"मृच्छकटिकम्": अवतरणों में अंतर

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* [http://www.sacred-texts.com/hin/lcc/index.htm ''The Little Clay Cart'' by Shudraka, translated by Arthur William Ryder (1905).]
* [http://www.sacred-texts.com/hin/lcc/index.htm ''The Little Clay Cart'' by Shudraka, translated by Arthur William Ryder (1905).]


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06:21, 21 सितंबर 2009 का अवतरण

मृच्छकटिकम् (अर्थात्, मिट्टी की गाड़ी) संस्कृत नाट्य साहित्य में सबसे अधिक लोकप्रिय रूपक है। इसमें 10 अंक है। इसके रचनाकार महाराज शूद्रक हैं। नाटक की पृष्टभूमि पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) है। भरत के अनुसार दश रूपों में से यह मिश्र प्रकरण का सर्वोत्तम निदर्शन है।

कथावस्तु

इसकी कथावस्तु कवि प्रतिभा से प्रसूत है। उज्जययिनी का निवासी सार्थवाह विप्रवर चारूदत्त इस प्रकरण का नायक है और दाखनिता के कुल में उत्पन्न वसंतसेना नायिका है। चारूदत्त की पत्नी धूता पूर्वपरिग्रह के अनुसार ज्येष्ठा है जिससे चारूदत्त को रोहितसेन नाम का एक पुत्र है। चारूदत्त किसी समय बहुत समृद्ध था परंतु वह अपने दया दाक्षिण्य के के कारण नि:स्वह हो चला था, तथापि प्रामाण्किता, सौजन्य एवं औदार्य के नाते उसकी महती प्रतिष्ठा थी। वसंतसेना नगर की शोभा है, अत्यंत उदार, मनस्विनी एवं व्यवहारकुशला, रूपगुणसंपन्ना साधारणी नवयौवना नायिका उत्तम प्रकृति की है और वह आसाधारण गुणों से मुग्ध हो उस पर निव्र्याज प्रेम करती है। नायक की यों एक साधारणी और एक स्वीया नायिका होने के कारण यह संकीर्ण प्रकरण माना जाता है।

इसकी कथावस्तु तत्कालीन समाज का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व करती है। यह केवल व्यक्तिगत विषय पर ही नहीं अपितु इस युग की शासन व्यवस्था एवं राज्य स्थिति पर भी प्रचुर प्रकाश डालता है। साथ ही साथ वह नागरिक जीवन का भी यथावत् चित्र अंकित करता है। इसमें नगर की साज सजावट, वारांगनाओं का व्यवहार, दास प्रथा, द्यूत क्रीड़ा, विट की धूर्तता, चौर्यकर्म, न्यायालय में न्यायनिर्णय की व्यवस्था, अवांछित राजा के प्रति प्रजा के द्रोह, एवं जनमत के प्रभुत्व का सामाजिक स्वरूप भली भाँति चित्रित किया गया है, साथ ही समाज में दरिद्रजन की स्थिति, गुणियों का संमान, सुख दु:ख में समरूप मैत्री के बिदर्शन, उपकृत वर्ग की कृतज्ञता, निरपराध के प्रति दंड पर क्षोभ, राज वल्लभों के अत्याचार, वारनारी की समृद्धि एवं उदारता, प्रणय की वेदी पर बलिदान, कुलांगनाओं का आदर्श चरित्र जैसे वैयक्तिक विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। इस विशेषाता के कारण यह याथर्थवादी रचना संस्कृत साहित्य में अनूठी है। इसी कारण यह पाश्चात्य सहृदयों का अत्यधिक प्रिय लगी। इसका अनुवाद विविध भाषाओं में हो चुका है, और भारत तथा सुदूर अमेरीका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, इटली, इंग्लैड के अनेक रंगमंचों पर इसका सफल अभिनय भी किया जा चुका है।

साहित्यिक समीक्षा

मृच्छकटिक की न केवल कथावस्तु ही अत्यंत रोचक है, अपितु कवि की चरित्र चित्रण की चातुरी बहुत उच्च कोटि की है। यद्यपि इसमें प्रधान रस विप्रलंभ श्रृंगार है तथापि हास्य, करूणा, भयानक एवं वात्सल्य जैसे हृदयहारी विविध रसों का सहज सामंजस्य है। ग्रीक नाट्यकला की दृष्टि से भी परखे जाने पर इसका मूल्य पाश्चात्य मनीषियों द्वारा बहुत ऊँचा आँका गया है। इसकी भाषा प्रसाद गुण से संपन्न हो अत्यंत प्राँजल है। प्राकृति के विविध स्वरूपों का दर्शन इसमें होता है---प्राच्या, मागधी और शौरसेनी के अतिरिक्त, सर्वोत्तम प्राकृत महाराष्ट्री और आवंती के भव्य निदर्शन यहाँ उपलब्ध होते हैं। ग्रियर्सन के अनुसार इस प्रकरण में शाकारी विभाषा में टक्की प्राकृत का भी प्रयोग पाया जाता है। शब्दचयन में माधुरी एवं अर्थव्यक्ति की ओर कवि ने सविशेष ध्यान दिया है, जिससे आवंती एवं वैदर्भी रीति का निर्वाह पूर्ण रूप से हुआ है।

रचनाकार एवं रचनाकाल

यह महाराज शूद्रक की कृति मानी जाती है जो भास और कालिदास के मध्ययुगीन राज कवि हुए है । मृच्छकटिक ईसवी प्रथम शती के लगभग की रचना कही जा सकती है। कहा जाता है, भासप्रणीत चारूदत्त नामक चतुरंगी रूपक की कथावस्तु को परिवर्धित कर किसी परवर्ती शूद्र कवि के द्वारा मृच्छकटिक की रचना हुई है। वस्तुत: इसकी कथावस्तु का आधार बृहत्कथा और कथासरित्सागर में वर्णित कथाओं में मिलता है।

अनुवाद एवं टीकाएँ

मृच्छकटिक पर अनेक टीकाएँ लिखी गई। इसके अनेक अनुवाद भी हुए है और अनेक संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें से सर्वप्राचीन टीका पृथ्वीधर की है। जीवानंद ने भी एक व्यापक टीका लिखी। हरिदास की व्याख्या अत्यंत मार्मिक है। आर्थर रायडर द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवार हार्वर्ड युनिवर्सिटी सीरीज़ में प्रकाशित हुआ है।

बाहरी कड़ियाँ