"काव्य": अवतरणों में अंतर

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===== मुक्तक =====
===== मुक्तक =====
इसमें केवल एक ही पद या छंद स्वतंत्र रूप से किसी भाव या रस अथवा कथा को प्रकट करने में समर्थ होता है। गीत कवित्त दोहा आदि मुक्तक होते हैं।
इसमें केवल एक ही पद या छंद स्वतंत्र रूप से किसी भाव या रस अथवा कथा को प्रकट करने में समर्थ होता है। गीत कवित्त दोहा आदि मुक्तक होते हैं।

शोध पत्रं
संस्कृत मुक्तक काव्य कि आनन्दता का परिचय
"संस्कृतमुक्तककाव्यपरम्परायां संसर्गंमाहात्म्यं "

किशन गोपाल मीना (साहित्याचार्य)विध्या निधि ,नेट शिक्षा शास्त्री ,एम ए हिन्दी
संस्कृत शिक्षक
केन्द्रीय विद्यालय सवाई माधोपुर (राजस्थान)
संस्कृत भाषा प्रारंभ से हि सरस सुन्दर तथा मधुर गीर्वा के रूप में पाठको को अमृतपान से आनन्दित कर रही है |अमृतमय सूक्त ,श्लोक ,मन्त्र ,गद्द्य कथनं आदि मानव को सुगम ज्ञान से पल्लवित करते आ रहे है |
वेद ,उपनिषद ,पुराण आदि जगत को सुसंस्कारो से सज्जनता आध्यात्मिक्ता परोपकारी गुणवान तथा महानता कि और अग्रसर कर रहे है |संस्कृतममय सभी ग्रन्थ संसार को देदीप्यमान ज्ञान से प्रकाशित कर रहे है |
संस्कृत काव्य दो भागों में विभाजित है --1 -गद्द्य 2-पद्य
पद्य भाग मे फिर दो उपभाग हो जाते है | खंड ,गीति
जो गेय पद बिना पाबंदी के गाये जाते है तथा नियमों की स्वतन्त्रता होती है उसे मुकतक कहते है जिसमे छंद दोष तुक अलंकार आदि से मुक्ति होती है मुक्तक के प्रत्येक शब्द में रसपेशलता होती है |
मोदक की तरह मिठास से भरे है |जन -जन के कानों को सुनने मजबूर कर देते है|
प्रबंध और मुक्तक के भेद से खण्ड काव्यो को दो प्रमुख भागों में बांटा गया है प्रबंध काव्य के की रचना के अंतर्गत रचनाकार एक अति अल्प कथा अंश को लेकर अपनी सहज आंतरिक प्रेरणा से भावगम्य होकर कल्पना के द्वारा विस्तारित रूप से आगे आयाम देता है |
जबकि मुक्तक काव्य संदर्भ आदि बाह्य वस्तुओं से मुक्त होकर स्वयं ही रसपेशल होता है | उसमें एक ही पद्य में रस की पूर्ण रसानुभूति हो जाती है एवं किसी- किसी विषय का सांगोपांग चित्रण होता है |
“पुर्वपर्निरपेक्षेनापि ही येन रसचर्वना क्रियते तदेव मुक्तंम् (ध्वन्यालोके)
रमणी –सोन्दर्य जितनी सुन्दरता एवं स्वभाविकता के साथ मुक्तको में प्रस्फुटित हुआ उतना अन्यत्र दुर्लभ है |
नारी के ह्रदय तथा रूप कि छटा के रंगीन –चित्रण किस रसिक के मानस पटल में मधुर प्रेम का झरना नहीं बहाते शृंगार की भिन्न –भिन्न अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण मुक्तकों की महती आवश्यकता है|
आलोचको की धारणा है की शृंगारिक मुक्तकों में इंद्रियोत्तेजक काम का ही अभिराम चित्रण है |
इस प्रकार की बाते आम है आलोचकों काम केवल दोष आरोपण करना है तह तक की जानकारी के बिना ही आक्षेपों का मंडन कर देते है |संस्कृत साहित्य के शृंगारिक काव्यों के बारे में आलोचकों की ऐसी धारणा है मुक्तकों के मधुर पेय कों कटु बताने में उनको आनंद की प्राप्ति होती है परंतु कभी हीरा कोयले की खान में छुपता है क्या वह अपने गुणों से स्वत:प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार मुक्तकों की मिठास और विदित गुणों कों सामान्य जन कों प्रभावित करने से कोई नहीं रोक सकता है |
आचार्य रुद्रट की यह उक्ति आलोचकों कों हमेशा याद रखनी चाहिए –
न हि कविना परदारा एष्टव्या नापि चोपदेष्टव्या :|
कर्तव्यतयान्येषाम् न च तदुपायोभिधातव्य: ||
किन्तु तदीयं वृत्तं कव्यांगतया स केवलं वक्ति |
आराधयितुं विदुषस्तेन न दोषः कवेरत्र ||
जिस प्रकार मेघदूत में कालिदास ने जैसे शक्कर ही घोल दी हो भृतहरि के त्रि शतकम ,अमरू शतकम आदि काव्य वक्ता, श्रोता पाठकगणो को आनंद के रस की अनुभूति कराते है क्योंकि यह भाषा तथा अर्थ की द्रष्टि से भावगम्य तथा सुंदरता से मधुसूक्त रस की तरह आमजन के मानस में टपकते रहते है |
अनेक आधुनिक कवियों ने तो इसी सुगम मुक्तक मार्ग को अपनी लेखनी का सशक्त मार्ग बना लिया है |
डा.रामदेव साहू द्वारा रचित मुक्तक काव्य "संसर्ग महात्म्यम "पर मुझे भी शोध करने का मौका मिला है |
इस विधा से प्रभावित होकर आचार्य उमेश नेपाल राजस्थान संस्कृत विश्वविध्यालय जयपुर राजस्थान के मार्गदर्शन में
"संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परायां संसर्गं माहात्म्यं "विषय पर विद्या निधि उपाधि प्राप्त कि अत:अनेक शोध कर्ता हर वर्ष अनेक विषयो पर शोध कार्य कर रहे है |
मुक्तक काव्य के शब्द स्वतः मुखारविंद से प्रकट होते है
यथा --वाल्मीकि के मुख से क्रोञ्च की घायल अवस्था से प्रकट प्रथम श्लोक---
मा निषादप्रतिष्ठामत्वमगम :शाश्वती: समा:|
यत्क्रोन्चमिथुनादेकमवधि: काममोहितं ||

