"मानवाधिकार": अवतरणों में अंतर

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'''मानव अधिकारों''' से अभिप्राय "मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार है। अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं के उदाहरण के रूप में जिनकी गणना की जाती है, उनमें नागरिक और राजनीतिक अधिकारों, नागरिक और राजनैतिक अधिकार सम्मिलित हैं जैसे कि जीवन और आजाद रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के सामने समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार .
'''मानव अधिकारों''' से अभिप्राय "मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार है। अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं के उदाहरण के रूप में जिनकी गणना की जाती है, उनमें नागरिक और राजनीतिक अधिकारों, नागरिक और राजनैतिक अधिकार सम्मिलित हैं जैसे कि जीवन और आजाद रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के सामने समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार .

'''अपराध कानून और मानवाधिकार'''

मानवता के आरंभिक चरण में भी मनुष्य अपराधों का निवारण करता था । तथा वह स्वयं शत्रुओं से बदला लेता था इस कार्य में आवश्यकतानुसार उसके बंधू और मित्र भी सहयोग करते थे लेकिन इस अवस्था में प्रत्येक मनुष्य के प्राण हथेली पर रहते थे उस समय प्रत्येक मनुष्य अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश होता था और शारीरिक बल ही एकमात्र न्याय का मापदंड था इसलिए उस समय आवश्यक नही था कि अपराध के लिए निश्चित रूप से दंड दिया ही जाएगा अथवा निरपराध को अपनी सफाई में कुछ बोलने के अवसर या अधिकार प्राप्त होंगे ।
उस समय एक अपराध दुसरे अपराध को जन्म देता था और आनुषंगिक अपराध केवल अपराधी तक ही सीमित नही होता था बल्कि उसके साथ उसके परिवार एवं उसके कबीलों को भी प्रतिरोध का शिकार बनना पड़ता था इस तरह समूहों और कबीलों में संघर्ष छिड़ जाता था जो कई व्यक्तियों और उसके संबंधियों को प्रभावित करता था तथा साथ ही कई-कई पीढियों तक चलता रहता था यह संघर्ष व्यापक रूप से कष्टकारी एवं विध्वंसकारी एवं रक्तरंजित होता था सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही इस न्याय के मापदंड में बदलाव आया इन संघर्षों में होने वाली क्षति की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की गई यहाँ तक कि हत्या तक के मामलों में मरने वाले व्यक्ति के संबंधियों को उस व्यक्ति के महत्व के अनुसार रक्त द्रव्य के रूप में धन अदा किया जाने लगा इस प्रकार न्याय प्रशासन ने निश्चित नियमों के तहत एक निश्चित दिशा की तरफ़ कदम बढाया ।
इसके बाद राज्य के उदय होने के साथ ही आपराधिक प्रशासन में भी परिवर्तन आया तथा अपराध नियंत्रण का अधिकार व्यक्ति के हांथों से निकल कर राज्य के हांथों में चला गया उस युग की यह धारणा थी कि अपराध का सम्बन्ध केवल अपराधी और उससे आहत व्यक्ति तक ही सीमित है धूमिल पड़ने लगा और यह भावना कि समाज विरोधी कार्य केवल व्यक्ति के विरुद्ध ही नही वरन राज्य के विरुद्ध अपराध है प्रबल होती गई ।
मनुष्य जब सामाजिक जीवन व्यतीत करना शुरू किया है तभी से समाज में अपराध भी अनेक रूपों से अस्तित्व में आया अन्तर केवल इतना है मानव समाज के विकास के साथ-साथ विकास के अर्थों तथा प्रारूपों में अन्तर होता चला गया दुसरे अन्य व्यवहारों की भांति आपराधिक व्यवहार भी मानव व्यवहार का अंग बन गया इसीलिए मानव व्यवहार का ही एक अंग होने के कारण सामाजिक नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों में परिवर्तन के साथ-साथ यह भी बदलता चला गया अर्थात अपराध की अवधारणा अपराध के कारण, प्रकार व करने के ढंग की सभ्यता के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते चले गए ।
इस तरह यह मानने से इंकार नही किया जा सकता कि अपराध एक वास्तविक सामाजिक समस्या है जिसकी प्रवित्ति को समझना तथा उसके विरोध का उपाय करना प्रत्येक समाज का कर्तव्य है मानव समाज में सायद ही कभी ऐसा समय रहा हो जबकि अपराध का अस्तित्व न रहा हो । भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग भी अपराधों से विषाक्त थे यह कहा जाता है कि उस समय लोग चोरी नही करते थे इस लिए उस समय लोग अपने घरों में ताले नही लगाते थे लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही कि उस समय लोग चोरी नही करते थे वास्तविकता यह थी कि उस समय कानून बहुत कठोर थे तथा उसका पालन भी शक्ति से किया जाता था लेकिन आज तो अपराध निरंतर अबाध गति से बढ़ते ही जा रहे है साधारण तथा सर्वत्र अपराध की प्रवित्ति भी बढ़ती जा रही है ।
अपराधों को रोकने के लिए रोज नये-नये उपाय किए जाने के बावजूद भी उसमे निरंतर बढोत्तरी ही हो रही है जिसे देखते हुए प्रो टेटन बाम का कथन संभवतः सही प्रतीक होता है कि "अपराध को समाज से अलग नही किया जा सकता" इसी प्रकार के विचार फ्रांसीसी समाज शास्त्री दुर्खिम ने व्यक्त किए है कि "पाप के समान अपराध भी समाज की एक सामान्य घटना है और मनुष्य द्वारा निर्मित कानून और प्रथाये असामान्य" दुर्खिम ने अपराध को समाज के लिए उपयोगी बताते हुए कहा है कि अपराध समाज के लिए आवश्यक है सामाजिक जीवन की आधार भूत दशाओं से संबंधित होने के कारण यह इसके लिए उपयोगी भी है "।
ठीक इसी प्रकार डा परिपूर्णानन्द वर्मा का कथन है कि "अपराध हीन समाज कल्याण से परे की वस्तु है । जब नियम बनेंगें तो उसको तोड़ने वाले भी पैदा होंगे नियम की रचना समाज की रचना के साथ होती है दोनों एक दुसरे के साथ साधन और साध्य के समान मिले हुए है अतः इस संबंध में कुछ भी नई बात या नया निदान खोज निकलने का प्रयत्न करना अनंत यात्रा करना है निष्कलंक मनुष्य अथवा निष्कलंक समाज सायद ही कभी मिले चूँकि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते है इस लिए हमें केवल भगवान ही निष्कलंक तथा पाप-पुण्य से परे नजर आता है जो लोग प्रभु की सत्ता को नहीं मानते उनके लिए तो यह सहारा भी नही है ।
यद्यपि अपराध समाज की एक अमूर्त अवधारणा है लेकिन कोई भी ऐसा समाज नही है जिसमें किसी न किसी रूप में प्रत्येक काल में अपराध विद्यमान न रहा हो इसलिए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक काल्पनिक एवं मिथ्या समाज को छोड़ कर अपराध को विल्कुल मिटाया नहीं जा सकता ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता ने उन्नति की है यह अनुभव किया जाने लगा है कि समाज में कुछ लोग ऐसा व्यवहार करते है जिसके कारण सामाजिक हितों को चोट पहुंचती है । इस प्रकार के कृत्य केवल सामाजिक एकता एवं संगठन को ही नुकसान नहीं पहुँचाते वरन उसके अस्तित्व को ही खतरा पैदा कर देते है ।
अपराध की परिभाषा :
साधारण बोल-चाल की भाषा में "अपराध" शब्द का अभिप्राय उस कार्य से है जिसे समाज अनैतिक व अनुचित मानता है और समझता है तथा जिसको सामाजिक शान्ति का विनाशक मानता है प्रत्येक समाज की निश्चित व्यवस्था होती है इस व्यवस्था के बने रहने में ही अधिकाधिक समाज कल्याण की आशा की जा सकती है तथा समाज भी प्रगति की दिशा की ओर बढ़ सकता है इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ वैधानिक प्रतिमान बना दिए जाते है जिसके पालन पर ही समाज की आन्तरिक संरचना और बाहरी व्यवस्था निर्भर करती है जो व्यक्ति इन नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों के विरुद्ध आचरण करते है और समाज की व्यवस्था को धक्का पहुचाते है तथा सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न करने का खतरा पैदा करते है उनके इस विशेष व्यवहार को अपराध कहा जाता है ।
लेकिन अगर इसको वास्तविक रूप से समझा जाए तो इसका अर्थ बहुत व्यापक है जिसकी व्याख्या करना बडा कठिन कार्य है वस्तुतः समाज विरोधी व्यवहार ही अपराध है जिन समाजों में कानून की विकसित व्यवस्था होती है वहां उसी आचरण को अपराध कहते है जो कि कानून की दृष्टि में अपराध है, कानून का उल्लंघन है इसी प्रकार जिन समुदायों में आचरण संहिता का बोलबाला होता है उसमे नैतिकता के नियमों का उल्लंघन अपराध कहलाता है इस विषय पर अटेबरी व हंट का कहना है कि "अपराध वह कार्य है जो कि किसी निर्दिष्ट समय में अथवा निर्दिष्ट स्थान पर किसी समूह के पूर्व स्थापित व्यवहारों का विरोध करता है" जब अपराध की व्याख्या समाज विरोधी व्यवहार के रूप में की जाती है । तो इसका आरंभ वास्तव में अनैतिक अथवा अवांछनीय अथवा अपेक्षित व्यवहार के रूप में की जाती है परन्तु क्या सभी नैतिक मूल्यों को प्रभावित करने वाले कृत्य अपराध है ? उदाहरण के तौर पर बच्चे द्वारा माता पिता की आज्ञा का पालन न करना नैतिकता के खिलाफ तो हो सकता है लेकिन क्या इसे अपराध कहा जा सकता है ? संभवतः नहीं ।


