"कुरुक्षेत्र": अवतरणों में अंतर

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'''कुरुक्षेत्र''' {{audio|Kurukshetra.ogg|उच्चारण}} ({{lang-en|Kurukshetra}})[[हरियाणा]] [[राज्य]] का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह [[हरियाणा]] के उत्तर में स्थित है तथा [[अम्बाला]], [[यमुना नगर]], [[करनाल]] और [[कैथल]] से घिरा हुआ है तथा [[दिल्ली]] और [[अमृतसर]] को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण [[हिन्दू]] तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं [[महाभारत]] की लड़ाई हुई थी और [[भगवान कृष्ण]] ने [[अर्जुन]] को [[गीता]] का उपदेश यहीं [[ज्योतिसर]] नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र [[बासमती चावल]] के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।
'''कुरुक्षेत्र''' {{audio|Kurukshetra.ogg|उच्चारण}} ({{lang-en|Kurukshetra}})[[हरियाणा]] [[राज्य]] का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह [[हरियाणा]] के उत्तर में स्थित है तथा [[अम्बाला]], [[यमुना नगर]], [[करनाल]] और [[कैथल]] से घिरा हुआ है तथा [[दिल्ली]] और [[अमृतसर]] को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण [[हिन्दू]] तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं [[महाभारत]] की लड़ाई हुई थी और [[भगवान कृष्ण]] ने [[अर्जुन]] को [[गीता]] का उपदेश यहीं [[ज्योतिसर]] नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र [[बासमती चावल]] के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।


श्रीमन नारायण नारायण ।अखबार का कारनामा कुरूक्षेत्र के इतिहास के स्वरूप को बदलने का प्रयास कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है अंत मे श्रीमन नारायण नारायण ।
श्रीमन नारायण नारायण। अखबार का कारनामा कुरूक्षेत्र के इतिहास के स्वरूप को बदलने का प्रयास। कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है। क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा। चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है। क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था। इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है। अंत मे श्रीमन नारायण नारायण।


== इतिहास ==
== इतिहास ==
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'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) [[विष्णु पुराण]] (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।</ref>
'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) [[विष्णु पुराण]] (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।</ref>
[[File:Kurukshetra.jpg|thumb|250px|left|[[महाभारत]] कुरुक्षेत्र में युद्ध के चित्रण से संवन्धित एक पांडुलिपि]]
[[File:Kurukshetra.jpg|thumb|250px|left|[[महाभारत]] कुरुक्षेत्र में युद्ध के चित्रण से संवन्धित एक पांडुलिपि]]
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण, 18.4.1</ref>में आया है कि [[कुरु]]-[[पांचाल]] शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19</ref>एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 35। 4=7। 30</ref>में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14</ref>तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1</ref>में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।<ref>देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन [[यमुना नदी|यमुना]] पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।</ref> उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन<ref>अवश्वलायन, 12.6</ref>, लाट्यायन<ref>लाट्यायन, 10.15</ref>एवं कात्यायन<ref>कात्यायन, 24.6.5</ref>के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।
कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण, 18.4.1</ref> में आया है कि [[कुरु]]-[[पांचाल]] शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19</ref> एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 35। 4=7। 30</ref> में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।<ref>ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14</ref> तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1</ref> में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।<ref>देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन [[यमुना नदी|यमुना]] पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।</ref> उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन<ref>अवश्वलायन, 12.6</ref>, लाट्यायन<ref>लाट्यायन, 10.15</ref> एवं कात्यायन<ref>कात्यायन, 24.6.5</ref> के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।


यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'<ref>वनपर्व 83.11</ref>एवं 'सरक'<ref>जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवत: परिसरक है</ref>के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है। नारदीय पुराण<ref>उत्तर, अध्याय 65</ref>ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।<ref>वनपर्व 83। 85, वामन पुराण 49। 38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95</ref>ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया<ref>पृ0 334-335</ref>में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।
यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'<ref>वनपर्व 83.11</ref> एवं 'सरक'<ref>जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवत: परिसरक है</ref> के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है। नारदीय पुराण<ref>उत्तर, अध्याय 65</ref> ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।<ref>वनपर्व 83। 85, वामन पुराण 49। 38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95</ref> ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया<ref>पृ0 334-335</ref> में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।


