"जमानत": अवतरणों में अंतर

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08:43, 29 अक्टूबर 2015 का अवतरण

ज़मानत (अंग्रेजी: bail) किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति को कारागार से छुड़ाने के लिये न्यायालय के समक्ष जो सम्पत्ति जमा की जाती है या देने की प्रतिज्ञा की जाती है उसे कहते हैं। जमानत पाकर न्यायालय इससे निश्चिन्त हो जाता है कि आरोपी व्यक्ति सुनवाई के लिये अवश्य आयेगा अन्यथा उसकी जमानत जब्त कर ली जायेगी (और सुनवाई के लिये न आने पर फिर से पकड़ा जा सकता है।)

ज़मानत के अनुसार अपराध दो प्रकार के होते हैं-

(क) प्रथम अनुसूची में ज़मानती अपराध के रूप में दिखाया गया हो , या
(ख) तत्समय प्रविर्त्य किसी विधि द्वारा ज़मानती अपराध बनाया गया हो , या
(ग) गैर-ज़मानती अपराध से भिन्न अन्य कोई अपराध हो ।

संहिता की प्रथम अनुसूची में जमानतीय एवं गैर-ज़मानती अपराधों का उल्लेख किया गया है। जो अपराध ज़मानती बताया गया है और उसमे अभियुक्त की ज़मानत स्वीकार करना पुलिस अधिकारी एवं न्यायालय का कर्त्तव्य है। उदाहरण के लिये, किसी व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक साधारण चोट पहुँचाना, उसे सदोष रूप से अवरोधित अथवा परिरोधित करना, किसी स्त्री की लज्जा भंग करना, मानहानि करना आदि ज़मानती अपराध हैं।

  • (२) ग़ैर-ज़मानती अपराध (Non - Bailable Offence) - भारतीय दंड संहिता प्रक्रिया में 'ग़ैर-ज़मानती' की परिभाषा नहीं दी गयी है। अतः हम यह कह सकते है कि ऐसा अपराध जो -
(क) ज़मानती नहीं हैं, एवं
(ख) जिसे प्रथम अनुसूची में ग़ैर-ज़मानती अपराध के रूप में अंकित किया गया है, वे ग़ैर-ज़मानती अपराध हैं।

सामान्यतया गंभीर प्रकृति के अपराधों को ग़ैर-ज़मानती बनाया गया है। ऐसे अपराधों में ज़मानत स्वीकार किया जाना या नहीं करना न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है। उदहारण के लिये, चोरी के लिए गृह अतिचार, गृह-भेदन, अपराधिक न्यास भंग आदि ग़ैर-ज़मानती अपराध हैं।

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें