से उत्पन्न ज्वर में शीतलाभ्यंग, प्रदेह-परिषेक करना चाहिये।

इनसे बहिर्यागों से उत्पन्न घर शान्त हो जाते हैं। 

ज्वर में विविध पेया, शाक, यूष तथा मांस रस का प्रयोग किया जाता है।

ज्वर में प्रायः अग्निमांद्य हो जाता है, अत: इसके लिए उचित उपक्रम करना चाहिये। इस सामान्य चिकित्सा सूत्र के प्रतिरिक्त दोषानुसार अथवा ज्वरभेदों के उपक्रम सिद्धान्त पृथक् हो सकते हैं।

विषम ज्वर क्या है?... सुश्रुत ने बताया है कि प्रारम्भ से ही अल्प या निर्बल दोष अथवा ज्वर मुक्ति हो जाने पर अवशिष्ट अल्पदोष मिथ्या आहार-विहार से पुनः प्रकुपित होकर रस आदि धातुओं में से किसी को भी प्राप्त होकर विषम ज्वर को उत्पन्न करता है। 'यह गर्मी या सर्दी लगने के बाद अनियमित काल में आता है ओर वेग, काल आदि में विषमता रखता है।

अतः इसे विषमज्वर कहा गया है 

(विरमो विषमारम्भ क्रियाकालोऽनुषङ्गवान) और यह भी कहा है कि जो छोड़कर पुनः हो जाय (मुक्तानुबन्धित्वं विषमत्वम)। १ .

आयुर्वेद में विषमज्वर की उत्पत्ति में भूतों का अभिषंग भी कारण कहा गया है।

दोषाऽल्यऽहित सम्भूती ज्वरोत्सृष्टस्य वा पुनः। धातुमन्यतमं प्राप्त करोति विषमज्वरम्।।

सुश्रुत के टीकाकार डल्हण के अनुसार 'पर' का अर्थ भूत (परो हेतुः स्वभावो वा विषमे कैश्चिदीरित:) है, जिसके अन्तर्गत जीवाणु से विषमज्वर उत्पत्ति होना अभिप्रेत है।
(आगन्तुरनुधो हि प्रायशो विषमज्वरे)। 

इस प्रकार विषमज्वर (Malaria) का कारण हिमज्वरी (Plasmodium) है, जिसके कि चार प्रकार पाए जाते है-तृतीयक हिमज्वरी (Plasmodium vivax), चतुर्थक हिमज्वरी (P. Malaria), मारात्मक हिमज्वरी (P. Falciparum) तथा अंडाकृतिक हिमज्वरी (P. Ovale) | इनका संवहन मच्छरों से होता है।

विषम ज्वर पाँच प्रकार का होता है-सन्तत (लगातार ७, १० या बारह दिन तक रहे), सतत (दिन-रात में दो वार चढ़े)

तृतीयक (तीसरे दिन पाए) तथा चातुर्थिक (चौथे दिन आए) । इनके अग्रेजी पर्याय क्रमशः (Remittent Fever, Double Quotidian Fever, Quotidian Fever, Tertian Fever तथा Quartan Fever होते हैं। 

यह पांचों प्रकार प्राय: त्रिदोषात्मक ही होते हैं फिर भी वात, पित्त, कफ की पृथक बहुलता पाई जाती है। सामान्य रूप से मलेरिया के दो वर्ग भी बनाए जा सकते हैं -

एक जाड़े से चढ़ने वाला और वारी से पाने वाला, दूसरा जाड़े से न चढ़ने वाला और सदा ही बना सा रहना। 

यह बताया ही जा चुका है कि विषम ज्वर कायाणु मैथुनी तथा अमैथुनी चक्रों में भ्रमण करते हैं। जिस समय रक्तकण को विदीर्ण कर विभक्तक (Shiozont) की अवस्था पार करते हुए अंशुकेतु (Merozite) नामक छोटे जीवाण (प्लाज्मोडियम नामत मलेरिया के प्रमुख जीवाणु के रक्त में रहते हुए अपनी वृद्धि करते हुए) बाहर निकलते हैं और नवीन रक्तकण पर आक्रमण करते हैं, तभी रोगी को शीत के साथ ज्वर चढ़ता है।

परिपक्व होकर बाहर निकलने का समय जीवाणुओं (पूर्वोक्त जातियों मे) भिन्न होने से ज्वर के वेग में भी भिन्नता मिलती हैं।

सारांशत: शरीर को दूषित करने वाले तीन दोष या जीवाणु धातुओं में लीन रहा करते हैं तथा अपनी वृद्धि (स्थिति) के अनुसार ज्वर के वेग को उत्पन्न करते हैं।

विषमज्वर की सम्प्राप्ति के उल्लेख के समय ही लक्षणों का संकेत मिलता है। इसके प्रारम्भ या बढ़ने का समय निश्चित नहीं होता।

तापक्रम में भी विषमता मिलेगी। प्रथम अवस्था में मन में बेचनी, उदासीनता, सन्धियों में दर्द कपकपी गुदा का तापक्रम १०४-१०५ डिग्री तक; द्वितीय अवस्था पर ज्वर का अत्यन्त तीव्र वेग, २-३ घण्टे तक १०३-१०६ डिग्री तक ज्वर रहने के बाद तृतीय अवस्था में पसीना आकर रोगी को शान्ति मिलती है, ज्वर उतरता है।

विषमज्वर के प्रधान लक्षण.... कम्प, नियमित ज्वर, प्लीहा व यकृत वृद्धि रक्ताल्पता (दौर्बल्य) हैं। इसका संचयकाल प्रातः तीन सप्ताह मानते हैं। विषमज्वर के वमन, न्यूमोनिया, उदय रोग, रक्तातिसार, अन्धता, नाड़ी-शूल प्रादि उपद्रव हैं।

ज्वर की आयुर्वेदिक चिकित्सा... विषमज्वर का चिकित्सासूत्र यह है कि जो दोष सबसे अधिक प्रबल हो, उसी की सर्वप्रथम चिकित्सा करें। वमन विरेचन तथा स्निग्ध उष्ण अन्न पान द्वारा विषमज्वर का शमन करना चाहिए।

अनागत बाधा प्रतिषेध के रूप में मच्छर के काटने से रक्षा, मच्छरों का नाश करना, प्रतिरोध विज्ञापन का वितरण आदि कार्य संक्रमण काल में करें तथा नीम के पत्ते-काली मिर्च पीस कर बनी गोलियां भी सेवन कराते रहें। इससे रोग का बचाव रहता है। (अमृतम पत्रिका)

विषमज्वर से पीड़ित रोगी को मुस्तादि क्वाय (मोथा, कटेरी, गुडूची, सोंट, आंवला का काढ़ा बनाकर) में ४ रत्ती पीपल का चूर्ण तथा १ तोला मधु पंचामृत शहद मिला कर प्रातः सायं पिलायें।

तुलसी के रस में काली मिर्च चूर्ण मिला कर सेवन करने से सभी प्रकार की अवस्थाओं में लाभ होता है।
 अमृतम हरड़ चूर्ण ३ ग्राम मधु पंचामृत शहद के साथ २-३ बार सेवन करायें। 

