"आदि शंकराचार्य": अवतरणों में अंतर

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'''आदि शंकर''' भगवान् शंकर के साक्षात् अवतार थे । ये [[भारत]] के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने [[अद्वैत वेदान्त]] को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। [[उपनिषद्|उपनिषदों]] और [[वेदान्तसूत्र|वेदांतसूत्रों]] पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार [[मठ|मठों]] की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये [[शंकर]] के [[अवतार]] माने जाते हैं। इन्होंने [[ब्रह्मसूत्र|ब्रह्मसूत्रों]] की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।
'''आदि शंकर''' ये [[भारत]] के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने [[अद्वैत वेदान्त]] को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। [[उपनिषद्|उपनिषदों]] और [[वेदान्तसूत्र|वेदांतसूत्रों]] पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार [[मठ|मठों]] की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये [[शंकर]] के [[अवतार]] माने जाते हैं। इन्होंने [[ब्रह्मसूत्र|ब्रह्मसूत्रों]] की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।


उनके विचारोपदेश [[आत्मा]] और [[परमात्मा]] की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में [[सगुण]] और [[निर्गुण]] दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को [[शिव]] का अवतार माना जाता है। इन्होंने [[ईशावास्योपनिषद|ईश]], [[केनोपनिषद|केन]], [[कठोपनिषद|कठ]], [[प्रश्नोपनिषद|प्रश्न]], [[मुण्डकोपनिषद|मुण्डक]], [[माण्डूक्योपनिषद|मांडूक्य]], [[ऐतरेय उपनिषद|ऐतरेय]], [[तैत्तिरीय उपनिषद|तैत्तिरीय]], [[बृहदारण्यक उपनिषद|बृहदारण्यक]] और [[छान्दोग्योपनिषद्]] पर [[भाष्य]] लिखा। [[वेद|वेदों]] में लिखे ज्ञान को एकमात्र [[ईश्वर]] को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे [[भारतवर्ष]] में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, [[जैन]] और [[बौद्ध]] मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।
उनके विचारोपदेश [[आत्मा]] और [[परमात्मा]] की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में [[सगुण]] और [[निर्गुण]] दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को [[शिव]] का अवतार माना जाता है। इन्होंने [[ईशावास्योपनिषद|ईश]], [[केनोपनिषद|केन]], [[कठोपनिषद|कठ]], [[प्रश्नोपनिषद|प्रश्न]], [[मुण्डकोपनिषद|मुण्डक]], [[माण्डूक्योपनिषद|मांडूक्य]], [[ऐतरेय उपनिषद|ऐतरेय]], [[तैत्तिरीय उपनिषद|तैत्तिरीय]], [[बृहदारण्यक उपनिषद|बृहदारण्यक]] और [[छान्दोग्योपनिषद्]] पर [[भाष्य]] लिखा। [[वेद|वेदों]] में लिखे ज्ञान को एकमात्र [[ईश्वर]] को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे [[भारतवर्ष]] में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, [[जैन]] और [[बौद्ध]] मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।

17:42, 13 फ़रवरी 2020 का अवतरण

आदि शंकर

शिष्यों के मध्य आदिगुरु शंकराचार्य, राजा रवि वर्मा द्वारा (1904) में चित्रित
जन्म

शंकर
507 ईसा पूर्व

स्थान - कलाड़ी, चेर साम्राज्य
वर्तमान में केरल, भारत, भट्ट ब्राह्मण
मृत्यु

475 ईसा पूर्व

(उम्र 32)
केदारनाथ, पाल साम्राज्य
वर्तमान में उत्तराखंड, भारत
गुरु/शिक्षक आचार्य गोविन्द भगवत्पाद
खिताब/सम्मान शिवावतार, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक
धर्म हिन्दू
दर्शन अद्वैत वेदांत
राष्ट्रीयता भारतीय

आदि शंकर ये भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।

उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।

कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।

सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किय‍ा। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।

