"मौर्य राजवंश": अवतरणों में अंतर

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'''मौर्य राजवंश''' (322-185 ईसापूर्व) [[प्राचीन भारत]] का एक शक्तिशाली राजवंश था। मौर्य राजवंश ने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] और उसके मन्त्री [[आचार्य चाणक्य (कौटिल्य)|चाणक्य (कौटिल्य)]] को दिया जाता है।
'''मौर्य राजवंश''' (322-185 ईसापूर्व) [[प्राचीन भारत]] का एक शक्तिशाली राजवंश था। मौर्य राजवंश ने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] और उसके मन्त्री [[आचार्य चाणक्य (कौटिल्य)|चाणक्य (कौटिल्य, विष्णुगुप्त मौर्य)]] को दिया जाता है।


यह साम्राज्य पूर्व में [[मगध महाजनपद|मगध]] राज्य में [[गंगा नदी]] के मैदानों (आज का [[बिहार]] एवं [[बंगाल]]) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी [[पाटलिपुत्र]] (आज के [[पटना]] शहर के पास) थी।<ref>{{cite web|url=https://indianexpress.com/article/parenting/learning/world-largest-city-mauryan-facts-5542516/|title=The largest city in the world and other fabulous Mauryan facts|access-date=17 जनवरी 2019|archive-url=https://web.archive.org/web/20190117100151/https://indianexpress.com/article/parenting/learning/world-largest-city-mauryan-facts-5542516/|archive-date=17 जनवरी 2019|url-status=live}}</ref> चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो [[सिकंदर|सिकन्दर]] के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती [[अशोक|सम्राट अशोक]] के राज्य में मौर्य वंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही [[मौर्य राजवंश|मौर्य]] साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।
यह साम्राज्य पूर्व में [[मगध महाजनपद|मगध]] राज्य में [[गंगा नदी]] के मैदानों (आज का [[बिहार]] एवं [[बंगाल]]) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी [[पाटलिपुत्र]] (आज के [[पटना]] शहर के पास) थी।<ref>{{cite web|url=https://indianexpress.com/article/parenting/learning/world-largest-city-mauryan-facts-5542516/|title=The largest city in the world and other fabulous Mauryan facts|access-date=17 जनवरी 2019|archive-url=https://web.archive.org/web/20190117100151/https://indianexpress.com/article/parenting/learning/world-largest-city-mauryan-facts-5542516/|archive-date=17 जनवरी 2019|url-status=live}}</ref> चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो [[सिकंदर|सिकन्दर]] के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती [[अशोक|सम्राट अशोक]] के राज्य में मौर्य वंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही [[मौर्य राजवंश|मौर्य]] साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।

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मौर्य साम्राज्य
अवस्थिति:
अवस्थिति:
राजधानीपाटलिपुत्र
(वर्तमान समय का पटना, बिहार)
धर्म
सरकार चाणक्य के अर्थशास्त्र और राजमण्डल
में वर्णित राजतंत्र[1]
क्षेत्रफल
 -  कुल 5000000 km2 (1st In India)
मुद्रा पण

मौर्य राजवंश (322-185 ईसापूर्व) प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली राजवंश था। मौर्य राजवंश ने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री चाणक्य (कौटिल्य, विष्णुगुप्त मौर्य) को दिया जाता है।

यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी।[2] चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो सिकन्दर के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ।

मौर्य शासकों की सूची
  1. चंद्रगुप्त मौर्य – 322-298 ईसा पूर्व (24 वर्ष)
  2. बिन्दुसार – 298-271 ईसा पूर्व (28 वर्ष)
  3. अशोक – 269-232 ईसा पूर्व (37 वर्ष)
  4. कुणाल – 232-228 ईसा पूर्व (4 वर्ष)
  5. दशरथ –228-224 ईसा पूर्व (4 वर्ष)
  6. सम्प्रति – 224-215 ईसा पूर्व (9 वर्ष)
  7. शालिसुक –215-202 ईसा पूर्व (13 वर्ष)
  8. देववर्मन– 202-195 ईसा पूर्व (7 वर्ष)
  9. शतधन्वन् – 195-187 ईसा पूर्व (8 वर्ष)
  10. बृहद्रथ 187-185 ईसा पूर्व (2 वर्ष)


३२२ ई. पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य की सहायता से अन्तिम नंद शासक घनानन्द को युद्ध भूमि मे पराजित कर मौर्य वंश की नींव डाली थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों को पराजित कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य गणतन्त्र व्यवस्था पर राजतन्त्र व्यवस्था की जीत थी। इस कार्य में अर्थशास्त्र नामक पुस्तक द्वारा चाणक्य ने सहयोग किया। विष्णुगुप्त व कौटिल्य उनके अन्य नाम हैं।

