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'''लोकसम्पर्क''' या '''जनसम्पर्क''' या '''जनसंचार''' (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से [[समाचार पत्र]], [[पत्रिका|पत्रिकाएँ]], [[रेडियो]], [[दूरदर्शन]], [[चलचित्र]] से लिया जाता है जो समाचार एवं [[विज्ञापन]] दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं।
'''लोकसम्पर्क''' या '''जनसम्पर्क''' या '''जनसंचार''' (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से [[समाचार पत्र]], [[पत्रिका|पत्रिकाएँ]], [[रेडियो]], [[दूरदर्शन]], [[चलचित्र]] से लिया जाता है जो समाचार एवं [[विज्ञापन]] दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं।


जनसंचार माध्यम में संचार सब्द की उत्पति [[संस्कृत]] के 'चर' [[धातु]] से हुई है जिसका अर्थ है चलना ।
जनसंचार माध्यम में संचार सब्द की उत्पति [[संस्कृत]] के 'चर' [[धातु]] से हुई है जिसका अर्थ है चलना।


==परिचय==
==परिचय==

05:54, 2 सितंबर 2014 का अवतरण

लोकसम्पर्क या जनसम्पर्क या जनसंचार (Mass communication) से तात्पर्य उन सभी साधनों के अध्ययन एवं विश्लेषण से है जो एक साथ बहुत बड़ी जनसंख्या के साथ संचार सम्बन्ध स्थापित करने में सहायक होते हैं। प्रायः इसका अर्थ सम्मिलित रूप से समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र से लिया जाता है जो समाचार एवं विज्ञापन दोनो के प्रसारण के लिये प्रयुक्त होते हैं।

जनसंचार माध्यम में संचार सब्द की उत्पति संस्कृत के 'चर' धातु से हुई है जिसका अर्थ है चलना।

परिचय

लोकसंपर्क का अर्थ बड़ा ही व्यापक और प्रभावकारी है। लोकतंत्र के आधार पर स्थापित लोकसत्ता के परिचालन के लिए ही नहीं बल्कि राजतंत्र और अधिनायकतंत्र के सफल संचालन के लिए भी लोकसंपर्क आवश्यक माना जाता है। कृषि, उद्योग, व्यापार, जनसेवा और लोकरुचि के विस्तार तथा परिष्कार के लिए भी लोकसंपर्क की आवश्यकता है। लोकसंपर्क का शाब्दिक अर्थ है 'जनसधारण से अधिकाधिक निकट संबंध'।

प्राचीन काल में लोकमत को जानने अथवा लोकरुचि को सँवारने के लिए जिन साधनों का प्रयोग किया जाता था वे आज के वैज्ञानिक युग में अधिक उपयोगी नहीं रह गए हैं। एक युग था जब राजा लोकरुचि को जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था पर पूर्णत: आश्रित रहता था तथा अपने निदेशों, मंतव्यों और विचारों को वह शिलाखंडों, प्रस्तरमूर्तियों, ताम्रपत्रों आदि पर अंकित कराकर प्रसारित किया करता था। भोजपत्रों पर अंकित आदेश जनसाधारण के मध्य प्रसारित कराए जाते थे। राज्यादेशों की मुनादी कराई जाती थी। धर्मग्रंथों और उपदेशों के द्वारा जनरुचि का परिष्कार किया जाता था। आज भी विक्रमादित्य, अशोक, हर्षवर्धन आदि राजाओं के समय के जो शिलालेख मिलते हैं उनसे पता चलता है कि प्राचीन काल में लोकसंपर्क का मार्ग कितना जटिल और दुरूह था। धीरे धीरे आधुनिक विज्ञान में विकास होने से साधनों का भी विकास होता गया और अब ऐसा समय आ गया है जब लोकसंपर्क के लिए समाचारपत्र, मुद्रित ग्रंथ, लघु पुस्तक-पुस्तिकाएँ, प्रसारण यंत्र (रेडियो, टेलीविजन), चलचित्र, ध्वनिविस्तारक यंत्र आदि अनेक साधन उपलब्ध हैं। इन साधनों का व्यापक उपयोग राज्यसत्ता, औद्योगिक और व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के द्वारा होता है।

वर्तमान युग में लोकसंपर्क के सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इसके बाद रेडियो, टेलीविजन, चलचित्रों और इंटरनेट आदि का स्थान है। नाट्य, संगीत, भजन, कीर्तन, धर्मोपदेश आदि के द्वारा भी लोकसंपर्क का कार्य होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जुलूस, सभा, संगठन, प्रदर्शन आदि की जो सुविधाएँ हैं उनका उपयोग भी राजनीतिक दलों की ओर से लोकसंपर्क के लिए किया जाता है। डाक, तार, टेलीफोन, रेल, वायुयान, मोटरकार, जलपोत और यातायात तथा परिवहन के अन्यान्य साधन भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संपर्क के लिए व्यवहृत किए जाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि भी लोकसत्ता और लोकमत के मध्य लाकसंपर्क की महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं।