व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।

जीवनचरित

शंकर आचार्य का जन्म 508 ई. पू. केरल में कालपी अथवा 'काषल' नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया।

पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं, क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की।

३२ वर्ष की अल्प आयु में सन् 475 ईसा पूर्व में केदारनाथ के समीप स्वर्गवासी हुए थे।

काल

भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।

आदिशंकराचार्य जी ने जो चार पीठ स्थापित किये, उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ--

1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ : स्थापना-युधिष्ठिर संवत् 2641-2645

2. पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648

3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648

4. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655

आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे।

शारदा पीठमें लिखा है -

"युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।
……तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।

अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था]

राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है-

'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र
मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्
यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15।

एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था। उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं। इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है।

सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा"में कुछ श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-

तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि ।
रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥

अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना| [कलिसंवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ] तदनुसार 3102-2593=509 BC में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।

कुमारिल भट्ट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -

ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्।
एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। ।
भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:।
ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।

जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।

श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष सिद्ध होता है।

"जिनविजय" में शंकराचार्यजीके देहावसान के विषयमें लिखा है --

ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात्।
एकत्वेन लभेतांकस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥

2157 यु. सं. (जैन) 476 B.C. में आचार्य शंकर ब्रह्मलीन हुए !

बृहत्शंकरविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--

षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे। ।
………………………………|
प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम्।।

यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 में अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गयाहै।

वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788 - 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे। सभी सनातन धर्मावलम्बियों को अपनें मूल आचार्य के विषय में ज्ञान होना चाहिए। इस विषय में यह ध्यातव्य है कि पुरी के पूज्य वर्तमान शंकराचार्य जी ने सभी प्रमाणभूत साक्ष्यों को भारत सरकार को सौंपकर उन प्रमाणों के आलोक में ऐतिहासिक अभिलेखों में संशोधन का आग्रह भी किया है!

प्रमुख कार्य

शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में श्रीगोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते र्है। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए।

दशनाम गोस्वामी समाज (सरस्वती,गिरि,पुरी, बन,भारती, तीर्थ,सागर,अरण्य,पर्वत और आश्रम ) की सस्थापना कर, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया

शास्त्रीय प्रमाण

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।

अर्थ:- " सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ। "

भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-

कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति। । ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )

अर्थ :- " कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। "

निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्। (लिंगपुराण ४०. २०-२१.१/२)

अर्थ:- " कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। "

कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। । ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)

अर्थ:- " कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनक‍ा सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। "

व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। । ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)

अर्थ:- "सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण - वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। "

महत्व

शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-

अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्

अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्‍‌वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -

नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:।

अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते है। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते है कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।

तिथियाँ

आदि गुरू शंकराचार्य का जन्म केरल के कालडी़ नामक ग्राम में हुआ था। वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया। शंकर की रुचि आरम्भ से ही सन्यास की तरफ थी। अल्पायु में ही आग्रह करके माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज में निकल पड़े।। वेदान्त के गुरु गोविन्द नाथ से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में हराया। परन्तुं मण्डन मिश्र की पत्नी भारती के द्वारा पराजित हुए। दुबारा फिर रति विज्ञान में पारंगत होकर भारती को पराजित किया।

उन्होनें तत्कालीन भारत में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदान्त की ज्योति से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत में चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उस पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रन्गेरी, पूर्व में गोवर्धन तथा पश्चिम में शारदा मठ नाम से देश में चार धामों की स्थापना की। ३२ साल की अल्पायु में पवित्र केदार नाथ धाम में शरीर त्याग दिया। सारे देश में शंकराचा‍र्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है।

जीवन

एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘'शंकर'’, जी आगे चलकर '‘जगद्गुरु शंकराचार्य'’ के नाम से विख्यात हुआ। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’

कुछ समय के पश्चात वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्र चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिन्ह परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरूपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य जी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है। जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई। शंकराचार्य जी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकर जी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अत: इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र २ वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृ शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने ७ वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।

