"अलाउद्दीन खिलजी": अवतरणों में अंतर

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काल्पनिक बताया है।<ref>{{cite web|url=https://scroll.in/article/854706/ala-ud-din-khalji-why-the-peoples-king-was-made-out-to-be-a-monster-by-16th-century-chroniclers|title=Ala-ud-din Khalji: Why the ‘people’s king’ was made out to be a monster by 16th century chroniclers|access-date=29 अक्तूबर 2017|archive-url=https://web.archive.org/web/20190125102203/https://scroll.in/article/854706/ala-ud-din-khalji-why-the-peoples-king-was-made-out-to-be-a-monster-by-16th-century-chroniclers|archive-date=25 जनवरी 2019|url-status=live}}</ref>
काल्पनिक बताया है।<ref>{{cite web|url=https://scroll.in/article/854706/ala-ud-din-khalji-why-the-peoples-king-was-made-out-to-be-a-monster-by-16th-century-chroniclers|title=Ala-ud-din Khalji: Why the ‘people’s king’ was made out to be a monster by 16th century chroniclers|access-date=29 अक्तूबर 2017|archive-url=https://web.archive.org/web/20190125102203/https://scroll.in/article/854706/ala-ud-din-khalji-why-the-peoples-king-was-made-out-to-be-a-monster-by-16th-century-chroniclers|archive-date=25 जनवरी 2019|url-status=live}}</ref>


उसके समय में उत्तर पूर्व से [[मंगोल]] आक्रमण भी हुए। उसने उसका भी डटकर सामना किया।<ref>{{cite web|url=http://www.bbc.com/hindi/entertainment-42062092|title='पद्मावती में असल अन्याय ख़िलजी के साथ हुआ है'|access-date=21 नवंबर 2017|archive-url=https://web.archive.org/web/20171124010949/http://www.bbc.com/hindi/entertainment-42062092|archive-date=24 नवंबर 2017|url-status=live}}</ref> अलाउद्दीन ख़िलजी के बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। खिलजी हिन्दुओ का दमन करने वाला बर्बर व्यक्ति था।जलालुद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या धोखे से 22 अक्टूबर 1296 को खुद से गले मिलते समय अपने दो सैनिकों (मुहम्मद सलीम तथा इख़्तियारुद्दीन हूद) द्वारा करवा दी। इस प्रकार उसने अपने सगे चाचा जो उसे अपने औलाद की भांति प्रेम करता था के साथ विश्वासघात कर खुद को सुल्तान घोषित कर दिया और दिल्ली में स्थित बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 को सम्पन्न करवाया।
उसके समय में उत्तर पूर्व से [[मंगोल]] आक्रमण भी हुए। उसने उसका भी डटकर सामना किया।<ref>{{cite web|url=http://www.bbc.com/hindi/entertainment-42062092|title='पद्मावती में असल अन्याय ख़िलजी के साथ हुआ है'|access-date=21 नवंबर 2017|archive-url=https://web.archive.org/web/20171124010949/http://www.bbc.com/hindi/entertainment-42062092|archive-date=24 नवंबर 2017|url-status=live}}</ref> अलाउद्दीन ख़िलजी के बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। जलालुद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या धोखे से 22 अक्टूबर 1296 को खुद से गले मिलते समय अपने दो सैनिकों (मुहम्मद सलीम तथा इख़्तियारुद्दीन हूद) द्वारा करवा दी। इस प्रकार उसने अपने सगे चाचा जो उसे अपने औलाद की भांति प्रेम करता था के साथ विश्वासघात कर खुद को सुल्तान घोषित कर दिया और दिल्ली में स्थित बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 को सम्पन्न करवाया।


== निर्माण कार्य ==
== निर्माण कार्य ==

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अलाउद्दीन खिलजी
चित्र:Sultan Alauddin Khalji.jpg
अलाउद्दीन खिलजी का एक चित्र
दिल्ली का सुल्तान
शासनावधि1296–1316
राज्याभिषेक1296
पूर्ववर्तीजलालुद्दीन खिलजी
उत्तरवर्तीशहाबुद्दीन उमर
अवध का राज्यपाल
कार्यकाल1296
कड़ा का राज्यपाल
कार्यकाल1291–1296
पूर्ववर्तीमलिक छज्जू
उत्तरवर्तीअला-उल मुल्क
अमीर-ए-तुज़ुक
कार्यकाल1290–1291
जन्मअली गुरशास्प
c. 1266-1267
निधनदिल्ली, भारत
समाधि
दिल्ली, भारत
जीवनसंगी
  • मलिका-ए-जहाँ (जलालुद्दीन की बेटी)
  • महरू (अल्प खान की बहन)
  • कमलादेवी (कर्ण की पूर्व पत्नी)
संतान
शासनावधि नाम
अलाउद्दुनिया वाद दीन मुहम्मद शाह-उस सुल्तान
राजवंशखिलजी राजवंश
पिताशाहबुद्दीन मसूद
धर्मसुन्नी इस्लाम
खिलजी साम्राज्य की सीमाएं [disputed]

अलाउद्दीन खिलजी (वास्तविक नाम अलीगुर्शप 1296-1316) दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश का दूसरा शासक था।[1] उसका साम्राज्य अफगानिस्तान से लेकर उत्तर-मध्य भारत तक फैला था। इसके बाद इतना बड़ा भारतीय साम्राज्य अगले तीन सौ सालों तक कोई भी शासक स्थापित नहीं कर पाया था। मेवाड़ चित्तौड़ का युद्धक अभियान इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है।[2] ऐसा माना जाता है कि वो चित्तौड़ की रानी पद्मिनी की सुन्दरता पर मोहित था।[3] इसका वर्णन मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचना पद्मावत को काल्पनिक बताया है।[4]

उसके समय में उत्तर पूर्व से मंगोल आक्रमण भी हुए। उसने उसका भी डटकर सामना किया।[5] अलाउद्दीन ख़िलजी के बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। जलालुद्दीन खिलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मज़बूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या धोखे से 22 अक्टूबर 1296 को खुद से गले मिलते समय अपने दो सैनिकों (मुहम्मद सलीम तथा इख़्तियारुद्दीन हूद) द्वारा करवा दी। इस प्रकार उसने अपने सगे चाचा जो उसे अपने औलाद की भांति प्रेम करता था के साथ विश्वासघात कर खुद को सुल्तान घोषित कर दिया और दिल्ली में स्थित बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 को सम्पन्न करवाया।

निर्माण कार्य

अलाउद्दीन के दरबार में अमीर खुसरों तथा हसन निजामी जैसे उच्च कोटि के विद्धानों को संरक्षण प्राप्त था। स्थापत्य कला के क्षेत्र में अलाउद्दीन खिलजी ने वृत्ताकार 'अलाई दरवाजा' अथवा 'कुश्क-ए-शिकार' का निर्माण करवाया। उसके द्वारा बनाया गया 'अलाई दरवाजा' प्रारम्भिक तुर्की कला का एक श्रेष्ठ नमूना माना जाता है। इसने सीरी के किले, हजार खम्भा महल का निर्माण किया।

शासन व्यवस्था

राज्याभिषेक के बाद उत्पन्न कठिनाईयों का सफलता पूर्वक सामना करते हुए अलाउद्दीन ने कठोर शासन व्यवस्था के अन्तर्गत अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना प्रारम्भ किया। अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने 'सिकन्दर द्वितीय' (सानी) की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया। उसने विश्व-विजय एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करने के अपने विचार को अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल 'अलाउल मुल्क' के समझाने पर त्याग दिया। यद्यपि अलाउद्दीन ने ख़लीफ़ा की सत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की, किन्तु उसने ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृत लेनी आवश्यक नहीं समझी। उलेमा वर्ग को भी अपने शासन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने शासन में इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों को प्रमुखता न देकर राज्यहित को सर्वोपरि माना। अलाउद्दीन ख़िलजी के समय निरंकुशता अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी।

