"जयचन्द": अवतरणों में अंतर

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'''जयचंद''' [[कन्नौज]] साम्राज्य के राजा थे। वो गहरवार राजवंश से थे जिसे अब गढ़वाल राजवंश के नाम से जाना जाता है।<ref name="VASmith1999">{{cite book | author=Vincent A. Smith | title=The Early History of India | url=http://books.google.com/books?id=8XXGhAL1WKcC&pg=PA385 | accessdate=23 जुलाई 2013 | date=1 जनवरी 1999 | publisher=Atlantic Publishers & Dist | isbn=978-81-7156-618-1 | pages=385–}}</ref>
जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि॰सं॰ १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ। राजा जयचन्द पराक्रमी शासक था। उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी, इसलिए उसे ‘दळ-पंगुळ' भी कहा जाता है। इसका गुणगान [[पृथ्वीराज रासो]] में भी हुआ है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को यवनों का नाश करने वाला कहा है।
युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह अद्वितीय हो गई, जिससे जयचन्द को दळ पंगुळ' की उपाधि से जाना जाने लगा। जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा मदन वर्मा को परास्त किया। राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)। यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा)। रम्भामंजरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था। उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी।
तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। यहाँ का शासन प्रबन्ध [[मोहम्मद ग़ोरी|गौरी]] ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी। तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद [[कुतुब-उद-दीन ऐबक|कुतुबुद्दीन ऐबक]] ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया। दोनों के बीच [[इटावा]] के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ। युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि॰सं॰ १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था।
जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं। संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे। ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर गौरी को सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। गौरी को भेद देने वाले थे नित्यानन्द खत्री, प्रतापसिंह जैन, माधोभट्ट तथा धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो। यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था। उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था। संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए। लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा। फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] और [[संयोगिता चौहान|संयोगिता]] का विवाह सम्पन्न हुआ। पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर सकता था। अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ? अतः यह आरोप मिथ्या है। पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।


<b>जयचंद और इतिहासकार</b><br>
{{Infobox royalty
इतिहासकार सम्राट जयचंद के लिए इतिहास की पर्याप्त जानकारी के अभाव में अपशब्द कहे जाते हैं जबकि ख्यातिनाम इतिहासकारों की सम्राट जयचंद के प्रति राय निम्नानुसार है।<br>
| name = जयचंद्र गढ़वाल
| title = अश्व-पति नार-पति गाज-पति राजत्रिपतिपति
| succession =
| reign = c. 1170-1194 CE
| predecessor = [[विजयचंद्र]]
| successor = हरिश्चन्द्र गढ़वाल
| issue = हरिश्चन्द्र
| house-type = वंश
| house = [[गड़ावाला]]
| father = [[विजयचंद्र]]
| mother =
}}


(1) इस कथन में कोई सत्यता नहीं है कि महाराज जयचंद ने पृथ्वीराज पर अक्रमण करने के लिए मोहम्मद गौरी को आमंत्रित किया हो।
'''जयचंद्र गढ़वाल'''( 1170–1194 CE) उत्तर भारत के [[गढ़वाला]] [[राजपूत]] वंश के एक राजा थे। उन्होंने गंगा नदी के पास में बसे [[कान्यकुब्ज]] और [[वाराणसी]] सहित अंटारवेदी देश पर शासन किया। आज के उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ भागों पर राज किया था गड़ावाला राजपूत वंश के अंतिम शक्तिशाली राजा थे।
- डॉ. आर.सी. मजूददार (एन्सेन्ट इण्डिया)


(2) यह बात आधारहीन है कि महाराज जयचंद ने मोहम्मद
विद्यापति के ''पुरुष-परिक्षा'' और '' [[पृथ्वीराज रासो]]'' जैसे हिन्दू स्रोतों के अनुसार ,जयचंद्र ने घुरिडों को कई बार हराया।
गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। - जे.सी. पोवल (हिस्ट्री ऑफ इण्डिया)
जयचंद्र कोई गद्दार नहीं थे, वह अपनी अंतिम सांस तक मोहम्मद गौरी के कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा नेतृत्व सेना के खिलाफ लड़ते रहे लेकिन आखिरकार वह 1194ce मे [[चंदावर का युद्ध|चंदावर की लड़ाई]] मे हारे गए, लेकिन उनके हार के बाद भी उनके बेटे हरिश्चंद्र ने मोहम्मद गौरी को हराया और वाराणसी में मुसलमानों ने जितने भी घाट और मंदिर तोड़े थे वह सब वापस बनाएं।