महाभारते विविधानि मुक्तक काव्यानि राजसभायां जनसमाजे व श्राव्यन्ते स्म | समापर्वे निर्दिष्टं वर्तते --- "सामानि स्तुति गीतानि गाथाश्च विविधास्तथा |"
ध्वनिकार: कथितं ---- प्रबन्धे मुक्तके वापि रसादिन् बन्धुमि च्छ्ता|
यत्न: कार्य: सुमतिना परिहारे विरोधिनां ||
एवं संस्कृत साहित्ये मुक्तकानां लघुकव्यानां वा परम्परा श्रङ्गार नीति -वैराग्यादि विषयषु तरङ्गिणी प्रवहमाना भक्ति -जीवनादर्श -रागात्मतादिनाम निदर्शनानि प्रस्तोति |
कवि गण प्रभावित होकर अनेक ग्रन्थो कि रचना इसी मुक्तक परम्परा मे हुई ----
जयदेव कृत -गीतगोविन्दं ,बिल्हण कृत -चौरपंचशिका अर्थात अनेक रत्नाकर ग्रंथो की रचना हुई _
आचार्य रामदेव साहू कृत ---संसर्ग महात्म्यम श्लोका:
दोषास्तु दुष्टेषु स्वतो विशन्ति
गुणा विशन्ति प्रचुर प्रयत्नै : |
तथापि प्रोचु: कवयो विशिष्टं ,
संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ||
मुक्तक काव्य के हर पद में संगीत के सभी स्वर गुन्जायमन है ,सप्तपदी भ्रमरो कि मधुर ध्वनि ,कोयल कि वासंति आदि मधुरता प्रत्येक मानस का जीवन आनन्द से भर जाता है | इसलिए कवि सामान्य मुक्तकमय हो जाते है |