चन्द्रगुप्त मौर्य (३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.)- चन्द्रगुप्त मौर्य के जन्म वंश के सम्बन्ध में विवाद है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में परस्पर विरोधी विवरण मिलता है।

विविध प्रमाणों और आलोचनात्मक समीक्षा के बाद यह तर्क निर्धारित होता है कि चन्द्रगुप्त मोरिय वंश का क्षत्रिय था। चन्द्रगुप्त के पिता मोरिय नगर प्रमुख थे। जब वह गर्भ में ही था तब उसके पिता की मृत्यु युद्धभूमि में हो गयी थी। उसका पाटलिपुत्र में जन्म हुआ था तथा एक गोपालक द्वारा पोषित किया गया था। चरावाह तथा शिकारी रूप में ही राजा-गुण होने का पता चाणक्य ने कर लिया था तथा उसे एक हजार में कषार्पण में खरीद लिया। तत्पश्‍चात्‌ तक्षशिला लाकर सभी विद्या में निपुण बनाया। अध्ययन के दौरान ही सम्भवतः चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला था। ३२३ ई. पू. में सिकन्दर की मृत्यु हो गयी तथा उत्तरी सिन्धु घाटी में प्रमुख यूनानी क्षत्रप फिलिप द्वितीय की हत्या हो गई।

जिस समय चन्द्रगुप्त राजा बना था भारत की राजनीतिक स्थिति बहुत खराब थी। उसने सबसे पहले एक सेना तैयार की और सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध प्रारम्भ किया। ३१७ ई. पू. तक उसने सम्पूर्ण सिन्ध और पंजाब प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। अब चन्द्रगुप्त मौर्य सिन्ध तथा पंजाब का एकक्षत्र शासक हो गया। पंजाब और सिन्ध विजय के बाद चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य ने घनानन्द का नाश करने हेतु मगध पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में घनानन्द मारा गया अब चन्द्रगुप्त भारत के एक विशाल साम्राज्य मगध का शासक बन गया। सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना। वह सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए उत्सुक था। इस उद्देश्य से ३०५ ई. पू. उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की। चन्द्रगुप्त ने पश्‍चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित कर एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार), जेड्रोसिया (मकरान), पेरोपेनिसडाई (काबुल) के भू-भाग को अधिकृत कर विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की। सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलना (कार्नेलिया) का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया। उसने मेगस्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्‍त किया।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्‍चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया। गिरनार अभिलेख (१५० ई. पू.) के अनुसार इस प्रदेश में पुण्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था। इसने सुदर्शन झील का निर्माण किया। दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की।

चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलूचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात था तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे, लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर-पश्‍चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था। अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला चला गया था। २९८ ई. पू. में सलेखना उपवास द्वारा चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना शरीर त्याग दिया।

बिन्दुसार (२९८ ई. पू. से २७३ ई. पू.)- यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे वायु पुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है। यूनानी लेखक ने इन्हें अभिलोचेट्‍स कहा है। यह २९८ ई. पू. मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार वह ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था।

बिन्दुसार के समय में भारत का पश्‍चिम एशिया से व्यापारिक सम्बन्ध अच्छा था। बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने डायमाइकस नामक राजदूत भेजा था। मिस्र के राजा टॉलेमी के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत मौर्य दरबार में बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।

दिव्यावदान के अनुसार बिन्दुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए थे, जिनका दमन करने के लिए पहली बार सुसीम दूसरी बार अशोक को भेजा प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रति में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्‍त किए। दिव्यादान के अनुसार अशोक अवन्ति का उपराजा था। बिन्दुसार की सभा में ५०० सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद्‍थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने २५ वर्षों तक राज्य किया अन्ततः २७३ ई. पू. उसकी मृत्यु हो गयी।

मौर्य साम्राज्य के उत्तर-पश्चिम स्थित तत्कालीन राज्य

अशोक (२७३ ई. पू. से २३६ ई. पू.)- राजगद्दी प्राप्त होने के बाद अशोक को अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने में चार वर्ष लगे। इस कारण राज्यारोहण चार साल बाद 269 ई. पू. में हुआ था।

वह 273ई. पू. में सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे देवानाप्रिय, देवानांपियदस्सी एवं राजा आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। मास्की तथा गर्जरा के लेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था, लेकिन इस उत्तराधिकार के लिए कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है।

