"बिश्नोई": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो 2409:4052:2E16:7FA3:0:0:8F8B:3212 (Talk) के संपादनों को हटाकर 2409:4052:2EA4:48BB:6E8A:36B0:8A88:5FD4 के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
No edit summary
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
गुरु जम्भेश्वर भगवान
गुरु जम्भेश्वर भगवान


'''बिश्नोई''' [[हिन्दू धर्म]] के अंदर एक प्रकृति प्रेमी पंथ है। इस पंथ के संस्थापक [[जाम्भोजी महाराज]] है। बिश्नोई पंथ में दीक्षित (अपनाने) होने वाले अधिकांश जाट जाति के व्यक्ति थे।इसलिए इनको कुछ जगह बिश्नोई जाट भी बोला जाता है। श्री गुरू जाम्भोजी महाराज द्वारा बताये 29 नियमों का पालन करने वाला बिश्नोई है। यानी बीस+नौ=बिश्नोई। बिश्नोई शुध्द [[शाकाहार|शाकाहारी]] हैं। बिश्नोई समाज की [[पर्यावरण संरक्षण]] और वन्य जीव संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका है।
'''बिश्नोई''' [[हिन्दू धर्म]] के अंदर एक प्रकृति प्रेमी पंथ है। इस पंथ के संस्थापक [https://jambhoji.bishnoism.org जाम्भोजी महाराज] है। बिश्नोई पंथ में दीक्षित (अपनाने) होने वाले अधिकांश जाट जाति के व्यक्ति थे।इसलिए इनको कुछ जगह बिश्नोई जाट भी बोला जाता है। श्री गुरू जाम्भोजी महाराज द्वारा बताये [https://29rules.bishnoism.org 29 नियमों] का पालन करने वाला बिश्नोई है। यानी बीस+नौ=बिश्नोई। बिश्नोई शुध्द [[शाकाहार|शाकाहारी]] हैं। बिश्नोई समाज की [[पर्यावरण संरक्षण]] और वन्य जीव संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका है।


==समाज की स्थापना==
==समाज की स्थापना==

08:24, 19 अप्रैल 2020 का अवतरण

गुरु जम्भेश्वर भगवान

बिश्नोई हिन्दू धर्म के अंदर एक प्रकृति प्रेमी पंथ है। इस पंथ के संस्थापक जाम्भोजी महाराज है। बिश्नोई पंथ में दीक्षित (अपनाने) होने वाले अधिकांश जाट जाति के व्यक्ति थे।इसलिए इनको कुछ जगह बिश्नोई जाट भी बोला जाता है। श्री गुरू जाम्भोजी महाराज द्वारा बताये 29 नियमों का पालन करने वाला बिश्नोई है। यानी बीस+नौ=बिश्नोई। बिश्नोई शुध्द शाकाहारी हैं। बिश्नोई समाज की पर्यावरण संरक्षण और वन्य जीव संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका है।

समाज की स्थापना

बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन (सम्वत् 1542)

सम्वत् 1542 तक जाम्भोजी की कीर्ति चारों और फेल गई और अनेक लोग उनके पास आने लगे व सत्संग का लाभ उठाने लगे। इसी साल राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा। इस विकट स्थिति में जाम्भोजी महाराज ने अकाल पीडि़तों की अन्न व धन्न से भरपूर सहायता की। जो लोग संभराथल पर सहायत हेतु उनके पास आते, जांभोजी महाराज अपने अखूठ (अकूत) भण्डार से लोगों को अन्न धन्न देते। जितने भी लोग उनके पास आते, वे सब अपनी जरूरत अनुसार अन्न जले जाते। सम्वत् 1542 की कार्तिक बदी 8 को जांभोजी महाराज ने एक विराट यज्ञ का आयोजन सम्भराथल धोरे पर किया, जिसमें सभी जाति व वर्ग के असंख्य लोग शामिल हुए।ज्यादातर बिश्नोई जाट से बने हैं जिन्हें बिश्नोई जाट भी कहा जाता है। गुरु जम्भेश्वर भगवान ने इसी दिन कार्तिक बदी 8 को सम्भराल पर स्नान कर हाथ में माला औरमुख से जप करते हुए कलश-स्थापन कर पाहल (अभिमंत्रित जल) बनाया और 29 नियमों की दीक्षा एवं पाहल देकर बिश्नोई धर्म की स्थापना की। इस विषय में कवि सुरजनजी पूनियां लिखते हैं[उद्धरण चाहिए]-