इसके साथ ही किराततिक्तादि क्वाथ, पटोलादि क्वाथ, निम्बादि क्वाथ, कलिंगादि क्वाथ आदि लाभकर हैं।

अगर यह सब प्राचीन शास्त्रोक्त ओषधियां उपलब्ध न हो सके, तो अमृतम द्वारा निर्मित FLUKEY Malt ६ से आठ महीने तक जल या दूध से सेवन करें। साथ में Keyliv Capsule रात को लेवें। यह लिवर की रक्षा करता है।

चरक चिकित्सा सुत्र में व्यवहृत ओषधियों में बृहत्सर्वज्वरहर लौह २ रत्ती ५ ग्राम गुड़ के साथ गर्म जल से २ बार लेते रहें।

विषमज्वरान्तक-लौह (१-१ गोली दो बार जल से) ज्वराशनि रस (१-१ गोली पान के रस से २-३ बार), सुदर्शन चूर्ण (१-१ माशा गर्म जल से २ बार), 

सुदर्शन अर्क (किसी औषधि के साथ), मृत्युजय रस, श्रीजयमंगल रस (उचित अनुपान से) आदि प्रमुख हैं। विशेष प्रकारों या अवस्थाओं में आवश्यकता के अनुसार इनको मिश्रण का प्रयोग करना चाहिये।

जहाँ मलेरिया में सप्तपर्ण, करंज, कालमेव, द्रोणपुष्पी आदि वनस्पतियाँ उपयोगी हैं वहाँ महातिक्ता (Qunine) को विभिन्न योगों द्वारा प्रयुक्त करते हैं।

वातश्लैष्मिक ज्वर क्या है?... इस विषय के अन्तर्गत श्लैष्मिक ज्वर, वातश्लैष्मिक ज्वर, कल्फोवणघातक सन्निपात या फ्लू (Influenza) पाते हैं।

यह ज्वर महामारी के रूप में अधिक संक्रमित होता है, यह आयुर्वेद का अभिमत है। इसका उपसर्ग भी तीव्र प्रकार का देखा जाता है।

ज्वर के सामान्य लक्षण-त्रय वर्णन के समय बताया जाता था कि स्वेद का अवरोध (पसीना न आना) ज्वरों में पाया जाता है।

वातश्लष्मज्वर के प्रसंग में यह अपवाद (विकृतिविषम समवायारब्ध) है अर्थात् इसमें पसीना अधिक आता है।

सामान्य रूप से वातश्लैष्मिक के लक्षण सुश्रत में इस प्रकार वर्णित है'- शरीर गीले कपड़े भीगा सा रहना, सन्धियों में पीड़ा, निद्रा की अधिकता, शरीर का भारीपन, सिर में दर्द, जुकाम, खाँसी, पसीने का अधिक पाना, ज्वर का मध्यम वेग, मुख सूखना।

प्रमुख बात यह है कि रोग का आक्रमण होते ही कुछ काल में रोगी शारीरिक दौर्बल्य विशेष अनुभव करता है। 

चिकित्सा विज्ञान के अनुसन्धान के अनुसार रोग का कारण शोणप्रियाणु प्रजाति के श्लेष्मक दण्डाणु (Bacillus Influenza) है, जो कि निस्यनन्दनशील अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अन्य जीवाणु भी वातश्लैष्मिक ज्वर की उत्पत्ति में सहायक होते हैं।

स्तमित्यं पर्वणां भेदो निद्रा गौरभेव च। शियोग्रहः प्रतिश्याय: कास: स्वेदाप्रवर्तनम्। संतापो मध्यवेगश्च वातश्लेष्मज्वराकृतिः।।

यह जीवाणु श्वास यन्त्र में पहुंचकर शोथ, व्रण प्रभृति विकार करते हैं या आहार नलिका की श्लैष्मिक कला में प्रदाह करके ज्वर करते हैं या सम्पूर्ण धातुओं को दूषित करके कफवातोल्वण सन्निपात करते हैं।

यह विषधातुओं को विकृत कर मारक सिद्ध होता हुआ फुफ्फुसों में विष पहुंचाकर उक्त लक्षणों के साथ वायु की नलियों को कफ में भर देता है। जब विष आमाशय तथा पक्वाशय में पहुंचता है,तो वमन, अतिसार आदि लक्षण भी होते है।

मूलतः वह जीवाणु वायु (निःश्वास ) द्वारा फुफ्फुसों में पहुंचकर रोग की उत्पत्ति करता है।
श्वास मार्ग की श्लैष्मिका में शोथ हो जाता है। ज्वर ३ से १० दिन तक स्थायी रहता है और नाड़ी ८०-६० प्रति मिनट तक पहुंच सकती है।

इस रोग के चार प्रकार मिलते हैं- प्रथम ज्वर युक्त भेद में तीव्र शिरःशूल के साथ बुखार एकदम १०२-१०४ अंश तक पहुंचता है। ज्वर रोज उतरता है और प्राय: ८ दिन तक चल सकता है! सांस शीघ्र आना, कमजोरी आदि भी लक्षण होते हैं।

द्वितीय फौफ्फुसिक भेद में ३-४ दिन ज्वर आने के बाद फुस्फुस सम्बन्धी विकार तथा न्यूमोनिया के समान लक्षण हो जाते हैं। 

मुख पर प्रति नीलिमा रहती है, इससे १२-२४ घण्टे बाद मृत्यु हो जाती है।

तृतीय आन्त्रिक भेद में ज्वर कम तथा पाचन संस्थान सम्बन्धित विकार होते हैं।

यह महामारी की अवस्था में नहीं पाया जाता परन्तु किसी स्थान पर सीमित होने पर यह भेद विशेष पाया जायेगा। 

चतुर्थ वातिक भेद में ज्वर, वेदना, प्रलाप, मूर्छा प्रभृति नाड़ी संस्थान सम्बन्धी विकार देखने में पाते हैं।

जब यह ज्वर किसी स्थान पर संक्रमित होता है, तो निदान करने में सरलता रहती है और जब एक दो रोगी मिलते हैं, तो प्रतिश्याय, दण्डकज्वर, न्यूमोनिया, विषमज्वर, प्रसूतिज्वर, मस्तिष्कावरणशोथ तथा आ न्त्रपुच्छशोक से भेद करते हुए सापेक्षा निदान (Differential dignosis) करना पड़ता है।

मन्थर ज्वर क्या है?... इसके लक्षण कोरोना वायरस से बहुत मिलते हैं। यह भी एक संक्रमण रोग है, जो तेजी से फेल कर लोगों को तत्काल मृत्यु के मुख में फूंचा देता है। सुश्रुत ने ओपसर्गिक रोगों के निर्देश के समय दुष्ट आहार, पेय द्रव आदि (सहभोजनात) के संसर्ग से भी ज्वरादि का होना बताया है। आन्त्रिक ज्वर या मन्थर ज्वर (Typhoid) इसी वर्ग का प्रसिद्ध रोग है, इसे लोक में मोती झाला या मोतीझरा कहा जाता है।