दिव्यादान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।

बौध्य धर्म की शिंघली अनुश्रुतियों के अनुसार बिंदुसार की 16 पत्नियाँ और 101 संताने थी। जिसमे से सबसे बड़े बेटे का नाम सुशीम और सबसे छोटे बेटे का नाम तिष्य था। इस प्रकार बिन्दुसार के बाद मौर्यवंश का वारिश सुशीम था किन्तु ऐसा नहीं हुवा क्यूंकि अशोक ने राज गद्दी के लिए उसे मार दिया। बौध्य ग्रन्थ महावंश और दीपवंश के अनुसार सम्राट अशोक ने अपने 99 भाईयों की हत्या करके सिंहासन हासिल किया और सबसे छोटे भाई तिष्य को छोड़ दिया क्यूंकि उसने अशोक की मदत की थी अपने भाईयों को मरवाने में । आज भी पटना में वो कुआं है जहाँ अशोक ने अपने भाइयों और उनके समर्थक मौर्यवंशी आमात्यों को मारकर फेंक दिया था।

सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ। दिव्यादान में उसकी एक पत्‍नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख में केवल उसकी पत्‍नी का नाम करूणावकि है जो तीवर की माता थी। बौद्ध परम्परा एवं कथाओं के अनुसार बिन्दुसार अशोक को राजा नहीं बनाकर सुसीम को सिंहासन पर बैठाना चाहता था, लेकिन अशोक एवं बड़े भाई सुसीम के बीच युद्ध की चर्चा है।


ारत भर में जासूसों (गुप्तचर) का एक जाल सा बिछा दिया गया जिससे राजा के खिलाफ गद्दारी इत्यादि की गुप्त सूचना एकत्र करने में किया जाता था - यह भारत में शायद अभूतपूर्व था। एक बार ऐसा हो जाने के बाद उसने चन्द्रगुप्त को यूनानी क्षत्रपों को मार भगाने के लिए तैयार किया। इस कार्य में उसे गुप्तचरों के विस्तृत जाल से मदद मिली। मगध के आक्रमण में चाणक्य ने मगध में गृहयुद्ध को उकसाया। उसके गुप्तचरों ने नन्द के अधिकारियों को रिश्वत देकर उन्हे अपने पक्ष में कर लिया। इसके बाद नन्द शासक ने अपना पद छोड़ दिया और चाणक्य को विजयश्री प्राप्त हुई। नन्द को निर्वासित जीवन जीना पड़ा जिसके बाद उसका क्या हुआ ये अज्ञात है। चन्द्रगुप्त मौर्य ने जनता का विश्वास भी जीता और इसके साथ उसको सत्ता का अधिकार भी मिला।

साम्राज्य विस्तार

उस समय मगध भारत का सबसे शक्तिशाली राज्य था। मगध पर कब्जा होने के बाद चन्द्रगुप्त सत्ता के केन्द्र पर काबिज़ हो चुका था। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमी तथा दक्षिणी भारत पर विजय अभियान आरंभ किया। इसकी जानकारी अप्रत्यक्ष साक्ष्यों से मिलती है। रूद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख में लिखा है कि सिंचाई के लिए सुदर्शन झील पर एक बाँध पुष्यगुप्त द्वारा बनाया गया था। पुष्यगुप्त उस समय अशोक का प्रांतीय राज्यपाल था। पश्चिमोत्तर भारत को यूनानी शासन से मुक्ति दिलाने के बाद उसका ध्यान दक्षिण की तरफ गया।[उद्धरण चाहिए]

चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर (अलेक्ज़ेन्डर) के सेनापति सेल्यूकस को ३०५ ईसापूर्व के आसपास हराया था। ग्रीक विवरण इस विजय का उल्ले़ख नहीं करते हैं पर इतना कहते हैं कि चन्द्रगुप्त (यूनानी स्रोतों में सैंड्रोकोटस नाम से ) और सेल्यूकस के बीच एक संधि हुई थी जिसके अनुसार सेल्यूकस ने कंधार , काबुल, हेरात और बलूचिस्तान के प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिए थे। इसके साथ ही चन्द्रगुप्त ने उसे ५०० हाथी भेंट किए थे। इतना भी कहा जाता है चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस की बेटी कर्नालिया (हेलना) से वैवाहिक संबंध स्थापित किया था। सेल्यूकस ने मेगास्थनीज़ को चन्द्रगुप्त के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा था। प्लूटार्क के अनुसार "सैंड्रोकोटस उस समय तक सिंहासनारूढ़ हो चुका था, उसने अपने ६,००,००० सैनिकों की सेना से सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और अपने अधीन कर लिया"। यह टिप्पणी थोड़ी अतिशयोक्ति कही जा सकती है क्योंकि इतना ज्ञात है कि कावेरी नदी और उसके दक्षिण के क्षेत्रों में उस समय चोलों, पांड्यों, सत्यपुत्रों तथा केरलपुत्रों का शासन था। अशोक के शिलालेख कर्नाटक में चित्तलदुर्ग, येरागुडी तथा मास्की में पाए गए हैं। उसके शिलालिखित धर्मोपदेश प्रथम तथा त्रयोदश में उनके पड़ोसी चोल, पांड्य तथा अन्य राज्यों का वर्णन मिलता है। चुंकि ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती कि अशोक या उसके पिता बिंदुसार ने दक्षिण में कोई युद्ध लड़ा हो और उसमें विजय प्राप्त की हो अतः ऐसा माना जाता है उनपर चन्द्रगुप्त ने ही विजय प्राप्त की थी। अपने जीवन के उत्तरार्ध में उसने जैन धर्म अपना लिया था और सिंहासन त्यागकर कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में अपने गुरु जैनमुनि भद्रबाहु के साथ संन्यासी जीवन व्यतीत करने लगा था।[उद्धरण चाहिए]

