"सैनिक कानून": अवतरणों में अंतर

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== बाहरी कड़ियाँ ==
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* [http://news.bbc.co.uk/2/hi/asia-pacific/4402748.stm Martial law in Thailand in 2005]
* [https://web.archive.org/web/20090930012104/http://news.bbc.co.uk/2/hi/asia-pacific/4402748.stm Martial law in Thailand in 2005]
* [http://www.filipiniana.net/ArtifactView.do?artifactID=E00000000001 Full text of the 1972 Martial Law in the Philippines]
* [https://web.archive.org/web/20090707174631/http://www.filipiniana.net/ArtifactView.do?artifactID=E00000000001 Full text of the 1972 Martial Law in the Philippines]
* [http://georgewbush-whitehouse.archives.gov/news/releases/2007/05/20070509-12.html NSPD-51]
* [https://web.archive.org/web/20100125021318/http://georgewbush-whitehouse.archives.gov/news/releases/2007/05/20070509-12.html NSPD-51]


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20:11, 15 जून 2020 का अवतरण

विशेष परिस्थितियों में जब किसी देश की न्याय व्यवस्था को सेना अपने हाथ में ले लेती है, तब जो नियम प्रभावी होते हैं उन्हें सैनिक कानून या मार्शल लॉ (Martial law) कहा जाता है। कभी-कभी युद्ध के समय अथवा किसी क्षेत्र को जीतने के बाद उस क्षेत्र में मार्शल लॉ लगा दिया जाता है। उदाहरण के लिये द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी और जापान में मार्शल लॉ लागू किया गया था। इसके अलावा प्राय: तख्ता पलट के बाद भी मार्शल लॉ लगा दिया जाता है। कभी-कभी बहुत बड़ी प्राकृतिक आपदा आने पर भी मार्शल लॉ लगा दिया जाता है (किन्तु अधिकांश देश इस स्थिति में आपातकाल (इमर्जेंसी) लागू करते हैं।)

मार्शल ला के अन्तर्गत कर्फ्यू (curfew) आदि विशेष कानून होते हैं। प्राय: मार्शल लॉ के अन्तर्गत न्याय देने के लिये सेना का एक ट्रिब्यूनल नियुक्त किया जाता है जिसे कोर्ट मार्शल कहा जाता है। इसके अन्तर्गत बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका जैसे अधिकार निलम्बित किये जाते हैं।

परिचय

फौजी कानून का अर्थ एक ओर तो शासनाधिकारियों की यह स्वीकारोक्ति होती है कि देश या क्षेत्रविशेष में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जब ताकत का सामना ताकत से करना आवश्यक है, अत: उनके हाथ में ऐसे असामान्य अधिकार होने चाहिए जिनका उपयोग संकट काल की अवधि तक देश के आंतरिक अंचल में किया जा सके, इस स्थित में न्यायालयों की प्रक्रिया के स्थान पर कार्यपालिका अथवा सैनिक प्रशासक के आदेशों को ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त हो जाती है। दूसरी ओर फौजी कानून एक कानूनी प्रत्यय का विचार है, जिसके द्वारा नागरिक न्यायालयों ने उन असाधारण अधिकारों के नियंत्रण का प्रयत्न किया है जो कार्यपालिका द्वारा राज्य के नागरिकों पर लागू करने के लिए अधिगृहीत किए जाते हैं।

इस प्रकार फौजी कानून, सैनिक कानून (मिलिटरी ला) से, जो सशस्त्र सैन्यदल के नियंत्रण का विशेष कानून होता है, भिन्न है। नागरिक अधिकार के प्रयोग के हेतु जब सशस्त्र सेना से काम लिया जाता है तब सेना नागरिक अधिकारियों के नियंत्रण में ही अपना कार्य करती है और अपराधियों पर साधारण न्यायालयों में विचार होता है। किंतु फौजी कानून में नागरिक अधिकारियों और न्यायालयों के अधिकार स्थगित कर दिए जाते हैं और अपराधियों पर सैनिक आयोग के समक्ष मुकदमा चलाया जाता है।

इंग्लैड में सम्राट् को संकटकाल घोषित करने का अधिकार नहीं है, किंतु युद्ध के समय कार्यपालिका को संसदीय विधान के अंतर्गत तथा तदनुरूप अधिनियमों के अंतर्गत अनेक व्यवस्थाएँ तथा आदेश प्रसारित करने के व्यापकाधिकार प्राप्त हो जाते हैं। फिर भी, उन अधिकारों का प्रयोग विधानमंडल और न्यायालय के दोहरे नियंत्रण में संपन्न होता है।