(3) जयचंद पर यह आरोप गलत है। समकालीन मुसलमान इतिहासकार इस बात पर पूर्णतया मौन है कि जयचंद ने ऐसा
ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है। पृथ्वीराज तथा संयोगिता विवाह को इतिहासकार सत्य नही मानते।<ref>{{Cite book|url=http://archive.org/details/struggleforempir05bhar|title=History and Culture of the Indian People, Volume 05, The Struggle For Empire|last=S. Ramakrishnan|first=General Editor|date=2001|publisher=Bharatiya Vidya Bhavan|others=Public Resource}}</ref>
कोई निमंत्रण भेजा हो। - डॉ. रामशंकर त्रिपाठी


(4) यह धारणा कि मुसलमानों को पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने
== प्रारंभिक जीवन ==
के लिए जयचंद ने आमंत्रित किया, निराधार है। उस समय के कतिपय ग्रन्थ प्राप्य हैं किन्तु किसी में भी इस बात का उल्लेख नहीं है। पृथ्वीराज विजय, हमीर महाकाव्य, रंभा मंजरी, प्रबंध कोश व किसी भी मुसलमान यात्री के वर्णन में ऐसा उल्लेख नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जयचंद ने चन्दावर में मोहम्मद गौरी से शौर्य पूर्ण युद्ध किया था।
| - महेन्द्र नाथ मिश्र


(5) यह बात नितांत असत्य है कि जयचंद ने शाहबुद्दीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। शहाबददीन अच्छी तरह जानता था कि जब तक उत्तर भारत में महाशक्तिशाली जयचंद को परास्त न किया जाएगा दिल्ली और अजमेर आदि भू-भागों पर किया गया अधिकार स्थायी न होगा क्योंकि जयचंद के पूर्वजों ने और स्वयं जयचंद ने तुर्को से अनेकों बार मोर्चा लेकर हाराया था।
जयचंद्र [[गढ़वला वंश |गढ़वल्ला राजपूत]] राजा [[विजयचंद्र]] के पुत्र थे। एक कमौली शिलालेख के अनुसार, उन्हें 21 जून 1170 ईस्वी को राजा का ताज पहनाया गया था।{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=102}} जयचंद्र को अपने दादा गोविंदचंद्र के शाही खिताब विरासत में मिले:{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=102}} ''अश्वपति नारपति गाजपति राजत्रिपतिपति''{{sfn|D. C. Sircar|1966|p=35}}) तथा ''विदेह-विद्या-विचारा-वाचस्पति''{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=87}}).
- इब्न नसीर (कामिल-उल-तवारिख)
==सैन्य वृत्ति==
जयचंद्र के शिलालेख पारंपरिक भव्यता का उपयोग करते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं, लेकिन राजा की किसी भी ठोस उपलब्धि का उल्लेख नहीं करते हैं। उनके पड़ोसी राजपूत राजाओं के रिकॉर्ड में उनके साथ किसी भी संघर्ष का उल्लेख नहीं है।{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=103}} माना जाता है कि [[सेन वंश | सेना]] राजा [[लक्ष्मण सेना]] ने गढ़वाला क्षेत्र पर आक्रमण किया था, लेकिन यह आक्रमण जयचंद्र की मृत्यु के बाद हुआ होगा।{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=105}}


(6) अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया नामक इतिहास विषयक पुस्तक में
=== घुरिद आक्रमण ===
इतिहसाकार स्मिथ ने इस आरोप का कहीं उल्लेख नहीं किया है।


(7) यह विश्वास कि गौरी को जयचंद ने पृथ्वीराज के विरुद्ध निमंत्रण दिया था, ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि मुसलमान लेखकों ने कहीं भी इसका जिक्र नहीं किया है।
1193 ईस्वी में मुस्लिम [[घुरिद]] ने जयचंद्र के राज्य पर आक्रमण किया। समकालीन मुस्लिम सूत्रों के अनुसार, जयचंद्र "जयचंद्र भारत के सबसे महान राजा और उनके पास भारत में सबसे बडे क्षेत्र पर राज किया था"।{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=105}} इन स्रोतो ने उन्हें '' बनारस का राय '' बताया {{sfn|Roma Niyogi|1959|p=109}} ''अली इब्न अल-अथिर'' के अनुसार, उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे और 700 [[युद्ध हाथी|हाथी]] थे।{{sfn|Roma Niyogi|1959|p=110}} जब जयचंद्र की सेना चलती थी, तो ऐसा प्रतीत होता था है कि एक पूरा शहर चल रहा है ना कि कोई सेना
| - डॉ. राजबली पाण्डे (प्राचीन भारत)