आंत्रवासी तृणाणुयों के आंत्रक वर्ग का प्रधान तन्द्राभ जीवाणु (Bac. illns Typhosus) तथा दुर्गन्ध युक्त स्थान, धातु क्षीणता, विकृत भोजन, दूषित जल से उत्पन्न वायु, जल की वृद्धि होकर सहसा कम हो जाना आदि प्रकारों से प्राविक ज्वर माना जाता है।

यह जीवाणु रोगी के आंत्र के क्षत मूवाशय, पित्ताशय, प्लीहा रक्त पीडिकाओं से प्राप्त होता है। 

रोगी के मलमूत्र दूषित जल या बर्फ शर्वत आदि, जीवाणु युक्त हवा या जल से दूषित भोजन आदि मक्षिका द्वारा (मक्खियां जीवाण युक्त पल पर बैठकर फिर भोजन पर बैठती हैं) तब इस रोग का संक्रमण होता है। इसके लक्षण कोरोना जैसे ही बताएं हैं।

रोग का जीवाणु पाचनमार्ग में क्षुद्रान्त्र में पहुंचकर वृद्धि करते हुए अन्त्रगत लसीका पिण्डों से (लसीकावाहनियों द्वारा) आन्त्रकला (मेजेन्ट्री) में पहुंचता है और यहां से रक्त में (रक्त से प्लीहा मज्जा आदि स्थानों को) प्रसरण करते हैं।

क्षुद्र तया बृहद प्रान्त्र की श्लेष्मकला (म्यूकसमेम्बरेन) लाल हो जाती है। 

प्रान्त्रस्य लसीकाग्रथियों का शोथ क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होती हुई सातवें दिन क्षत रूप में परिणित होने लगती है।

सर्वाधिक विकृति क्षुद्रान्त्र के निचले भाग (तृतीयांश) में पाई जाती है। इन क्षतों के रक्तस्राव भी होता है।

जब क्षत विशेष गहरे हो जाते हैं तो उदरकला तक पहुंचकर सोथ (पेरीटोनायटिम) उत्पन्न हो जाता है।
दूसरे सप्ताह तक ऐसी अवस्था चलते रहने के बाद तीसरे सप्ताह में व्रणों के सड़े हुए भाग का गलना तथा चौथे सप्ताह व्रणों का रोपण प्रारम्भ हो जाता है।

इस प्रकार शरीर में जीवाणु प्रविष्ट होते होते १०-१४ दिन में रोग प्रकट हो जाता है, तब तक (गुप्तावस्था में) अरुचि प्रालस्य शिरः शूल, बेचैनी, विविध शरीर के अंगों में पीड़ा, प्रांखों के सामने अन्धेरा पा जाना प्रभृति पूर्वरूप होते रहते हैं।

तथा क्रमशः दौर्बल्य पाना प्रारम्भ हो जाता है। इन दस दिनों के संवयकाल पश्चात् प्रथम सप्ताह में ज्वर शनैः शनैः बढ़ता है और सायं दो अंश उतरता है।
प्रातः काल १०६-१०५ अंश तक पहुचना है। प्रायः नाड़ी की गति ६० तथा श्वास की गति ३० प्रति मिनट होती है।
जिह्वा मटमैली, प्रारम्भ में निबन्ध अन्त में पतला मल, ७.८ बार दस्त आना पेट फूलना व गुड़गुड़ाना, मुख उदासीन व कुछ खुला हुआ सा, रात्रि में प्रलाप व विक्लता, कुछ खाँसी शिरःशूल तथा विशेषतः उदर व छाती पर गुलाबी रंग के सूक्ष्म दाने ७.१२वें दिन निकलते हैं।

प्लीहावृद्धि तथा मन्द हृदयता क्षुधानाश आदि भी होते हैं। द्वितीय सप्ताह में उच्चतम ज्वर, अतिसार (मल) में जीवाणु, प्रांत्रस्थ पेयर ग्रंथियों तथा श्लेष्मल कला के टुकड़े, अननदि अस्पष्ट प्रलाप नाड़ी गति प्रालस्यदौर्बल्य में बुद्धि शिरःशूल, न्यूनता, तन्द्रा प्लीहावृद्धि तथा दाँत जीभ प्रादि पर मैल जम जाना प्रमुख लक्षण हैं।

इस सम्पूर्ण काल में तापमान उच्च सीमा पर पहुंचता है और दाने (Rose spots) स्पष्ट गुच्छों में व उभरे हुए होते हैं । तृतीय सप्ताह में ज्वर धीरे-धीरे उतरता है। रोगी की दुर्बलता बढ़ती है।

जिह्वा की स्वच्छता, स्थिति में प्रायः सुधार प्रारम्भ, प्लीहा के परिमाण में कमी, मानसिक स्थिति में लाभ होने लगता है।

चतुर्थ सप्ताह में रोग सन्निवृत्ति प्रारम्भ हो जाती है । सभी लक्षण मन्द होकर शरीर का तापक्रम स्वाभाविक (नार्मल) से कम तथा नाड़ी की गति मन्द चलती है। इस प्रकार शनैः शनैः रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। मानसिक स्थिति में जो अव्यस्थित हो जाती है, अब सुधरने लगती है।

यदि रोग तीव्र प्रकार का हुप्रा तो द्वितीय सप्ताह (से ही जो कुछ सुधार की स्थिति आ जाती है वह न होकर) में हृकायावरोध तथा प्रान्त्रस्थ वर्णों से अधिक रक्तस्राव होकर मृत्यु हो सकती है । तृतीय सप्ताह में उक्त अरिष्ट लक्षणों के साथ ही मूत्रावरोध, मलमूत्र का अनैच्छिक उत्सर्ग उपस्थित होता है।

अधिकतर इसी सप्ताह के बाद मृत्यु हो सकती है। चौथे या उसके उपरान्त के सप्ताह में प्रांत्र का भेदन तथा प्रान्त्रावरण प्रदाह होकर या इससे भी शीघ्र मृत्यु संभव हो सकती है।

मन्थर ज्वर यानि कोरोना या कोविड वायरस से हानि

इस रोग में स्मृति नाश, सन्धि, शोथ, पित्ताश्मरी, मूकता. कशेरुकाओं का शोथ, अस्थ्यावरण शोथ, हृदयावरण या फुफ्फुसावरण शोथ सांस की बीमारी, ह्रदय घात, फेंफड़ों का संक्रमण तथा श्वसनकज्वर इत्यादि अनेक उपद्रव हैं।

यद्यपि लक्षणों के स्पष्ट होने पर इस रोग के निदान (निर्णय) करने में कठिनता नहीं होती है तथापि उसे मस्तिष्कसुषुम्नाज्वर, 

घातकविषमज्वर,

माल्टाज्वर, 

न्यूमोनिया,

इन्फ्यूलेंजा, 

कालाजार,

मैंनिजायटिस 

आदि से रोग को पृथक करना चाहिए रोग के सही निदान करने के लिए आयुर्वेद पद्धति का प्रयोग उचित है। अतः ऐसे रोगी को तुरंत Flukey malt खाना आरंभ करना चाहिए। मन्थर ज्वर के प्रधान लक्षण... (ज्वर क्रमशः चढ़ना, शिरःशूल इत्यादि चौथे पैराग्राफ के प्रारम्भ में वर्णित लक्षण), रक्तसंवर्धन तथा परीक्षा