संदर्भित सूची ---
1-वाल्मीकि रामायण -आदिकाण्ड् गीता प्रेस गोरखपुर १९८०
2-महाभारत -सभापर्व चोखंभा विद्या भवन १९६३
3-ध्व्न्यलोक चोखंभा विद्या भवन वाराणसी
4-अमरु शतकं -हन्सा प्रकाशन


==== दृश्य काव्य ====
==== दृश्य काव्य ====

09:29, 16 मई 2015 का अवतरण

काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है।

काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो। अर्थात् वह कला जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं। पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है। इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है। साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है। उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है'। रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है।

काव्य- प्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो। चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य। महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए। उसमें शृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए। बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए। कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए। महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काब्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य दोटप्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं। गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं। कथा और आख्यायिका। चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है।

परिचय

सामान्यत: संस्कृत के काव्य-साहित्य के दो भेद किये जाते हैं-दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य शब्दों के अतिरिक्त पात्रों की वेशभूषा, भावभंगिमा, आकृति, क्रिया और अभिनय द्वारा दर्शकों के हृदय में रसोन्मेष कराता है। दृश्यकाव्य को 'रूपक' भी कहते हैं क्योंकि उसका रसास्वादन नेत्रों से होता है। श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। श्रव्यकाव्य में पद्य, गद्य और चम्पू काव्यों का समावेश किया जाता है। गत्यर्थक में पद् धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति की प्रधानता सूचित करता है। अत: पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पुन: पद्यकाव्य के दो उपभेद किये जाते हैं—महाकाव्य और खण्डकाव्य। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है—

खण्डाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण, ६/३२१

कवित्व के साथ-साथ संगीतात्कता की प्रधानता होने से ही इनको हिन्दी में ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इन सब तत्त्वों के सहयोग से संस्कृत मुक्तककाव्य को एक उत्कृष्ट काव्यरूप माना जाता है। मुक्तकाव्य महाकाव्यों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय हुए हैं।

संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण मेघदूत है। अधिकांश प्रबन्ध गीतिकाव्य इसी के अनुकरण पर लिखे गये हैं। मुक्तक वह हैजिसमें प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके सुन्दर उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द मधुर पदावली गीतिकाव्यों की विशेषता है। शृंङ्गार, नीति, वैराग्य और प्रकृति इसके प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। नारी के सौन्दर्य और स्वभाव का स्वाभाविक चित्रण इन काव्यों में मिलता है। उपदेश, नीति और लोकव्यवहार के सूत्र इनमें बड़े ही रमणीय ढंग से प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि मुक्तकाव्यों में सूक्तियों और सुभाषितों की प्राप्ति प्रचुरता से होती है।

मुक्तककाव्य की परम्परा स्फुट सन्देश रचनाओं के रूप में वैदिक युग से ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद में सरमा नामक कुत्ते को सन्देशवाहक के रूप में भेजने का प्रसंग है। वैदिक मुक्तककाव्य के उदाहरणों में वसिष्ठ और वामदेव के सूक्त, उल्लेखनीय हैं। रामायण, महाभारत और उनके परवर्ती ग्रन्थों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं। कदाचित् महाकवि वाल्मीकि के शाकोद्गारों में यह भावना गोपित रूप में रही है। पतिवियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति प्रेषित श्री राम के संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रेषित श्रीकृष्ण और सुन्दरी दयमन्ती के निकट राजा नल द्वारा प्रेषित सन्देशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाने वाले प्रसंग हैं। इस सन्दर्भ में भागवत पुराण का वेणुगीत विशेष रूप से उद्धरणीय है जिसकी रसविभोर करने वाली भावना छवि संस्कृत मुक्तककाव्यों पर अंकित है।

काव्य परिभाषा

कविता या काव्य क्या है इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है— आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद जैसे प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी वर्मा ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है, लकिन जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक सम्बंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

काव्य के भेद

काव्य के भेद दो प्रकार से किए गए हैं–

  • स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद और
  • शैली के अनुसार काव्य के भेद