हिन्दुओं के साथ व्यवहार -

अलाउद्दीन हिंदुओं के प्रति बहुत ही निर्दयी था l वह प्रत्येक संभव प्रकार से उन्हें पीड़ित करने में कठोर नीतियों का प्रयोग करता था l   बयाना का क़ाज़ी हिन्दुओ के प्रति नीति की व्याख्या करता था, और अपने राज्य में अलाउद्दीन उसी का अनुसरण करता था l क़ाज़ी के अनुसार उनको "खिराज़ गुजार" (भेंट देने वाला) कहा गया हैl और जब कभी माल विभाग का अधिकारी उनसे चाँदी मांगे, तो उन्हें बिना प्रश्न किए पूर्ण विनम्रता तथा सम्मान पूर्वक स्वर्ण उपस्थित करना चाहिए।  यदि मुहस्सिल ( राज-कर वसूल करने वाला) किसी हिंदू के मुंह में थूकना चाहे तो उसे निर्विरोध भाव से मुंह खोल देना चाहिए। ऐसा करने का अर्थ यह है कि ऐसा करने से वह अपनी नम्रता एवम अधीनता तथा आज्ञा पालन एवं सम्मान प्रदर्शित करता है तथा उनकी संपत्ति राजकोष में जमा कर ली जाए l अलाउद्दीन ने अनेक ऐसे कार्य किए जिससे हिंदुओं को निर्धनता एवं पीड़ा का शिकार बनना पड़ा जियाउद्दीन बरनी के अनुसार, अलाउद्दीन ने गर्व के साथ यह विचार व्यक्त किया कि मेरा आदेश पाते ही वे लोग ऐसे भाग जाते हैं जैसे चूहे अपने बिलों में...सर् वुल्ज़ले हेग  के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी ने सारे राज्य में हिंदुओं को निर्धनता तथा पीड़ा के धरlतल पर उतार दिया था।

विद्रोहों का दमन

अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह हुए, जिनमें 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन नुसरत ख़ाँ ने किया। दूसरा विद्रोह अलाउद्दीन के भतीजे अकत ख़ाँ द्वारा किया गया। अपने मंगोल मुसलमानों के सहयोग से उसने अलाउद्दीन पर प्राण घातक हमला किया, जिसके बदलें में उसे पकड़ कर मार दिया गया। तीसरा विद्रोह अलाउद्दीन की बहन के लड़के मलिक उमर एवं मंगू ख़ाँ ने किया, पर इन दोनों को हराकर उनकी हत्या कर दी गई। चौथा विद्रोह दिल्ली के हाजी मौला द्वारा किया गया, जिसका दमन सरकार हमीद्दीन ने किया। इस प्रकार इन सभी विद्रोहों को सफलता पूर्वक दबा दिया गया। अलाउद्दीन ने तुर्क अमीरों द्वारा किये जाने वाले विद्रोह के कारणों का अध्ययन कर उन कारणों को समाप्त करने के लिए 4 अध्यादेश जारी किये। प्रथम अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने दान, उपहार एवं पेंशन के रूप में अमीरों को दी गयी भूमि को जब्त कर उस पर अधिकार कर लगा दिया, जिससे उनके पास धन का अभाव हो गया। द्वितीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने गुप्तचर विभाग को संगठित कर ‘बरीद’ (गुप्तचर अधिकारी) एवं ‘मुनहिन’ (गुप्तचर) की नियुक्ति की। तृतीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ख़िलजी ने मद्यनिषेद, भाँग खाने एवं जुआ खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया। चौथे अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने अमीरों के आपस में मेल-जोल, सार्वजनिक समारोहों एवं वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सुल्तान द्वारा लाये गये ये चारों अध्यादेश पूर्णतः सफल रहे। अलाउद्दीन ने खूतों, मुक़दमों आदि हिन्दू लगान अधिकारियों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया।

साम्राज्य विस्तार

अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्यवादी प्रवृति का व्यक्ति था। उसने उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर उन पर प्रत्यक्ष शासन किया। दक्षिण भारत के राज्यों को अलाउद्दीन ने अपने अधीन कर उनसे वार्षिक कर वसूला।