विद्यापति के ''पुरुष-परिक्षा'' और '' [[[पृथ्वीराज रासो]]'' जैसे हिन्दू स्रोतों के अनुसार ,जयचंद्र ने घुरिडों को कई बार हराया।

घुरिद शासक मुहम्मद ने 1192 ई, में चौहान राजपूत राजा [[पृथ्वीराज चौहान]] को हराया था। [[हसन निज़ामी]] के १३ वीं शताब्दी के पाठ-ताज-उल-मासिर ’’ के अनुसार, उन्होंने [[अजमेर]], [[दिल्ली]] पर नियंत्रण करने के बाद [[गढ़वाला]] राज्य पर हमला करने का फैसला किया। उन्होंने [[कुतुब अल-दीन ऐबक]] द्वारा संचालित 50,000-मजबूत सेना को भेजा। निज़ामी ने कहा कि इस सेना ने "धर्म के दुश्मनों की सेना" ([[इस्लाम]]) को हराया। ऐसा प्रतीत होता है कि पराजित सेना जयचंद्र की मुख्य सेना नहीं थी, बल्कि उनके सीमावर्ती पहरेदारों की एक छोटी संस्था थी।{{sfn|Roma Niyogi|1959|pp=110-111}}

तब जयचंद्र ने 1194 ईस्वी में कुतुब अल-दीन ऐबक के खिलाफ एक बड़ी सेना का नेतृत्व किया। 16 वीं शताब्दी के इतिहासकार [[फरिश्ता]] के अनुसार, जयचंद्र एक हाथी पर बैठे हुए थे, जब कुतुब अल-दीन ने उसे एक तीर से मार दिया था। घुरिडों ने 300 हाथियों को जिंदा पकड़ लिया, और असनी किले में गड़ावाला खजाने को लूट लिया।{{sfn|Roma Niyogi|1959|pp=111-112}} {{sfn|D. P. Dubey|2008|p=231}}) इसके बाद, घुरिडो ने वाराणसी के लिए आगे बढ़े, जहां हसन निजामी के अनुसार, "लगभग 1000 मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था और मस्जिदों को उनकी नींव पर खड़ा किया गया था"। घुरिडो के प्रति अपनी निष्ठा की पेशकश करने के लिए कई स्थानीय सामंती प्रमुख सामने आए।{{sfn|Roma Niyogi|1959|pp=111-112}}

जय चंद्र की मौत के बाद उनके पुत्र हरिश्चंद्र गढ़वाल ने घुरिडो को हराया, और वाराणसी को वापस अपने राज्य में ले लिया, और जितने भी मंदिर और घाट जो मुसलमानों ने तोड़े थे उन सब को वापस बनाया और जितने भी मस्जिद थे सब को नष्ट कर दिया।


==सन्दर्भ==
==सन्दर्भ==
{{टिप्पणीसूची}}
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===ग्रन्थसूची===
* {{cite book |author=Roma Niyogi |title=The History of the Gāhaḍavāla Dynasty |publisher=Oriental |year=1959 |url=https://books.google.com/books?id=EJQBAAAAMAAJ |oclc=5386449 |ref=harv }}
* {{cite journal |author=D. P. Dubey |title=A note on the identification of Asni |journal=Bulletin of the Deccan College Research Institute |volume=68 |year=2008 |publisher=Deccan College Research Institute |pages=231–236 |jstor=42931209 |ref=harv }}


[[श्रेणी:भारतीय राजा]]
[[श्रेणी:भारतीय राजा]]

