"एकेश्वरवाद": अवतरणों में अंतर

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हिंदू एकेश्वरवाद में ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। कालानुसार उनके अनेक रूप मिलते हैं। सर्वेश्वरवाद और बहुदेववाद परस्पर घनिष्ठभावेन संबद्ध हैं। कुछ लोग विकासक्रम की दृष्टि से बहुदेववाद को सर्वप्रथम स्थान देते हैं। भारतीय धर्म और चिंतन के विकास में प्रारंभिक वैदिक युग में बहुदेववाद की तथा उत्तर वैदिक युग में सभी देवताओं के पीछे एक परम शक्ति की कल्पना मिलती है। दूसरे मत से यद्यपि वैदिक देवताओं के बहुत्व को देखकर सामान्य पाठक वेदों को बहुदेववादी कह सकता है तथापि प्रबुद्ध अध्येता को उनमें न तो बहुदेववाद का दर्शन होगा और न ही एकेश्वरवाद का। वह तो भारतीय धर्मचिन्तना की एक ऐसी स्थिति है जिसे उन दोनों का उत्स मान सकते हैं। वस्तुत: यह धार्मिक स्थिति इतनी विकसित नहीं थी कि उक्त दोनों में से किसी एक की ओर वह उन्मुख हो सके। किंतु जैसे जैसे धर्मचिंतन की गंभीरता की प्रवृत्ति बढ़ती गई, वैसे- वैसे भारतीय चिंतना की प्रवृत्ति भी एकेश्वरवाद की ओर बढ़ती गई। कर्मकांडीय कर्म स्वत: अपना फल प्रदान करते हैं, इस धारणा ने भी बहुदेववाद के देवताओं की महत्ता को कम किया। उपनिषद् काल में [[ब्रह्मविद्या]] का प्रचार होने पर एक ईश्वर अथवा शक्ति की विचारणा प्रधान हो गई। [[पुराण]]काल में अनेक देवताओं की मान्यता होते हुए भी, उनमें से किसी एक को प्रधान मानकर उसकी उपासना पर जोर दिया गया। [[वेदान्त दर्शन]] का प्राबल्य होने पर बहुदेववादी मान्यताएँ और भी दुर्बल हो गई एवं एक ही ईश्वर अथवा शक्ति का सिद्धान्त प्रमुख हो गया। इन्हीं आधारों पर कुछ लोग एकेश्वरवाद को गंभीर चिंतना का फल मानते हैं। वस्तुत: संपूर्ण भारतीय धर्मसाधना, चिंतना और साहित्य के ऊपर विचार करने पर सर्वेश्वरवाद (जो एकेश्वरवाद के अधिक निकट है) की ही व्यापकता सर्वत्र परिलक्षित होती है। यह भारतीय मतवाद यद्यपि जनप्रचलित बहुदेववाद से बहुत दूर है तथापि अन्य देशों की तरह यहाँ भी सर्वेश्वरवाद बहुदेववाद से नैकटय स्थापित कर रहा है।
हिंदू एकेश्वरवाद में ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। कालानुसार उनके अनेक रूप मिलते हैं। सर्वेश्वरवाद और बहुदेववाद परस्पर घनिष्ठभावेन संबद्ध हैं। कुछ लोग विकासक्रम की दृष्टि से बहुदेववाद को सर्वप्रथम स्थान देते हैं। भारतीय धर्म और चिंतन के विकास में प्रारंभिक वैदिक युग में बहुदेववाद की तथा उत्तर वैदिक युग में सभी देवताओं के पीछे एक परम शक्ति की कल्पना मिलती है। दूसरे मत से यद्यपि वैदिक देवताओं के बहुत्व को देखकर सामान्य पाठक वेदों को बहुदेववादी कह सकता है तथापि प्रबुद्ध अध्येता को उनमें न तो बहुदेववाद का दर्शन होगा और न ही एकेश्वरवाद का। वह तो भारतीय धर्मचिन्तना की एक ऐसी स्थिति है जिसे उन दोनों का उत्स मान सकते हैं। वस्तुत: यह धार्मिक स्थिति इतनी विकसित नहीं थी कि उक्त दोनों में से किसी एक की ओर वह उन्मुख हो सके। किंतु जैसे जैसे धर्मचिंतन की गंभीरता की प्रवृत्ति बढ़ती गई, वैसे- वैसे भारतीय चिंतना की प्रवृत्ति भी एकेश्वरवाद की ओर बढ़ती गई। कर्मकांडीय कर्म स्वत: अपना फल प्रदान करते हैं, इस धारणा ने भी बहुदेववाद के देवताओं की महत्ता को कम किया। उपनिषद् काल में [[ब्रह्मविद्या]] का प्रचार होने पर एक ईश्वर अथवा शक्ति की विचारणा प्रधान हो गई। [[पुराण]]काल में अनेक देवताओं की मान्यता होते हुए भी, उनमें से किसी एक को प्रधान मानकर उसकी उपासना पर जोर दिया गया। [[वेदान्त दर्शन]] का प्राबल्य होने पर बहुदेववादी मान्यताएँ और भी दुर्बल हो गई एवं एक ही ईश्वर अथवा शक्ति का सिद्धान्त प्रमुख हो गया। इन्हीं आधारों पर कुछ लोग एकेश्वरवाद को गंभीर चिंतना का फल मानते हैं। वस्तुत: संपूर्ण भारतीय धर्मसाधना, चिंतना और साहित्य के ऊपर विचार करने पर सर्वेश्वरवाद (जो एकेश्वरवाद के अधिक निकट है) की ही व्यापकता सर्वत्र परिलक्षित होती है। यह भारतीय मतवाद यद्यपि जनप्रचलित बहुदेववाद से बहुत दूर है तथापि अन्य देशों की तरह यहाँ भी सर्वेश्वरवाद बहुदेववाद से नैकटय स्थापित कर रहा है।


