"प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त": अवतरणों में अंतर

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Self study note by SATYA PRAKASH GUPTA (SALEMPUR ,DEORIA)
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=== संवेदी पेशीय अवस्था ===
=== संवेदी पेशीय अवस्था ===
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारिरीक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसो एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारिरीक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसो एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।


¤ उन्होने इस अवस्था को छः उपवस्था मे बाटा है ~
¤ उन्होने इस अवस्था को छः उपवस्था मे बाटा है ~

16:54, 13 अक्टूबर 2018 का अवतरण

ज़ाँ प्याज़े

पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पियाजे का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।

व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।

ज्याँ प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त भी कहा जाता है।

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ

ज्यां पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-

  • (१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष
  • (२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
  • (३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से 11वर्ष
  • (४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 11से 18वर्ष

संवेदी पेशीय अवस्था

इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारिरीक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसो एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।

¤ उन्होने इस अवस्था को छः उपवस्था मे बाटा है ~

1- सहज क्रियाओ की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक)

2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था

3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था

4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था

5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था

6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था

इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है। धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुक्रमणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणो मे परिपक्वता आ जाती है इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है। 1. पूर्व प्रत्यात्मक काल: (2-4 वर्ष) 2. अंतः प्रज्ञककाल: / अन्तर्दर्शि अवधि (4-7 वर्ष)

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था

इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रांरभ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है।

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था

यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-

  • तार्किक चिंतन की क्षमता का विकास
  • समस्या समाधान की क्षमता का विकास
  • वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
  • वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
  • परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
  • विसंगंतियाँ के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास

ज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना

जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन। संगठन से तात्पर्य वुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है। उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है। वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।

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