14:05, 20 मार्च 2021 का अवतरण

जयचंद कन्नौज साम्राज्य के राजा थे। वो गहरवार राजवंश से थे जिसे अब गढ़वाल राजवंश के नाम से जाना जाता है।[1] जयचन्द्र (जयचन्द), महाराज विजयचन्द्र के पुत्र थे। ये कन्नौज के राजा थे। जयचन्द का राज्याभिषेक वि॰सं॰ १२२६ आषाढ शुक्ल ६ (ई.स. ११७० जून) को हुआ। राजा जयचन्द पराक्रमी शासक था। उसकी विशाल सैन्य वाहिनी सदैव विचरण करती रहती थी, इसलिए उसे ‘दळ-पंगुळ' भी कहा जाता है। इसका गुणगान पृथ्वीराज रासो में भी हुआ है। राजशेखर सूरि ने अपने प्रबन्ध-कोश में कहा है कि काशीराज जयचन्द्र विजेता था और गंगा-यमुना दोआब तो उसका विशेष रूप से अधिकृत प्रदेश था। नयनचन्द्र ने रम्भामंजरी में जयचन्द को यवनों का नाश करने वाला कहा है। युद्धप्रिय होने के कारण इन्होंने अपनी सैन्य शक्ति ऐसी बढ़ाई की वह अद्वितीय हो गई, जिससे जयचन्द को दळ पंगुळ' की उपाधि से जाना जाने लगा। जब ये युवराज थे तब ही अपने पराक्रम से कालिंजर के चन्देल राजा मदन वर्मा को परास्त किया। राजा बनने के बाद अनेकों विजय प्राप्त की। जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो (रासो)। यवनेश्वर सहाबुद्दीन गौरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में पछाड़ा (विद्यापति-पुरुष परीक्षा)। रम्भामंजरी में भी कहा गया है कि जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया। उत्तर भारत में उसका विशाल राज्य था। उसने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपनी राज्य सीमा को उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक बढ़ाया था। पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य को छूती थी। तराईन के युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहाण को परास्त कर दिया था। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। यहाँ का शासन प्रबन्ध गौरी ने अपने मुख्य सेनापति ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराईन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गौरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गौरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका कन्नौज जीतने का इरादा था। कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गौरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाके को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किए भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी। तराईन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हजार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गया। दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर नामक स्थान पर मुकाबला हुआ। युद्ध में राजा जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगा। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी सी सेना थी। दुर्भाग्य से जयचन्द के एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया, युद्ध में गौरी की विजय हुई। यह युद्ध वि॰सं॰ १२५० (ई.स. ११९४) को हुआ था। जयचन्द पर देशद्रोही का आरोप लगाया जाता है। कहा जाता है कि उसने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए गौरी को भारत बुलाया और उसे सैनिक संहायता भी दी। वस्तुत: ये आरोप निराधार हैं। ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं जिससे पता लगे कि जयचन्द ने गौरी की सहायता की थी। गौरी को बुलाने वाले देश द्रोही तो दूसरे ही थे, जिनके नाम पृथ्वीराज रासो में अंकित हैं। संयोगिता प्रकरण में पृथ्वीराज के मुख्य-मुख्य सामन्त काम आ गए थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से गौरी को समाचार दिया कि पृथ्वीराज के प्रमुख सामन्त अब नहीं रहे, यही मौका है। तब भी गौरी को विश्वास नहीं हुआ, उसने अपने दूत फकीरों के भेष में दिल्ली भेजे। ये लोग इन्हीं लोगों के पास गुप्त रूप से रहे थे। इन्होंने जाकर गौरी को सूचना दी, तब जाकर गौरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था। गौरी को भेद देने वाले थे नित्यानन्द खत्री, प्रतापसिंह जैन, माधोभट्ट तथा धर्मायन कायस्थ जो तेंवरों के कवि (बंदीजन) और अधिकारी थे (पृथ्वीराज रासो-उदयपुर संस्करण)। समकालीन इतिहास में कही भी जयचन्द के बारे में उल्लेख नहीं है कि उसने गौरी की सहायता की हो। यह सब आधुनिक इतिहास में कपोल कल्पित बातें हैं। जयचन्द का पृथ्वीराज से कोई वैमनस्य नहीं था। संयोगिता प्रकरण से जरूर वह थोड़ा कुपित हुआ था। उस समय पृथ्वीराज, जयचन्द की कृपा से ही बचा था। संयोगिता हरण के समय जयचन्द ने अपनी सेना को आज्ञा दी थी कि इनको घेर लिया जाए। लगातार पाँच दिन तक पृथ्वीराज को दबाते रहे। पृथ्वीराज के प्रमुखप्रमुख सामन्त युद्ध में काम आ गए थे। पाँचवे दिन सेना ने घेरा और कड़ा कर दिया। जयचन्द आगे बढ़ा वह देखता है कि पृथ्वीराज के पीछे घोड़े पर संयोगिता बैठी है। उसने विचार किया कि संयोगिता ने पृथ्वीराज का वरण किया है। अगर मैं इसे मार देता हूँ तो बड़ा अनर्थ होगा, बेटी विधवा हो जाएगी। उसने सेना को घेरा तोड़ने का आदेश दिया, तब कहीं जाकर पृथ्वीराज दिल्ली पहुँचा। फिर जयचन्द ने अपने पुरोहित दिल्ली भेजे, जहाँ विधि-विधान से पृथ्वीराज और संयोगिता का विवाह सम्पन्न हुआ। पृथ्वीराज और गौरी के युद्ध में जयचन्द तटस्थ रहा था। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने उससे सहायता भी नहीं माँगी थी। पहले युद्ध में भी सहायता नहीं माँगी थी। अगर पृथ्वीराज सहायता माँगता तो जयचन्द सहायता जरूर कर सकता था। अगर जयचन्द और गौरी में मित्रता होती तो बाद में गौरी जयचन्द पर आक्रमण क्यों करता ? अतः यह आरोप मिथ्या है। पृथ्वीराज रासो में यह बात कहीं नहीं कही गई कि जयचन्द ने गौरी को बुलाया था। इसी प्रकार समकालीन फारसी ग्रन्थों में भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जयचन्द ने गौरी को आमन्त्रित किया था। यह एक सुनी-सुनाई बात है जो एक रूढी बन गई है।

