"जैन धर्म में भगवान": अवतरणों में अंतर

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== सिद्ध ==
== सिद्ध ==
[[चित्र:Siddha_Shila.svg|thumb|250px|[[जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान]] अनुसार सिद्धशिला]]
[[चित्र:Siddha_Shila.svg|thumb|250px|सिद्धशिला जहाँ सिद्ध परमेष्ठी (मुक्त आत्माएँ) विराजती है]
सभी अरिहंत अपने आयु कर्म के अंत होने पर सिद्ध बन जाते है। सिद्ध बन चुकी आत्मा जीवन मरण के चक्र से मुक्त होती है। अपने सभी कर्मों का क्षय कर चुके, सिद्ध भगवान अष्टग़ुणो से युक्त होते है।{{sfn|प्रमाणसागर|२००८|p=१४८}} वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है। 
सभी अरिहंत अपने आयु कर्म के अंत होने पर सिद्ध बन जाते है। सिद्ध बन चुकी आत्मा जीवन मरण के चक्र से मुक्त होती है। अपने सभी कर्मों का क्षय कर चुके, सिद्ध भगवान अष्टग़ुणो से युक्त होते है।{{sfn|प्रमाणसागर|२००८|p=१४८}} वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है। 
सभी जीवों का लक्ष्य सिद्ध बनाना होना चाहिए। अनंत आत्माएँ सिद्ध बन चुकी है। जैन धर्म के अनुसार भगवंता किसी का एकाधिकार नहीं है और सही दृष्टि, ज्ञान और चरित्र से कोई भी सिद्ध पाया जा सकता है। सिद्ध बनने के पश्चात, आत्मा लोक के किसी कार्य में दख़ल नहीं देती।
सभी जीवों का लक्ष्य सिद्ध बनाना होना चाहिए। अनंत आत्माएँ सिद्ध बन चुकी है। जैन धर्म के अनुसार भगवंता किसी का एकाधिकार नहीं है और सही दृष्टि, ज्ञान और चरित्र से कोई भी सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है। सिद्ध बन चुकी आत्मा लोक के किसी कार्य में दख़ल नहीं देती।


== पूजा ==
== पूजा ==

00:43, 29 सितंबर 2015 का अवतरण

जैन धर्म इस ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति, निर्माण या रखरखाव के लिए जिम्मेदार एक निर्माता देवता के विचार को खारिज करता है। जैन दर्शन के अनुसार, यह लोक और इसके छह द्रव्य (जीव, पुद्गल, आकाश, काल, धर्म, और अधर्म) हमेशा से है और इनका अस्तित्व हमेशा रहेगा। यह सब स्वयं संचालित है और सार्वभौमिक प्राकृतिक क़ानूनों पर चलता है। इसके अनुसार भगवान, एक अमूर्तिक वस्तु एक मूर्तिक वस्तु (ब्रह्माण्ड) का निर्माण नहीं कर सकती। जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान देवों (स्वर्ग निवासियों) का एक विस्तृत विवरण प्रदान करता है, लेकिन इन प्राणियों को रचनाकारों के रूप में नहीं देखा जाता है; वे दुख के अधीन हैं और अन्य सभी जीवित प्राणियों की तरह, अपनी आयु पूरी कर अंत में मर जाते है। जैन धर्म के अनुसार इस सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया।

जैन धर्म के अनुसार हर आत्मा का असली स्वभाव भगवंता है और हर आत्मा में अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान और अनंत शांति है। आत्मा के कर्मों के बंध के कारण यह गुण प्रकट नहीं हो पाते। जैन दर्शन के अनुसार, कर्म प्रकृति के मौलिक कण होते हैं। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र के माध्यम से आत्मा के इस राज्य को प्राप्त किया जा सकता है। इन रतंत्रय के धारक को भगवान कहा जा सकता है। एक भगवान, इस प्रकार एक मुक्त आत्मा हो जाता है - दुख से मुक्ति, पुनर्जन्म, दुनिया, कर्म और अंत में शरीर से भी मुक्ति। इसे निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार, जैन धर्म में अनंत भगवान है, सब बराबर, मुक्त, और सभी गुण की अभिव्यक्ति में अनंत हैं। 