करिमाला मुख जाप करि, सोह मेटियो कुथानं।
पहली कलस परठियौ, सझय ब्रह्मांण सिनान।।

उस समय लोगों ने गुरु महाराज द्वारा स्थापित इस नवीन सम्प्रदाय के प्रति विशेष उत्साह दिखाया था। लोगों के समूह के समूह आकर पाहल ग्रहण करके दीक्षित होने लगे थे। हजूरी कवि समसदीन ने एक साखी में संभराथल पर दीक्षित होने आते हुए लोगों का वर्णन इस प्रकार किया है-

हंसातो हंदीवीरां टोली रे आवै, सरवर करण सनेहा।
जारी तो पाहलि वीरा पातिक रे नासे, लहियो मोमण एहा।

कवि उदोजी नैण के अनुसार यह उत्तम पंथ है। यदि जांभोजी बिश्नोई पंथ नहीं चलाते तो पृथ्वी पाप में डूब जाती-

नीच थका उत्तिम किया, न्यानं खडग़ नाव अती।
उत्तिम पंथ चलावियो उदा, प्रथी पातिंगा डूबती।।

एक अज्ञात साखीकार ने इसे 'सहज पंथ' कहा है-

कलिकाल वेद अर्थवण, सहज पंथ चलावियो।
संभराथल जोत जागी, जग विणण आवियो।

जाम्भोजी से पाहल लेकर सर्वप्रथम बिश्नोई बनने वालों में पूल्होजी पंवार थे। ये 29 नियम बिश्नोई समाज की आचार संहिता है। बिश्नोई समाज आज तक इन नियमों का पूरी दृढ़ता से पालन करता आ रहा है। बिश्नोई बनाने का यह कार्य अष्टमी से लेकर कार्तिक अमावस (दीपावली) तक निरंतर चलता रहा। महात्मा साहबरामजी ने जम्भसार के आठवें प्रकरण में लिखा है-

आदि अष्टमी अंत अमावस च्यार वरण को किया तपावस।
दीपावली कै प्रात: ही काला बारहि कोड़ कटे जमजाला।।

इस प्रकार सभी जाति, वर्ण व धर्म के लोगों द्वारा पाहल लेकर बिश्नोई बनने की प्रक्रिया शुरू हुई और बिश्नोई धर्म का प्रवर्तन हुआ। जाम्भोजी महाराज का भ्रमण व्यापक था। उन्होनें भारत के लगभग सभी प्रदेशों का भ्रमण किया। भारत के बाहर भी लंका, काबुल, कंधार, ईरान व मक्का तक जाने की बात भी कही जाती है। उन्होनें अपने एक सबद (शुक्ल हंस संख्या 63) में कई स्थानों पर जाने का वर्णन किया है। उनकी वाणी व उनके महान व्यक्तितत्व का प्रभाव सभी लोगों पर पड़ा, जिनमें राज वर्ग, साधु संत और गृहस्थी भी थे। बिश्नोई धर्म में लोगों के शामिल होने के कई प्रधान कारण थे जैसे-

1. जाम्भोजी का महिमामय व्यक्तित्व

2. परोपकारी वृति

3. ज्ञानोपदेश

4. जिज्ञासा और शंका का समाधान

5. सम्प्रदाय की श्रेष्ठता

6. कार्य विशेष की सिद्धि

7. जीव दया (अंहिसा) एवं हरे वृक्षों को न काटना, आदि-आदि।

विश्नोई समाज विश्व का सर्वश्रेष्ठ समाज है। इस समाज के लोग पेड़ पौधों और वन्य जीवों की रक्षा करते हैं। विश्नोई समाज के लोगों का मूल मंत्र है - सिर सांटे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण।