== इतिहास ==
== इतिहास ==

08:53, 24 मार्च 2015 का अवतरण

मानव अधिकारों से अभिप्राय "मौलिक अधिकारों एवं स्वतंत्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार है। अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं के उदाहरण के रूप में जिनकी गणना की जाती है, उनमें नागरिक और राजनीतिक अधिकारों, नागरिक और राजनैतिक अधिकार सम्मिलित हैं जैसे कि जीवन और आजाद रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के सामने समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार .

अपराध कानून और मानवाधिकार

मानवता के आरंभिक चरण में भी मनुष्य अपराधों का निवारण करता था । तथा वह स्वयं शत्रुओं से बदला लेता था इस कार्य में आवश्यकतानुसार उसके बंधू और मित्र भी सहयोग करते थे लेकिन इस अवस्था में प्रत्येक मनुष्य के प्राण हथेली पर रहते थे उस समय प्रत्येक मनुष्य अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश होता था और शारीरिक बल ही एकमात्र न्याय का मापदंड था इसलिए उस समय आवश्यक नही था कि अपराध के लिए निश्चित रूप से दंड दिया ही जाएगा अथवा निरपराध को अपनी सफाई में कुछ बोलने के अवसर या अधिकार प्राप्त होंगे । उस समय एक अपराध दुसरे अपराध को जन्म देता था और आनुषंगिक अपराध केवल अपराधी तक ही सीमित नही होता था बल्कि उसके साथ उसके परिवार एवं उसके कबीलों को भी प्रतिरोध का शिकार बनना पड़ता था इस तरह समूहों और कबीलों में संघर्ष छिड़ जाता था जो कई व्यक्तियों और उसके संबंधियों को प्रभावित करता था तथा साथ ही कई-कई पीढियों तक चलता रहता था यह संघर्ष व्यापक रूप से कष्टकारी एवं विध्वंसकारी एवं रक्तरंजित होता था सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही इस न्याय के मापदंड में बदलाव आया इन संघर्षों में होने वाली क्षति की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था की गई यहाँ तक कि हत्या तक के मामलों में मरने वाले व्यक्ति के संबंधियों को उस व्यक्ति के महत्व के अनुसार रक्त द्रव्य के रूप में धन अदा किया जाने लगा इस प्रकार न्याय प्रशासन ने निश्चित नियमों के तहत एक निश्चित दिशा की तरफ़ कदम बढाया । इसके बाद राज्य के उदय होने के साथ ही आपराधिक प्रशासन में भी परिवर्तन आया तथा अपराध नियंत्रण का अधिकार व्यक्ति के हांथों से निकल कर राज्य के हांथों में चला गया उस युग की यह धारणा थी कि अपराध का सम्बन्ध केवल अपराधी और उससे आहत व्यक्ति तक ही सीमित है धूमिल पड़ने लगा और यह भावना कि समाज विरोधी कार्य केवल व्यक्ति के विरुद्ध ही नही वरन राज्य के विरुद्ध अपराध है प्रबल होती गई । मनुष्य जब सामाजिक जीवन व्यतीत करना शुरू किया है तभी से समाज में अपराध भी अनेक रूपों से अस्तित्व में आया अन्तर केवल इतना है मानव समाज के विकास के साथ-साथ विकास के अर्थों तथा प्रारूपों में अन्तर होता चला गया दुसरे अन्य व्यवहारों की भांति आपराधिक व्यवहार भी मानव व्यवहार का अंग बन गया इसीलिए मानव व्यवहार का ही एक अंग होने के कारण सामाजिक नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों में परिवर्तन के साथ-साथ यह भी बदलता चला गया अर्थात अपराध की अवधारणा अपराध के कारण, प्रकार व करने के ढंग की सभ्यता के विकास के साथ-साथ परिवर्तित होते चले गए । इस तरह यह मानने से इंकार नही किया जा सकता कि अपराध एक वास्तविक सामाजिक समस्या है जिसकी प्रवित्ति को समझना तथा उसके विरोध का उपाय करना प्रत्येक समाज का कर्तव्य है मानव समाज में सायद ही कभी ऐसा समय रहा हो जबकि अपराध का अस्तित्व न रहा हो । भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग भी अपराधों से विषाक्त थे यह कहा जाता है कि उस समय लोग चोरी नही करते थे इस लिए उस समय लोग अपने घरों में ताले नही लगाते थे लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नही कि उस समय लोग चोरी नही करते थे वास्तविकता यह थी कि उस समय कानून बहुत कठोर थे तथा उसका पालन भी शक्ति से किया जाता था लेकिन आज तो अपराध निरंतर अबाध गति से बढ़ते ही जा रहे है साधारण तथा सर्वत्र अपराध की प्रवित्ति भी बढ़ती जा रही है । अपराधों को रोकने के लिए रोज नये-नये उपाय किए जाने के बावजूद भी उसमे निरंतर बढोत्तरी ही हो रही है जिसे देखते हुए प्रो टेटन बाम का कथन संभवतः सही प्रतीक होता है कि "अपराध को समाज से अलग नही किया जा सकता" इसी प्रकार के विचार फ्रांसीसी समाज शास्त्री दुर्खिम ने व्यक्त किए है कि "पाप के समान अपराध भी समाज की एक सामान्य घटना है और मनुष्य द्वारा निर्मित कानून और प्रथाये असामान्य" दुर्खिम ने अपराध को समाज के लिए उपयोगी बताते हुए कहा है कि अपराध समाज के लिए आवश्यक है सामाजिक जीवन की आधार भूत दशाओं से संबंधित होने के कारण यह इसके लिए उपयोगी भी है "। ठीक इसी प्रकार डा परिपूर्णानन्द वर्मा का कथन है कि "अपराध हीन समाज कल्याण से परे की वस्तु है । जब नियम बनेंगें तो उसको तोड़ने वाले भी पैदा होंगे नियम की रचना समाज की रचना के साथ होती है दोनों एक दुसरे के साथ साधन और साध्य के समान मिले हुए है अतः इस संबंध में कुछ भी नई बात या नया निदान खोज निकलने का प्रयत्न करना अनंत यात्रा करना है निष्कलंक मनुष्य अथवा निष्कलंक समाज सायद ही कभी मिले चूँकि हम ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते है इस लिए हमें केवल भगवान ही निष्कलंक तथा पाप-पुण्य से परे नजर आता है जो लोग प्रभु की सत्ता को नहीं मानते उनके लिए तो यह सहारा भी नही है । यद्यपि अपराध समाज की एक अमूर्त अवधारणा है लेकिन कोई भी ऐसा समाज नही है जिसमें किसी न किसी रूप में प्रत्येक काल में अपराध विद्यमान न रहा हो इसलिए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि एक काल्पनिक एवं मिथ्या समाज को छोड़ कर अपराध को विल्कुल मिटाया नहीं जा सकता ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता ने उन्नति की है यह अनुभव किया जाने लगा है कि समाज में कुछ लोग ऐसा व्यवहार करते है जिसके कारण सामाजिक हितों को चोट पहुंचती है । इस प्रकार के कृत्य केवल सामाजिक एकता एवं संगठन को ही नुकसान नहीं पहुँचाते वरन उसके अस्तित्व को ही खतरा पैदा कर देते है । अपराध की परिभाषा : साधारण बोल-चाल की भाषा में "अपराध" शब्द का अभिप्राय उस कार्य से है जिसे समाज अनैतिक व अनुचित मानता है और समझता है तथा जिसको सामाजिक शान्ति का विनाशक मानता है प्रत्येक समाज की निश्चित व्यवस्था होती है इस व्यवस्था के बने रहने में ही अधिकाधिक समाज कल्याण की आशा की जा सकती है तथा समाज भी प्रगति की दिशा की ओर बढ़ सकता है इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ वैधानिक प्रतिमान बना दिए जाते है जिसके पालन पर ही समाज की आन्तरिक संरचना और बाहरी व्यवस्था निर्भर करती है जो व्यक्ति इन नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों का पालन नहीं करते अथवा दुसरे शब्दों में जो व्यक्ति समाज के नियमों, आदर्शों एवं मूल्यों के विरुद्ध आचरण करते है और समाज की व्यवस्था को धक्का पहुचाते है तथा सामाजिक संगठन को छिन्न-भिन्न करने का खतरा पैदा करते है उनके इस विशेष व्यवहार को अपराध कहा जाता है । लेकिन अगर इसको वास्तविक रूप से समझा जाए तो इसका अर्थ बहुत व्यापक है जिसकी व्याख्या करना बडा कठिन कार्य है वस्तुतः समाज विरोधी व्यवहार ही अपराध है जिन समाजों में कानून की विकसित व्यवस्था होती है वहां उसी आचरण को अपराध कहते है जो कि कानून की दृष्टि में अपराध है, कानून का उल्लंघन है इसी प्रकार जिन समुदायों में आचरण संहिता का बोलबाला होता है उसमे नैतिकता के नियमों का उल्लंघन अपराध कहलाता है इस विषय पर अटेबरी व हंट का कहना है कि "अपराध वह कार्य है जो कि किसी निर्दिष्ट समय में अथवा निर्दिष्ट स्थान पर किसी समूह के पूर्व स्थापित व्यवहारों का विरोध करता है" जब अपराध की व्याख्या समाज विरोधी व्यवहार के रूप में की जाती है । तो इसका आरंभ वास्तव में अनैतिक अथवा अवांछनीय अथवा अपेक्षित व्यवहार के रूप में की जाती है परन्तु क्या सभी नैतिक मूल्यों को प्रभावित करने वाले कृत्य अपराध है ? उदाहरण के तौर पर बच्चे द्वारा माता पिता की आज्ञा का पालन न करना नैतिकता के खिलाफ तो हो सकता है लेकिन क्या इसे अपराध कहा जा सकता है ? संभवतः नहीं ।