लोकसंपर्क की महत्ता बताते हुए सन् १७८७ ईसवी में अमरीका के राष्ट्रपति टामस जेफर्सन ने लिखा था -

हमारी सत्ताओं का आधार लोकमत है। अत: हमारा प्रथम उद्देश्य होना चाहिए लोकमत को ठीक रखना। अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं समाचारपत्रों से विहीन सरकार चाहता हूँ अथवा सरकार से रहित समाचारपत्रों को पढ़ना चाहता हूँ तो मैं नि:संकोच उत्तर दूँगा कि शासनसत्ता से रहित समाचारपत्रों का प्रकाशन ही मुझे स्वीकार है। पर मैं चाहूँगा कि ये समाचारपत्र हर व्यक्ति तक पहुँचें और वे उन्हें पढ़ने में सक्षम हों। जहाँ समाचारपत्र स्वतंत्र हैं और हर व्यक्ति पढ़ने को योग्यता रखता है वहाँ सब कुछ सुरक्षित है।

मैकाले ने सन् १८२८ में लिखा -

संसद् की जिस दीर्घां में समाचारपत्रों के प्रतिनिधि बैठते हैं वही सत्ता का चतुर्थ वर्ग है। इसके बाद एडमंड बर्क ने लिखा - संसद् में सत्ता के तीन वर्ग हैं किंतु पत्रप्रतिनिधियों का कक्ष चतुर्थ वर्ग है जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

इसी प्रकार सन् १८४० में कार्लाइल ने योग्य संपादकों की परिभाषा बताते हुए लिखा - मुद्रण का कार्य अनिवार्यत: लेखन के बाद होता है। अत: मैं कहता हूँ कि लेखन और मुद्रण लोकतंत्र के स्तंभ हैं।

अब यह स्पष्ट है कि लोकसंपर्क की दृष्टि से वर्तमान युग में समाचारपत्रों, संवाद समितियों, रेडियो, टेलीविजन, फिल्म तथा इसी प्रकार से अन्य साधनों का विशेष महत्व है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं है बल्कि, विदेशों में है। लोकसंपर्क की दृष्टि से वहाँ इन साधनों का खूब उपयोग किया जाता है। इंगलैंड, अमरीका, फ्रांस, सोवियत रूस, जापान, जर्मनी तथा अन्यान्य कई देशों में जनसाधारण तक पहुंचने के लिए सर्वोत्तम माध्यम का कार्य समाचारपत्र करते हैं। इन देशों में समाचारपत्रों की बिक्रीसंख्या लाखों में है।

समाचार पत्र

भारतवर्ष में लोकसंपर्क की दृष्टि से समाचारपत्रों का प्रथम प्रकाशन सन् १७८० से आरंभ हुआ। कहा जाता है, २९ जनवरी, १७८० को भारत का पहला पत्र बंगाल गजट प्रकाशित हुआ था। इसके बाद सन् १७८४ में कलकत्ता गजट का प्रकाशन हुआ। सन् १७८५ में मद्रास से कूरियर निकला, फिर बंबई हेरल्ड, बंबई कूरियर और बंबई गजट जैसे पत्रों का अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ। इससे बहुत पहले इंग्लैंड, जर्मनी, इटली और फ्राँस से समाचारपत्र प्रकाशित हो रहे थे। इंग्लैंड का प्रथम पत्र आक्सफोर्ड गजट सन् १६६५ में प्रकाशित हुआ था। लंडन का टाइम्स नामक पत्र सन् १७८८ में निकला था। मुद्रण यंत्र के आविष्कार से पहले चीन से किंगयाड और कियल 'तथा रोम से' 'रोमन एक्टा डायरना' नामक पत्र निकले थे।