बिश्नोई समाज के गोत्र

अग्रवाल, अडींग्, अभीर् / अहीर् / अहैर्, अडोल्, अवतार्, अहोदिया, अत्रि, अतलि, आंजणा, आमरा, आयस्, आसियां, आनणा, आखा, अखिंड्, इहराम/ईसराम्), ईसरवा, ईसरवाल्, ईनाणिया, ईयारं, ईडंग्, उत्कल्, उमराव्, ऊनिया, ऐचरा, ऐरण्, ऐरब्,ओऊ,ओला, ओदिया (अहोदिया), ओटिया, ओरवा, कडवासरा (कुराडा), कसवां(कावां),करीर्, कणेंटा, कसबी, कबीरा, कलवाणिया, कलेडिया, कमणीगारा, करड्, कमेडिया, कच्छवाया / कच्छवाई, कश्यप, कालीराणा (कल्याणा), काकड़, कालडा, कासणिया, कामटा, कांसल, कांगडा, किरवाला, कीकरं,खदाव, खडहड्, खेडी,खोखर,खाट, खाती, खावा, खारा, खिलेरी, खीचड़, खुडखुडीया, खेरा, खोखर,खोत, खोजा, खोड, गर्ग, गावाल,गाट,गिल्ला, गुरु, गुजेला (उदावत), गुरुसर, गुजर, गुलेचा, गुप्ता, गुरुड, गुडल, गेर, गेहलोत, गोदारा (सोनगरा, उदाणी, खरींगा, धोलिया, बबनीड़), सिसोदिया, देवड़ा, गहलोत, गोरा, गोयत, गोयल, (गोभिल्, गोविल, गोहिल),गोगियां, गोला, गौड, घणघस, घ्टियाल, घांगु, चाहर,चांगङ , चंदेल, चोटिया, चमण्डा, छींपा (दरजी), जांगु, जाखड्, जायल्, जाजुदा, जाणी (ज्याणी), जांगडा, झंवर, झांस, झांग्, झाझडा, झाझण्, झाला, झूरिया, झोधकण (जोधकरन्), झाडा,झोरड्, ट्ण्डन्, टाडा, तांडी, टुसिया(टुहिया), टोकसिया, ठकरवा, ठोड्, डबोकिया, डारा, डागा, डागर्, डींगल्, डूडी, डेहला, डेलू, डोगिपाल्, ढल्, ढहिया,ढाका, ढाढरवाल्, ढाढ्णिया, ढिड्, ढूंढिया, ढूकिया (डहूकिया), तल्लीवाला, तरड्, तंवर (तीवंर, तुंवर्, तुअर्, तोमर्) तगा (त्यागी), तांडी, तापास, तायल्, तांडा, तुंदल्, तुरका, तेतरवाल्, तेली,तोड्, थलवट्, थालोड्, थापन्, थोरी, दडक (धडक्), दरजी, दासा, दिलोहया (दुलोलिया)दुगसर्, देहडू, दहिया, देवडा (खेडेवाला), टोहरवाला, मोड्, लोडा, दोतड्, धतरवाल्, धधारी, धारणियाँ , धायल, धारिया, धूमर्, नरुका, नकोसिया, नफरी, नाडा, नाइया, नागर्, नाथ, नाई, निरबाण्, नीबीबागा, नेहरा, नैण, परमार (पंवार, पवार्, पुवार्, पुआर्), पडियाल (पडिहार्),पठान्, पराशर्, प्यारी, पालडिया, पारस्, पाल्, पाटोदिया, पारिक्, पीथरा, पुरवार् (पुरवाल्, पोरवाल्, पैरवाल्), पुइया, पुष्करणझ(पोहकरण्),पूनिया, पोटलिया, फलावर्, बरड्, बदिता, बडोला, बडएड्, ब्रदाई, बनगर्, बटेसर्, बलावत्,बल्ड्किया, बजाज्, बलोईया, बछियाल्, बलाई, बडोला, बसोयाल्, बंसल्, बदिया, बल्हाकिया, बरुडिया, बाबल्, बाणीछु,बागडिया, बाजरिया, बाडेटा, बाणिया (बनिया), बावरा, बांगडवा, बाना, बाजिया, बाडंग्, बासत्, बागेशु, बाकेला, बानरवाल्(अहिर्), बिछु, बिडासर्, बिलाद्, बिडाल्, बिडग्, बिडियारझ (बिडार्,बिलोनिया, बीलोडिया, बूडिया, भवाभलूंडिया, भांडे, भादू, भारवर्, भोडर्, भाडेर्,भारद्वाज्, भिलूमिया, भीचर्, भोजावत, भोडिसर्, भोछा, भुरटा, भुरन्ट्, भुट्टा, भूल्, भूश्रण्, मण्डा, मतवाला, महिया, मल्ला, मारत्, माँझू, माल्, माचरा, मालपुआ, मालपुरा, मालीवाल्,माहेश्वरी, मातवा, मान्दु, माई, मांगलिया, मिश्र्, मितल्, मील्, मीठातगा, मुरटा, मुंडेल्, मुदगिल्, मुरिया (मावरिया), मूंढ, मेहला, मेवदा, मोहिल्, मोगा, रशा, रंगा, रघुवंशी, राड् (राहड्),रायल, राव्, रावत्, राठौड्, रणोड्, रिणवा, रुबाबल, खोडा, रोहज्, रोझा, रोड्, लटियाल्, लरियाल्, लाम्बा, लागी, लोल्, लोहमरोड्, लुहार्, वरा, व्यास्, वरासर्, वासनेय्, वात्सलय्, विलाला, विसु, सराक्, सरावग, सहू (साहू,सोहू), सदु, सगर्, साई, सांवक्, सहारण(सारन्), सांखल्(सागर्), सारस्वत्, साबण्(शाबण्), सियाक् (सियाख, सियाग्, सिहाग्), सिसोदिया (सागर्), सिंगल (सिंगला, सिंघल्, सिंहला), सिंवर्, सिंवल् सिंयोल, सिवरखिया, सिरडक्, सिरोडिया, सिंधल् (राठोड्),सिरडिया, सीलक्, सीगड्, सुथार (खाती, जांगडा, बढई, तरवान्), सुनार, सूर्, सेरडिया, सेवदा, सेहर् (शेर्), सेधो (सेथो), सेंगडा, सोढा, सोलंकी, सोनक् (सुनार्), शांक, शाह, शाण्ड्लय्, शिव्, श्रीमाली, शिढोला, हरडू, हरीजा, हाडा (उदावत्, बलावत्, भोजावत्), हरिया, हरिवासिया, हुमडा, हुड्डा। गोदारा, बेहनीवाल् (बिणयाल् लोल्, मांजू, बेरवाल्, पंवार्, खोखर्, टोकसिया, जाणी, तेतरवाल्, नैण्, गर्ग्, सहू, पूनिया, चैहान।बागडिया (बागंडवा), चौहान (चवाण), लटियाल, सिंवल, सियोल, सिंवर, गूजर गौड्, बावरा, अग्रवाल, दडक, तंवर (तीवंर), पंवार (पुआर), सोढा, पण्ड्वालिया (पवाडिया)। चांगडा, पाटोदिया, सीलक् (छटिया), देहिया, भुरटा, जाला, झांस, लूदरिया, धामु, गुजर, पंवार कुलहडिया। चौहान (शाण्डलय्), थापन् (चौहान, सहू), बाघेला, राठौड्, देवडा (मोड्, लोडा, खेडेवाला, टोडरवाला), सिसोदिया (सागर्), चन्देल्, हाडा(भोजावत्, उदावत, बलावत्), मोहिल्, पंवार्, गुजेला, सांखला (एयर)। नोटःथापन गोत्र्,,सुथार गोत्र तथा दनगर गोत्र्- जाट(80 प्रतिशत्), ब्राम्हण्, कुरमी, अहीर, सुथार (खाती, जांगडा, बढई, तरखाना), सुनार्, गुजर्, गुप्ता (वंश्), छिंपा (दरजी), तगा (त्यागी), माहेश्वरी, कसबी, बेहडा, (बुनगर्, बेजरा), पुष्पकरणा(पोहकरणा), बजाज्, बाणिया (बनिया), सारस्वत्, श्रीमाली ,गीला, भादू ,माल

सन्दर्भ