"स्वामी सोमदेव": अवतरणों में अंतर

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बम्बई प्रवास
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===बम्बई प्रवास===
===बम्बई प्रवास===
भारत-भ्रमण करते हुए वे बम्बई पहुँचे। उनके व्याख्यान सुनकर जनता बहुत प्रभावित हुई। अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई तो उनका व्याख्यान सुनकर इतने अधिक मोहित हुए कि उन्हें अपने घर ले गये। धार्मिक कथाओं का पाठ करने जाना छोड़ वह दिन रात सोमदेव के ही पास बैठे रहते। जब उनसे कहीं जाने को कहा जाता तो रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान से अभिभूत हूँ। मुझे अब किसी भी सांसारिक वस्तु की कोई इच्छा ही नहीं रही। आज़ाद के बड़े भाई स्वयं भी बहुत अच्छे धार्मिक कथावाचक थे और उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्यों को इस बात पर बड़ा क्रोध आया कि उनके इस्लामिक धर्मगुरु सोमदेव नाम के एक काफिर के चक्कर में फँस गये हैं। अतएव सभी शिष्य इकट्ठे होकर स्वामीजी को मार डालने के लिये मकान पर आये। उन्होंने स्वामीजी के प्राणों पर संकट आया देख उनसे बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। स्वामीजी के बम्बई छोड़ते ही अबुल कलाम आजाद के भाई साहब इतने दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या ही कर ली।
भारत-भ्रमण करते हुए वे बम्बई पहुँचे। उनके व्याख्यान सुनकर जनता बहुत प्रभावित हुई। अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई तो उनका व्याख्यान सुनकर इतने अधिक मोहित हुए कि उन्हें अपने घर ले गये। धार्मिक कथाओं का पाठ करने जाना छोड़ वह दिन रात सोमदेव के ही पास बैठे रहते। जब उनसे कहीं जाने को कहा जाता तो रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान से अभिभूत हूँ। मुझे अब किसी भी सांसारिक वस्तु की कोई इच्छा ही नहीं रही। आज़ाद के बड़े भाई स्वयं भी बहुत अच्छे धार्मिक कथावाचक थे और उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्यों को इस बात पर बड़ा क्रोध आया कि उनके इस्लामिक धर्मगुरु सोमदेव नाम के एक काफिर के चक्कर में फँस गये हैं। अतएव सभी शिष्य इकट्ठे होकर स्वामीजी को मार डालने के लिये मकान पर आये। उन्होंने स्वामीजी के प्राणों पर संकट आया देख उनसे बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। स्वामीजी के बम्बई छोड़ते ही अबुल कलाम आजाद के भाई साहब इतने दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या ही कर ली।
==काँग्रेस अधिवेशन में==
स्वामी जी अंग्रेजी भाषा एवं शास्त्रों के अच्छे जानकार थे। उनकी असाधारण योग्यता के कारण ही उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया था। [[आगरा]] की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर उनका व्याख्यान सुनकर [[राजा महेन्द्रप्रताप]] अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मान लिया। वे एक निर्भीक वक्ता थे। राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें सन् 1913 में पहली बार शाहजहाँपुर में सुना था। उन दिनों वे [[बरेली]] में निवास करते थे और वहीं से शाहजहाँपुर व्याख्यान देने पधारे थे।


सोमदेव का शरीर काफी दुबला-पतला था किन्तु उनकी वाणी बहुत बुलन्द व इतनी स्पष्ठ थी कि बिना माइक के बोलने पर भी तीन-चार फर्लांग की दूरी से बिल्कुल साफ सुनायी देती थी। उन्हें एक अजीब रोग हो गया था। जब कभी शौच जाते, कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। उन्हें [[बवासीर]] नहीं थी परन्तु वे ऐसा बताते थे कि योग-क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आँत सड़ गयी। अतएव चिकित्सकों ने उनका पेट चीरकर आँत काट दी थी। तभी से उन्हें मलद्वार से रक्त जाने का भयंकर रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्यों व डॉक्टरों से इलाज भी कराया परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।

सन् 1915 में कुछ लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि शाहजहाँपुर की जलवायु में कठिन से कठिन रोग समाप्त हो जाते हैं। तभी से वे आर्यसमाज मन्दिर शाहजहाँपुर में ही निवास करने लगे। बिस्मिल ने उनकी सेवा-सुश्रूषा में अपना काफी समय दिया।