इतिहास

अनेक प्राचीन दस्तावेजों एवं बाद के धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में ऐसी अनेक अवधारणाएं है जिन्हें मानवाधिकार के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। ऐसे प्रलेखों में उल्लेखनीय हैं अशोक के आदेश पत्र, मुहम्मद (saw) द्वारा निर्मित मदीना का संविधान (meesak-e-madeena) आदि

आधुनिक मानवाधिकार कानून तथा मानवाधिकार की अधिकांश अपेक्षाकृत व्यवस्थाएं समसामयिक इतिहास से संबंध हैं। द ट्वेल्व आर्टिकल्स ऑफ़ द ब्लैक फॉरेस्ट (1525) को यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज़ माना जाता है। यह जर्मनी के किसान - विद्रोह (Peasants' War) स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गई किसानों की मांग का ही एक हिस्सा है। ब्रिटिश बिल ऑफ़ राइट्स ने युनाइटेड किंगडम में सिलसिलेवार तरीके से सरकारी दमनकारी कार्रवाइयों को अवैध करार दिया. 1776 में संयुक्त राज्य में और 1789 में फ्रांस में 18 वीं शताब्दी के दौरान दो प्रमुख क्रांतियां घटीं. जिसके फलस्वरूप क्रमशः संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा एवं फ्रांसीसी मनुष्य की मानव तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा का अभिग्रहण हुआ। इन दोनों क्रांतियों ने ही कुछ निश्चित कानूनी अधिकार की स्थापना की. कोइ भी देस अप्नी "मानवाधिकारों" को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है। ये समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या वाकई में मानवाधिकारों की सार्थकता है। यह कितना दुर्भाग्यपू्‌र्ण है कि तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठनों के बावजूद मानवाधिकारों का परिदृश्य तमाम तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं से भरा पड़ा है। किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है मानवाधिकार है। भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है।

भारत में मानव अधिकार विचारधारा का विकास

मानव अधिकार विचारधारा के विकास का क्रम भारत में आज से लगभग ९००० वर्ष (७३२३ ईसा पूर्व) पहले शुरू हुआ माना जाता है भारत के राज्य अयोध्या, प्राचीन काल में इसे कौशल देश कहा जाता था, के राजा रामचंद्र नें रावण और अन्य आततायी राजाओं का संहार कर रामराज्य की स्थापना की एवं द्वारका जोकि भारत के पश्चिम में समुद्र के किनारे पर बसी है, हजारों वर्ष पूर्व श्री कॄष्ण ने इसे बसाया था कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर उन्होने द्वारका में ही बैठकर सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। कंस शिशुपाल और दुर्योधन जैसे आततायी अधर्मी राजाओं को नष्ट कर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की एवं नागरिकों के अधिकार उन्हें दिलाया । भगवान महावीर ( ५९९ ईसा पूर्व से २२७ ईसा पूर्व ) एवं भगवान बुद्ध ५६३ ईसा पूर्व के कालखंड में अधिकारों के अवधारणा की रचना की जिसमें सत्य, अहिंसा और समता मुख्य थे । इसी तरह यूनान में ( ४६९ से ३९९ ईसा पूर्व ) विख्यात दार्शनिक सुकरात का नाम आता है । सुकरात नें अपने अनुयाइयों को आत्मानुसंधान के बारे में तथा सत्य न्याय एवं इमानदारी का अवलंबन करने के बारे में बताया । हालाँकि तत्कालीन यूनानी शासकों नें सुकरात के उपदेशों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया पर सफल न होने पर उन्होंने सुकरात को विषपान कर अपनी इहलीला समाप्त करने का आदेश दिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस प्रबल पैरोकार नें विषपान कर अपनी इहलीला तो समाप्त कर ली किन्तु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आंच नहीं पहुचने दी इसके बाद सुकरात का शिष्य प्लेटो (४२८ ईसा पूर्व से ४२७ ईसा पूर्व ) प्लेटो का शिष्य अरस्तु (३८४ ईसा पूर्व से ३२२ ईसा पूर्व ) इन महान यूनानी दार्शनिकों नें तमाम मानवीय अधिकारों की व्याख्या की । इधर भारत में आगे चलकर सम्राट अशोक नें भगवान बुद्ध और भगवान महावीर के (धार्मिक) अवधारणाओं को लेकर उसे राजनीतिक रूप दिया और यह सब सम्राट अशोक नें कलिंग की लडाई के पश्चात् उसमे हुए नरसंहार से दुखी होकर मानव गरिमा को अच्छुण बनाये रखने के प्रयास के तहत किया । सम्राट अशोक का कार्यकाल ईसा पूर्व २७३ से २३२ तक बताया जाता है इसके पश्चात् मानवीय अधिकारों को केंद्रविन्दु मानकर विश्व में तमाम क्रांतियाँ हुई जिसमें १२१५ ईसवी में मैग्नाकार्टा, १७९१ अमेरिकी बिल ऑफ राइट्स, तथा मानव अधिकारों को व्यापक गरिमा फ्रांसीसी क्रांति (१७८९ ) के पश्चात प्राप्त हुई । अमेरिका में जाँ जैक के संविदा सिद्धांत से प्रेरित क्रांति के समय संविधान सभा नें यह घोषणा की थी कि अमेरिकी संविधान निर्मित होने पर सबसे पहले मानव अधिकारों का उल्लेख किया जाएगा यह घोषणा वास्तव में जार्ज वाशिंगटन के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वतंत्रता की घोषणा ( सन १७७८ ई०) के सिद्धांतों से प्रेरित थी । इसमें कोई दो राय नही कि भारत के आजादी की लडाई मानवीय अधिकारों के मूल्यों पर लड़ी गई । महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता के रूप में उभरे वे सत्याग्रह, अत्याचार के प्रतिकार एवं अहिंसा ( उन्होंने ये सभी अवधारणाए महावीर और बुद्ध के (धार्मिक) अवधारणाओं से उठाया ) और इसी का आजादी की लडाई में हथियार के रूप में इस्तेमाल किया तत्कालीन भारतीयों के दिलों-दिमाग पर छा गये सत्याग्रह, अत्याचार के प्रतिकार एवं अहिंसा रूपी हथियार इतनें कारगर साबित हुए कि आज भी समूची दुनिया महात्मा गांधी के इस प्रयोग का लोहा मानती है । देश के आजाद होनें के पश्चात सम्राट अशोक से प्रभावित हमारे तत्कालीन नेतागण भारतीय संविधान में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक के अवधारणाओं को मौलिक अधिकारों के रूप में शामिल किया इतना ही नहीं हमारे देश के तत्कालीन नेतागण दो कदम और आगे जाकर अशोक चक्र को राष्ट्रीय चिन्ह एवं अशोक स्तम्भ को राष्ट्रीय मुद्रा चिन्ह के रूप में स्वीकृत किया । जानकारों के मुताबिक तमाम देशों के संविधान में भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक के अवधारणाओं एवं मूल्यों को शामिल किया गया है । इतना ही नहीं हर विषय पर पश्चिमी देशों की तरफ देखने वालों और तमाम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को शायद ही यह पता हो कि संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को हुई थी उसका मूल भगवान बुद्ध और भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक की अवधारणाए एवं मूल्य ही है । जब हम मानवीय अधिकारों के अवधारणा के विकास का गहराई से अध्ययन करते है तब हमें मानव अधिकारों के विकास में प्राचीन भारत के राजा रामचंद्र, राजा कृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर एवं सम्राट अशोक से लेकर महात्मा गांधी के योगदान की अद्वितीय गाथा का पता चलता है किन्तु शायद इस बात से अनजान या जानते हुए कि पुरी दुनिया भारतीय महापुरुषों द्वारा निर्मित मानवीय अधिकारों के अवधारणाओं एवं मूल्यों को स्वीकार्य एवं अंगीकृत किया है । भारत सरकार नें संयुक्त राष्ट्रसंघ के दबाव में आकर मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम १९९३ तो संसद में किसी तरह पास कर दिया किन्तु सरकार मानव अधिकारों की गरिमा को अच्छुण बनाये रखने के प्रति कितनी उदासीन है, दिखाई देता है । भारत देश जिसका संविधान समतावाद के सिद्धांत पर आधारित है, आज उस परिमाण में असमानतावाद का गवाह है जो औपनिवेशिक शासन के दौरान भी नहीं देखी गई। आज जो देश विश्व के अरबपतियों की सूची में चौथे स्थान पर है, मानव विकास के मामले में वही 126वें स्थान पर है। ऐसा माना जा रहा था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विकास का चक्का तेजी से घूमने लगेगा और सभी को समान अवसर प्राप्त हो सकेंगे, जिससे संतुलित विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। लेकिन इस तरह की विषमता आज क्यों देखने को मिल रही है, इस बात को लेकर विचार करने का समय आ गया है। हमारे मानवाधिकार