[[महाभारत]] के नारायणीयोपाख्यान में श्वेतद्वीपीय निवासियों को एकेश्वरवादी भक्ति से संपन्न कहा गया है। [[विष्वकसेन संहिता]] ने वैदिकों की, एकदेववादी न होने तथा वैदिक कर्मकांडीय विधानों में विश्वास करने के कारण, कटु आलोचना की है। इसी प्रकार भारतीय धर्मचिन्तना में एकेश्वरवाद का एक और रूप मिलता है। पहले [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] और [[महेश]] की विभिन्नता प्रतिपादित हो गई, साथ ही कहीं-कहीं विष्णु और ब्रह्मा को शिव में समाविष्ट भी माना गया। कालांतर में एकता की भावना भी विकसित हो गई। केवल शिव में ही शेष दोनों देवताओं के गुणों का आरोप हो गया। विष्णु के संबंध मे भी इसी प्रकार का आरोप मिलता है। [[विष्णुपुराण]] तो तीनों को एक परमात्मा की अभिव्यक्ति मानता है। यह परमात्मा कहीं शिव रूप में है और कहीं विष्णु रूप में।
[[महाभारत]] के नारायणीयोपाख्यान में श्वेतद्वीपीय निवासियों को एकेश्वरवादी भक्ति से संपन्न कहा गया है। [[विष्वकसेन संहिता]] ने वैदिकों की, एकदेववादी न होने तथा वैदिक कर्मकांडीय विधानों में विश्वास करने के कारण, कटु आलोचना की है। इसी प्रकार भारतीय धर्मचिन्तना में एकेश्वरवाद का एक और रूप मिलता है। पहले [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]] और [[महेश]] की विभिन्नता प्रतिपादित हो गई, साथ ही कहीं-कहीं विष्णु और ब्रह्मा को शिव में समाविष्ट भी माना गया। कालांतर में एकता की भावना भी विकसित हो गई। केवल शिव में ही शेष दोनों देवताओं के गुणों का आरोप हो गया। विष्णु के संबंध में भी इसी प्रकार का आरोप मिलता है। [[विष्णुपुराण]] तो तीनों को एक परमात्मा की अभिव्यक्ति मानता है। यह परमात्मा कहीं शिव रूप में है और कहीं विष्णु रूप में।


दूसरा अतिप्रसिद्ध एकेश्वरवाद [[इस्लाम|इस्लामी]] है। केवल परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हुए यह मत मानता है कि बहुदेववाद बहुत बड़ा पाप है। ईश्वर एक है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है, अतुलनीय है, स्वापम है, सर्वातीत है। वह इस जगत् का कारण है और निर्माता है। वह [[अवतार]] नहीं लेता। वह देश काल से परे अनादि और असीम है, तथैव निर्गुण और एकरस है। इस्लाम के ही अंतर्गत विकसित [[सूफी मत]] में इन विचारों के अतिरिक्त उसे सर्वव्यापी सत्ता भी माना गया। सर्वत्र उसी की विभूतियों का दर्शन होता है। परिणामत: उन लोगों ने परमात्मा का निवास सबमें और सबका निवास परमात्मा में माना। यह एकेश्वरवाद से सर्वेश्वरवाद की ओर होनेवाले विकास का संकेत है, यद्यपि मूल इस्लामी एकेश्वरवाद से यहाँ इसकी भिन्नता भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।
दूसरा अतिप्रसिद्ध एकेश्वरवाद [[इस्लाम|इस्लामी]] है। केवल परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हुए यह मत मानता है कि बहुदेववाद बहुत बड़ा पाप है। ईश्वर एक है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है, अतुलनीय है, स्वापम है, सर्वातीत है। वह इस जगत् का कारण है और निर्माता है। वह [[अवतार]] नहीं लेता। वह देश काल से परे अनादि और असीम है, तथैव निर्गुण और एकरस है। इस्लाम के ही अंतर्गत विकसित [[सूफी मत]] में इन विचारों के अतिरिक्त उसे सर्वव्यापी सत्ता भी माना गया। सर्वत्र उसी की विभूतियों का दर्शन होता है। परिणामत: उन लोगों ने परमात्मा का निवास सबमें और सबका निवास परमात्मा में माना। यह एकेश्वरवाद से सर्वेश्वरवाद की ओर होनेवाले विकास का संकेत है, यद्यपि मूल इस्लामी एकेश्वरवाद से यहाँ इसकी भिन्नता भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।