(Blood culture & test) 

मूल की डायजो कसौटी (Doizo test) मल तथा मूत्र संवर्ष, विडाल कसोटी (widal test)।

रोग का पुनरावर्तन हो सकता है परन्तु आक्रमण कम घातक होता है। क्योंकि शरीर में प्रतिरोधक शक्ति (Imumity) उत्पन्न हो चुकती है।

रोग सारे वर्ष में विशेष रूप से वर्षाकाल तथा शीतकाल में अधिक उपसर्ग होता है। प्रायः बालकों तथा जवानों में पाया जाता है। 

प्रथम वर्ष तथा २५ वर्ष बाद रोग असाध्य तथा १५-२५ वर्ष की आयु तक साध्य माना गया है।

आन्त्रिक ज्वर के कई प्रकार मिल सकते हैं-उपांत्रिक ज्वर (Paratyphoid Fever) जो कि ए, बी, सी, तीन प्रकार के जीवाणु से उत्पन्न होता है, चलनशील (एम्बुलेटरी), उष्णदेशीय (ट्रोपिकल), गंभीर भेद (ग्रेव), भ्रमजनक (प्रोपाकिंग), मृदुभेद (एवाटिन) आन्त्रिक ज्वर तथा न्यूमो-मैनिंगोनेफोटायफाइड। -


एलोपैथी या अन्य चिकित्सा पद्धति में कोरोना रूपी मंथर ज्वार का स्थाई उपचार नहीं है। आयुर्वेद में इस रोग को मिटाने हेतु अनेकों संक्रमण नाशक ओषधियां का उल्लेख है। सावधानी से रोगी का उपचार इन उपायों द्वारा करना चाहिए।

सर्वप्रथम रोग प्रतिरोधक चिकित्सा (टायफाइड से बचाव) लिखी जाती है।

आन्त्रिक ज्वर में रोगी की आतें संक्रमित होकर ग्लेन लगती हैं। चूंकि ६० प्रतिशत व्यक्ति दूषित जल से ही इस रोग से पीड़ित होते हैं। अतः जल तथा दूध उस समय ओटाकर सेवन करें। नाली, पाखाना आदि की सफाई, चिकित्सक या परिचारक के हाथों की सफाई, रोगी के थूक, मल मूत्र को निर्जन्तु करके नष्ट कर देना, मुख को गूलर के काढ़े में शुद्ध सुहागा थोड़ा , डालकर प्रक्षालन करना, रोगी को पूर्ण विश्राम, खाने आदि में स्वच्छता को, रखें, रोगी का गृह पृथक् होना-प्रकाश व उचित हवा से सम्पन्न होना तथा पान्त्रि ज्वर प्रतिरोधक मसूरी (T. A. B. Prophylatic Vaccine) आदि उपाय हैं।

इस रोग की रोगनाशक चिकित्सा (टायफाइड) के रोगी का मुख्य इलाज जिसमें उपरोक्त कुछ उायों का भी समावेश है।

इस प्रकार है लौंग कुचल कर पानी में उबाल लें और छान कर 'लवंगोदक' रख लें इसको प्यास लगने पर रोगी को दें। 

पतला आहार पदार्थ, जौ का जल तथा आयु के अनुसार दूध २-३ सेर तक ही देना चाहिए। भोजन में पिष्टमय में पदार्थ (स्टार्च) अधिक, प्रोटीन मध्यम तथा स्निग्ध पदार्थ (फैट) अति न्यून हों। यह ध्यान रखें कि रोग के प्रारम्भ में ज्वर उतारने की कोई औषधि न दें। पानी या षडंगपानीय आदि देते रहे। आमदोष के कुछ क्षीण हो जाने पर गाय का दूध चौगुने पानी में (पकाते समय पीपल की पोटली डाल दें) 'क्षीर पाक' करके करते जब ज्वर पूर्णत: समाप्त हो जाये पुराने चावल की पेय तथा इसके बाद अन्य लघु प्रहार सेवन करना चाहिए। मलावरोध न हो, इसका प्रयत्न करते रहे।

औषधि चिकित्सा में सौभाग्य वटी, १०० मिलीग्राम प्रात: सायं देते हैं।

अग्निश्वर रस (१०० मिलीग्राम गर्म जल से दो बार), चन्द्रशेखर रस (२०० मिलीग्राम अदरक के रस के साथ २ बार),
वृहत्कस्तूरी भैरव रस (मधु पंचामृत से १०० मिलीग्राम  दो बार) 

ज्वरादि अभ्रक रस (२ रत्ती ३ बार मधु से)-प्रभृति औषधियों में दोपोलवणता के अनुसार

मुक्तापिष्टि (१०० मिलीग्राम) 

प्रवाल भस्म (१०० मिलीग्राम) को मिश्रण करके योग करना चाहिए। अति तीव्र ताप होने पर बर्फ की थैली तथा प्राणेश्वर रस, अतिसार होने पर दूध आदि की कमी तथा महागंधक एवं संजीवनी वटी १००/१०० मिलीग्राम

तीन सौ मिलीग्राम भुने जीरे के साथ (पेट फूल जाने पर तारपीन का तेल जल में मिला कर सेंक करें)।
अनिद्रा होने पर सर्पगन्धा चूर्ण १०० मिलीग्राम ४ बार पानी के साथ, 

संज्ञाल्पता व प्रलाप होने पर उक्त औषधियों के साथ योगेन्द्र रस तथा चतुर्भुज रस (१००/१०० मिलीग्राम र का मिश्रण) हृदय दौर्बल्य नाड़ी शैथिल्य में मकरध्वज (१०० MG) या मृत संजीवनी रस (१०० mg) या विश्वेश्वर रस (१०० mg) का भी मिश्रण उचित रहता है। इसी प्रकार अन्य लाक्षणिक उपचार करें।

संहत्यास्पङमूलत: फुफ्फुसस्यऽसव्ये पाशर्वे सव्यतो वा द्वयोग जिघांसन्ति श्वास यंत्रविषोत्था

दोषास्तमाच्छ्वास कष्टं ज्वरञ्च।।


श्वसनक ज्वर क्या है?... श्वसनक ज्वर को ही कर्कटक सन्निपात या न्यूमोनिया कहते हैं। यह रोग श्वास संस्थान या फुफ्फुस सम्बन्धित रोग है, परन्तु इसे सन्निहत ज्वरों में समाविष्ट कर लिया है और मुख्य विकृति या लक्षणों के अनुरूप फुफ्फुस प्रदाह (Pneumonia) नामकरण किया गया है।