स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद

स्वरूप के आधार पर काव्य के दो भेद हैं - श्रव्यकाव्य एवं दृष्यकाव्य।

श्रव्य काव्य

जिस काव्य का रसास्वादन दूसरे से सुनकर या स्वयं पढ़ कर किया जाता है उसे श्रव्य काव्य कहते हैं। जैसे रामायण और महाभारत

श्रव्य काव्य के भी दो भेद होते हैं - प्रबन्ध काव्य तथा मुक्तक काव्य।

प्रबंध काव्य

इसमें कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। जैसे रामचरित मानस

प्रबंध काव्य के दो भेद होते हैं - महाकाव्य एवं खण्डकाव्य।

1- महाकाव्य इसमें किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। महाकाव्य में ये बातें होना आवश्यक हैं-

  • महाकाव्य का नायक कोई पौराणिक या ऐतिहासिक हो और उसका धीरोदात्त होना आवश्यक है।
  • जीवन की संपूर्ण कथा का सविस्तार वर्णन होना चाहिए।
  • श्रृंगार, वीर और शांत रस में से किसी एक की प्रधानता होनी चाहिए। यथास्थान अन्य रसों का भी प्रयोग होना चाहिए।
  • उसमें सुबह शाम दिन रात नदी नाले वन पर्वत समुद्र आदि प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभाविक चित्रण होना चाहिए।
  • आठ या आठ से अधिक सर्ग होने चाहिए, प्रत्येक सर्ग के अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए तथा सर्ग के अंत में अगले अंक की सूचना होनी चाहिए।

2- खंडकाव्य इसमें किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक ही भाग का वर्णन होता है। खंड काव्य में ये बातें होना आवश्यक हैं-

  • कथावस्तु काल्पनिक हो।
  • उसमें सात या सात से कम सर्ग हों।
  • उसमें जीवन के जिस भाग का वर्णन किया गया हो वह अपने लक्ष्य में पूर्ण हो।
  • प्राकृतिक दृश्य आदि का चित्रण देश काल के अनुसार और संक्षिप्त हो।
मुक्तक

इसमें केवल एक ही पद या छंद स्वतंत्र रूप से किसी भाव या रस अथवा कथा को प्रकट करने में समर्थ होता है। गीत कवित्त दोहा आदि मुक्तक होते हैं।

शोध पत्रं संस्कृत मुक्तक काव्य कि आनन्दता का परिचय "संस्कृतमुक्तककाव्यपरम्परायां संसर्गंमाहात्म्यं "