बिन्दुसार

चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिंदुसार सत्तारूढ़ हुआ पर उसके बारे में अधिक ज्ञात नहीं है। दक्षिण की ओर साम्राज्य विस्तार का श्रेय यदा कदा बिंदुसार को दिया जाता है हँलांकि उसके विजय अभियान का कोई साक्ष्य नहीं है। जैन परम्परा के अनुसार उसकी माँ का नाम दुर्धर था और पुराणों में वर्णित बिंदुसार ने २५ वर्षों तक शासन किया था। उसे अमित्रघात (दुश्मनों का संहार करने वाला) की उपाधि भी दी जाती है जिसे यूनानी ग्रंथों में अमित्रोकेडीज़" का नाम दिया जाता है। बिन्दुसार आजिवक धरम को मानता था। उसने एक युनानी शासक एन् टियोकस प्रथम से सूखी अन्जीर, मीठी शराब व एक दार्शनिक की मांग की थी। उसे अंजीर व शराब दी गई किन्तु दार्शनिक देने से इंकार कर दिया गया।[उद्धरण चाहिए]

सम्राट अशोक

सम्राट अशोक, भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के इतिहास के सबसे महान शासकों में से एक हैं। अपने राजकुमार के दिनों में उन्होंने उज्जैन तथा तक्षशिला के विद्रोहों को दबा दिया था। पर कलिंग की लड़ाई उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ साबित हुई और उनका मन युद्ध में हुए नरसंहार से ग्लानि से भर गया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया तथा उसके प्रचार के लिए बहुत कार्य किये। सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म मे उपगुप्त ने दीक्षित किया था। उन्होंने "देवानांप्रिय", "प्रियदर्शी", जैसी उपाधि धारण की। सम्राट अशोक के शिलालेख तथा शिलोत्कीर्ण उपदेश भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह पाए गए हैं। उनने धर्मप्रचार करने के लिए विदेशों में भी अपने प्रचारक भेजे। जिन-जिन देशों में प्रचारक भेजे गए उनमें सीरिया तथा पश्चिम एशिया का एंटियोकस थियोस, मिस्र का टोलेमी फिलाडेलस, मकदूनिया का एंटीगोनस गोनातस, साईरीन का मेगास तथा एपाईरस का एलैक्जैंडर शामिल थे। अपने पुत्र महेंद्र और एक बेटी को उन्होंने राजधानी पाटलिपुत्र से श्रीलंका जलमार्ग से रवाना किया। पटना (पाटलिपुत्र) का ऐतिहासिक महेन्द्रू घाट उसी के नाम पर नामकृत है। युद्ध से मन उब जाने के बाद भी सम्राट अशोक ने एक बड़ी सेना को बनाए रखा था। ऐसा विदेशी आक्रमण से साम्राज्य के पतन को रोकने के लिए आवश्यक था।[उद्धरण चाहिए]

प्रशासन

मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) थी। इसके अतिरिक्त साम्राज्य को प्रशासन के लिए चार और प्रांतों में बांटा गया था। पूर्वी भाग की राजधानी तौसाली थी तो दक्षिणी भाग की सुवर्णगिरि। इसी प्रकार उत्तरी तथा पश्चिमी भाग की राजधानी क्रमशः तक्षशिला तथा उज्जैन (उज्जयिनी) थी। इसके अतिरिक्त समापा, इशिला तथा कौशाम्बी भी महत्वपूर्ण नगर थे। राज्य के प्रांतपालों कुमार होते थे जो स्थानीय प्रांतों के शासक थे। कुमार की मदद के लिए हर प्रांत में एक मंत्रीपरिषद तथा महामात्य होते थे। प्रांत आगे जिलों में बंटे होते थे। प्रत्येक जिला गाँव के समूहों में बंटा होता था। प्रदेशिक जिला प्रशासन का प्रधान होता था। रज्जुक जमीन को मापने का काम करता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी जिसका प्रधान ग्रामिक कहलाता था।