इसका तात्पर्य फुफ्फुस पाक से लगाना चाहिए। तीव्र ज्वर के साथ फुफ्फुस के अवयवों में शोथ, कोप समूह प्रादाहिक रक्त रस से अवरुद्ध होकर, छाती की वेदना सहित खाँसी आदि से लाल-काला कफ निकलता है, संक्रमक तीव्र रहता है जो कि श्वसनक दण्डाणु रोग द्वारा प्रमुखतः सम्पन्न होता है।
यही सामान्य रूप से श्वसनक ज्वर (न्यूमोनिया) है।' रोगोत्पादक कारणों, फुफ्फुस या उससे सम्बंधित अवयवों की विकृति के (स्थान भेद) अनुसार इस रोग के दो प्रकार किये जा सकते हैं। अ) खण्डीय श्वसन ज्वर (Lobar-Pneumonia)

फुफ्फुस गोलाणु (Pneumococia) की विकृति से फुफ्फुस में दोषमयता होती है। मुख्यशलाकाकार जीवाणु (Diplococus Pneumonia) के चार भेदों में से प्रथम तीन जातियां न्यूमोनिया की विशेष उत्पत्ति करते हैं। परंतु अनुकूल अवस्थानों की स्थिति में ही इनसे विकृति की संभावता समझनी चाहिए। यथा-शीत से रक्षा करने के लिए वस्त्रों का अभाव, शीत का अधिक स्पर्श, में अचानक ठण्ड लग जाना, दूषित धूलि युक्त वायु में निवास करना, प्रति परिश्रम, वक्षः स्थल पर आघात या फफ्फसों में प्रत्यक्षतः उत्तेजना, उचित ऋतु (वर्षा, शिशिर तथा बसन्त विशेषतः) और शारीरिक दुर्बलता, प्रायः युवावस्था में रोग पाया जाता है और रोगी से पूछने पर जल में भीगने या शीत लग जाने का इतिहास मिलता है।

श्वसनक ज्वर रोगी के थूक या कफ (खाँसी या छींक आदि) से जीवाणु निकल कर वायु मण्डल में श्वास-प्रश्वास द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के वायु में मिल कर नासा या मुख मार्ग में पहुंच जाते हैं।

और शारीरिक दौर्बल्य या शीत आक्रमण वश श्वसन क्रिया से फुफ्फुस में पहुंच जाते हैं, जिससे संक्रमण होकर एक पार्श्व या दोनों पाश्वों के फुफ्फुस खण्डों (प्रायः नीचे भाग) में शोथ उत्पन्न होता है।' 

शोथ के स्थान पर रक्ताधिक्य होकर फुफ्फुसाकृति (आयतन) में वृद्धि तथा रुग्ण स्थान की अधिक घनता हो जाती है । इस क्रिया में व्यतीत ५ घण्टे -२४ घण्टों के बाद ३, ५, ७ या १० दिन तक फुफ्फुस ठोस बड़ा रह कर कोषाओं (सैल्स) ठोस होने के अतिरिक्त स्थान शोणित युक्त स्राव से पूर्ण हो जाता है।

इन दिनों के समय के बाद फुफ्फुस मुलायम होकर द्रवीभूत (स्रावित) होना प्रारम्भ होता है। इसका कुछ भाग रक्त में मिलता रहता है और शेष थूक में प्रात्रा रहता है। 

श्वास शब्द भी शनैः शनैः प्रणालिक से कोष्ठिक अवस्था में आकर फुफ्फुस स्वस्थ हो जाते हैं। इस प्रकार तीन अवस्यायें होती हैं-रक्त संग्रहावस्था (Enlargement) स्रावणवस्था (Exudation) तथा रोगोपशमावस्था (Grey hcpotization)।

शीत लगकर सहसा रोग का आक्रमण होते ही रोगी बेचैन हो उठता है।

कम्प के साथ १०-१२ घण्टे के बाद ज्वर १०४ अंश तक बढ़कर शिरःशूल, अग्निमांद्य, पसलियों में पीड़ा, शुष्ककोस, पिपासा, युवापुरुषों के वमन, मलावृत जिह्वा, कटिमूल, कोष्ठबद्धता, श्वास, गति ५०-६० बार प्रति मिनट (कष्टकारक या गंभीर) तथा नाड़ी गति १२०-१३० तक (पूर्ण, कठिन, उठलती-पी होना आदि लक्षण होने लगते हैं। 

यह सन्ततस्वरूप का ज्वर ८.८ दिन तक १ अंश से अधिक घटता-बढ़ता नहीं। रोगी की छाती पर दबाव तथा हल्की पीड़ा भी अनुभव होती है २-१ घण्टे बाद खांसी में गाढ़ा, चिपचिपा मैला-सा कफ तथा दूसरे दिन ईंट के समान रक्ताभ कफ निकलता है। निद्रावश हल्का प्रताप, प्रौठों पर फुन्सियां, रक्तमिप्रित श्लेष्मा, छाती के विकृतपार्श्व में वेदना इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं।

ज्वर ५, ७, ९ या ११वें दिन उतरता है और अन्य उक्त लक्षण भी एकाएक कम होने लगते हैं- यदि १२वें दिन उवर शान्त होता है तो धीरे-धीरे उतरेगा। इसके बाद अन्य लक्षण यद्यपि शोध समाप्त हो जाते हैं तथापि फुफ्फुस की विकृति कुछ दिन बनी रहती है और दुर्वलता भी अनुभव होती रहती है।

रोग के अत्यन्त प्रबल होने (उक्त समय में शान्त न होने) पर द्वितीयावस्था और फिर अन्त में तृतीयावस्था में पूयसंचय होने लगता है। यदि रोगी दो सप्ताह में स्वस्थ नहीं होता, तो फुफ्फुस के प्राकृत होने में विलम्ब समझा जाता है। न्यूमोनिया के अनेक उपद्रव हैं- पूयोरस, फुफ्फुसावरणशोक, मस्तिष्कावरणशोथ, फौफ्फुसिक विधि तथा

कर्दम (एब्सेस एण्ड ग्रैग्नीन), 

राजयक्ष्मा, हृदयावरणलोय,

प्राध्यान, 

कर्णभूतशोक इत्यादि। रोगियों की मृत्यु हृत्कायविरोध (हार्टफेलियर) से १४-२० प्रतिशत होती है।

रोग असाध्य होने पर ४-१० में दिन मृत्यु प्राय: देखी गई है।

(ब) प्रणाली श्वसनक ज्वर (Brancho Pneumocnia)

इस रोग में मुख्य कारण न्यूमोनियाणु (Pnenmococus, Pneumoमें bacillus)हैं।

इसके उपसर्ग में प्राघात, शीत लगना, मद्यपान, भूखा रह जाना, धातुक्षय, रासायनिकध्र म्र का फुफ्फुस में प्रवेश होना इत्यादि सहायता पहुंचाते हैं तथा मसूरका, रोहिणी, कालाजार, विषमज्वर, पान्त्रिकज्वर मादि रोगों में उपद्रव स्वरूप हो सकता है। 

