"अष्टछाप": अवतरणों में अंतर

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:;‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।
:;‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।
* [[सूरदास]] (१४७८ ई. - १५८० ई.)
* [[सूरदास]] (१४७८ ई. - १५८० ई.)
:;अबिगत गति कछु कहति न आवै।
:;चरन कमल बंदौ हरि राई ।
:;ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
:;जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
:;परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
:;बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
:;मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
:;सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ॥
:;रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
:;सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
* [[कृष्णदास]] (१४९५ ई. - १५७५ ई.)
* [[कृष्णदास]] (१४९५ ई. - १५७५ ई.)
* [[परमानन्ददास]] (१४९१ ई. - १५८३ ई.)
* [[परमानन्ददास]] (१४९१ ई. - १५८३ ई.)

04:59, 13 मार्च 2019 का अवतरण

अष्टछाप, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी एवं उनके पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी द्वारा संस्थापित ८ भक्तिकालीन कवियों का एक समूह था, जिन्होंने अपने विभिन्न पद एवं कीर्तनों के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का गुणगान किया।[1] अष्टछाप की स्थापना १५६५ ई० में हुई थी।[2]

अष्टछाप कवि

अष्टछाप कवियों के अंतर्गत पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्य कीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी चार शिष्य थे। आठों ब्रजभूमि के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को "अष्टछाप" कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्रायें है। उन्होने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्ण भक्त कवि ब्रजभाषा में ही कविता रचने लगे। अष्टछाप के कवि जो हुये हैं, वे इस प्रकार से हैं:-

केते दिन जु गए बिनु देखैं।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।
वह सोभा, वह कांति बदन की, कोटिक चंद बिसेखैं।
वह चितवन, वह हास मनोहर, वह नटवर बपु भेखैं।।
स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं।
‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥

इन कवियों में सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्चल भक्ति के कारण ये लोग भगवान कृष्ण के सखा भी माने जाते थे। परम भागवत होने के कारण यह लोग भगवदीय भी कहे जाते थे। यह सब विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास राजपूत थे, लेकिन खेती का काम करते थे। सूरदासजी किसी के मत से सारस्वत ब्राह्मण थे और किसी किसी के मत से ब्रह्मभट्ट थे। गोविन्ददास सनाढ्य ब्राह्मण थे और छीत स्वामी माथुर चौबे थे। नंददास जी सोरों सूकरक्षेत्र के सनाढ्य ब्राह्मण थे, जो महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी के चचेरे भाई थे। अष्टछाप के भक्तों में बहुत ही उदारता पायी जाती है। "चौरासी वैष्णव की वार्ता" तथा "दो सौ वैष्ण्वन की वार्ता" में इनका जीवनवृत विस्तार से पाया जाता है।[3]

सन्दर्भ

  1. हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, डॉ॰ बच्चन सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, २00२, पृष्ठ- १२८, ISBN: 81-7119-785-X
  2. हिन्दी साहि्त्य का इतिहास, सम्पादक डॉ॰ नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशंग हाउस, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण १९७६ ई०, पृष्ठ २१७
  3. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, २00५, पृष्ठ- १२५-४१, ISBN: 81-7714-083-3