________________________________________ 1. मानवाधिकार की सुरक्षा के बिना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी खोखली है| मानवाधिकार की लड़ाई हम सभी की लड़ाई है| 2. विश्वभर मैं नस्ल, धर्म, जाति के नाम मानव द्वारा मानव का शोषण हो रहा है| अत्याचार एवम जुल्म के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं| 3. हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् धर्म एवम जाति के नाम पर भारतवासियों को विभाजित करने का प्रयास किया जा रहा है| 4. आदमी गौर हो या काला, हिन्दू हो या मुस्लमान, सिख हो या ईसाई, हिंदी बोले या कोई अन्य भाषा सभी केवल इंसान हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित मानवाधिकारों को प्राप्त करने का अधिकार है| 5. मानव अधिकार का मतलब ऐसे हक़ जो हमारे जीवन और मान-सम्मान से जुड़े हैं| 6. ये हक़ हमें जन्म से मिलते हैं, हम सब आज़ाद हैं| 7. साफ़ सुथरे माहौल मैं रहना हमारा हक़ है | 8. हमें इलाज़ की अच्छी सहूलियत मिले| 9. हमें और हमारे बच्चों को पढाई-लिखाई की अच्छी सहूलियत मिले| 10. पीने का पानी साफ मिले| 11. जाति, धर्म, भाषा-बोली के कारण हमारे साथ भेदभाव न हो| 12. हमें हक़ है की हम सम्मान के साथ रहें| 13. कोई हमें अपना दस या गुलाम नहीं बना सके| 14. प्रदेश में हम कहीं भी बेरोकटोक आना-जाना कर सकते हैं| 15. हम बेरोकटोक बोल सकते हैं, लेकिन हमारे बोलने से किसी के मान-सम्मान को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए| 16. हमें आराम करने का अधिकार है| 17. हमें यह तय करने का अधिकार है की हमारे बच्चे को किस तरह की शिक्षा मिले| 18. हर बच्चे को जीने का अधिकार है, उसे अच्छी तरह की शिक्षा मिले| 19. यदि हमें हमारा हक़ दिलाने मैं सरकारी महकमा हमारी मदद नहीं कर रहा है तो हम मानव अधिकार आयोग में शिकायत कर सकते हैं| 20. आयोग में सीधे अर्जी देकर शिकायत कर सकते हैं| 21. इसके लिए वकील की जरूरत नहीं है| 22. शिकायत किसी भी भाषा या बोली में कर सकते हैं हिंदी में हो तो अच्छा है| 23. शिकायत लिखने के लिए कैसे भी कागज़ का इस्तेमाल करें, स्टैम्प पेपर की कोई जरूरत नहीं होती| 24. आयोग के दफ्तर में टेलीफोन नम्बर पर भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं|

मानव अधिकार एक समस्या पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप की सभी प्राचीन सभ्यताओं में मानव समाज के कलंक 'दासता' (slavery) की भयावह प्रथा प्रचलित थी। विशेष रीति से जो साम्राज्य एवं सभ्यताएँ तलवार के बल से कायम हुईं, टिकीं और बड़ी बनीं, उनमें इस अत्याचारी प्रथा का नंगा नाच देखा जा सकता है। दासों (गुलामों) के व्यापक शोषण एवं उत्पीड़न से, उनके पसीने एवं रक्त से, कम-अधिक मात्रा में सने हैं इन सभ्यताओं के रंगमहल। उसी से बनी पश्चिमी जीवन की इमारत। अरब और मुसलिम जगत, यूनान, रोम, भूमध्य सागर के चारों ओर के अन्य देशों में और अंत में यूरोपीय देशों की उपनिवेश तथा साम्राज्य-लिप्सा द्वारा पश्चिमी एशिया, यूरोप, अफ्रीका और उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका में इस घोर गर्हित प्रथा की काली घटा छाई।


कबीलों का सादा जीवन (जैसा आस्ट्रेलिया और अमेरिका के आदिम निवासियों में पाया गया) दास प्रथा से अपरिचित था। पर पश्चिमी सभ्यता में संघर्ष तथा युद्घ आया और तज्जनित कृषि एवं उद्योंगों में श्रमिकों की आवश्यकता। तब युद्घबंदियों का मजदूर के रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ। संभवतया उसी में इस निंदनीय प्रथा का जन्म उस समाज में हुआ जहाँ बर्बर अवस्था से उबरना न हो सका था, न सामाजिक जीवन-दर्शन उत्पन्न हुआ, न मानव-मूल्यों की कल्पना आई।


दास पाने का प्रमुख स्त्रोत युद्घबंदी थे। इसके अतिरिक्त दीन माता-पिता कभी नितांत विपत्ति अथवा संकट में अपनी संतान को, या ऋण चुका सकने में असमर्थ व्यक्ति अपने को दास के रूप में उपस्थित करता था। दासों का क्रय-विक्रय यूनान, साइप्रस, रोम, अरब और पश्चि के बाजारों में साधारण घटना थी। यहाँ एशियाई, अफ्रीकी तथा यूरोपीय दासों का सौदा होता था। यूनान में दास बहुत बड़ा संख्या में थे। कहते हैं, अकेले एथेंस में उनकी संख्या स्वतंत्र नागरिकों से अधिक थी। होमर के महाकाव्य 'इलियड' तथा 'ओडेसी' में उनका वर्णन आता है।