13:58, 18 नवम्बर 2017 का अवतरण

एकेश्वरवाद अथवा एकदेववाद वह सिद्धान्त है जो 'ईश्वर एक है' अथवा 'एक ईश्वर है' विचार को सर्वप्रमुख रूप में मान्यता देता है। एकेश्वरवादी एक ही ईश्वर में विश्वास करता है और केवल उसी की पूजा-उपासना करता है। इसके साथ ही वह किसी भी ऐसी अन्य अलौकिक शक्ति या देवता को नहीं मानता जो उस ईश्वर का समकक्ष हो सके अथवा उसका स्थान ले सके। इसी दृष्टि से बहुदेववाद, एकदेववाद का विलोम सिद्धान्त कहा जाता है। एकेश्वरवाद के विरोधी दार्शनिक मतवादों में दार्शनिक सर्वेश्वरवाद, दार्शनिक निरीश्वरवाद तथा दार्शनिक संदेहवाद की गणना की जाती है। सर्वेश्वरवाद, ईश्वर और जगत् में अभिन्नता मानता है। उसके सिद्धांतवाक्य हैं- 'सब ईश्वर हैं' तथा 'ईश्वर सब हैं'। एकेश्वरवाद केवल एक ईश्वर की सत्ता मानता है। सर्वेश्वरवाद ईश्वर और जगत् दोनों की सत्ता मानता है। यद्यपि जगत् की सत्ता के स्वरूप में वैमत्य है तथापि ईश्वर और जगत् की एकता अवश्य स्वीकार करता है। 'ईश्वर एक है' वाक्य की सूक्ष्म दार्शनिक मीमांसा करने पर यह कहा जा सकता है कि सर्वसत्ता ईश्वर है। यह निष्कर्ष सर्वेश्वरवाद के निकट है। इसीलिए ये वाक्य एक ही तथ्य को दो ढंग से प्रकट करते हैं। इनका तुलनात्मक अध्ययन करने से यह प्रकट होता है कि 'ईश्वर एक है' वाक्य जहाँ ईश्वर के सर्वातीतत्व की ओर संकेत करता है वहीं 'सब ईश्वर हैं' वाक्य ईश्वर के सर्वव्यापकत्व की ओर।

देशकालगत प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर ईश्वर के तीन विषम रूपों के अनुसार तीन प्रकार के एकेश्वरवाद का भी उल्लेख मिलता है-

  • १. इजरायली एकेश्वरवाद,
  • २. यूनानी दर्शन का हेलेनिक एकेश्वरवाद, तथा
  • ३. हिंदू एकेश्वरवाद।

इनमें से तीसरा एकेश्वरवाद सर्वाधिक व्यापक है और इसका सर्वेश्वरवाद से बहुत निकटता है। यह सिद्धांत केवल ईश्वर की ही पूर्ण सत्ता पर जोर नहीं देता, अपितु जगत् की असत्ता पर भी जोर देता है; किन्तु विभिन्न दार्शनिक दृष्टियों से वह जगत् की सत्ता और असत्ता दोनों का दो प्रकार के सत्यों के रूप में प्रतिपादन भी करता है। जगत् की असत्ता पर भी समान रूप से जोर देने के कारण कुछ लोग हिन्दू सर्वेश्वरवाद का एकेश्वरवाद के निकट देखते हुए उसके लिए 'एकास्मिज्म़' शब्द का प्रयोग अधिक संगत मानते हैं। इस दृष्टि से जगत् की सत्ता केवल प्रतीति मात्र है।