जिन्होंने कर्मों का हनन कर केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उन्हें अरिहन्त कहते है। तीर्थंकर विशेष अरिहन्त होते है जो 'तीर्थ' की रचना करते है, यानी की जो अन्य जीवों को मोक्ष-मार्ग दिखाते है।

जैन धर्म किसी भी सर्वोच्च जीव पर निर्भरता नहीं सिखाता। तीर्थंकर आत्मज्ञान के लिए रास्ता दिखाते है, लेकिन ज्ञान के लिए संघर्ष ख़ुद ही करना पड़ता है। 

जैन धर्म में अरिहन्त और सिद्ध ही भगवान है। देवी, देवताओं जो स्वर्ग में है वह अपने अच्छे कर्मों के कारण वहाँ है और भगवान नहीं माने जा सकते। यह देवी, देवता  एक निशित समय के लिए वहाँ है और यह भी मरण उपरांत मनुष्य बनकर ही मोक्ष जा सकते है।

अरिहन्त (जिन)

भारत चक्रवर्ती भी अरिहन्त हुए

जिन्होंने चार घातिया कर्मों का क्षयकर कर दिया वह अरिहन्त कहलाते है।[1] समस्त कशायों (जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ) को नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति अरिहन्त कहलाते है। अरिहन्त दो प्रकार के होते है:

  1. सामान्य केवली- जो अपना कल्याण करते है।
  2. तीर्थंकर- २४ महापुरुष जो अन्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते है।  [2]

तीर्थंकर

तीर्थंकर का अर्थ होता है जो धर्म तीर्थ को प्रवर्त करे। तीर्थंकर संसार सागर से पर करने वाले धर्म तीर्थ (मोक्ष मार्ग) को प्रवर्त करते है। तीर्थंकर चतुर्विध संघ की स्थापना भी करते है।[3] तीर्थंकर की तुलना अन्य किसी देवी देवता से करना ग़लती होगी। तीर्थंकर मुक्त होते है और ब्रह्माण्ड में किसी की प्रार्थना के जवाब में हस्तक्षेप नहीं करते।[4]

सिद्ध

[[चित्र:Siddha_Shila.svg|thumb|250px|सिद्धशिला जहाँ सिद्ध परमेष्ठी (मुक्त आत्माएँ) विराजती है] सभी अरिहंत अपने आयु कर्म के अंत होने पर सिद्ध बन जाते है। सिद्ध बन चुकी आत्मा जीवन मरण के चक्र से मुक्त होती है। अपने सभी कर्मों का क्षय कर चुके, सिद्ध भगवान अष्टग़ुणो से युक्त होते है।[1] वह सिद्धशिला जो लोक के सबसे ऊपर है, वहाँ विराजते है।  सभी जीवों का लक्ष्य सिद्ध बनाना होना चाहिए। अनंत आत्माएँ सिद्ध बन चुकी है। जैन धर्म के अनुसार भगवंता किसी का एकाधिकार नहीं है और सही दृष्टि, ज्ञान और चरित्र से कोई भी सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है। सिद्ध बन चुकी आत्मा लोक के किसी कार्य में दख़ल नहीं देती।

पूजा 

जैनों द्वारा इन वीतरागी भगवानो की पूजा किसी उपकार या उपहार के लिए नहीं की जाती। वीतरागी भगवान की पूजा कर्मों को शय करने और भगवंता प्राप्त करने के लिए की जाती है।

सन्दर्भ

  1. प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १४८.
  2. Rankin 2013, पृ॰ 40.
  3. प्रमाणसागर २००८, पृ॰ १६.
  4. Thrower (1980), p.93

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • प्रमाणसागर, मुनि (२००८), जैन तत्त्वविद्या, भारतीय ज्ञानपीठ, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1480-5
  • Sangave, Vilas Adinath (2001), Aspects of Jaina religion (3rd संस्करण), Bharatiya Jnanpith, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-263-0626-2
  • Rankin, Aidan (2013), "Chapter 1. Jains Jainism and Jainness", Living Jainism: An Ethical Science, John Hunt Publishing, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1780999111