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगरों के प्रशासन के बारे में एक पूरा अध्याय लिखा है। विद्वानों का कहना है कि उस समय पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों का प्रशासन इस सिंद्धांत के अनुरूप ही रहा होगा। मेगास्थनीज़ ने पाटलिपुत्र के प्रशासन का वर्णन किया है। उसके अनुसार पाटलिपुत्र नगर का शासन एक नगर परिषद द्वारा किया जाता था जिसमें ३० सदस्य थे। ये तीस सदस्य पाँच-पाँच सदस्यों वाली छः समितियों में बंटे होते थे। प्रत्येक समिति का कुछ निश्चित काम होता था। पहली समिति का काम औद्योगिक तथा कलात्मक उत्पादन से सम्बंधित था। इसका काम वेतन निर्धारित करना तथा मिलावट रोकना भी था। दूसरी समिति पाटलिपुत्र में बाहर से आने वाले लोगों खासकर विदेशियों के मामले देखती थी। तीसरी समिति का ताल्लुक जन्म तथा मृत्यु के पंजीकरण से था। चौथी समिति व्यापार तथा वाणिज्य का विनिमयन करती थी। इसका काम निर्मित माल की बिक्री तथा पण्य पर नज़र रखना था। पाँचवी माल के विनिर्माण पर नजर रखती थी तो छठी का काम कर वसूलना था।

नगर परिषद के द्वारा जनकल्याण के कार्य करने के लिए विभिन्न प्रकार के अधिकारी भी नियुक्त किये जाते थे, जैसे - सड़कों, बाज़ारों, चिकित्सालयों, देवालयों, शिक्षा-संस्थाओं, जलापूर्ति, बंदरगाहों की मरम्मत तथा रखरखाव का काम करना। नगर का प्रमुख अधिकारी नागरक कहलाता था। कौटिल्य ने नगर प्रशासन में कई विभागों का भी उल्लेख किया है जो नगर के कई कार्यकलापों को नियमित करते थे, जैसे - लेखा विभाग, राजस्व विभाग, खान तथा खनिज विभाग, रथ विभाग, सीमा शुल्क और कर विभाग।

मौर्य साम्राज्य के समय एक और बात जो भारत में अभूतपूर्व थी वो थी मौर्यो का गुप्तचर जाल। उस समय पूरे राज्य में गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया था जो राज्य पर किसी बाहरी आक्रमण या आंतरिक विद्रोह की खबर प्रशासन तथा सेना तक पहुँचाते थे।

भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुइ थी। मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरंकुश नहीं होता था। मौर्य काल में गणतन्त्र का ह्रास हुआ और राजतन्त्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई। कौटिल्य ने राज्य सप्तांक सिद्धान्त निर्दिष्ट किया था, जिनके आधार पर मौर्य प्रशासन और उसकी गृह तथा विदेश नीति संचालित होती थी - राजा, अमात्य जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और, मित्र।

अमात्य : अर्थशास्त्र ग्रन्थ के अनुसार प्राचीन भारत के पदाधिकारी
पद
अंग्रेजी
पद अंग्रेजी
राजा King युवराज Crown prince
सेनापति Chief, armed forces परिषद् Council
नागरिक City manager पौरव्य वाहारिक City overseer
मन्त्री Counselor कार्मिक Works officer
संनिधाता Treasurer कार्मान्तरिक Director, factories
अन्तेपाल Frontier commander अन्तर विंसक Head, guards
दौवारिक Chief guard गोप Revenue officer
पुरोहित Chaplain करणिक Accounts officer
प्रशास्ता Administrator नायक Commander
उपयुक्त Junior officer प्रदेष्टा Magistrate
शून्यपाल Regent अध्यक्ष Superintendent

आर्थिक स्थिति

इतने बड़े साम्राज्य की स्थापना का एक परिणाम ये हुआ कि पूरे साम्राज्य में आर्थिक एकीकरण हुआ। किसानों को स्थानीय रूप से कोई कर नहीं देना पड़ता था, हँलांकि इसके बदले उन्हें कड़ाई से पर वाजिब मात्रा में कर केन्द्रीय अधिकारियों को देना पड़ता था।