== भूगोल ==
== भूगोल ==
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कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक [[पुराण|पुराणों]], स्मृतियों और महर्षि [[वेदव्यास]] रचित [[महाभारत]] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त [[कैथल]], [[करनाल]], [[पानीपत]] और [[जींद]] का क्षेत्र सम्मिलित हैं।<ref>भारत ज्ञान कोश, खंड-1, पप्युलर प्रकाशन मुंबई, पृष्ठ संख्या-395, आई एस बी एन 81-7154-993-4</ref>
कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी [[सरस्वती नदी|सरस्वती]] का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक [[पुराण|पुराणों]], स्मृतियों और महर्षि [[वेदव्यास]] रचित [[महाभारत]] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त [[कैथल]], [[करनाल]], [[पानीपत]] और [[जींद]] का क्षेत्र सम्मिलित हैं।<ref>भारत ज्ञान कोश, खंड-1, पप्युलर प्रकाशन मुंबई, पृष्ठ संख्या-395, आई एस बी एन 81-7154-993-4</ref>


इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] मे अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहां की पौराणिक नदी [[सरस्वती]] का भी अत्यन्त महत्व है। सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणो, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित [[महाभारत]] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणीक सीमा 48 कोस की मानी गई है। वन पर्व में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।' इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है। नारदीय पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।
इसका [[ऋग्वेद]] और [[यजुर्वेद]] मे अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहां की पौराणिक नदी [[सरस्वती]] का भी अत्यन्त महत्व है। सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणो, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित [[महाभारत]] में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणीक सीमा 48 कोस की मानी गई है। वन पर्व में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।' इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है। नारदीय पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।


कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10.33.4</ref>में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद 20.127.8</ref>में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। [[शतपथ ब्राह्मण]]<ref>शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13</ref>में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता<ref>मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे</ref>एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्'</ref>का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद, 10.90.16</ref>में आया है- 'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'
कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद 10.33.4</ref> में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' [[अथर्ववेद]]<ref>अथर्ववेद 20.127.8</ref> में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। [[शतपथ ब्राह्मण]]<ref>शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13</ref> में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता<ref>मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे</ref> एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्'</ref> का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद<ref>ऋग्वेद, 10.90.16</ref> में आया है- 'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'


== पौराणिक कथा ==
== पौराणिक कथा ==
कुरू ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरूक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरू बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरू ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरू को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरू के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरू ने यह बात मान ली। कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है इस बात कि व्याख्या संगमेशवरी शक्ति महापीठ मंदिर विन्दगाँवा भोजपुर के संत पुजयश्री योगा बाबा ने भी गर्थों के आधार पर की है।
कुरू ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरूक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरू बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरू ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरू को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरू के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरू ने यह बात मान ली। कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है। क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा। चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है। क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था। इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है। इस बात कि व्याख्या संगमेशवरी शक्ति महापीठ मंदिर विन्दगाँवा भोजपुर के संत पुजयश्री योगा बाबा ने भी गर्थों के आधार पर की है।


== कुरुक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ स्थान ==
== कुरुक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ स्थान ==
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== अन्य जानकारी ==
== अन्य जानकारी ==
[[File:Sheikh Chilli Tomb, Kurukshetra, Haryana, India.jpg|thumb| कुरुक्षेत्र स्थित शेख चिल्ली का मकबरा]]
[[File:Sheikh Chilli Tomb, Kurukshetra, Haryana, India.jpg|thumb|कुरुक्षेत्र स्थित शेख चिल्ली का मकबरा]]


*'''जलवायु''' - यहाँ की जलवायु जुलाई और अगस्त में बारिश के साथ (1 डिग्री सेल्सियस के नीचे तक) और बहुत गर्मी में गर्म (47 डिग्री सेल्सियस के ऊपर तक) पहुँच जाती है, जबकि सर्दियों में काफी ठंड पड़ती है।
*'''जलवायु''' - यहाँ की जलवायु जुलाई और अगस्त में बारिश के साथ (1 डिग्री सेल्सियस के नीचे तक) और बहुत गर्मी में गर्म (47 डिग्री सेल्सियस के ऊपर तक) पहुँच जाती है, जबकि सर्दियों में काफी ठंड पड़ती है।
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[[श्रेणी:भारत के नगर]]
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[[श्रेणी:प्राचीन भारतीय शहर]]
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06:45, 16 मई 2016 का अवतरण