आचार्य शंकर के जीवन का एक दिन--माताश्री आर्याम्बा के जीवन के अन्तिम क्षणों में उन्के पास पहुँचने के लिए आचार्य शंकर वाग्वद्ध हैं। 'कालः क्रीड़ा गच्छत्यायुʼ सिद्धान्तानुसार यह क्षण उदित होता है। योगबल से आचार्य शंकर को इसका पूर्वाभास हो जाता है। चल देते हैं वे केरल के कालटी स्थित अपने ग्राम की ओर। ग्राम सीमा मे प्रवेश करते ही स्मृतियों की आंधी पूरी तरह उन्हें घेर लेती है। 'अरे, यही तो अलवाई ( पूर्णा ) नदी है।इसी में स्नान करते समय मुझे मगरमच्छ ने पकड़ लिया था। माताश्री से मेरे सन्यास की अनुज्ञा मिलनें पर ही उसने मुझे मुक्त किया था। कितनी विवशता थी अनुज्ञा देते समय उन्के मन में। मैं उनका एकमात्र संतान। वह भी सन्यासोन्मुख। वंश श्रृंखला के उच्छिन्न होने की स्थिति। एकाकिनी माता की सेवा- सुश्रुवा की समस्या। फिर भी उन्होंने मुझे सन्यास की अनुमति दी।'यही सब सोचते-सोचते पहुँच जाते हैं आचार्य अपने घर के दरवाजे पर। आचार्य की आहट पाकर गृहसेविका दरवाजा खोलती है। आचार्य सीधे पहुँचते हैं मातृशैया के पास। सन्यासी रूप में पुत्र को देखकर माता के नेत्रों से अश्रुविन्दु ढलकने लगते हैं। इसी क्रम मे माता का प्राणान्त हो जाता है। माताश्री के प्राण अपनें सन्यासी पुत्र की उत्कट प्रतीक्षा में ही अटके थे। इधर आँखे पुत्र का दर्शन करती हैं उधर दूसरे ही क्षण प्राण अपनी निष्कर्षण क्रिया से उनकी काया को शव का रूप दे देते हैं। आचार्य शंकर ने सन्यास की दीक्षा ली है, वे परिव्राजक हो गये हैं। शास्त्रानुसार वे अग्नि स्पर्श नहीं कर सकते। उनके सामने एक भयंकर धर्मसंकट सुरसा की भांति मुँह बाये खड़ा हो जाता है। यदि वे माताश्री को मुखाग्नि देते हैं तो सन्यास धर्म से च्युत होते हैं। यदि मुखाग्नि नहीं देते तो पुत्र धर्म से विमुख होते है।कुछ समय के लिए आचार्य का सन्यासी चित्त उनके मन से कूदकर भाग जाता है। उसके स्थान पर सामान्य चित्त का प्रवेश हो जाता है। मातृ शव को देखकर वे एक सामान्य मानव की भांति विलखने लगते हैं। माताश्री के हाथों को अपने हाथ में लेकर अतीत में खो जाते हैं। सोचते हैं 'इन्हीं हाथों से मेरी इतनी सेवा की थी। आज ये हाथ इतने परवश हो गये हैं। बचपन मे पूर्णा नदी में वे इन्हीं हाथों से मुझे मल -मल कर नहलाती थी। खिलाते समय साथी बच्चों के साथ मैं खेलने के लिए भाग जाता था। वे मुझे दौड़कर पकड़ लाती थीं और इन्हीं हाथों से खिलाती थीं। इन्हीं हाथों से वे प्रतिदिन मेंरे शरीर पर तैलमर्दन करती थीं। जब पिताश्री ( शिवगुरु ) का देहांत हो गया तो माताश्री मेरे मन सहारे अपना शेष जीवन बिताना चाहती थी। पर मेंरे सन्यासी होने के पश्चात वे पूरी तरह से टूट गयीं। मेरे अभाव में उनका मात्र एक ही कार्य रह गया था, मृत्यु की प्रतीक्षा।'आचार्य शंकर अतीत से वर्तमान में उतरते हैं। इसी समय गृहसेविका उनके कान में फुसफुसाती है,`माताश्री के अंत्येष्टि क्रिया में आपके नम्बूदरी परिवार के लोग भाग नहीं लेंगे। उनके असहयोग का कारण यह है कि वे आपके इस कृत्य को शास्त्र विरूद्ध और परम्परा विरूद्ध मानते हैं। कहते हैं 'सन्यासी जब गृह त्याग कर देता है तो उसका गृह प्रपंच मे लौटना शास्त्र विरूद्ध है। अग्नि स्पर्श उसके लिये सर्वथा वर्जित है। हम लोग ऐसे शास्त्र विरूद्ध कार्य में आचार्य शंकर का साथ नहीं दे सकते। सेविका की बात सुनकर आचार्य एक क्षण के लिए उद्विग्न हो जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आता है कि अकेले वे माता का शव लेकर श्मशान तक कैसे जायेंगे। कुछ समय के लिए वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। सहसा उनके मन में एक समाधान कौंधता है। 'माताश्री के शव को श्मशान घाट पर न ले जाकर यदि गृह परिसर में ही अंत्येष्टि कर दी जाय तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है।ʼ ऐसा कुछ भाव आचार्य के मन में आता है। सगोत्री लोग दूर से ही आचार्य की द्विविधा का आनन्द ले रहे हैं। विपत्ति के इन क्षणों में कोई उनका साथ नहीं देता है। अन्ततः आचार्य शंकर अपने घर के सामने ही चिता सजाते हैं। किसी तरह माता के शव को चिता पर स्थापित करते हैं। हाथ में अग्निशिखा लेकर चिता की परिक्रमा करते हुए शव को मुखाग्नि देते हैं। आचार्य गृह परिसर को ही श्मशानघर मे परिवर्तित कर देते हैं। चिता से उठी लपटों को देखकर आचार्य को लगता है जैसे अग्नि देव उनकी माता के सूक्ष्म शरीर को लेकर पित्रलोक की ओर प्रयाण कर रहे हैं। क्रमशः चिता की लपटें शान्त हो जाती हैं पर आचार्य का मन अपने सगोत्रियो के लिए खिन्न हो जाता है। सोचते हैं, इतनी भारी विपत्तियों में हमारे सगोत्रियो ने सहानुभूति का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला। आचार्य शंकर की इसी मानसिकता से एक शाप शब्द होता है,"अब इस गोत्र के लोग मेरी तरह शवदाह श्मशान घाट पर न करके अपने घर के सामने ही करेंगे।" 'मृषा न होइ देव ऋषि वाणी' सिद्धान्त के अनुसार केरल के कालटी ग्राम में नंबूदरी ब्राह्मणों मे आज भी शव-दाह घर के सामने ही किया जाता है।

शास्त्रार्थ

आदि शंकराचाय जी की मूर्ति

वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।’ चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी (बिहार का महिषी) में आचार्य मंडन मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्र जी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- ‘महात्मन! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।’

तब मिश्र जी की पत्नी भारती ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अत: काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने भारती देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया। काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर आचार्य बोले- ‘हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।’ स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?’ उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी।

अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-

दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥

अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।

दर्शन और विचार

संक्षेप में अद्वैत मत

शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।

आदि शकराचार्य जी महाराज की 108 फूट की मूर्ति ओम्कारेश्वर जिला खंडवा मध्यप्रदेश में स्थापित की जा रही है

कई यूरोपीय विद्वानों का हवाला देते हुए, Lucian Blaga समझता है कि आदि शंकराचार्य 'सभी समय का सबसे बड़े तत्वमीमांसा का विद्वान है'।[1] आदि शंकराचार्य ने कहा कि ज्ञान के दो प्रकार के होते हैं। एक पराविद्या कहा जाता है और अन्य में अपराविद्या कहा जाता है। पहला सगुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता है।[2]

शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
  • ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है।
  • जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
  • जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रभाव

रचनाएँ

  • अष्टोत्तरसहस्रनामावलिः
  • उपदेशसहस्री
  • चर्पटपंजरिकास्तोत्रम्‌
  • तत्त्वविवेकाख्यम्
  • दत्तात्रेयस्तोत्रम्‌
  • द्वादशपंजरिकास्तोत्रम्‌
  • पंचदशी
    • कूटस्थदीप
    • चित्रदीप
    • तत्त्वविवेक
    • तृप्तिदीप
    • द्वैतविवेक
    • ध्यानदीप
    • नाटक दीप
    • पंचकोशविवेक
    • पंचमहाभूतविवेक
    • पंचकोशविवेक
    • ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्द
    • ब्रह्मानन्दे आत्मानन्द
    • ब्रह्मानन्दे योगानन्द
    • महावाक्यविवेक
    • विद्यानन्द
    • विषयानन्द
  • परापूजास्तोत्रम्‌
  • प्रपंचसार
  • भवान्यष्टकम्‌
  • लघुवाक्यवृत्ती
  • विवेकचूडामणि
  • सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह
  • साधनपंचकम
  • भाष्य
    • अध्यात्म पटल भाष्य
    • ईशोपनिषद भाष्य
    • ऐतरोपनिषद भाष्य
    • कठोपनिषद भाष्य
    • केनोपनिषद भाष्य
    • छांदोग्योपनिषद भाष्य
    • तैत्तिरीयोपनिषद भाष्य
    • नृसिंह पूर्वतपन्युपनिषद भाष्य
    • प्रश्नोपनिषद भाष्य
    • बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य
    • ब्रह्मसूत्र भाष्य
    • भगवद्गीता भाष्य
    • ललिता त्रिशती भाष्य
    • हस्तामलकीय भाष्य
    • मंडूकोपनिषद कारिका भाष्य
    • मुंडकोपनिषद भाष्य
    • विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र भाष्य
    • सनत्‌सुजातीय भाष्य