उस समय की मुद्रा पण थी। अर्थशास्त्र में इन पणों के वेतनमानों का भी उल्लैख मिलता है। न्यूनतम वेतन ६० पण होता था जबकि अधिकतम वेतन ४८,००० पण था।[उद्धरण चाहिए]

धार्मिक स्थिति

छठी सदी ईसा पूर्व (मौर्यों के उदय के कोई दो सौ वर्ष पूर्व) तकभारत में धार्मिक सम्प्रदायों का प्रचलन था। ये सभी धर्म किसी न किसी रूप से वैदिक प्रथा से जुड़े थे। छठी सदी ईसापूर्व में कोई ६२ सम्प्रदायों के अस्तित्व का पता चला है जिसमें बौद्ध तथा जैन सम्प्रदाय का उदय कालान्तर में अन्य की अपेक्षा अधिक हुआ। मौर्यों के आते आते बौद्ध तथा जैन सम्प्रदायों का विकास हो चुका था। उधर दक्षिण में शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय भी विकसित हो रहे थे।[उद्धरण चाहिए]

चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना राजसिंहासन त्यागकर कर जैन धर्म अपना लिया था। ऐसा कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु जैनमुनि भद्रबाहु के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में संन्यासी के रूप में रहने लगे थे । इसके बाद के शिलालेखों में भी ऐसा पाया जाता है कि चन्द्रगुप्त ने उसी स्थान पर एक सच्चे निष्ठावान जैन की तरह आमरण उपवास करके दम तोड़ा था। वहां पास में ही चन्द्रगिरि नाम की पहाड़ी है जिसका नामाकरण शायद चन्द्रगुप्त के नाम पर ही किया गया था।[उद्धरण चाहिए]

अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म को अपना लिया था। बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद उसने इसको जीवन में उतारने की भी कोशिश की। उसने शिकार करना और पशुओं की हत्या छोड़ दिया तथा मनुष्यों तथा जानवरों के लिए चिकित्सालयों की स्थापना कराई। उसने ब्राह्मणों तथा विभिन्न धार्मिक पंथों के सन्यासियों को उदारतापूर्वक दान दिया। इसके अलावा उसने आरामगृह, एवं धर्मशाला, कुएं तथा बावरियों का भी निर्माण कार्य कराया।

उसने धर्ममहामात्र नाम के पदवाले अधिकारियों की नियुक्ति की जिनका काम आम जनता में धम्म का प्रचार करना था। उसने विदेशों में भी अपने प्रचारक दल भेजे। पड़ोसी देशों के अलावा मिस्र, सीरिया, मकदूनिया (यूनान) साइरीन तथा एपाइरस में भी उसने धर्म प्रचारकों को भेजा। हंलांकि अशोक ने खुद बौद्ध धर्म अपना लिया था पर उसने अन्य सम्प्रदायों के प्रति भी आदर का भाव रखा ।[उद्धरण चाहिए]

सैन्य व्यवस्था

सैन्य व्यवस्था छः समितियों में विभक्‍त सैन्य विभाग द्वारा निर्दिष्ट थी। प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे।

पैदल सेना, अश्‍व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी।

सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था। यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था। मेगस्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना छः लाख पैदल, पचास हजार अश्‍वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित अजेय सैनिक थे।[उद्धरण चाहिए]

प्रान्तीय प्रशासन

चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारु रूप से चलाने के लिए चार प्रान्तों में विभाजित कर दिया था जिन्हें चक्र कहा जाता था। इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था। सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या पाँच हो गई थी। ये प्रान्त थे-

प्रान्त राजधानी

प्राची (मध्य देश)- पाटलिपुत्र

उत्तरापथ - तक्षशिला

दक्षिणापथ - सुवर्णगिरि

अवन्ति राष्ट्र - उज्जयिनी

कलिंग - तोसली

प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार (आर्य पुत्र) नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था।

कुमाराभाष्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महापात्र नामक अधिकारी होते थे। शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्‍चात्‌प्रान्त आहार (विषय) में विभक्‍त था। ग्राम प्रशासन की निम्न इकाई था, १०० ग्राम के समूह को संग्रहण कहा जाता था।

आहार विषयपति के अधीन होता था। जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था। गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था।

नगर प्रशासन

मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन की नगरीय प्रशासन छः समिति में विभक्‍त था।

प्रथम समिति- उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करता था।

द्वितीय समिति- विदेशियों की देखरेख करता है।

तृतीय समिति- जनगणना।

चतुर्थ समिति- व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था।

पंचम समिति- विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण।

षष्ठ समिति- बिक्री कर व्यवस्था।

नगर में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा अपराधों पर नियन्त्रण रखने हेतु पुलिस व्यवस्था थी जिसे रक्षित कहा जाता था।