कुरुक्षेत्र
—  शहर  —
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश  भारत
राज्य हरियाणा
महापौर
सांसद श्री नवीन जिंदल
जनसंख्या
घनत्व
9,65,781 (2001 के अनुसार )
क्षेत्रफल 1,530 km² (591 sq mi)
आधिकारिक जालस्थल: kurukshetra.nic.in

निर्देशांक: 29°57′57″N 76°50′13″E / 29.965717°N 76.837006°E / 29.965717; 76.837006

कुरुक्षेत्र उच्चारण सहायता·सूचना (अंग्रेज़ी: Kurukshetra)हरियाणा राज्य का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है तथा दिल्ली और अमृतसर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है।

श्रीमन नारायण नारायण। अखबार का कारनामा कुरूक्षेत्र के इतिहास के स्वरूप को बदलने का प्रयास। कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है। क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा। चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है। क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था। इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है। अंत मे श्रीमन नारायण नारायण।

इतिहास

मुख्य उल्लेख : कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र का इलाका भारत में आर्यों के आरंभिक दौर में बसने (लगभग 1500 ई. पू.) का क्षेत्र रहा है और यह महाभारत की पौराणिक कथाओं से जुड़ा है। इसका वर्णन भगवद्गीता के पहले श्लोक में मिलता है। इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है। थानेसर नगर राजा हर्ष की राजधानी (606-647) था, सन 1011 ई. में इसे महमूद गज़नवी ने तहस-नहस कर दिया।[1]

आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।[2]

महाभारत कुरुक्षेत्र में युद्ध के चित्रण से संवन्धित एक पांडुलिपि

कुरुक्षेत्र ब्राह्मणकाल में वैदिक संस्कृति का केन्द्र था और वहाँ विस्तार के साथ यज्ञ अवश्य सम्पादित होते रहे होंगे। इसी से इसे धर्मक्षेत्र कहा गया और देवों को देवकीर्ति इसी से प्राप्त हुई कि उन्होंने धर्म (यज्ञ, तप आदि) का पालन किया था और कुरुक्षेत्र में सत्रों का सम्पादन किया था। कुछ ब्राह्मण-ग्रन्थों में आया है कि बह्लिक प्रातिपीय नामक एक कौरव्य राजा था। तैत्तिरीय ब्राह्मण[3] में आया है कि कुरु-पांचाल शिशिर-काल में पूर्व की ओर गये, पश्चिम में वे ग्रीष्म ऋतु में गये जो सबसे बुरी ऋतु है। ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख अति महत्त्वपूर्ण है। सरस्वती ने कवष मुनि की रक्षा की थी और जहाँ वह दौड़ती हुई गयी उसे परिसरक कहा गया।[4] एक अन्य स्थान पर ऐतरेय ब्राह्मण[5] में आया है कि उसके काल में कुरुक्षेत्र में 'न्यग्रोध' को 'न्युब्ज' कहा जाता था। ऐतरेय ब्राह्मण ने कुरुओं एवं पंचालों के देशों का उल्लेख वश-उशीनरों के देशों के साथ किया है।[6] तैत्तिरीय आरण्यक[7] में गाथा आयी है कि देवों ने एक सत्र किया और उसके लिए कुरुक्षेत्र वेदी के रूप में था।[8] उस वेदी के दक्षिण ओर खाण्डव था, उत्तरी भाग तूर्घ्न था, पृष्ठ भाग परीण था और मरु (रेगिस्तान) उत्कर (कूड़ा वाल गड्ढा) था। इससे प्रकट होता है कि खाण्डव, तूर्घ्न एवं परीण कुरुक्षेत्र के सीमा-भाग थे और मरु जनपद कुरुक्षेत्र से कुछ दूर था। अवश्वलायन[9], लाट्यायन[10] एवं कात्यायन[11] के श्रौतसूत्र ताण्ड्य ब्राह्मण एवं अन्य ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और कई ऐसे तीर्थों का वर्णन करते हैं जहाँ सारस्वत सत्रों का सम्पादन हुआ था, यथा प्लक्ष प्रस्त्रवर्ण (जहाँ से सरस्वती निकलती है), सरस्वती का वैतन्धव-ह्रद; कुरुक्षेत्र में परीण का स्थल, कारपचव देश में बहती यमुना एवं त्रिप्लक्षावहरण का देश।

यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि वनपर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल 'विनशन'[12] एवं 'सरक'[13] के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है। नारदीय पुराण[14] ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।[15] ऐंश्येण्ट जियाग्राफी आव इण्डिया[16] में आया है कि यह सर 3546 फुट (पूर्व से पश्चिम) लम्बा एवं उत्तर से दक्षिण 1900 फुट चौड़ा था।

भूगोल

कुरुक्षेत्र जिला एक मैदानी क्षेत्र है, जिसके 88 प्रतिशत हिस्से पर खेती की जाती है और अधिकांश क्षेत्र पर दो फसलें उगाई जाती है। लगभग समूचा कृषि क्षेत्र नलकूपों द्वारा सिंचित है। कृषि में चावल और गेहूं की प्रधानता है। अन्य फसलों में गन्ना, तिलहन और आलू शामिल है। लगभग सभी गाँव सड़कों से जुड़े हैं। कुरुक्षेत्र नगर में हथकरघा, चीनी, कृषि उपकरण, पानी के उपकरण और खाद्य उत्पाद से जुड़े उद्योग अवस्थित है।

पौराणिक महत्व

महाभारत युद्ध की झांकी, कांस्य रथ भगवान कृष्णा और अर्जुन

कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जींद का क्षेत्र सम्मिलित हैं।[17]

इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद मे अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहां की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्व है। सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणो, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणीक सीमा 48 कोस की मानी गई है। वन पर्व में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- 'मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।' इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।' यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है। नारदीय पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।

कुरुक्षेत्र अम्बाला से 25 मील पूर्व में है। यह एक अति पुनीत स्थल है। इसका इतिहास पुरातन गाथाओं में समा-सा गया है। ऋग्वेद[18] में त्रसदस्यु के पुत्र कुरुश्रवण का उल्लेख हुआ है। 'कुरुश्रवण' का शाब्दिक अर्थ है 'कुरु की भूमि में सुना गया या प्रसिद्ध।' अथर्ववेद[19] में एक कौरव्य पति (सम्भवत: राजा) की चर्चा हुई है, जिसने अपनी पत्नी से बातचीत की है। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल में कुरुक्षेत्र अति प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण[20] में उल्लिखित एक गाथा से पता चलता है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में एक यज्ञ किया था जिसमें उन्होंने दोनों अश्विनों को पहले यज्ञ-भाग से वंचित कर दिया था। मैत्रायणी संहिता[21] एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण[22] का कथन है कि देवों ने कुरुक्षेत्र में सत्र का सम्पादन किया था। इन उक्तियों में अन्तर्हित भावना यह है कि ब्राह्मण-काल में वैदिक लोग यज्ञ-सम्पादन को अति महत्त्व देते थे, जैसा कि ऋग्वेद[23] में आया है- 'यज्ञेय यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यसन्।'