जयचंद और इतिहासकार
इतिहासकार सम्राट जयचंद के लिए इतिहास की पर्याप्त जानकारी के अभाव में अपशब्द कहे जाते हैं जबकि ख्यातिनाम इतिहासकारों की सम्राट जयचंद के प्रति राय निम्नानुसार है।

(1) इस कथन में कोई सत्यता नहीं है कि महाराज जयचंद ने पृथ्वीराज पर अक्रमण करने के लिए मोहम्मद गौरी को आमंत्रित किया हो। - डॉ. आर.सी. मजूददार (एन्सेन्ट इण्डिया)

(2) यह बात आधारहीन है कि महाराज जयचंद ने मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। - जे.सी. पोवल (हिस्ट्री ऑफ इण्डिया)

(3) जयचंद पर यह आरोप गलत है। समकालीन मुसलमान इतिहासकार इस बात पर पूर्णतया मौन है कि जयचंद ने ऐसा कोई निमंत्रण भेजा हो। - डॉ. रामशंकर त्रिपाठी

(4) यह धारणा कि मुसलमानों को पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने के लिए जयचंद ने आमंत्रित किया, निराधार है। उस समय के कतिपय ग्रन्थ प्राप्य हैं किन्तु किसी में भी इस बात का उल्लेख नहीं है। पृथ्वीराज विजय, हमीर महाकाव्य, रंभा मंजरी, प्रबंध कोश व किसी भी मुसलमान यात्री के वर्णन में ऐसा उल्लेख नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जयचंद ने चन्दावर में मोहम्मद गौरी से शौर्य पूर्ण युद्ध किया था। | - महेन्द्र नाथ मिश्र

(5) यह बात नितांत असत्य है कि जयचंद ने शाहबुद्दीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। शहाबददीन अच्छी तरह जानता था कि जब तक उत्तर भारत में महाशक्तिशाली जयचंद को परास्त न किया जाएगा दिल्ली और अजमेर आदि भू-भागों पर किया गया अधिकार स्थायी न होगा क्योंकि जयचंद के पूर्वजों ने और स्वयं जयचंद ने तुर्को से अनेकों बार मोर्चा लेकर हाराया था। - इब्न नसीर (कामिल-उल-तवारिख)

(6) अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया नामक इतिहास विषयक पुस्तक में इतिहसाकार स्मिथ ने इस आरोप का कहीं उल्लेख नहीं किया है।

(7) यह विश्वास कि गौरी को जयचंद ने पृथ्वीराज के विरुद्ध निमंत्रण दिया था, ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि मुसलमान लेखकों ने कहीं भी इसका जिक्र नहीं किया है। | - डॉ. राजबली पाण्डे (प्राचीन भारत)

सन्दर्भ

  1. Vincent A. Smith (1 जनवरी 1999). The Early History of India. Atlantic Publishers & Dist. पपृ॰ 385–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7156-618-1. अभिगमन तिथि 23 जुलाई 2013.