यूनानी स्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे- एग्रोनोयोई (जिलाधिकारी), एण्टीनोमोई (नगर आयुक्‍त), सैन्य अधिकार।

मौर्य साम्राज्य का पतन

मौर्य सम्राट की मृत्यु (२३७-२३६ ई. पू.) के उपरान्त लगभग दो सदियों (३२२ - १८४ई.पू.) से चले आ रहे शक्‍तिशाली मौर्य साम्राज्य का विघटन होने लगा।

अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी। इससे मौर्य साम्राज्य समाप्त हो गया।

पतन के कारण

  1. अयोग्य एवं निर्बल उत्तराधिकारी,
  2. प्रशासन का अत्यधिक केन्द्रीयकरण,
  3. राष्ट्रीय चेतना का अभाव,
  4. आर्थिक एवं सांस्कृतिक असमानताएँ,
  5. प्रान्तीय शासकों के अत्याचार,
  6. करों की अधिकता,
  7. अशोक की धम्म नीति
  8. अमात्यों के अत्याचार।

विभिन्न इतिहासकारों ने मौर्य वंश का पतन के लिए भिन्न-भिन्न कारणों का उल्लेख किया है[उद्धरण चाहिए]-

  • रोमिला थापर - मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए केन्द्रीय शासन अधिकारी तन्त्र का अव्यवस्था एवं अप्रशिक्षित होना।

अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी

अशोक ने पहले ही अपने भाईयो को मार दिया था इसीलिए उसे ऐसे लोगो को अपने राज्यों सामन्त बनना पड़ा जो मौर्यवंशी नहीं थे परिणाम स्वरुप अशोक की मृत्यु के बाद विद्रोह करके स्वतंत्र हो गए और अशोक ने बौध्य धर्म को अपनाने के बाद अपने दिगविजय नीति (चारो दिशाओं में विजय) को धम्मविजय नीति में बदल दिया जिसके परिणाम स्वरुप मौर्यवंशी शासकों ने अपना कभी भी राज्य विस्तार करने की कोशिश नहीं की |

राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि कश्मीर में जालौक ने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया । तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि वीरसेन ने गन्धार प्रदेश में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली । कालीदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ भी एक स्वतन्त्र राज्य हो गया था । परवर्ती मौर्य शासकों में कोई भी इतना सक्षम नहीं था कि वह समस्त राज्यों को एकछत्र शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत संगठित करता । विभाजन की इस स्थिति में यवनों का सामना संगठित रूप से नहीं हो सका और साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी था ।

शासन का अतिकेन्द्रीकरण

मौर्य प्रशासन में सभी महत्वपूर्ण कार्य राजा के नियंत्रण में होते थे । उसे वरिष्ठ पदाधिकारियों की नियुक्ति का सर्वोच्च अधिकार प्राप्त था ।ऐसे में अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के काल में केन्द्रीय नियंत्रण से सही से कार्य नहीं हो सका और राजकीय व्यवस्था चरमरा गई |

आर्थिक संकट

अशोक ने बौध्य धर्म अपनाने के बाद 84 हजार स्तूप बनवाकर राजकोष खली कर दिया और इन स्तूपों को बनवाने के लिए प्रजा पर कर बढ़ा दिया गया और इन स्तूपों की देखभाल के खर्च का बोझ सामान्य प्रजा पर पड़ा |

अशोक की धम्म नीति

अशोक की अहिंसक नीतियों के कारण मौर्यवंश का सामराज्य खंडित हो गया और उसे रोकने के लिए वो कुछ कर भी नहीं पाए -उदाहरण के तौर पर आप कश्मीर के सामन्त जलोक को ले सकते है जिसने अशोक के बौध्य बनने के कारण कश्मीर को अलग राष्ट्र घोषित कर दिया क्युकी वो शैव धर्म (जो केवल शिव को अदि -अनन्त परमेश्वर मानते हो ) का अनुयायी था और बौध्य धर्म को पसंद नहीं करता था | ये बात भी बिलकुल सही है की अगर आचार्य चाणक्य की जगह कोई बौध्य भिक्षु चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु होता तो वो उनको अहिंसा का मार्ग बताता और मौर्यवंश की स्थापना भी ना हो पाती

अवशेष

मौर्यकालीन सभ्यता के अवशेष भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह पाए गए हैं। पटना (पाटलिपुत्र) के पास कुम्हरार में अशोककालीन भग्नावशेष पाए गए हैं। अशोक के स्तंभ तथा शिलोत्कीर्ण उपदेश साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों मे मिले हैं।[उद्धरण चाहिए]

चन्द्रगुप्त मौर्य और मौर्यों का मूल

मौर्य प्राचीन क्षत्रिय कबीले के हिस्से रहे है। ब्राह्मण साहित्य, विशाखदत्त कृत व यूनानी स्रोतों के अनुसार मौर्य क्षत्रिय सूर्यवंशी राजवंश है।

मौर्य के क्षत्रिय होने के प्रमाण-

1.बौद्ध धर्म ग्रंथ

2.जैन धर्म ग्रंथ

3.हिन्दू धर्म ग्रंथ

4.सम्राट अशोक के शिलालेख में लिखा है "मैं उसी जाति में पैदा हुआ हूं जिसमें स्वंय बुद्ध पैदा हुए। बुद्ध की जाति की प्रामाणिकता हो चुकी है कि वो क्षत्रिय कुल में पैदा हुए थे ।

5.सम्राट बिंदुसार के इतिहास की जानकारी जिस दिव्यवदान पुस्तक में लिखा है वो क्षत्रिय कुल में पैदा हुए है ।

6.सबसे सीधा और सरल प्रमाण यह है कि स्वंय चाणक्य कट्टरवादी ब्राह्मण थे वो कभी भी किसी शूद्र को न अपना शिष्य बनाते और न ही चन्द्रगुप्त को राजा बनने में मदद करते।

7.हिन्दू ग्रन्थ विष्णु पुराण और स्कन्द पुराण के अनुसार शाक्य सूर्यवंश से सम्बंधित क्षत्रिय है और चन्द्रगुप्त के पूर्वज इसी वंश से सम्बंधित थे और इसीलिए वो भी क्षत्रिय है।

8.चन्द्रगुप्त को शूद्र केवल एक ही प्राचीन साहित्य मुद्राराक्षस में लिखा है जो की एक नाटक है और ये गुप्तकाल में विशाखदत्त द्वारा लिखी गयी है।

मौर्य के उत्पत्ति के विषय पर इतिहासकारो के एक मत नही है कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि चंद्रगुप्त मौर्य की उत्पत्ति उनकी माता मुरा से मिली है मुरा शब्द का संसोधित शब्द मौर्य है , हालांकि इतिहास में यह पहली बार हुआ माता के नाम से पुत्र का वंश चला हो मौर्य एक शाक्तिशाली वंश था वह उसी गण-प्रमुख( चन्द्रगुप्त के पिता) का पुत्र था जो की चन्द्रगुप्त के बाल अवस्था में ही योद्धा के रूप में मारा गया। चन्द्रगुप्त में राजा बनने के स्वाभाविक गुण थे 'इसी योग्यता को देखते हुए चाणक्य ने उसे अपना शिष्य बना लिया, एवं एक सबल और सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र की नीव डाली जो की आज तक एक आदर्श है।[उद्धरण चाहिए]

चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज आजमौर्य या मोरी राजपूतों में पाए जाते हैं जो प्राचीन काल में चित्तौड़गढ़ पे राज करता था , मोरी राजपूत चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज हैं। [3]  चित्रांगदा मोरी, एक मौर्य राजपूत शासक, ने चित्तौड़गढ़ के किले की नींव रखी।[4]</ref> चित्तौड़ के एक मोरी शासक ने चौहान राजपूत विग्रहराज चौथा(पृथ्वीराज चौहान के चाचा) की सहायता  सुल्तान खुसरु मलिक  तुर्क आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़ाई में, मोरियों ने कछवाहा राजपूतों के साथ गठबंधन भी किया। मोरी राजपूतो ने गुहिल(सिसोदिया) वंश से पहले चित्तौड़ किले और आसपास के क्षेत्र को नियंत्रित किया था। 8 वीं शताब्दी में चित्तौड़गढ़ एक अच्छी तरह से स्थापित गढ़ था मोरि राजपूतो के तहत। मोरी राजपूत मालवा के सम्राट थे।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

मौर्य साम्राज्य का इतिहास

सन्दर्भ

  1. Avari, Burjor (2007). India, the Ancient Past: A History of the Indian Sub-continent from C. 7000 BC to AD 1200 Archived 2020-05-11 at the वेबैक मशीन Taylor & Francis. ISBN 0415356156. pp. 188-189.
  2. "The largest city in the world and other fabulous Mauryan facts". मूल से 17 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 जनवरी 2019.
  3. Asiatic Society (Calcutta, India), Asiatic Society (Calcutta, India) (1834). Journal: Volume 3. Asiatic Society (Calcutta, India). पृ॰ 343.
  4. Singh Chib, Sukhdev (1979). Rajasthan. The University of Michigan. पृ॰ 118.