रोम साम्राज्य का प्रारंभ तथा प्रसार सैन्य बल पर हुआ था। वहाँ दास प्रथा पराकाष्ठा पर पहुँची। इस प्रथा के नियम रोमन विधि के विशिष्ट अंग थे। जिस कार्थेज (Carthage) को फणीशियों ( Phoenicians) (संभवतया यह पुराणों में वर्णित पणि या नाग जाति है) ने उत्तरी अफ्रीका के सुरक्षित तट पर विक्रम पूर्व नौवीं-आठवीं शताब्दी में बसाया, उसके साथ युद्घ-श्रंखला के चलते रोम में श्रमिकों की कमी हो गई। तब युद्घबंदियों से दासों की भाँति काम करवाने से यह प्रथा निर्ममता के शिखर छूने लगी। कहते हैं, उस समय कुछ प्रमुख बाजारों में दस हजार दासों का प्रतिदिन सौदा होता था। मनोरंजन के लिए भी दासों को शस्त्रों से अथवा कठघरे में रखे बए हिंस्र पशु से युद्घ करना पड़ता था, जिनमें घायल होना एवं मृत्यु साधारण बात थी।


ऎसी दशा में विक्रम संवत् पूर्व प्रथम शताब्दी में रोम के विरूद्घ दास-विद्रोह प्रारंभ हुए। एक समय दक्षिण इटली दासों के हाथ में चला गया। इधर साम्राज्य का विस्तार और उसके लिए युद्घ बंद हो गए। तब दासों का मिलना कम हो गया। रोमन साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण यह दास प्रथा कही जाती है। दास का अपने उत्पीड़न के आधार पर खड़ी व्यवस्था से कोई लगाव न था। रोमन साम्राज्य के समाप्त होते ही दास प्राप्त करने के लिए छापे तथा आक्रमण कम हो गए और दास प्रथा में कमी आई।


पर यूरोप में यह दास प्रथा चौदहवीं शताब्दी तक सामान्यतया चलती रही। अब दास अधिकांशत: 'स्लाव' (Slav); देश से मिलते थे। इसी से अंग्रेजी में दासता के लिए 'स्लेवरी' शब्द प्रयोग होता है। चौदहवीं शताब्दी के समीप पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी यूरोप में पुन: युद्घ की छाया मँडराई। इसके कारण पश्चिमी यूरोप को युद्घबंदी दास के रूप में प्राप्त होने लगे। ये बंदी 'यीशु के शत्रु' समझे जाते थे और निरंकुश अत्याचारों के शिकार बनते। पादरियों की सेवा के लिए गिरनाघर में जो दास रखे जाते थे उनकी सबसे बदतर दुर्दशा थी। अरब देश तो सदा से अफ्रीकी दासों का व्यापार करते थे। पैगंबर ने गुलामों के साथ सहृदयता दिखाने की सलाह दी। पर व्यवहार में घोर कट्टरपन ने उलटा उन्हें नारकीय जीवन बिताने पर विवश किया। अरब का यह इसलामी कालखंड अधिकांशत: युद्घ की भट्ठी में जलता रहा। उनके साम्राज्य-प्रसार ने दासता को हवा दी। दास व्यापार पुन: बड़ी मात्रा में चालू हुआ।


जब यूरोप निवासियों का औपनिवेशिक युग प्रारंभ हुआ तब दास प्रथा में और बढ़ोत्तरी हो गई। पुर्तगाली अफ्रीकी दासों के व्यापार में अरबों से लोहा लेने लगे। नई दुनिया की खोज के बाद पश्चिमी द्वीप समूह, मेक्सिको और मेक्सिको की खाड़ी के क्षेत्र तथा पूर्व-उत्तरी अमेरिका का पूर्व-दक्षिण तट, पूरू, ब्राजील तथा अन्य देशों में यूरोपवासियों ने बड़े-बड़े क्षेत्र अपने कब्जे में कर लिये। वहाँ गन्ना, कपास, तंबाकू आदि और खाद्यान्नों की विस्तृत खेती के लिए श्रमिक चाहिए थे। उसकी पूर्ति पहले छापा मारकर वहाँ के आदिम निवासियों को दास बनाकर की, जिनको उनके खेतों से अथवा प्रदेश से निकाल दिया; उनके स्त्री-बच्चों को बाजारों में बेचा। अनेक आदिम जातियों का नाम इस प्रक्रिया में मिट गया। इन ईसाई 'सभ्य' लोगों के लिए इन 'धर्मभ्रष्ट' लोगों को 'सच्चा धर्म' दिखाने का एकमेव मार्ग इन्हें दास बनाना था। यूरोप निवासियों के अत्याचारों की कहानी अमेरिकी मूल जातियों के ह्रास तथा समूल वंश-नाश ने लिखी है।


सोलहवीं शताब्दी में अफ्रीकी दासों का अमेरिका में आयात प्रारंभ हुआ। इन हब्शियों को जहाजों में जानवरों की तरह ठूसकर समुद्र पार अमेरिका ले जाया जाता था। वहाँ उन्हें बेचकर वस्तुएँ और सोने से लदे जहाज यूरोत आते। मानव का क्रय ही यूरोप और अमेरिका की लौकिक समृद्घि की कहानी है। परंतु इससे इस भयानक अत्याचार का पूरा व्याप प्रकट नहीं होता। दासों के आवास से घुड़साल अच्छी; उनका आधा पेट भोजन और काम के समय पूरी टोली पर गोरे पर्यवेक्षक के कोड़े! दास प्रथा का दु:ख-दर्द तो आंशिक रूप से श्रीमती हैरियट स्टोई की पुस्तक 'टाम काका की कुटिया' ('Uncle Tom's Cabin': Harriet Beecher Stowe) पढ़कर समझ सकते हैं। कहते हैं कि इसी पुस्तक के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका का गृहयुद्घ हुआ। अब्राहम लिंकन ने (जो उस समय वहाँ के राज्याध्यक्ष थे) कहा, 'यदि दास प्रथा पाप नहीं है तो संसार में कुछ भी पाप नहीं।' फ्रांस की राज्यक्रांति के नारों के कारण भी यूरोप का वातावरण बदल रहा था। ऎसे समय में भीषण गृहयुद्घ में वह देश संयुक्त बच सका।


पर यूरोपीय साम्राज्यवाद दास प्रथा के नए रूप लेकर आया। भारत से बड़ी मात्रा में अनुबंध के अंतर्गत गिरमिटिया कहकर श्रमिकों को अनेक प्रकार के लालच दे, प्रशांत तथा हिंद महासागर के द्वीपों में और अफ्रीका में भेजना प्रारंभ हुआ। वहाँ उनके कोई अधिकार न थे। वे केवल उन अधिकारों का उपभोग कर सकते थे जो उनके स्वामी उन्हें देते थे। उनके रीति-रिवाज, यहाँ तक कि भारत में हुआ विवाह भी अमान्य था। पति पत्नी से, भाई भाई से, माता-पिता संतानों से अलग, करार के अंतर्गत स्वामी की इच्छानुसार रखे जा सकते थे। वेतन जब चाहा, फर्जी त्रुटि दिखाकर काटा जा सकता था। अपनी मातृभूमि से दूर गुलाम देश के इन निवासियों की दशा 'दास' के समान थी। तब वैसी ही एक नाटक की पुस्तक 'कुली प्रथा अथवा बीसवीं सदी की गुलामी' आई। यह पुस्तक हिंदी की प्रसिद्घ कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पति श्री लक्ष्मणसिंह चौहान ने लिखी थी। प्रकाशित होने के कुछ दिन बाद वह जब्त हो गई। पर यह 'गिरमिटिया' नामक कुली प्रथा प्रथम महायुद्घ के समीप बंद हो गई।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा

10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की समान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत और घोषित किया । इसका पूर्ण पाठ आगे के पृष्ठों में दिया गया है । इस ऐतिहासिक कार्य के बाद ही सभा ने सभी सदस्य देशों से पुनरावेदन किया कि वे इस घोषणा का प्रचार करें और देशों अथवा प्रदेशों की राजनैतिक स्थिति पर आधारित भेदभाव का विचार किए बिना, विशेषतः विद्यालयों और अन्य शिक्षा संस्थाओं में, इसके प्रचार, प्रदर्शन, पठन और व्याख्या का प्रबंध करें । इसी घोषणा का सरकारी पाठ संयुक्त राष्ट्रों की इन पांच भाषाओं में प्राप्य है ः अंग्रेज़ी, चीनी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी । अनुवाद का जो पाठ यहां दिया गया है, वह भारत सरकार द्वारा स्वीकृत है । प्रस्तावना : चूंकि मानव परिवार के सभी सदस्यों के जन्मजात गौरव और समान तथा अविच्छिन्न अधिकार की स्वीकृति ही विश्व-शांति, न्याय और स्वतंत्रता की बुनियाद है,