लघु तत्त्वज्ञानविषयक रचनाएँ

  • अद्वैत अनुभूति (८४)
  • अद्वैत पंचकम्‌ (५)
  • अनात्मा श्रीविगर्हण (१८)
  • अपरोक्षानुभूति (१४४)
  • उपदेश पंचकम्‌ किंवा साधन पंचकम्‌ (५)
  • एकश्लोकी (१)
  • कौपीनपंचकम्‌ (५)
  • जीवनमुक्त आनंदलहरी (१७)
  • तत्त्वोपदेश(८७)
  • धन्याष्टकम्‌ (८)
  • निर्वाण मंजरी (१२)
  • निर्वाणशतकम्‌ (६)
  • पंचीकरणम्‌ (गद्य)
  • प्रबोध सुधाकर (२५७)
  • प्रश्नोत्तर रत्‍नमालिका (६७)
  • प्रौढ अनुभूति (१७)
  • यति पंचकम्‌ (५)
  • योग तरावली(?) (२९)
  • वाक्यवृत्ति (५३)
  • शतश्लोकी (१००)
  • सदाचार अनुसंधानम्‌ (५५)
  • साधन पंचकम्‌ किंवा उपदेश पंचकम्‌ (५)
  • स्वरूपानुसंधान अष्टकम्‌ (९)
  • स्वात्म निरूपणम्‌ (१५३)
  • स्वात्मप्रकाशिका (६८)
गणेश स्तुति
  • गणेश पंचरत्‍नम्‌ (५)
  • गणेश भुजांगम्‌ (९)
शिवस्तुति
  • कालभैरवाष्टक (१०)
  • दशश्लोकी स्तुति (१०)
  • दक्षिणमूर्ति अष्टकम्‌ (१०)
  • दक्षिणमूर्ति स्तोत्रम्‌ (१९)
  • दक्षिणमूर्ति वर्णमाला स्तोत्रम्‌ (१३)
  • मृत्युंजय मानसिक पूजा (४६)
  • वेदसार शिव स्तोत्रम्‌ (११)
  • शिव अपराधक्षमापन स्तोत्रम्‌ (१७)
  • शिव आनंदलहरी (१००)
  • शिव केशादिपादान्तवर्णन स्तोत्रम्‌ (२९)
  • शिव नामावलि अष्टकम्‌ (९)
  • शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्‌ (६)
  • शिव पंचाक्षरा नक्षत्रमालास्तोत्रम्‌ (२८)
  • शिव पादादिकेशान्तवर्णनस्तोत्रम्‌ (४१)
  • शिव भुजांगम्‌ (४)
  • शिव मानस पूजा(५)
  • सुवर्णमाला स्तुति (५०)
शक्तिस्तुति
  • अन्‍नपूर्णा अष्टकम्‌ (८)
  • आनंदलहरी
  • कनकधारा स्तोत्रम्‌ (१८)
  • कल्याण वृष्टिस्तव (१६)
  • गौरी दशकम्‌ (११)
  • त्रिपुरसुंदरी अष्टकम्‌ (८)
  • त्रिपुरसुंदरी मानस पूजा (१२७)
  • त्रिपुरसुंदरी वेद पाद स्तोत्रम्‌ (१०)
  • देवी चतु:षष्ठी उपचार पूजा स्तोत्रम्‌ (७२)
  • देवी भुजांगम्‌ (२८)
  • नवरत्‍न मालिका (१०)
  • भवानी भुजांगम्‌ (१७)
  • भ्रमरांबा अष्टकम्‌ (९)
  • मंत्रमातृका पुष्पमालास्तव (१७)
  • महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्‌
  • ललिता पंचरत्नम्‌ (६)
  • शारदा भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (८)
  • सौन्दर्यलहरी (१००)
  • नर्मदाष्टक
विष्णु एवं उनके अवतारों की स्तुति
  • अच्युताष्टकम्‌ (९)
  • कृष्णाष्टकम्‌ (८)
  • गोविंदाष्टकम्‌ (९)
  • जगन्‍नाथाष्टकम्‌ (८)
  • पांडुरंगाष्टकम्‌ (९)
  • भगवन्‌ मानस पूजा (१०)
  • मोहमुद्‌गार (भजगोविंदम्‌) (३१)
  • राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (२९)
  • लक्ष्मीनृसिंह करावलंब (करुणरस) स्तोत्रम्‌ (१७)
  • लक्ष्मीनरसिंह पंचरत्‍नम्‌ (५)
  • विष्णुपादादिकेशान्त स्तोत्रम्‌ (५२)
  • विष्णु भुजंगप्रयात स्तोत्रम्‌ (१४)
  • षट्‌पदीस्तोत्रम्‌ (७)
अन्य देवताओं एवं तीर्थों की स्तुति
  • अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्‌ (९)
  • उमा महेश्वर स्तोत्रम्‌ (१३)
  • काशी पंचकम्‌ (५)
  • गंगाष्टकम्‌ (९)
  • गुरु अष्टकम्‌ (१०)
  • नर्मदाष्टकम्‌ (९)
  • निर्गुण मानस पूजा (३३)
  • मनकर्णिका अष्टकम्‌ (९)
  • यमुनाष्टकम्‌ (८)
  • यमुनाष्टकम्‌-२ (९)

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. लुचीयान बलागा, धर्म के दर्शन का कोर्स, पेरिस, अल्बा -यूलिया, फरोनदे का प्रकाशन संस्था, एक हजार नौ सौ नब्बे चार, उनहत्तर का पृष्ठ। (ISBN 973-963-1215)
  2. मीर्चा ईटु, भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म, ब्राशोव, लैटिन पूरबी का प्रकाशन संस्था, दो हज़ार चार, सड़सठ और अड़सठ के पृष्ठों। (ISBN 973-9338-70-4)

बाहरी कड़ियाँ