हिंदू एकेश्वरवाद में ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। कालानुसार उनके अनेक रूप मिलते हैं। सर्वेश्वरवाद और बहुदेववाद परस्पर घनिष्ठभावेन संबद्ध हैं। कुछ लोग विकासक्रम की दृष्टि से बहुदेववाद को सर्वप्रथम स्थान देते हैं। भारतीय धर्म और चिंतन के विकास में प्रारंभिक वैदिक युग में बहुदेववाद की तथा उत्तर वैदिक युग में सभी देवताओं के पीछे एक परम शक्ति की कल्पना मिलती है। दूसरे मत से यद्यपि वैदिक देवताओं के बहुत्व को देखकर सामान्य पाठक वेदों को बहुदेववादी कह सकता है तथापि प्रबुद्ध अध्येता को उनमें न तो बहुदेववाद का दर्शन होगा और न ही एकेश्वरवाद का। वह तो भारतीय धर्मचिन्तना की एक ऐसी स्थिति है जिसे उन दोनों का उत्स मान सकते हैं। वस्तुत: यह धार्मिक स्थिति इतनी विकसित नहीं थी कि उक्त दोनों में से किसी एक की ओर वह उन्मुख हो सके। किंतु जैसे जैसे धर्मचिंतन की गंभीरता की प्रवृत्ति बढ़ती गई, वैसे- वैसे भारतीय चिंतना की प्रवृत्ति भी एकेश्वरवाद की ओर बढ़ती गई। कर्मकांडीय कर्म स्वत: अपना फल प्रदान करते हैं, इस धारणा ने भी बहुदेववाद के देवताओं की महत्ता को कम किया। उपनिषद् काल में ब्रह्मविद्या का प्रचार होने पर एक ईश्वर अथवा शक्ति की विचारणा प्रधान हो गई। पुराणकाल में अनेक देवताओं की मान्यता होते हुए भी, उनमें से किसी एक को प्रधान मानकर उसकी उपासना पर जोर दिया गया। वेदान्त दर्शन का प्राबल्य होने पर बहुदेववादी मान्यताएँ और भी दुर्बल हो गई एवं एक ही ईश्वर अथवा शक्ति का सिद्धान्त प्रमुख हो गया। इन्हीं आधारों पर कुछ लोग एकेश्वरवाद को गंभीर चिंतना का फल मानते हैं। वस्तुत: संपूर्ण भारतीय धर्मसाधना, चिंतना और साहित्य के ऊपर विचार करने पर सर्वेश्वरवाद (जो एकेश्वरवाद के अधिक निकट है) की ही व्यापकता सर्वत्र परिलक्षित होती है। यह भारतीय मतवाद यद्यपि जनप्रचलित बहुदेववाद से बहुत दूर है तथापि अन्य देशों की तरह यहाँ भी सर्वेश्वरवाद बहुदेववाद से नैकटय स्थापित कर रहा है।

महाभारत के नारायणीयोपाख्यान में श्वेतद्वीपीय निवासियों को एकेश्वरवादी भक्ति से संपन्न कहा गया है। विष्वकसेन संहिता ने वैदिकों की, एकदेववादी न होने तथा वैदिक कर्मकांडीय विधानों में विश्वास करने के कारण, कटु आलोचना की है। इसी प्रकार भारतीय धर्मचिन्तना में एकेश्वरवाद का एक और रूप मिलता है। पहले ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विभिन्नता प्रतिपादित हो गई, साथ ही कहीं-कहीं विष्णु और ब्रह्मा को शिव में समाविष्ट भी माना गया। कालांतर में एकता की भावना भी विकसित हो गई। केवल शिव में ही शेष दोनों देवताओं के गुणों का आरोप हो गया। विष्णु के संबंध में भी इसी प्रकार का आरोप मिलता है। विष्णुपुराण तो तीनों को एक परमात्मा की अभिव्यक्ति मानता है। यह परमात्मा कहीं शिव रूप में है और कहीं विष्णु रूप में।

दूसरा अतिप्रसिद्ध एकेश्वरवाद इस्लामी है। केवल परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हुए यह मत मानता है कि बहुदेववाद बहुत बड़ा पाप है। ईश्वर एक है। उसके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है, अतुलनीय है, स्वापम है, सर्वातीत है। वह इस जगत् का कारण है और निर्माता है। वह अवतार नहीं लेता। वह देश काल से परे अनादि और असीम है, तथैव निर्गुण और एकरस है। इस्लाम के ही अंतर्गत विकसित सूफी मत में इन विचारों के अतिरिक्त उसे सर्वव्यापी सत्ता भी माना गया। सर्वत्र उसी की विभूतियों का दर्शन होता है। परिणामत: उन लोगों ने परमात्मा का निवास सबमें और सबका निवास परमात्मा में माना। यह एकेश्वरवाद से सर्वेश्वरवाद की ओर होनेवाले विकास का संकेत है, यद्यपि मूल इस्लामी एकेश्वरवाद से यहाँ इसकी भिन्नता भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।

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