"रहस्यवाद": अवतरणों में अंतर

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'''रहस्यवाद''' वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपना प्रेम प्रकट करता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है। और ऐसा करके जब उसे चरम आनंद की अनुभूति होती है तब वह इस अनुभूति को बाह्य जगत में व्यक्त करने का प्रयास करता है किन्तु इसमें अत्यंत कठिनाई होती है। लौकिक भाषा और वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते हैं।
'''रहस्यवाद''' वह प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपना प्रेम प्रकट करता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है। और ऐसा करके जब उसे चरम आनंद की अनुभूति होती है तब वह इस अनुभूति को बाह्य जगत में व्यक्त करने का प्रयास करता है किन्तु इसमें अत्यंत कठिनाइयां होती है। लौकिक भाषा और वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते हैं।


हिंदी साहित्य में रहस्यवाद सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है। संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तथा प्रेममार्गी या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमें लीन होना चाहते हैं—कबीर योग के माध्यम से तथा जायसी प्रेम के माध्यम से; इसलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है तथा जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक रहस्यवाद है।
हिंदी साहित्य में रहस्यवाद सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है। संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तथा प्रेममार्गी या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमें लीन होना चाहते हैं—कबीर योग के माध्यम से तथा जायसी प्रेम के माध्यम से; इसलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है तथा जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक रहस्यवाद है।

08:34, 19 सितंबर 2020 का अवतरण

रहस्यवाद वह प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकार उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपना प्रेम प्रकट करता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है। और ऐसा करके जब उसे चरम आनंद की अनुभूति होती है तब वह इस अनुभूति को बाह्य जगत में व्यक्त करने का प्रयास करता है किन्तु इसमें अत्यंत कठिनाइयां होती है। लौकिक भाषा और वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते हैं।

हिंदी साहित्य में रहस्यवाद सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है। संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तथा प्रेममार्गी या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमें लीन होना चाहते हैं—कबीर योग के माध्यम से तथा जायसी प्रेम के माध्यम से; इसलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है तथा जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक रहस्यवाद है।

रहस्यवाद के अंतर्गत प्रेम के स्तर

  • प्रथम स्तर है अलौकिक सत्ता के प्रति आकर्षण।
  • द्वितीय स्तर है उस अलौकिक सत्ता के प्रति दृढ़ अनुराग।
  • तृतीय स्तर है विरहानुभूति।
  • चौथा स्तर है मिलन का मधुर आनंद।

आधुनिक काल में भी छायावाद में रहस्यवाद दिखाई पड़ता है। महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद की पर्याप्तता है, लेकिन आधुनिक काल में रहस्यवाद उस अमूर्त, अलौकिक या परम सत्ता से जुड़ने की चाहत के कारण नहीं उत्पन्न हुआ अपितु यह लौकिक प्रेम में आ रही बाधाओं की वजह से उत्पन्न हुआ है। महादेवी और निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। यद्यपि छायावाद और रहस्यवाद में विषय की दृष्टि से अंतर है—जहाँ रहस्यवाद का विषय आलंबन अमूर्त, निराकार ब्रह्म है जो सर्व व्यापक है, वहाँ छायावाद का विषय लौकिक ही होता है।