परन्तु गौण प्रकार का प्राय: यह रोग मिलता है।

पूर्वोक्त लिखित संक्रमण प्रकार से कीटाणु फुफ्फुस को वायु प्रणालियों में शोथ उत्पन्न कर देते हैं। सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर वायु प्रणालियों में यह उपसर्ग पहुंचता है और इनके मार्ग को तंग करता है। अतः फुफ्फुसों में हल्की कूजन सी सब जगह सुनी जा सकती। इस प्रकार वायु कोष्ठों (एल्वियोल्स) में रक्त की वृद्धि होकर जितनी सूजन बढ़ती जाती है, उतना ही मेधातु (दूषित) पाता है।

परन्तु संघनन (कन्सोलीडेशन) की मर्यादा अल्प तथा अस्पष्ट चिह्नों युक्त मिलती है। वक्ष के पावों में श्वासनिकाशोध (बोंकायटिस), 

अर्धविसर्गीज्वर (रेमीटेन्ट). कास, श्वासकृच्छता, पाण्डुवर्ण की प्राकृति, वक्ष पीड़ा रहित (प्रायः), श्लेष्मामिश्रित पूय मादि लक्षण हाते हैं।

ज्वर ४, ५ या ७ दिन तक १०२ अंश तक चढ़ता हुमा क्रमशः उतर जाता है। प्रथम सप्ताह में नाड़ी की गति १००-११० प्रतिमिनट तक, शरीर से स्वेदाधिक्य, पुनः कष्टदायक-प्रगम्भीर श्वास-प्रश्वास लक्षण होते हैं।
ज्वरावस्था साध्य होने पर १-२ दिन में क्रमश: बुखार उतर जाता है और रोग का भी शनैः शनैः शमन होता है। 

रोग की वर्धनशील प्रकृति होने से ज्वर की अवधि भी लम्बी हो जाया करती है।

यह रोग प्राय: बाल्यावस्था, वृद्धावस्था तथा दुर्बलता की अवस्था में होता है। परन्तु बुढ़ापे में होने वाली विकृति खतरनाक होती है।

बालकों में २ साल की आयु तक यह रग अधिक पाया जाता है और साथ में साथ में मध्यकर्णशोध, उरःपूय, मतिसार प्रादि भी उत्पन्न हो जाते हैं। 

मृत्यु संख्या कम देखने में आती है।

आयुर्वेदिक अमृतम चिकित्सा.... - यह श्वसनकज्वर प्रायः विशेषज होता है। प्रायः साधारण रूप से जो दोष वृद्धि पर हो उसे घटायें और घटे हुए दोष की वृद्धि करनी चाहिए, जो उपद्रव अधिक हो उसकी चिकित्सा पहले करना चाहिए।

कफ की वृद्धि जब तक शमन न हो तब तक लंवन तथा लघु पथ्य दें। 

मामदोषपाचनार्थ स्वेद हितकारक है । इस प्रकार चिकित्सा इन तीन उद्देश्यों द्वारा करना चाहिएजीवाणु की क्रिया को नष्ट करना, व्याधि या विशेष लक्षणों का शमन तथा रोगी बल (हृदयादि) को रक्षा।

रोगी को शुद्ध हवादार कमरे में रखना, पूर्णविश्राम देना, मृदु विरेचन देनाः सुपाच्य लघु पेया, फलों का रस, दूध देया प्राथमिक उपचार है। वक्ष पर पुराने घी सेंधा नमक मिलाकर मलें, इससे दर्द भी शांत होगा और कफ निकलेगा।


त्रिभुवनकीति २०० mg, शृंगभस्म १०० mg , मुक्ताभस्म १०० mg, रससिन्दूर ५० mg-इनको मिलाकर ६ मात्रायें बनाये और ४-४ घण्टे पर amrutam Flukey malt तथा एक चम्मच मधु पंचामृत के साथ दें। औषधि क्रम इस प्रकार एक सप्ताह चलाने से रोगी पूर्ण स्वस्थ हो सकता है।

प्रात: ७ बजे महादित्य रस रत्ती, अदरक के रस से १० बजे वृहत् कस्तूरी भैरव पान के रस तथा मधु से, दोपहर १ बजे बसन्ततिलक रस मधु तया पीपल चूर्ण के साथ, ४ बजे सायं रस तुलसी रस व मधु के साथ और रात्रि को १ बजे कनकसुन्दर रस मधु से सेवन कराये। 

इसमें अवस्थानुसार परिवर्तन वांछनीय है। अन्य लक्षण विशेषों हृदयअवसाद, श्वासकष्ट, श्यावता पावशूल, प्रलाप, रक्तष्ठीवन, कफनिस्सरण, कष्ट, नाड़ी की गति चिन्ताजनक निद्रानाश, आनाह या उदरशूल, हिक्का, शीतकाय या रक्तसंचार में शिथिलता प्रादि की आवश्यक शांति करते रहें।

रोगी के बल का संरक्षण करने की ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए।

ग्रन्थिकज्वर क्या है?... इस रोग के अग्निरोहिणो, प्लेग, ताऊन आदि कई नाम हैं। यह तीव्र संक्रामक रोगमहामारी की तरह फैलता है और प्राय: असाध्य होकर जनसंहार करता चला जाता है। इसका संक्रमण वर्षाकाल से प्रारम्भ होकर शीतऋतु के अन्त तक विशेष रूप से हुआ करता है।

इस रोग का कारक (seed) ग्रन्यिक दण्डाणु (Bacilius Pestis), कर्ता (Sower) चूहे व पिस्सू तया क्षेत्र (Soil) मनुष्य है। पिस्स् (जिनोप्सीला चेप्रोपिस) चूहों पर रहती है और इसकी आमाशय में प्लेग के जीवाणु भरे रहते हैं। जव चूहे मरने लगते हैं, तो पिस्सू अपने जीवन निर्वाह के लिये मनुष्य को दंश करता है।

स्मरण रहे कि प्लेग जीवाणु प्रथमावस्था में चूहे के रक्त में विद्यमान होते हैं, जब यह मक्षिका चूहे को काटती है तो रक्त के साथ जीवाणु भी खींच लेती है तब, पिस्सू मनुष्य को प्राय: पैर में या सोते हुए मनुष्य को ग्रीवा ग्रादि में काट कर लसीका वाहनी नलियों द्वारा ऊपर-जाकर रक्त में मिल जाता है और प्राय: ३ दिन में तथा २ से १५ दिन तक अथवा यदि तीव्र विष हुप्रा तो २-१ घण्टे में ही रोग उत्पन्न हो जाता है।'

कक्षाभागेषु में स्फोटा जायन्ते मांसदारुणः। अन्तर्दाहज्वरकरा दीप्त पावकसन्निभाः।

आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत ने कहा है कि इस रोग में वंक्षण तथा कक्षा भाग में मांस को विदीर्ण करने वाले, प्रज्वलित अग्नि के समान, अन्तर्दाह, ज्वर उत्पन्न करने वाले स्फोट उत्पन्न हो जाते हैं। वस्तुतः पिस्सू द्वारा किये गये दंश के समीप स्थान को लसीका ग्रन्थियाँ (Lymphatic glands), जो कि जीवाणु प्रवेश के समय विरोधी प्रयत्न करती हैं, उसकी वृद्धि हो जाती है।