भारत में पत्रों के प्रकाशन का क्रम सन् १८१६ में प्रारंभ हुआ। 'बंगाल गजट' के बाद 'जान बुलइन', तथा दि ईस्ट का प्रकाशन हुआ। इंगलिशमैन १८३६ में प्रकाशित हुआ। १८३८ में बंबई से 'बंबई टाइम्स' और बाद में 'टाइम्स आफ इंडिया' का प्रकाशन हुआ। १८३५ से १८५७ के मध्य दिल्ली, आगरा, मेरठ, ग्वालियर और लाहौर से कई पत्र प्रकाशित हुए इस समय तक १९ ऐंग्लो इंडियन और २५ भारतीय पत्र प्रकाशित होने लगे थे किंतु जनता के मध्य उनका प्रचार बहुत ही कम था। सन् १८५७ के विद्रोह के बाद 'टाइम्स आफ इंडिया', 'पायोनियर', 'मद्रास मेल', 'अमृतबाजार पत्रिका', 'स्टेट्समैन', 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' और 'हिंदू' जैसे प्रभावशाली समाचारपत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। बिहार से बिहार हेरल्ड, बिहार टाइम्स और बिहार एक्सप्रेस नामक पत्र प्रकाशित हुए। भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होनेवाला प्रथम पत्र समाचारदर्पण सन् १८१८ में श्रीरामपुर से बँगला में प्रकाशित हुआ। सन् १८२२ में बंबई समाचार, गुजराती भाषा में प्रकाशित हुआ। उर्दू में 'कोहेनूर', 'अवध अखबार' और 'अखबारे आम' नामक कई पत्र निकले।

हिंदी का प्रथम समाचारपत्र 'उदंत मार्तंड' था, जिसके संपादक श्री युगलकिशोर शुक्ल थे। दूसरा पत्र 'बनारस अखबार' राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद ने सन् १८४५ में प्रकाशित कराया था। इसके संपादक एक मराठी सज्जन श्री गोविंद रघुनाथ भत्ते थे। सन् १८६८ में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'कवि वचन सुधा' नामक मासिक पत्रिका निकाली। पीछे इसे पाक्षिक और साप्ताहिक संस्करण भी निकले। १८७१ में 'अल्मोड़ा समाचार' नामक साप्ताहिक प्रकाशित हुआ। सन् १८७२ में पटना से 'बिहार बंधु' नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाश्न में पंडित केशोराम भट्ट का प्रमुख हाथ था। सन् १८७४ में दिल्ली से सदादर्श, और सन् १८७९ में अलीगढ़ से 'भारत बंधु' नामक पत्र निकले। ज्यों ज्यों समाचारपत्रों की संख्या बढ़ती गई त्यों त्यों उनके नियंत्रण और नियमन के लिए कानून भी बनाते गए। राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप देश में दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासि आदि पत्रों का प्रकाशन अधिक होने लगा। समाचारपत्रों के पठनपाठन के प्रति जनता में अधिक अभिरुचि जाग्रत हुई। १५ अगस्त, १९४७ का जब देश स्वतंत्र हुआ तो प्राय: सभी बड़े नगरों से समाचारपत्रों का प्रकाशन होता था। स्वतंत्र भारत के लिए जब संविधान बना तो पहली बार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत को मान्यता दी गई। समाचारपत्रों का स्तर उन्नत बनाने के लिए एक आयोग का गठन किया गया।

==रेडियो, टेलीविजन==aarambh ke lagbhag 100 varsho tak radio, tarango par sarkaar ka niyantran raha . sann 1995 me uchhatam nyayalaya me ek faisale me kaha ki dhwani tarango par kisi ek ka adhikaar nahi ho sakta .

चलचित्र

फ़िल्म, चलचित्र अथवा सिनेमा में चित्रों को इस तरह एक के बाद एक प्रदर्शित किया जाता है जिससे गति का आभास होता है। फ़िल्में अकसर विडियो कैमरे से रिकार्ड करके बनाई जाती हैं, या फ़िर एनिमेशन विधियों या स्पैशल इफैक्ट्स का प्रयोग करके। आज ये मनोरंजन का महत्त्वपूर्ण साधन हैं लेकिन इनका प्रयोग कला-अभिव्यक्ति और शिक्षा के लिए भी होता है। भारत विश्व में सबसे अधिक फ़िल्में बनाता है। फ़िल्म उद्योग का मुख्य केन्द्र मुंबई है, जिसे अमरीका के फ़िल्मोत्पादन केन्द्र हॉलीवुड के नाम पर बॉलीवुड कहा जाता है। भारतीय फिल्मे विदेशो मे भी देखी जाती है अनुक्रम [छुपाएँ] 1 परिचय 2 हिन्दी सिनेमा 2.1 प्रमुख अभिनेता 2.2 प्रमुख अभिनेत्रियाँ 2.3 प्रमुख निर्देशक 3 इन्हें भी देखें परिचय[संपादित करें]