पौराणिक कथा

कुरू ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरूक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरू बहुत मनोयोग से इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इस परिश्रम का कारण पूछा। कुरू ने कहा-'जो भी व्यक्ति यहाँ मारा जायेगा, वह पुण्य लोक में जायेगा।' इन्द्र उनका परिहास करते हुए स्वर्गलोक चले गये। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने देवताओं को भी बतलाया। देवताओं ने इन्द्र से कहा-'यदि संभव हो तो कुरू को अपने अनुकूल कर लो अन्यथा यदि लोग वहां यज्ञ करके हमारा भाग दिये बिना स्वर्गलोक चले गये तो हमारा भाग नष्ट हो जायेगा।' तब इन्द्र ने पुन: कुरू के पास जाकर कहा-'नरेश्वर, तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर अथवा युद्ध करके यहाँ मारा जायेगा तो स्वर्ग का भागी होगा।' कुरू ने यह बात मान ली। कुरूक्षेत्र का नाम कुरूक्षेत्र _धर्मक्षेत्र कैसे पड़ा इसके बारे महाभारत मे उल्लिखित किया गया है जब शौनक जी को सुत जी बताते हैकि आदि काल से ही यह क्षेत्र युद्ध क्षेत्र रहा है। इसी धरती पर वशिष्ट जी और विश्वामित्रजी के साथ युद्ध हुआ था।इसी धरती पर परशुरामजी ने हैहय वंश का नाश किया था। सुत जी कहते है कि ऐसी किवन्दंती है कि एक किसान खेत मे पानी भर रहा था उसी समय उसकी पत्नी खाना लेकर आई थी पति ने कहा जब तक मै भोजन कर रहा हु तब तक तुम काम देखो तब पत्नी पानी रोकने लगी लेकिन पानी रूक नहीं रहा था सो उसने अपने बच्चे को मेढ मे डाल कर चली आयी थी यह घटना बार की बात है भगवान् श्रीकृष्ण युद्ध स्थल को तय करने के लिए अर्जुन को लेकर यात्रा पर गए थे जहाँ उन्होंने देखा था।यह देखकर प्रभु श्री कृष्ण समझ गए थे कि यह स्थान युद्ध के लिए उपयुक्त है। क्यो कि किसी भी काय॔ के लिये उचित स्थान होता है भगवान् श्रीकृष्ण को डर था कि कही अपने लोगो का रक्त बहते देख कही कौरव पांडव संधि ना कर ले तो इस लिए इसी भूमि का चुनाव किया क्योकि इस भुमि मे मोह नही था। कुरू ने अपने अष्टाड़ भगवान् को दान मे दे दिया था तब भगवान् ने वरदान दिया था कि यह क्षेत्र कुरू क्षेत्र के नाम से जाना जायेगा। चुकि कुरू अष्टाड़धम॔ कि खेती कर रहे थे इसलिए इस क्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा जाता है। क्योंकि धर्म मे क्रोध नही हो ता है लेकिन कुरूक्षेत्र मे तप साहस धर्म सबकुछ था। इस बात का उल्लेख प्रभुदत जी ने भी अपने विचार अपने पुस्तक धर्म राष्ट्र मे किया है। इस बात कि व्याख्या संगमेशवरी शक्ति महापीठ मंदिर विन्दगाँवा भोजपुर के संत पुजयश्री योगा बाबा ने भी गर्थों के आधार पर की है।

कुरुक्षेत्र के प्रमुख तीर्थ स्थान

कुरुक्षेत्र की पावन धरती पर श्री स्थानेश्वर महादेव मन्दिर स्थित है। लोक मन्यता है कि महाभारत के युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन समेत यहा भगवान शिव की उपासना कर अशिर्वाद प्राप्त किया था। इस तीर्थ की विशेषता यह भी है कि यहा मन्दिर व गुरुद्वरा एक हि दिवार से लगते है। यहा पर हजारो देशी विदेशी पर्यटक दर्शन हेतु आते हैं।[24]

आवागमन

  • सड़क मार्ग: यह राष्ट्रीय राजमार्ग १ पर स्थित है। हरियाणा रोडवेज और अन्य राज्य निगमों की बसों से कुरुक्षेत्र पहुंचा जा सकता हैं। यह दिल्ली, चंडीगढ़ और अन्य महत्वपूर्ण स्थानों से सड़क मार्ग से पूरी तरह जुड़ा हुआ है।
  • हवाई मार्ग: कुरुक्षेत्र के करीब हवाई अड्डों में दिल्ली और चंडीगढ़ हैं, जहां कुरुक्षेत्र के लिए टैक्सी और बस सेवा उपलब्ध है। करनाल मे नया हवाई अड्डा प्रस्तावित है।
  • रेल मार्ग : कुरुक्षेत्र में रेलवे जंक्शन है, जो देश के सभी महत्वपूर्ण कस्बों और शहरों के साथ-साथ सीधा दिल्ली से जुड़ा है। यहाँ शताब्दी एक्सप्रेस रुकती है।