किशन गोपाल मीना (साहित्याचार्य)विध्या निधि ,नेट शिक्षा शास्त्री ,एम ए हिन्दी संस्कृत शिक्षक केन्द्रीय विद्यालय सवाई माधोपुर (राजस्थान) संस्कृत भाषा प्रारंभ से हि सरस सुन्दर तथा मधुर गीर्वा के रूप में पाठको को अमृतपान से आनन्दित कर रही है |अमृतमय सूक्त ,श्लोक ,मन्त्र ,गद्द्य कथनं आदि मानव को सुगम ज्ञान से पल्लवित करते आ रहे है | वेद ,उपनिषद ,पुराण आदि जगत को सुसंस्कारो से सज्जनता आध्यात्मिक्ता परोपकारी गुणवान तथा महानता कि और अग्रसर कर रहे है |संस्कृतममय सभी ग्रन्थ संसार को देदीप्यमान ज्ञान से प्रकाशित कर रहे है | संस्कृत काव्य दो भागों में विभाजित है --1 -गद्द्य 2-पद्य पद्य भाग मे फिर दो उपभाग हो जाते है | खंड ,गीति जो गेय पद बिना पाबंदी के गाये जाते है तथा नियमों की स्वतन्त्रता होती है उसे मुकतक कहते है जिसमे छंद दोष तुक अलंकार आदि से मुक्ति होती है मुक्तक के प्रत्येक शब्द में रसपेशलता होती है | मोदक की तरह मिठास से भरे है |जन -जन के कानों को सुनने मजबूर कर देते है| प्रबंध और मुक्तक के भेद से खण्ड काव्यो को दो प्रमुख भागों में बांटा गया है प्रबंध काव्य के की रचना के अंतर्गत रचनाकार एक अति अल्प कथा अंश को लेकर अपनी सहज आंतरिक प्रेरणा से भावगम्य होकर कल्पना के द्वारा विस्तारित रूप से आगे आयाम देता है | जबकि मुक्तक काव्य संदर्भ आदि बाह्य वस्तुओं से मुक्त होकर स्वयं ही रसपेशल होता है | उसमें एक ही पद्य में रस की पूर्ण रसानुभूति हो जाती है एवं किसी- किसी विषय का सांगोपांग चित्रण होता है | “पुर्वपर्निरपेक्षेनापि ही येन रसचर्वना क्रियते तदेव मुक्तंम् (ध्वन्यालोके) रमणी –सोन्दर्य जितनी सुन्दरता एवं स्वभाविकता के साथ मुक्तको में प्रस्फुटित हुआ उतना अन्यत्र दुर्लभ है | नारी के ह्रदय तथा रूप कि छटा के रंगीन –चित्रण किस रसिक के मानस पटल में मधुर प्रेम का झरना नहीं बहाते शृंगार की भिन्न –भिन्न अवस्थाओं का मार्मिक चित्रण मुक्तकों की महती आवश्यकता है| आलोचको की धारणा है की शृंगारिक मुक्तकों में इंद्रियोत्तेजक काम का ही अभिराम चित्रण है | इस प्रकार की बाते आम है आलोचकों काम केवल दोष आरोपण करना है तह तक की जानकारी के बिना ही आक्षेपों का मंडन कर देते है |संस्कृत साहित्य के शृंगारिक काव्यों के बारे में आलोचकों की ऐसी धारणा है मुक्तकों के मधुर पेय कों कटु बताने में उनको आनंद की प्राप्ति होती है परंतु कभी हीरा कोयले की खान में छुपता है क्या वह अपने गुणों से स्वत:प्रतिबिम्बित होता है उसी प्रकार मुक्तकों की मिठास और विदित गुणों कों सामान्य जन कों प्रभावित करने से कोई नहीं रोक सकता है | आचार्य रुद्रट की यह उक्ति आलोचकों कों हमेशा याद रखनी चाहिए – न हि कविना परदारा एष्टव्या नापि चोपदेष्टव्या :| कर्तव्यतयान्येषाम् न च तदुपायोभिधातव्य: || किन्तु तदीयं वृत्तं कव्यांगतया स केवलं वक्ति | आराधयितुं विदुषस्तेन न दोषः कवेरत्र ||

जिस प्रकार मेघदूत में कालिदास ने जैसे शक्कर ही घोल दी हो भृतहरि के त्रि शतकम ,अमरू शतकम आदि काव्य वक्ता, श्रोता पाठकगणो को आनंद के रस की अनुभूति कराते है क्योंकि यह भाषा तथा अर्थ की द्रष्टि से भावगम्य तथा सुंदरता से मधुसूक्त रस की तरह आमजन के मानस में टपकते रहते है |

अनेक आधुनिक कवियों ने तो इसी सुगम मुक्तक मार्ग को अपनी लेखनी का सशक्त मार्ग बना लिया है | डा.रामदेव साहू द्वारा रचित मुक्तक काव्य "संसर्ग महात्म्यम "पर मुझे भी शोध करने का मौका मिला है | इस विधा से प्रभावित होकर आचार्य उमेश नेपाल राजस्थान संस्कृत विश्वविध्यालय जयपुर राजस्थान के मार्गदर्शन में "संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परायां संसर्गं माहात्म्यं "विषय पर विद्या निधि उपाधि प्राप्त कि अत:अनेक शोध कर्ता हर वर्ष अनेक विषयो पर शोध कार्य कर रहे है | मुक्तक काव्य के शब्द स्वतः मुखारविंद से प्रकट होते है यथा --वाल्मीकि के मुख से क्रोञ्च की घायल अवस्था से प्रकट प्रथम श्लोक---

                                        मा निषादप्रतिष्ठामत्वमगम :शाश्वती: समा:|
                                                                                                                                                                         
                                  यत्क्रोन्चमिथुनादेकमवधि: काममोहितं ||

महाभारते विविधानि मुक्तक काव्यानि राजसभायां जनसमाजे व श्राव्यन्ते स्म | समापर्वे निर्दिष्टं वर्तते --- "सामानि स्तुति गीतानि गाथाश्च विविधास्तथा |" ध्वनिकार: कथितं ---- प्रबन्धे मुक्तके वापि रसादिन् बन्धुमि च्छ्ता|