जंवा (वंक्षण) की ग्रन्थियाँ सबसे अधिक फूलती हैं। अन्य लक्षणों में अकस्मात् तीव्र ज्वर, रोगी की विशिष्टं प्राकृति, चेहरा शोथयुक्त, प्रलाप क्षधा का लोप, अनिद्रा आदि प्रमुख हैं। ३-४ दिन में ज्वर की तीव्रता कम होकर नाड़ी गति अनियमित हो जाती है और दिन में फूली हुई वेदना युक्त ग्रन्थियों में पूय पड़ जाती है।

यदि प्रथम सप्ताह तक ग्रंथि बैठती नहीं है तो द्वितीय सप्ताह में पक जाती है। यदि ६ व ७वें दिन रोगी की मृत्यु न हो अर्थात् रोग सौम्य होकर ५वें दिन लक्षणों में कमी अनुभव होने लगती है।

प्लेग के ग्रन्थिक (Bubaonic), दोषमय (septicaemic), फौफ्फुसिक (pneumonic), मस्तिष्कावरणीय (Merningeal), जलांतक लक्षण युक्त (Hydropholic), तालुग्रन्थिक (tonsillar) नामक ६ भेद होते हैं। पूर्व पक्तियों में वणित ग्रन्थिक प्लेग ही ८० प्र. श. पाया जाता है। निदान करते समय उपदंश या फिरंग जन्य लसीका वृद्धि विषमज्वर टायफाइड, निमोनिया से पृथक् रहना चाहिए।

निदानमत्र सामान्यं संकुलावसयादिकम्। विशिष्टं तु रक्तचरंजीवाणु-संभवम्। ते स्पर्श श्वसनादिभ्य: संक्रामन्ति नरान्मरम्। भूम्ना तद्रोग जुष्टेभ्यो मूषिकेभ्यश्च संक्रम:।।


रोग प्रायः असाध्य (त्रिदोषज) है और ७, १ या १५ दिन में रोगी को मारक, ग्रन्थिक प्लेग (६०-७० प्र. श. मारक) है। फौफ्फुसिक-दोषमय प्रकार विशेष घातक है।

ग्रीवा-कक्षा की ग्रंथि अधिक घातक होती है।
तन्द्रा, प्रलाप, नाड़ी गति, तीव्रता, रक्त भार में कणी, रक्त में जीवाणु मिलता शरीर में स्थान स्थान पर रक्तस्राव आदि असाध्य लक्षण होते हैं। 

अमृतम आयुर्वेदिक चिकित्सा ... चूंकि, मकान में चूहों की अधिकता, मकानों में सील, निवास स्थान के समीप सड़न बदबू, अशुद्ध जल, सोने तथा पहनने का गलत प्रबन्ध, मक्खियों की अधिकता तथा भोजन की गड़बड़ी आदि रोग संक्रमण में सहायक होते हैं। अतः चिकित्सा की दृष्टि से उनमें सुधार करना चाहिए।

प्लेग फैलने के समय रोगी को अलग कमरे में रखें और यदि चूहे घर में बहुत मर रहे हो तो अपने घर को भी त्याग दें, कभी-कभी अपना नगर (बस्ती) छोड़ने की अावश्यकता पड़ सकती है।

रोगी प्रकाशव हवा युक्त स्थान में रहे तथा शैया पर ही मलमूत्र का प्रबन्ध कर दें। रोगी की तथा उसके आसपास की वस्तुओं के निर्जन्तुकरण विधि पर विशेष ध्यान देते हुए परिचारक एवं सम्बन्धित मनुष्यों को रोग के संक्रमण से अपनी सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिए।

औषधि चिकित्सा में रत्नागिरिरस २ रत्ती ४.४ घण्टे वाद, पीपल, पुराना घनियाँ, अदरक रस तथा फ्लू की माल्ट एवं मधु के साथ मिला कर दें।

इसी प्रकार चंडेश्वर रस (२ रत्ती दो बार मधु से)
वेताल रस (२ रत्ती दो बार अदरक रस से), सन्निपातभैरव रस (१-१ गोली उचित अनुपात से),
सूचिका भरण रस (१-१ गोली नारियल के जल से), कालानल रस (१–१ गोली उचित अनुपात से) तथा मृतसंजीवनी सुरा (उचित मात्रा में पिलायें)।
ये प्लेग में लाभकारक सिद्ध हुई हैं। 

ग्रन्थि पर जलधनियाँ पीसकर लेप करें और प्रति २-३ घण्टे पर बदलते रहें अथवा नागफनी व आमाहल्दी की लुगदी कुछ दिनों तक गर्म करके बांधते रहें।

ग्रन्थि में पूय पड़ जाने पर शस्त्रकर्म भी किया जा सकता है।
प्रमुख रोग के साथ उत्पन्न अन्य लक्षणोंविबन्ध, पिपासा, प्रलाप, तीव्र ताप, वमन अतिसार, शीतकाय, मूत्रावरोध, रक्त, पत्ति, सैयावरण, कास, श्वास आदि की शांति के लिए यत्नपूर्वक उपचार करें। - 

सन्निपात ज्वर क्या है?...वात, पित्त तथा कफ की सम्मिलित विकृति से सन्निपात ज्वर होता है। इसके सामान्यतः क्षण में दाह-शांति का अनुभव।

अस्थि, शिर सन्धि में विशेष वेदना, मांतुनों से भरे काले या लाल नेत्र-विस्फारित या अन्दर को प्रविष्ट, कानों में शब्द का अनुभव तथा वेदना। गले में चुभन, तन्द्रा, मूर्छा, भ्रम, प्रलाप, कास, अरुचि, जिह्वा खुरदरी व जुली हुई सम्पूर्ण अंगों में शिथिलता।

थूक में कफ के साथ पित्त या रक्त आना, शिर को इधर उधर घुमाना, प्यास, निद्रानाश, हृदय प्रवेश में पीड़ा, स्वेद मल-मूत्र का अल्प तथा विलम्ब से आना, विशेष कमजोरी न माना, कण्ठ में घुर्घराहट होना। शरीर पर सांवले या लाल वर्ण के चकत्ते पड़ जाना।

वाणी में असमर्थता, मुख नासा प्रभृति स्रोतों में पाक, पाचन में विलम्ब तथा दोष परिपाक में देरी होना-लक्षण चरक में उल्पेख किए गए हैं। -

पाश्चात्य मतानुसार इस प्रसंग में सेप्टीकीमिया (Septicemia) रोग प्राप्त होता है, इसमें उपरोक्त लक्षणों से न्यूनता या प्रधिकता पाई जाती है। आयुर्वेद में वर्णित निम्नोक्त सन्निपात ज्वर के भेदों के विशिष्ट लक्षणानुसार माधुनिक रोगों से किया जा सकता है। वास्तव में सन्निपात ज्वर सर्व-षातुओं तथा अंगों को प्रभावित कर देता है।