अन्य जानकारी

कुरुक्षेत्र स्थित शेख चिल्ली का मकबरा
  • जलवायु - यहाँ की जलवायु जुलाई और अगस्त में बारिश के साथ (1 डिग्री सेल्सियस के नीचे तक) और बहुत गर्मी में गर्म (47 डिग्री सेल्सियस के ऊपर तक) पहुँच जाती है, जबकि सर्दियों में काफी ठंड पड़ती है।
  • प्रवेश - कुरुक्षेत्र अच्छी तरह से राष्ट्रीय राजमार्ग एक से जुड़ा हुआ है और सड़क, रेल तथा वायु द्वारा यहाँ सहजता से पहुंचा जा सकता है।
  • राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के द्वारा कुरुक्षेत्र की एतिहासिकता को लेकर महाभारत के शांति पर्व पर आधारित एक महाकाव्य की रचना की गयी है।[25] यह उस समय लिखा गया था, जब द्वितीय विश्व युद्ध की यादें कवि के मन में ताज़ा थी।[25]

इन्हें भी देखें

कुरुक्षेत्र युद्ध

सन्दर्भ

  1. कुरुक्षेत्र का इतिहास
  2. आद्यैषा ब्रह्मणो वेदिस्ततो रामहृदा: स्मृता:। कुरुणा च यत: कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्॥ वामन पुराण (22.59-60)। वामन पुराण (22.18-20) के अनुसार ब्रह्मा की पाँच वेदियाँ ये हैं-
    • समन्तपञ्चक (उत्तरा),
    • प्रयाग (मध्यमा),
    • गयाशिर (पूर्वा),
    • विरजा (दक्षिणा) एवं
    • पुष्कर (प्रतीची)।
    'स्यमन्तपंचक' शब्द भी आया है। (वामन पुराण 22.20 एवं पद्म पुराण 4.17.7) विष्णु पुराण (विष्णु पुराण, 4.19.74-77) के मत से कुरु की वंशावलीयों है- 'अजमीढ-ऋक्ष-संवरण-कुरु' एवं 'य इदं धर्मक्षेत्रं चकार'।
  3. तैत्तिरीय ब्राह्मण, 18.4.1
  4. ऐतरेय ब्राह्मण 8.1 या 2.19
  5. ऐतरेय ब्राह्मण, 35। 4=7। 30
  6. ऐतरेय ब्राह्मण, 38.3=8.14
  7. तैत्तिरीय आरण्यक, 5.1.1
  8. देवा वै सत्रमासत। ... तेषां कुरुक्षेत्रे वेदिरासीत्। तस्यै खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत्। तूर्ध्नमुत्तरार्ध:। परीणज्जधनार्ध:। मरव उत्कर:॥ तैत्तिरीय आरण्यक (तैत्तिरीय आरण्यक 5.1.1) क्या 'तूर्घ्न' 'स्त्रुघ्न' का प्राचीन रूप है? 'स्त्रुघ्न' या आधुनिक 'सुध' जो प्राचीन यमुना पर है, थानेश्वर से 40 मील एवं सहारनपुर से उत्तर-पश्चिम 10 मील पर है।
  9. अवश्वलायन, 12.6
  10. लाट्यायन, 10.15
  11. कात्यायन, 24.6.5
  12. वनपर्व 83.11
  13. जो ऐतरेय ब्राह्मण का सम्भवत: परिसरक है
  14. उत्तर, अध्याय 65
  15. वनपर्व 83। 85, वामन पुराण 49। 38-41, नारदीय पुराण, उत्तर 65.95
  16. पृ0 334-335
  17. भारत ज्ञान कोश, खंड-1, पप्युलर प्रकाशन मुंबई, पृष्ठ संख्या-395, आई एस बी एन 81-7154-993-4
  18. ऋग्वेद 10.33.4
  19. अथर्ववेद 20.127.8
  20. शतपथ ब्राह्मण 4.1.5.13
  21. मैत्रायणी संहिता 2.1.4, 'देवा वै सत्रमासत्र कुरुक्षेत्रे
  22. तैत्तिरीय ब्राह्मण 5.1.1, 'देवा वै सत्रमासत तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्'
  23. ऋग्वेद, 10.90.16
  24. Shalihotra tirtha, Sarsa
  25. दास, शिशिर कुमार (1995). भारतीय साहित्य का इतिहास. साहित्य अकादमी. पृ॰ 908. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7201-798-9.

बाहरी कड़ियाँ