                                                           यत्न: कार्य: सुमतिना परिहारे विरोधिनां ||

एवं संस्कृत साहित्ये मुक्तकानां लघुकव्यानां वा परम्परा श्रङ्गार नीति -वैराग्यादि विषयषु तरङ्गिणी प्रवहमाना भक्ति -जीवनादर्श -रागात्मतादिनाम निदर्शनानि प्रस्तोति | कवि गण प्रभावित होकर अनेक ग्रन्थो कि रचना इसी मुक्तक परम्परा मे हुई ---- जयदेव कृत -गीतगोविन्दं ,बिल्हण कृत -चौरपंचशिका अर्थात अनेक रत्नाकर ग्रंथो की रचना हुई _ आचार्य रामदेव साहू कृत ---संसर्ग महात्म्यम श्लोका:

                                           दोषास्तु दुष्टेषु स्वतो विशन्ति 
                                           गुणा विशन्ति प्रचुर प्रयत्नै : |
                                           तथापि प्रोचु: कवयो विशिष्टं ,
                                          संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ||

मुक्तक काव्य के हर पद में संगीत के सभी स्वर गुन्जायमन है ,सप्तपदी भ्रमरो कि मधुर ध्वनि ,कोयल कि वासंति आदि मधुरता प्रत्येक मानस का जीवन आनन्द से भर जाता है | इसलिए कवि सामान्य मुक्तकमय हो जाते है |

संदर्भित सूची --- 1-वाल्मीकि रामायण -आदिकाण्ड् गीता प्रेस गोरखपुर १९८० 2-महाभारत -सभापर्व चोखंभा विद्या भवन १९६३ 3-ध्व्न्यलोक चोखंभा विद्या भवन वाराणसी 4-अमरु शतकं -हन्सा प्रकाशन

दृश्य काव्य

जिस काव्य की आनंदानुभूति अभिनय को देखकर एवं पात्रों से कथोपकथन को सुन कर होती है उसे दृश्य काव्य कहते हैं। जैसे नाटक में या चलचित्र में।

शैली के अनुसार काव्य के भेद

1- पद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन काव्य में किया जाता है, जैसे कामायनी

2- गद्य काव्य - इसमें किसी कथा का वर्णन गद्य में किया जाता है, जैसे रवींद्रनाथ टैगोर की गीतांजलि। गद्य में काव्य रचना करने के लिए कवि को छंद शास्त्र के नियमों से स्वच्छंदता प्राप्त होती है।

3- चंपू काव्य - इसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है। मैथिलीशरण गुप्त की 'यशोधरा' चंपू काव्य है।

काव्य का इतिहास

आधुनिक हिंदी पद्य का इतिहास लगभग ८०० साल पुराना है और इसका प्रारंभ तेरहवीं शताब्दी से समझा जाता है। हर भाषा की तरह हिंदी कविता भी पहले इतिवृत्तात्मक थी। यानि किसी कहानी को लय के साथ छंद में बांध कर अलंकारों से सजा कर प्रस्तुत किया जाता था। भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रंथ कविता में ही लिखे गए हैं। इसका विशेष कारण यह था कि लय और छंद के कारण कविता को याद कर लेना आसान था। जिस समय छापेखाने का आविष्कार नहीं हुआ था और दस्तावेज़ों की अनेक प्रतियां बनाना आसान नहीं था उस समय महत्वपूर्ण बातों को याद रख लेने का यह सर्वोत्तम साधन था। यही कारण है कि उस समय साहित्य के साथ साथ राजनीति, विज्ञान और आयुर्वेद को भी पद्य (कविता) में ही लिखा गया। भारत की प्राचीनतम कविताएं संस्कृत भाषा में ऋग्वेद में हैं जिनमें प्रकृति की प्रशस्ति में लिखे गए छंदों का सुंदर संकलन हैं। जीवन के अनेक अन्य विषयों को भी इन कविताओं में स्थान मिला है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

मेरे गीत स्वप्न गीत