गुजरात विजय

1298 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग ख़ाँ एवं नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। अहमदाबाद के निकट कर्णदेव वाघेला और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी कर देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति । युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने सूरत, सोमनाथ और कैम्बे तक आक्रमण किया। कफी दिनों तक कमला देवी एवं उनकी पूत्री देवली अलाउद्दीन की सेना को अपने साथ ले गये

जैसलमेर विजय

अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना के कुछ घोड़े छीन लेने के कारण सुल्तान ख़िलजी ने जैसलमेर के राजपूत शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई. में पराजित किया और जेसलमेर की विजय की।

रणथम्भौर विजय

रणथम्भौर के शासक हम्मीरदेव अपनी योग्यता एवं साहस के लिए प्रसिद्ध थे। अलाउद्दीन के लिए रणथम्भौर को जीतना इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि हम्मीरदेव ने विद्रोही मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं केहब को अपने यहाँ शरण दे रखी थी, इसलिए भी अलाउद्दीन रणथम्भौर को जीतना चाहता था। अतः जुलाई, 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर के क़िले को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। हम्मीरदेव वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने रनमल और उसके साथियों का वध करवा दिया, जो हम्मीरदेव से विश्वासघात करके उससे आ मिले थे। ‘तारीख़-ए-अलाई’ एवं ‘हम्मीर महाकाव्य’ में हम्मीरदेव और उनके परिवार के लोगों का जौहर द्वारा मृत्यु प्राप्त होने का वर्णन है। रणथम्भौर युद्ध के दौरान ही नुसरत ख़ाँ की मृत्यु हुई। हम्मीर रासो के अनुसार हम्मीर की रानी रंगदे के नेतृत्व में राजपूत महिलाओ ने जौहर (आग में कूदकर आत्महत्या) किया तथा राजकुमारी देवल दे ने पद्मला तालाब में कूदकर जल जौहर किया था।

चित्तौड़ आक्रमण एवं मेवाड़ विजय

मेवाड़ के शासक राणा रतन सिंह थे , जिनकी राजधानी चित्तौड़ थी। चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने अमीर खुसरव के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर और 'पद्मावत की कथा' के आधार पर चित्तौड़ पर न के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है ।[6][7] अन्ततः 28 जनवरी 1303 ई. को सुल्तान चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ। रावल रतन सिंह युद्ध में शहीद हुये और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया,ये चर्चा का विषय है। अधिकतर इतिहासकार पद्मिनी को काल्पनिक पात्र मानते हैं। किले पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर 'ख़िज़्राबाद' रखा और ख़िज़्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया। इसी के साथ मेवाड़ में रावल शाखा का अंत हुआ, कालांतर में दूसरी शाखा सिसोदिया वँश की थी, जिसके शासक "राणा" कहलाते थे चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउदीन ने ख़िज़्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की ज़िम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया।

सौंख मथुरा अभियान

अलाउदीन खिलजी ने 1301 ईस्वी में रणथम्भोर के शासक हम्मीर देव को हराकर रणथम्भोर पर कब्ज़ा कर लिया था तो उसकी नज़र ब्रज के क्षेत्र पर पड़ना स्वाभाविक थी|[8] अपने साम्राज्य विस्तार नीति के तहत उसने रणथम्भोर के अपने प्रशासक उलुग खान के नेतृत्व में सौंख गढ़ (मथुरा) सेना भेजी थी| सौंख गढ़ मथुरा के जगा इसका अन्य ही कारण बताते है उनके अनुसार अलाउदीन खिलजी की एक सैनिक टुकड़ी जो किसी सैनिक अभियान के बाद गोवर्धन से गुजर रही थी| इस टुकड़ी ने गोवर्धन के मंदिरों को नुकसान पंहुचाया था | तब महाराजा नाहर सिंह ने सैनिक टुकड़ी भेज कर सभी खिलजी सैनिको को मौत के घाट उतरवा दिया था| इस घटना से क्रोधित हो कर अलाउदीन ने सौंख गढ़ पर हमला किया था| [9] यह हमला सन 1304 ईस्वी के आसपास हुआ था | उलगु खान ने जब पहला हमला किया तब युद्ध महगांवा के समीप हुआ था| यहाँ पर भी अनंगपाल के वंशज कौन्तेय जाटों का एक गढ़ था जिसके अवशेष वर्तमान में भी मिलते है | इस युद्ध में मोहम्मद तुगरिक नामक एक तुर्क गुलाम मारा गया था| जाटों ने खिलजी सेना को कुछ महीनो तक रोके रखा अंतिम निर्णायक युद्ध सौंख के समीप हुआ जिसमे उलगु खान एक विशाल फ़ौज लेकर आया तब कौन्तेय नाहर सिंह तोमर के आहवान पर जाटों ने किले में बंद होकर दुर्बलता दिखाने के बजाए लड़ते हुए अपने देश की रक्षा के लिए बलिदान देना उचित समझा विशाल तुर्कों की फ़ौज और जाटों में मध्य युद्ध हुआ जिसमे राजा नाहरसिंह और उनके मंत्री #बोध #ब्राह्मण चतुर्वेदी सौंख (सोनोक) दुर्ग की रक्षा में अल्लाउदीन ख़िलजी से युद्ध करते हुए वीरगति को पा गए थे| सौंख का सेनापति गैंदासिंह भी युद्ध में अपने परिवार के अधिकांश सदस्यों के साथ मारा गया था| गेंदा सिंह गढ़ गुनसारा खेड़े का अधिपति था[10] सेनापति गेंदा सिंह की मृत्यु के बाद तोमर देश बडौत के मेहरपाल तोमर ने कुछ समय के लिए युद्ध का संचालन किया और यह वीर अंतिम सांस तक लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ| अलाउदीन खिलजी ने ब्रज के मंदिरों का नष्ट किया ब्रज की सांस्कृतिक यात्रा नामक #पुस्तक के लेखक प्रभुदयाल मित्तल के अनुसार संत घाट पर बने कृष्ण मंदिर को अलाउदीन खिलजी ने ही तोडा था| यह घटना इस युद्ध के समय की है| इस विजय का अलाउद्दीन खिलजी का एक फारसी लेख मथुरा से प्राप्त हुआ है| यह दो पंक्ति का है इसकी पहली पंक्ति में अलाउदीन शाह नाम और उपाधि सिकंदर सानी लिखा है| दूसरी पंक्ति में युद्ध के बाद बनी मस्जिद का ज़िक्र है| उलगु खान ने असिकुंड घाट के पास के मंदिर को तोड़ के मस्जिद बनाई थी|

इतिहासकार कृष्ण दत्त वाजपेयी लिखते है की यह मस्जिद कुछ समय बाद नष्ट हो गयी थी| नाहर सिंह के उत्तराधिकारियों ने अलाउद्दीन खिलजी की सन 1316 ईस्वी में मृत्यु होने के बाद कमजोर हुए खिलजी साम्राज्य से मथुरा का यह क्षेत्र पुनः जीत लिया था| उसके बाद ही सौंख के अधिपति #प्रहलाद सिंह जाट (डूंगर सिंह) जो नाहर सिंह के एक मात्र जीवित पुत्र थे| उन्होंने इस मस्जिद को नष्ट किया हो लेकिन कुछ लोग इस मस्जिद के यमुना की बाढ़ में नष्ट हुआ मानते है लेकिन एक मजबूत इमारत का यमुना की बाढ़ में नष्ट होने की सम्भावना कम ही दिखती है| यह तो ब्रज के स्वाभिमानी जाट राजाओ के प्रतिशोध का फल था प्रहलाद सिंह को उनकी वीरता के कारण ही डूंगर सिंह नाम से भी जाना जाता है| प्रहलाद सिंह के चार पुत्र थे|  1 सहजना (बड़ा पुत्र जो बाद में राजा बना ) 2 तसिगा (सिंगा )  3 आशा (नैनू ) 4 पुन्ना (महता ) गैंदा सिंह की मृत्यु सौंख (सौनक) दुर्ग के युद्ध में होने के बाद प्रहलाद सिंह ने अपने बड़े पुत्र सहजना के कहने पर गैंदासिंह के पुत्र आजल को गोद ले लिया इस तरह पांच पुत्र प्रहलाद सिंह के हुए इस युद्ध के बाद कुछ लोग सौंख स जाकर निमाड़ में बसे यहां से मालेगांव और जलगांव में आबाद हुए यह लोग वर्तमान में जगताप कहलाते हैं। यह गोत की जगह देवक को मानते हैं।