सिनेमा बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक लोकप्रिय कला है जिसे प्रकाश विज्ञान, [[रसायन विज्ञान], विद्युत विज्ञान, फोटो तकनीक तथा दृष्टि क्रिया विज्ञान (खोज के अनुसार आंख की रेटिना किसी भी दृश्य की छवि को सेकेंड के दसवें हिस्से तक अंकित कर सकती है) के क्षेत्रों में हुए तरक्की ने संभव बनाया है। बीसवीं शताब्दी के संपूर्ण दौर में मनोरंजन के सबसे जरूरी साधन के रूप में स्थापित करने में बिजली का बल्ब, आर्कलैंप, फोटो सेंसिटिव केमिकल, बॉक्स-कैमरा, ग्लास प्लेट पिक्चर निगेटिवों के स्थान पर जिलेटिन फिल्मों का प्रयोग, प्रोजेक्टर, लेंस ऑप्टिक्स जैसी तमाम खोजों ने सहायता की है। सिनेमा के कई प्रतिस्पर्धी आए जिनकी चमक धुंधली हो गई। लेकिन यह अभी भी लुभाता है। फिल्मी सितारों के लिए लोगों का चुंबकीय आकर्षण बरकरार है। एक पीढ़ी के सितारे दूसरी पीढ़ी के सितारों को आगे बढ़ने का रास्ता दे रहे हैं। सिनेमा ने टी. वी., वीडियों, डीवीडी और सेटेलाइट, केबल जैसे मनोरंजन के तमाम साधन भी पैदा किए हैं। अमेरिका में रोनाल्ड रीगन, भारत में एम.जी.आर. एन.टी.आर. जंयललिता और अनेक संसद सदस्यों के रूप में सिनेमा ने राजनेता दिए हैं। कई पीढ़ियों से, युवा और वृद्ध, दोनों को समान रूप से सिनेमा सेलुलाइड की छोटी पट्टियां अपने आकर्षण में बांधे हुए हैं। दर्शकों पर सिनेमा का सचमुच जादुई प्रभाव है। सिनेमा ने परंपरागत कला रूपों के कई पक्षों और उपलब्धियों को आत्मसात कर लिया है – मसलन आधुनिक उपन्यास की तरह यह मनुष्य की भौतिक क्रियाओं को उसके अंतर्मन से जोड़ता है, पेटिंग की तरह संयोजन करता है और छाया तथा प्रकाश की अंतर्क्रियाओं को आंकता है। रंगमंच, साहित्य, चित्रकला, संगीत की सभी सौन्दर्यमूलक विशेषताओं और उनकी मौलिकता से सिनेमा आदे निकल गया है। इसका सीधा कारण यह है कि सिनेमा में साहित्य (पटकथा,गीत), चित्रकला (एनीमेटेज कार्टून, बैकड्रॉप्स), चाक्षुष कलाएं और रंगमंच का अनुभव, (अभिनेता, अभिनेत्रिया) और ध्वनिशास्त्र (संवाद, संगीत) आदि शामिल हैं। आधुनिक तकनीक की उपलब्धियों का सीधा लाभ सिनेमा लेता है। सिनेमा की अपील पूरी तरह से सार्वभौमिक है। सिनेमा निर्माण के अन्य केंद्रों की उपलब्धियों पर यद्यपि हालीवुड भारी पड़ता है, तथापि भारत में विश्व में सबसे अधिक फिल्में बनती हैं। सिनेमा आसानी से नई तकनीक आत्मसात कर लेता है। इसने अपने कलात्मक क्षेत्र का विस्तार मूक सिनेमा (मूवीज) से लेकर सवाक् सिनेमा (टाकीज]], रंगीन सिनेमा, 3डी सिनेमा, स्टीरियो साउंड, वाइड स्क्रीन और आई मेक्स तक किया है। सिनेमा के तरह-तरह के आलोचक भी है। दरअसल जब अमेरिका में पहली बार सिनेमा मे ध्वनि का प्रयोग किया गया था, उन्हीं दिनों 1928 में, चैप्लिन ने ‘सुसाइड ऑफ सिनेमा’ नामक एक लेख लिखा। उन्होंने उसमें लिखा था कि ध्वनि के प्रयोग से सुरुचिविहीन नाटकीयता के लिए द्वार खुल जाएंगे और सिनेमा की अपनी विशिष्ट प्रकृति इसमें खो जाएगी। आइंसटाइन (मोंताज) डी. डब्ल्यू. ग्रिफिथ (क्लोजअप) और नितिन बोस (पार्श्व गायन) जैसे दिग्गजों के योगदान से विश्व सिनेमा समृद्ध हुआ है। दूसरे देशों की तकनीकी प्रगति का मुकाबला भारत सिर्फ़ अपने हुनर और नए-नए प्रयोगों से कर पाया है। सिनेमा आज विश्व सभ्यता के बहुमूल्य खजाने का अनिवार्य हिस्सा है। हालीवुड से अत्यधिक प्रभावित होने के बावजूद भारतीय सिनेमा ने अपनी लंबी विकास यात्रा में अपनी पहचान, आत्मा और दर्शकों को बचाए रखा है।

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