सन्निपात ज्वर के भेद विषयक प्रकरण में चरक ने दोषों की उल्वणता के अनुसार १३ प्रकार बताये हैं। भावमिश्र प्रादि प्राचार्यों के अनुसार शीतांग, तन्द्रिक, प्रलापक, रक्तष्ठीवी, भुग्नत्र, अभिन्यास जिह्वक, सन्धिक, अन्तक, रुग्दाह, चितविभ्रम, कणंक, कण्ठग्रह-ये तेरह भेद लक्षणों की प्रधानता के प्राधार पर नाम रखकर वर्णन किए गए हैं।

अमृतम चिकित्सा... दोषों तथा मलों की प्रवृत्ति का अभाव होने पर जठराग्नि के नाश हो जाने से तथा सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त होना यह रोग असाध्य तथा इसके विपरीत स्थिति होने पर कृच्छसाध्य होता है।

यह चरकोक्त साध्यासाध्यता विषयक सामान्य नियम है । सातवें, दसवें, ग्यारहवें दिन क्रमश: वातज, पित्तज, कफज सन्निपात ज्वर अत्यन्त प्रबल होकर शांत हो जाता है या रोगी की मृत्यु हो जाती है।
त्रिदोषमर्यादा में मतभेद है फिर भी मृत्यु या जीवन धातुपाक तथा मलपाक पर प्राधारित होता है।

शास्त्रीय चिकित्सा सूत्र के अनुसार रोग में लंधन, बालुका स्वेदन, नस्य निष्ठीवन, लेह, अंजन उपचारों द्वारा ज्वर में पाम तथा कफ को नष्ट करने के पश्चात वात-पित्त का शमन करें। दोपोल्वणता के आधार पर उपचार करना चाहिए। जो लक्षण या उपद्रव बलवान हो, उसके निवारण के लिए विशेष प्रयत्न करें । सन्निपात ज्वर में त्रिनेत्र रस, वृहत् कस्तूरी भैरव, चतुर्भुज रस, सन्निपातसूर्यरस, सूतराज रस, समीरपन्नग रस, त्रिभुवनकीर्ति रस त्रैलोक्य चितामणि रस प्रादि अवस्थानुसार प्रयोग किये जाते हैं । लाक्षणिक चिकित्सा में विभिन्न उपचारों तथा औषधियों का प्रयोग करें।











ज्वार
ज्वार के दाने

ज्वार (Sorghum vulgare ; संस्कृत : यवनाल, यवाकार या जूर्ण) एक प्रमुख फसल है। ज्वार कम वर्षा वाले क्षेत्र में अनाज तथा चारा दोनों के लिए बोई जाती हैं। ज्वार जानवरों का महत्वपूर्ण एवं पौष्टिक चारा हैं। भारत में यह फसल लगभग सवा चार करोड़ एकड़ भूमि में बोई जाती है। यह खरीफ की मुख्य फसलों में है। यह एक प्रकार की घास है जिसकी बाली के दाने मोटे अनाजों में गिने जाते हैं।

परिचय

सिंचाई करके वर्षा से पहले एवं वर्षा आरंभ होते ही इसकी बोवाई की जाती है। यदि बरसात से पहले सिंचाई करके यह बो दी जाए, तो फसल और जल्दी तैयार हो जाती है, परंतु बरसात जब अच्छी तरह हो जाए तभी इसका चारा पशुओं को खिलाना चाहिए। गरमी में इसकी फसल में कुछ विष पैदा हो जाता है, इसलिए बरसात से पहले खिलाने से पशुओं पर विष का बड़ा बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यह विष बरसात में नहीं रह जाता है। चारे के लिये अधिक बीज लगभग 12 से 15 सेर प्रति एकड़ बोया जाता है। इसे घना बोने से हरा चारा पतला एवं नरम रहता है और उसे काटकर गाय तथा बैलों को खिलाया जाता है। जो फसल दाने के लिये बोई जाती है, उसमें केवल आठ सेर बीज प्रति एकड़ डाला जाता है। दाना अक्टूबर के अंत तक पक जाता है भुट्टे लगने के बाद एक महीने तक इसकी चिड़ियों से बड़ी रखवाली करनी पड़ती है। जब दाने पक जाते हैं तब भुट्टे अलग काटकर दाने निकाल लिए जाते हैं। इसकी औसत पैदावार छह से आठ मन प्रति एकड़ हो जाती है। अच्छी फसल में 15 से 20 मन प्रति एकड़ दाने की पैदावार होती है। दाना निकाल लेने के बाद लगभग 100 मन प्रति एकड़ सूखा पौष्टिक चारा भी पैदा होता है, जो बारीक काटकर जानवरों को खिलाया जाता है। सूखे चारों में गेहूँ के भूसे के बाद ज्वार का डंठल तथा पत्ते ही सबसे उत्तम चारा माना जाता है।

यह अनाज संसार के बहुत से भागों में होता है। भारत, चीन, अरब, अफ्रीका, अमेरिका आदि में इसकी खेती होती है। ज्वार सूखे स्थानों में अधिक होती है, सीड़ लिए हुए स्थानों में उतनी नहीं हो सकती। भारत में राजस्थान, पंजाब आदि में इसका ब्यवहार बहुत अधिक होता है। बंगाल, मद्रास, बरमा आदि में ज्वार बहुत कम बोई जाती है। यदि बोई भी जाती है तो दाने अच्छे नहीं पडते। इसका पौधा नरकट की तरह एक डंठल के रूप में सीधा ५-६ हाथ ऊँचा जाता है। डंठल में सात सात आठ आठ अंगुल पर गाँठें होती हैं जिनसे हाथ डेढ़ हाथ लंबे तलवार के आकार के पत्ते दोनों ओर निकलते हैं। इसके सिरे पर फूल के जीरे और सफेद दानों के गुच्छे लगते हैं। ये दाने छोटे छोटे होते हैं और गेहूँ की तरह खाने के काम में आते हैं।

ज्वार कई प्रकार की होती है जिनके पौधों में कोई विशेष भेद नहीं दिखाई पड़ता। ज्वार की फसल दो प्रकार की होती है, एक रबी, दूसरी खरीफ। मक्का भी इसी का एक भेद है। इसी से कहीं कहीं मक्का भी ज्वार ही कहलता है। ज्वार को जोन्हरी, जुंडी आदि भी कहते हैं। इसके डंठल और पौधे को चारे के काम में लाते हैं और 'चरी' कहते हैं। इस अन्न के उत्पत्तिस्थान के संबंध में मतभेद है। कोई कोई इसे अरब आदि पश्चिमी देशों से आया हुआ मानते हैं और 'ज्वार' शब्द को अरबी 'दूरा' से बना हुआ मानते हैं, पर यह मत ठीक नहीं जान पड़ता। ज्वार की खेती भारत में बहुत प्राचीन काल से होती आई है। पर यह चारे के लिये बोई जाती थी, अन्न के लिये नहीं।

ज्वार के उत्पादन के लिए भौगोलिक कारक

  • उत्पादक देश - संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, पाकिस्तान, रुस, चीन
  • तापमान - 25 से 35 से.ग्रे.
  • वर्षा - 40 से 60 सेमी.
  • मिट्टी - भारी दोमट, हल्की दोमट और एल्यूवियल

ज्वार के उत्पादन का विश्व वितरण

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