मालवा विजय

मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।

जालौर

जालौर के शासक कान्हणदेव ने 1304 ई. में अलाउद्दीन की अधीनता को स्वीकार कर लिया था, पर धीरे-धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया। 1311 ई. में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सुल्तान की सेना ने कान्हणदेव को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार जालौर पर अधिकार के साथ ही अलाउद्दीन की राजस्थान विजय का कठिन व दुर्ग

कार्य पूरा हुआ। 1311 ई. तक उत्तर भारत में सिर्फ़ नेपाल, कश्मीर एवं असम ही ऐसे भाग बचे थे, जिन पर अलाउद्दीन अधिकार नहीं कर सका था। उत्तर भारत की विजय के बाद अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत की ओर अपना रुख किया। कान्हड्देव प्रबन्ध के अनुसार कान्हड्देव के पुत्र वीरम देव का प्रेम अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा से था जो इस आक्रमण का मुख्य कारण था

दक्षिण विजय

अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत में सिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-

देवगिरि के यादव दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और द्वारसमुद्र के होयसल अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफ़ूर’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफ़ूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था।

देवगिरि

शासक बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव (सिंहन देव) के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः नाइब मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में एक सेना को देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजा गया। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी, जो कमला देवी एवं कर्ण की पुत्री थी, को दिल्ली भेज दिया, जहाँ पर उसका विवाह ख़िज़्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।

तेलंगाना

तेलंगाना में काकतीय वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली।

होयसल

होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की।

मृत्यु

जलोदर रोग से ग्रसित अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपना अन्तिम समय अत्यन्त कठिनाईयों में व्यतीत किया और 2 जनवरी 1316 ई. को इसकी मृत्यु हो गई। यह भी कहा जाता है कि अंतिम समय में अलाउद्दीन खिलजी को एक त्वचा रोग (कोढ़) हो गया था जिसके कारण वह बहुत परेशान रहने लगा, अंत में उसके वफादार मलिक काफूर ने अलाउद्दीन को मार दिया था और खुद सुलतान बन गया, अलाउद्दीन का मकबरा क़ुतुब मीनार के परिसर में ही स्थित है।

सन्दर्भ

  1. "क्या रिश्ता था अलाउद्दीन खिलजी और मलिक काफ़ूर का?". मूल से 9 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 9 अक्तूबर 2017.
  2. "History lesson: Padmavati was driven to immolation by a Rajput prince, not Ala-ud-din Khalji". मूल से 25 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 नवंबर 2017.
  3. "कहाँ से आई थीं पद्मावती?". मूल से 25 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 नवंबर 2017.
  4. "Ala-ud-din Khalji: Why the 'people's king' was made out to be a monster by 16th century chroniclers". मूल से 25 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अक्तूबर 2017.
  5. "'पद्मावती में असल अन्याय ख़िलजी के साथ हुआ है'". मूल से 24 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 नवंबर 2017.
  6. "आवरण कथाः पद्मावती का मिथक और यथार्थ". मूल से 1 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 नवंबर 2017.
  7. "Padmavati: चित्तौड़ के इन दो योद्धाओं के बिना अधूरी है रानी पद्मावती की कहानी". मूल से 1 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 नवंबर 2017.
  8. Pandav Gatha page 247
  9. Pandav Gatha page 248|url https://books.google.co.in/books?id=YTqfDwAAQBAJ&printsec=frontcover&dq=%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%96+%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A5%80+%E0%A4%A4%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%B0&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwjXxLLIpKXkAhUBi3AKHc_lAP8Q6AEILzAB#v=onepage&q=%E0%A4%B8%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%96%20%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A4%9C%E0%A5%80%20%E0%A4%A4%E0%A5%8B%E0%A4%AE%E0%A4%B0&f
  10. Pandav Gatha page 247

बाहरी कड़ियाँ

भिलसा जो बर्तमान में मध्यप्रदेश का विदीशा जिला हे