चूंकि मानव अधिकारों के प्रति उपेक्षा और घृणा के फलस्वरूप ही ऐसे बर्बर कार्य हुय जिनसे मनुष्य की आत्मा पर अत्याचार किया गया, चूंकि एक ऐसी विश्व-व्यवस्था की उस स्थापना को (जिसमें लोगों को भाषण और धर्म की आजादी तथा भय और अभव से मुक्ति मिलेगी) सर्वसाधारण के लिए सर्वोच्च आकांक्षा घोषित किया गया है,

चूंकि अगर अन्याययुक्त शासन और जुल्म के विरुद्ध लोगों को विद्रोह करने के लिय - उसे ही अंतिम उपाय समझकर - मजबूर नहीं हो जाना है, तो कनून द्वारा नियम बनाकर मानव अधिकारों की रक्षा करना अनिवार्य है,

चूंकि राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों को बढ़ाना जरूरी है, चूंकि संयुक्त राष्ट्रों के सदस्य देशों की जनताओं ने बुनियादी मानव अधिकारों में, मानव व्यक्तित्व के गौरव और योग्यता में और नर-नारियों के समान अधिकारों में अपने विश्वास को अधिकार-पत्र में दहुराया है और यह निश्चय किया है कि अधिक व्यापक स्वतंत्रता के अंतर्गत सामाजिक प्रगति एवं जीवन के बेहतर स्तर को ऊंचा किया जाएं,

चूंकि सदस्य देशों ने यह प्रतिज्ञा की है कि वे संयुक्त राष्ट्रों के सहयोग से मानव अधिकारों और बुनियादी आजादियों के प्रति सार्वभौम सम्मान की वृद्धि करेंगे,

चूंकि इस प्रतिज्ञा को पूरी तरह से निभाने के लिए इन अधिकारों और आजादियों का स्वरूप ठीक-ठीक समझना सबसे जरूरी है ।

इसलिए, अब,

समान्य सभा घोषित करती है कि मानव अधिकारों की यह सार्वभौम घोषणा सभी देशों और सभी लोगों की समान सफलता है । इसका उद्देश्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक भाग इस घोषणा को लगातार दृष्टि में रखते हुए अध्यापन और शिक्षा के द्वारा यह प्रयत्न करेगा कि इन अधिकारों और आजादियों के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत हो, और उत्तरोत्तर ऐसे राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय उपाय किए जाएं जिनसे सदस्य देशों की जनता तथा उनके द्वारा अधिकृत प्रदेशों की जनता इन अधिकारों की सार्वभौम और प्रभावोत्पादक स्वीकृति दे और उनका पालन कराएं ।

अनुच्छेद 1 सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है । उन्हें बुद्धि और अंतरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिए ।

अनुच्छेद 2 सभी को इस घोषणा में सन्निहित सभी अधिकरों और आजादियों को प्राप्त करने का हक है और इस मामले में जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार-प्रणाली, किसी देश या समाज विशेष में जन्म, संपत्ति या किसी प्रकार की अन्य मर्यादा आदि के कारण भेदभाव का विचार न किया जाएगा । इसके अतिरिक्त, चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतंत्र हो, संरक्षित हो, या स्वशासन रहित हो, या परिमित प्रभुसत्ता वाला हो, उस देश या प्रदेश की राजनैतिक क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहां के निवासियों के प्रति कोई फ़रक न रखा जाएगा ।

अनुच्छेद 3 प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता और वैयक्तिक सुरक्षा का अधिकार है । अनुच्छेद 4 कोई भी गुलामी या दासता की हालत में न रखा जाएगा, गुलामी-प्रथा और गुलामों का व्यापार अपने सभी रूपों में निषिद्ध होगा ।

अनुच्छेद 5 किसी को भी शारीरिक यातना न गी जाएगी और न किसी के भी प्रति निर्दय, अमानुषिक या अपमानजनक व्यबहार होगा ।

अनुच्छेद 6 हर किसी को हर जगह कानून की निगाह में व्यक्ति के रूप में स्वीकृति-प्राप्ति का अधिकार है । अनुच्छेद 7 कानून की निगाह में सभी समान हैं और सभी बिना भेदभाव के समान कानूनी सुरक्षा के अधिकारी हैं । यदि इस घोषणा का अतिक्रमण करके कोई भी भेदभाव किया जाए या उस प्रकार के भेदभाव को किसी प्रकार से उकसाया जाए, तो उसके विरुद्ध समान सुरक्षण का अधिकार सभी को प्राप्त है ।

अनुच्छेद 8 सभी को संविधान या कानून द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरुद्ध समुचित राष्ट्रीय अदालतों की कारगर सहायता पाने का हक है ।

अनुच्छेद 9 किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार, नजरबंद, या देश-निष्कसित न किया जाएगा । अनुच्छेद 10 सभी को पूर्ण्तः समान रूप से हक है कि उनके अधिकारों और कर्तव्यों के निश्चय करने के मामले में और उन पर आरोपित फौजदारी के किसी मामले में उनकी सुनवाई न्यायोचित और सार्वजनिक रूप से निरपेक्ष एवं निष्पक्ष अदालत द्वारा हो ।

अनुच्छेद 11 1. प्रत्येक व्यक्ति, जिस पर दंडनीय अपरोध का आरोप किया गया हो, तब तक निरपराध माना जाएगा, जब तक उसे ऐसी खुली अदालत में, जहां उसे अपनी सफाई की सभी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों , कानून के अनुसार अपराधी न सिद्ध कर दिया जाए । 2। कोई भी व्यक्ति किसी भी ऐसे कृत या अकृत (अपराध) के कारण उस दंडनीय अपराध का अपराधी न माना जाएगा, जिसे तत्कालीन प्रचलित राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार दंडनीय अपराध न माना जाए और न अससे अधिक भारी दंड दिया जा सकेगा, जो उस समय दिया जाता जिस समय वह दंडनीय अपराध किया गया था ।

अनुच्छेद 12 किसी व्यक्ति की एकांतता, परिवार, घर, या पत्रव्यवहार के प्रति कोई मनमाना हस्तक्षेप न किया जाएगा, न किसी के सम्मान और ख्याति पर कोई आक्षेप हो सकेगा । ऐसे हस्तक्षेप या आक्षेपों के विरुद्ध प्रत्येक को कनूनी रक्षा का अधिकार प्राप्त है ।

अनुच्छेद 13 1. प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक देश की सीमाओं के अंदर स्वतंत्रतापूर्वक आने, जाने, और बसने का अधिकार है । 2। प्रत्येक व्यक्ति को अपने या पराए किसी भी देश को छोड़ने और अपने देश वापस आने का अधिकार है ।

अनुच्छेद 14 1. प्रत्येक व्यक्ति को स्ताए जाने पर दूसरे देशों में शरण लेने और रहने का अधिकार है । 2। इस अधिकार का लाभ ऐसे मामलों में नहीं मिलेगा जो वास्तव में गैर-राजनीतिक अपराधों से संबंधित हैं, या जो संयुक्त राष्ट्रों के उद्देश्यों और सिद्धांतों के विरुद्ध कार्य हैं ।

अनुच्छेद 15 1. प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी राष्ट्र-विशेष को नागरिकता का अधिकार है । 2। किसी को भी मनमाने ढंग से अपने राष्ट्र की नागरिकता से वंचित न किया जाएगा या नागरिकता का परिवर्तन करने से मना न किया जाएगा ।

अनुच्छेद 16 1. बालिग स्त्री-पुरुषों को बिना किसी जाति, राष्ट्रीयता या दर्म की रुकावटों के आपस में विवाह करने और परिवार स्थापन करने का अधिकार है । उन्हें विवाह के विषय में वैवाहिक जीवन में, तथा विवाह विच्छेद के बारे में समान अधिकार है । 2. विवाह का इरादा रखने वाले स्त्री-पुरुषों की पूर्ण और स्वतंत्र सहमति पर ही विवाह हो सकेगा । 3। परिवार समाज का स्वाभाविक और बुनियादी सामूहिक इकाई है और उसे समाज तथा राज्य द्वारा संरक्षण पाने का अधिकार है ।