अमरीकी विधि में राष्ट्रपति को, कांग्रेसीय कार्रवाई से स्वतंत्र, फौजी कानून घोषित करने का कहाँ तक अधिकार है और उस स्थिति में विधायिका तथा न्यायालयों द्वारा कहाँ तक नियंत्रण किया जा सकता है, यह अब भी विवाद का विषय है तथा इस मामले में कानूनी स्थिति अब भी स्पष्ट नहीं है।

भारत में भी स्पष्ट सांवैधानिक निर्देश के अभाव में यह विवादास्पद है कि फौजी कानून की घोषणा का अधिकारी कौन है। फौजी कानून संबंधी उल्लेख केवल 34वीं धारा में है, जो किसी विशेष क्षेत्र में फौजी कानून उठा लिए जाने के बाद क्षतिपूर्ति अधिनियम (ऐक्ट आब इंडेम्निटी) की व्यवस्था करती है।

किंतु फौजी कानून से मिलता जुलता ही धारा 359 (1) के अंतर्गत राष्ट्रपति का वह अधिकार होता है जिससे वह धारा 21 और 22 के अंतर्गत अधिकारों का न्यायिक निष्पादन स्थगित कर दे सकता है। यह समझा जाता है कि यह मूलत: फौजी कानून का ही रूप है, किंतु प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे विवाद के लिए छोड़ दिया है (ए आइ आर 1964) जो हो, इस संबंध में कोई भी मत अपनाया जाए, संविधान की धारा 352 के अंतर्गत संकटकाल की घोषणा का मौलिक अधिकारों पर प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में फौजी कानून जैसा ही है।

इस प्रकार धारा 358 के अंतर्गत जब तक संकटकालीन स्थिति कायम रहती है, कार्यपालिका को धारा 19 की व्यवस्थाओं के उल्लंघन का अधिकार रहता है। राष्ट्रपति द्वारा धारा 359 (1) के अंतर्गत संकटकालीन अवधि तक या आदेश में उल्लिखित अवधि तक के लिए दूसरे मौलिक अधिकार भी स्थगित किए जा सकते हैं।

राष्ट्रपति के अधिकार पर केवल इतना ही नियंत्रण होता है कि संकटकाल की घोषणा स्वीकृति के लिए संसद के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस घोषणा को संसद के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई निश्चित अवधि नहीं होती और न प्रस्तुत किए जाने पर किसी प्रकार का दंड का प्राविधान ही है, किंतु घोषणा के प्रसारित होने के दो मास पश्चात् वह स्वत: समाप्त हो जाती है। एक घोषणा के समाप्त होने पर फिर दूसरी घोषणा जारी करने में राष्ट्रपति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। धारा 359 (1) के अंतर्गत जारी किया गया राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष यथाशीघ्र प्रस्तुत होना चाहिए। इस प्रस्तुतीकरण के समय का निर्णय करना कार्यपालिका पर छोड़ दिया गया है क्योंकि यदि राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता तो भी इसका प्रभाव कम नहीं होता और न ही प्रस्तुत करने के अभाव में कोई वैधानिक कार्रवाई की व्यवस्था है।

सन् 1962 के चीनी आक्रमण के दौरान, राष्ट्रपति ने संविधान की 14, 21 और 22 धाराओ का निष्पादन स्थगित करके संकटकालीन स्थिति की घोषणा की थी। हालात बहुत कुछ सामान्य हो जाने के बाद भी घोषणा को रद्द करने में अत्यधिक विलंब किए जाने पर सार्वजनिक रूप से बड़ी आलोचना हुई थी। इस तथ्य ने संकटकालीन अधिकारों के संबंध में कुछ और संरक्षण लगाने की आवश्यकता प्रगट कर दी है, क्योंकि ऐसा न होने पर कोई भी अविवेकी कार्याधिकारी अपनी सुविधा के लिए संविधान का उन्मूलन करके फौजी कानून को स्थायी कर दे सकता है। जर्मनी के उस वाइमर संविधान को हम अभी भूले नहीं हैं, जिसके अनुसार कानूनी शासन को स्थायी न बनने देने के लिए तरह तरह की युक्तियों का सहारा लिया गया था। भारत में भी इस प्रकार की संभावनाओं के प्रति उदासीन रहना उचित न होगा।

इन्हें भी देखें

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