अनुच्छेद 17 1। प्रत्येक व्यक्ति को अकेले और दूसरों के साथ मिलकर संपत्ति रखने का अधिकार है । 2. किसी को भी मनमाने ढंग से अपनी संपत्ति से वंचित न किया जाएगा ।

अनुच्छेद 18 प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अंतरात्मा और धर्म की आजादी का अधिकार है । इस अधिकार के अंतर्गत अपना धर्म या विश्वास बदलने और अकेले या दूसरों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप में अथवा निजी तर पर अपने धर्म या विश्वास को शिक्षा, क्रिया, उपसाना, तथा व्यवहार के द्वारा प्रकट करने की स्वतंत्रता है ।

अनुच्छेद 19 प्रत्येक व्यक्ति को विचार और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है । इसके अंतर्गत बिना हस्तक्षेप के कोई राय रखना और किसी भी माध्यम के जरिए से तथा सीमाओं की परवाह न करके किसी की सूचना और धारणा का अन्वेषण, ग्रहण तथा प्रदान सम्मिलित है ।

अनुच्छेद 20 1. प्रत्येक व्यक्ति को शांति पूर्ण सभा करने या समित्ति बनाने की स्वतंत्रता का अधिकार है । 2। किसी को भी किसी संस्था का सदस्य बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता ।

अनुच्छेद 21 1. प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश के शासन में प्रत्यक्ष रूप से या स्वतंत्र रूप से चुने गए प्रतिनिधिओं के जरिए हिस्सा लेन का अधिकार है । 2. प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की सरकारी नौकरियों को प्राप्त करने का समान अधिकार है । ३। सरकार की सत्ता का आधार जनता की इच्छा होगी । इस इच्छा का प्रकटन समय-समय पर और असली चुनावों द्वारा होगा । ये चुनावों सार्वभौम और समान मताधिकार द्वारा होंगे और गुप्त मतदान द्वारा या किसी अन्य समान स्वतंत्र मतदान पद्धति से कराए जाएंगे ।

अनुच्छेद 22 समाज के एक सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के उस स्वतंत्र विकास तथा गौरव के लिए - जो राष्ट्रीय प्रयत्न या अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा प्रत्येक राज्य के संगठन एवं साधनों के अनुकूल हो - अनिवार्यतः आवश्यक आर्थिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का हक है ।

अनुच्छेद 23 1. प्रत्येक व्यक्ति को काम करने, इच्छानुसार रोजगार के चुनाव, काम की उचित और सुविधाजनक परिस्थितियों को प्राप्त करने और बेकारी से संरक्षण पाने का हक है । 2. प्रत्येक व्यक्ति को समान कार्य के लिएअ बिना किसी भेदभव के समान मजदूरी पाने का अधिकार है । 3. प्रत्येक व्यक्ति को जो काम करता है, अधिकार है कि वह इतनी उचित और अनुकूल लजदूरी पाए, जिससे वह अपने लिए और अपने परिवार के लिए ऐसी आजीविका का प्रबंध कर सके, जो मानवीय गौरव के योग्य हो तथा आवश्यकता होने पर उसकी पूर्ति अन्य प्रकार के सामाजिक संरक्षणों द्वारा हो सके । 4। प्रत्येक व्यक्ति को अपने हितों की रक्षा के लिए श्रमजीवी संघ बनाने और उनमें भाग लेने का अधिकार है ।

अनुच्छेद 24 प्रत्येक ब्यक्ति को विश्राम और अवकाश का अधिकार है । इसके अंतर्गत काम के घंटों की उचित हदबंदी और समय-समय पर मजदूरी सहित छुट्टियां सम्मिलित है ।

अनुच्छेद 25 1.प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवनस्तर को प्राप्त करने का अधिकार है जो उसे और उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए पर्याप्त हो । इसके अंतर्गत खाना, कपड़ा, मकान, चिकित्सा-संबंधी सुविधाएं और आवश्यक सामाजिक सेवाएं सम्मिलित है । सभी को बेकारी, बीमारी, असमर्था, वैधव्य, बुढ़ापे या अन्य किसी ऐसी परिस्थिति में आजीविका का साधन न होने पर जो उसके काबू के बाहर हो, सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है । 2। जच्चा और बच्चा को खास सहायता और सुविधा का हक है । प्रत्येक बच्चे को चाहे वह विवाहिता माता से जन्मा हो या अविवाहिता से, समान सामाजिक संरक्षण प्राप्त है ।

अनुच्छेद 26 1. प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार है । शिक्षा कम से कम प्रारंभिक और बुनियादी अवस्थाओं में निःशुल्क होगी । प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य होगी । टेक्निकल, यांत्रिक और पेशों-संबंधी शिक्षा साधारण रूप से प्राप्त होगी और उच्चतर शिक्षा सभी को योग्यता के आधार पर समान रूप से उपलब्ध होगी । 2. शिक्षा का उद्देश्य होगा मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास और मानव अधिकारों तथा बुनियादी स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान की पुष्टि । शिक्षा द्वारा राष्ट्रों, जातियों, अथवा धार्मिक समूहों के बीच आपसी सद्भावना, सहिष्णुता और मैत्री का विकास होगा और शांति बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्रों के प्रयत्नों को आगे बढ़ाया जाएगा । 3। माता-पिता को सबसे पहले इस बात का अधिकार है कि वह चुनाव कर सकें कि किस किस्म की शिक्षा उनके बच्चों को दी जाएगी ।

अनुच्छेद 27 1. प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता-पूर्वक समाज के सांस्कृतिक जीवन में हिस्सा लेने, कलाओं का आनंद लेने, तथा वैज्ञानिक उन्नति और उसकी सुविशाओं में भाग लेने का हक है । 2। प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी ऐसी वैज्ञानिक साहित्यिक या कलात्मक कृति से उत्पन्न नैतिक और आर्थिक हितों की रक्षा का अधिकार है जिसका रचयिता वह स्वयं है ।

अनुच्छेद 28 प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्राप्ति का अधिकार है जिसमें उस घोष्णा में उल्लिखित अधिकारों और स्वतंत्रताओं का पूर्णतः प्राप्त किया जा सके ।

अनुच्छेद 29 1. प्रत्येक व्यक्ति का उसी समाज प्रति कर्तव्य है जिसमें रहकर उसके व्यक्तित्व का स्वतंत्र और पूर्ण विकास संभव हो । 2. अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग करते हुए प्रत्येक व्यक्ति केवल ऐसी ही सीमाओं द्वारा बंध होगा, जो कानून द्वारा निश्चित की जाएंगी और जिनका एकमात्र उद्देश्य दूसरों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं के लिए आदर और समुचित स्वीकृति की प्राप्ति होगा तथा जिनकी आवश्यकता एक प्रजातंत्रात्मक समाज में नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था और समान्य कल्याण की उचित आवश्यकताओं को पूरा करना होगा । 3। इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग किसी प्रकार से भी संयुक्त राष्ट्रों के सिद्धांतों और उद्देश्यों के विरुद्ध नहीं किया जाएगा ।

अनुच्छेद 30 इस घोष्णा में उल्लिखित किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए जिससे य प्रतीत हो कि किसी भी राज्य, समूह या ब्यक्ति को किसी ऐसे प्रयत्न में संलग्न होने या ऐसा कार्य करने का अधिकार है, जिसका उद्देश्य यहां बताए गए अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी का भी विनाश करना हो ।

मानव अधिकार  और   मीडिया	

रेडियो, टेलीविजन और समाचार पत्र जैसे जनमाध्यम विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी एवं सार्वजनिक हित से जुड़े तथ्यों, नीति एवं योजनाओं के बारे में जानकारी जनता तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। इस तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित होती है और जनता अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने लगती है। अपने अधिकारों का ज्ञान हो जाने पर जागरुक नागरिक उनकी मांग के लिए आवाज उठाता है और इस तरह सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त होने लगता है। सामाजिक पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण सूचना एवं जानकारी का अभाव होता है। यही कारण है कि ज्ञान को शक्ति माना गया है। मीडिया सूचना एवं समाचार प्रसार का माध्यम बनकर जागरुकता का प्रचार प्रसार करता है और इस तरह से पिछड़ेपन के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश रूपी चुनौती का सामना करना पड़ता है। चार जुलाई 1776 को ‘अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा’ में मानवाधिकारों को सर्वोच्च स्थान देते हुए यह स्वीकार किया गया कि, ‘हम इन सत्यों को स्वयंसिद्ध मानते हैं कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं, सभी मनुष्यों को ईश्वर ने कुछ ऐसे अधिकार प्रदान किए हैं, जिन्हें छीना नहीं जा सकता और इन अधिकारों में जीवन, स्वतंत्रता और अपनी समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहने के अधिकार भी सम्मिलित हैं।’ वास्तव में अधिकार कुछ दावों के रूप में प्रकट होते हैं, लेकिन सभी दावों को वैध करार होने की संज्ञा नहीं दी जा सकती। अधिकार वस्तुत: वे दावे होते हैं, जिन्हें समाज मान्यता देता है और राज्य के द्वारा लागू किए जाते हैं। उपरोक्त अवधारणा के बाद यह कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों की उत्पत्ति मानव जीवन के प्रारंभ से हो गई थी, क्योंकि मानवाधिकारों का संबंध मानव से ही तो है। किन्तु समाज के प्रारंभिक काल में सत्ता की और पितृसत्ता की व्यवस्था होने के कारण मानव समाज में दासों, दलितों और महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाने लगा और उनके साथ शोषण और उत्पीड़न का सिलसिला चलता रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन से मानवाधिकारों की आवाज बुलंद होने लगी और इन पीड़ित वर्गों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना आई। मानवाधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। सन् 1215 का मैग्नाकार्टा, सन् 1679 का बंदी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम, सन् 1989 का विल आफ राइट्स, सन् 1776 में अमेरिका का स्वतंत्रता का घोषणा पत्र, सन् 1789 में मानव अधिकार संबंधी फ्रांस की घोषणा तथा सन् 1948 में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की घोषणा इस परंपरा के महत्वपूर्ण कदम हैं। मानवाधिकारों की समग्रता की पृष्ठभूमि और प्रतिष्ठा को जनव्यापी बनाने में मीडिया की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उपरोक्त बातों को ध्यान में रखा जाये तो मानवाधिकारों की भावना के अनुकूल नागरिकों के जीवन को ऊंचा उठाने में मीडिया प्रभावशाली साबित हो सकता है। मीडिया एक ओर जहां मानवीय सरोकारों के संरक्षण का माध्यम बनता है, वहीं वह मानवाधिकारों के प्रति जनचेतना जागृत करने की ताकत भी रखता है। लेकिन क्या मीडिया अपनी इस ताकत का उपयोग जनसरोकारों को पोषित करने में करता है? यह सोचने का विषय है। मीडिया अपनी इस ताकत का सार्थक उपयोग करता है अथवा नहीं यह अलग विषय हो सकता है, लेकिन यह तो तय है कि मीडिया के पास एक ऐसी शक्ति है जिससे जागरुकता का प्रसार संभव है और अंतत: यह जागरुकता लोगों को अपने मूल अधिकारों के प्रति सचेत करने में सहायक साबित होती है। यह भी ध्यान रखना होगा कि जो मीडिया जागरुकता का प्रसार कर समाज में सकारात्मक परिवर्तन का वाहक बन सकता है यदि उसके तंत्र पर बाह्य दबाव, राज्य का हस्तक्षेप, विभिन्न हित समूहों के द्वारा किये जाने वाले प्रोपेगेण्डा या फिर व्यावसायिकता हावी होगी तो उसका प्रभाव समाज पर नकारात्मक पड़ेगा। ऐसी स्थिति में कहा जा सकता है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाने वाला मीडिया न केवल अपने सामाजिक दायित्व से पथभ्रष्ट हो रहा है, बल्कि समकालीन एवं भावी समाज के लिए भी कांटे बोने का कार्य कर रहा है। यदि किसी विषयवस्तु की सटीक जानकारी प्रसारित करने के बजाय किसी व्यक्ति, समूह, संगठन, संस्थान, राज्य अथवा राष्ट्रों के हित की पूर्ति हेतु प्रायोजित प्रोपेगेण्डा के प्रचार-प्रसार का माध्यम जाने-अनजाने में मीडिया बनने लगे तो संकट की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसे में जनाधिकार हाशिये पर चले जाते हैं। मानवाधिकार संरक्षण में सहायक मीडिया ऐसा नहीं है कि मानवाधिकारों एवं मीडिया का अंर्तसंबंध महज प्रोपेगेण्डा तक ही सीमित है। इस बात को 11 अक्टूबर 1980 को इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली संस्करण के आंतरिक पृष्ठ पर मात्र एक कॉलम में “10 undertrials blame police for losing sight.” शीर्षक के तहत प्रकाशित खबर से समझा जा सकता है। इस खबर में बिहार की भागलपुर जेल में 10 कैदियों पर किए गए पुलिसिया अत्याचार की कहानी बयां की गई थी। तभी इस मामले से जुड़ी एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas corpus petition) उच्चतम न्यायालय में बंदियों की ओर से दाखिल कर दी गई, जिन्होंने पुलिस पर तेजाब डालकर सभी कैदियों की आंखों की रोशनी छीन लिए जाने का आरोप लगाया था। इस छोटी सी रिपोर्ट ने उस समय बहुत अधिक प्रभाव नहीं दिखाया, लेकिन करीब एक महीने बाद इस खबर की एक खोजपरक विस्तृत फालो-अप रिपोर्ट ने पूरे देश ही नहीं संसद को भी झकझोर दिया। ‘अखबार के आवरण पृष्ठ पर 22 नवंबर 1980 को एक अंधे किए गए आदमी के चित्र के साथ “Eyes punctured twice to ensure total blindness” शीर्षक के तहत पूरी घटना की क्रमिक एवं विस्तारपूर्वक व्याख्या की गई। इंडियन एक्सप्रेस के पटना संवाददाता अरुण सिन्हा की इस रिपोर्ट ने अत्याचारों की ओर जनमानस एवं सरकार का ध्यान आकर्षित किया।

बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने उस समय मामले की जांच के आदेश दे दिये। दो दिन बाद संसद में मामला उठाया गया। साप्ताहिक प्रकाशनों में इस घटना के अंधे किए गए कैदियों के चित्रों को और अधिक क्लोज-अप में साइकिल की तिल्लियों से छेदी गई आंखों की रक्त रंजित पुतलियों को दिखाया गया, जिन्हें बाद में तेजाब उंडेल कर झुलसा दिया गया था।’

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी इस घटना से स्तब्ध रह गईं और उन्होंने तत्काल मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र से फोन पर बातचीत कर स्थिति के बारे में जानकारी हासिल की। इसके करीब एक सप्ताह के बाद 30 नवंबर को 15 पुलिसकर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया। इंडियन एक्सप्रेस की यह श्रृंखला काफी समय तक चलती रही और तत्कालीन कार्यकारी संपादक अरुण शौरी ने अपने लेखों में इस तरह के अत्याचारों को लेकर प्रशासन, पुलिस और जेल प्रक्रियाओं की जमकर आलोचना की। भागलपुर जेल में घटित इस खौफनाक घटना की रिपोर्टिंग से एक तरह से यह साबित हो गया कि समाचार जगत की खोजपरक रिपोर्टें मानवाधिकार संबंधी जागरुकता के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं। इस घटना के बाद यह स्पष्ट हो गया कि भारत जैसे देश का पारंपरिक जनसमाज जो भ्रूण हत्या, सती प्रथा, बंधुआ मजदूरी, बाल श्रम, दलित अत्याचार और हिंसा जैसी कुरीतियों से आज भी ग्रस्त है, वहां मानवाधिकार संबंधी संवेदनशीलता स्थापित करने में मीडिया की भूमिका उल्लेखनीय साबित हो सकती है। हालांकि यह काम सरल नहीं है। मानवाधिकार रिपोर्टिंग का कार्य तलवार की धार पर चलने के समान होता है। संवाददाता को उल्लिखित दुर्व्यवहार के कानूनी, सामाजिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर कलम चलानी होती है, जिससे पाठकों को इस तरह के मामलों में निहित गुत्थियों से भली भांति अवगत कराया जा सके। रिपोर्ट ऐसी हो कि उसमें निहित संदेश को पढ़कर लक्षित पाठक की अंतरात्मा झनझना उठे और रूढ़वादी कुरीतियों एवं परंपराओं के बारे में पुनर्विचार के लिए विवश हो जाये। इस तरह के लेखन के लिए पर्याप्त लेखकीय कौशल की आवश्यकता होती है और संवाददाता को इसके लिए समय और अनुभव की कसौटी पर स्वयं को कसना होता है, क्योंकि उसके लेखन का समाज पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है।


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