स्वामीजी


==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==

13:33, 15 मार्च 2014 का अवतरण

स्वामी सोमदेव आर्य समाज के एक विद्वान धर्मोपदेशक थे। ब्रिटिश राज के दौरान पंजाब प्रान्त के लाहौर शहर में जन्मे सोमदेव का वास्तविक नाम ब्रजलाल चोपड़ा था। सन १९१५ में जिन दिनों वे स्वास्थ्य लाभ के लिये आर्य समाज शाहजहाँपुर आये थे उन्हीं दिनों समाज की ओर से राम प्रसाद 'बिस्मिल' को उनकी सेवा-सुश्रूषा में नियुक्त किया गया था। सोमदेव की सत्संगति से ही किशोर रामप्रसाद 'बिस्मिल' जैसा बेजोड़ क्रान्तिकारी बन सका। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में 'मेरे गुरुदेव' शीर्षक से उनकी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित जीवनी लिखी है।

सोमदेव जी उच्चकोटि वक्‍ता के अलावा बहुत अच्छे लेखक भी थे। उनके लिखे हुए कुछ लेख तथा पुस्तकें उनके ही एक भक्‍त के पास थीं जो उसकी लापरवाही से नष्‍ट हो गयीं। उनके कुछ लेख प्रकाशित भी हुए थे। लगभग 57 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

संक्षिप्त जीवनी

स्वामी सोमदेव का असली नाम ब्रजलाल चोपड़ा था। पंजाब प्रान्त के लाहौर शहर में जन्मे ब्रजलाल के दादा महाराजा रणजीत सिंह के मन्त्रिमण्डल में रहे थे। जन्म के कुछ समय बाद माँ का देहान्त हो जाने के कारण दादी ने उनकी परवरिश की। माता-पिता की इकलौती सन्तान ब्रजलाल को उनकी चाचियों ने जहर देकर मारने की कई बार कोशिश की ताकि उनके लड़कों को सम्पत्ति मिल जाये। किन्तु चाचा के स्नेह के कारण वे अपने चचेरे भाइयों के साथ अंग्रेजी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर सके।

बालक ब्रजलाल के हृदय में दया-भाव बहुत अधिक था। इस कारण वह अक्सर अपनी किताबें व नये कपड़े गरीब सहपाठियों को दे दिया करते थे और खुद पुराने ही पहनकर स्कूल चले जाते थे। उनके चाचा को जब यह मालूम हुआ कि ब्रजलाल नये कपड़े निर्धन विद्यार्थियों को बाँट देता है तो उन्होंने ब्रजलाल से कहा कि जब उसके मन में कपड़े बाँटने की इच्छा हुआ करे तो उन्हें बता दे। वे नये कपड़े बनवा दिया करेंगे। कम से कम अपने कपड़े तो उन्हें न बाँटे। यही नहीं बहुत सारे निर्धन विद्यार्थियों को अपने घर बुलाकर भोजन भी कराया करते थे। उनकी इस उदारता के कारण चाचियों तथा चचेरे भाईयों को बड़ा कष्ट होता था। आखिरकार ब्रजलाल ने विवाह ही नहीं किया और रोज-रोज की चिकचिक से तंग आकर एक रात अपना घर भी त्याग दिया।

योग-दीक्षा

बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद ब्रजलाल हरिद्वार पहुँचे। वहाँ पर उनकी मुलाकात एक सिद्ध योगी से हुई। बालक को जिस वस्तु की इच्छा थी, वह उसे मिल गयी थी। अब वह बालक ब्रजलाल से सोमदेव बन चुका था। गुरु के आश्रम में रहकर उन्होंने योग-विद्या की पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर ली। योगिराज गुरु की कृपा से 15 से 20 घण्टे की समाधि लगाने का उन्हें अभ्यास हो गया। कई वर्ष तक स्वामी सोमदेव हरिद्वार में रहे। योगाभ्यास के माध्यम से वे अपने शरीर के भार को इतना हल्का कर लेते थे कि पानी पर पृथ्वी के समान चले जाते थे।

भारत-भ्रमण

भारत-भ्रमण की इच्छा जागृत होते ही उन्होंने एक दिन हरिद्वार त्याग दिया और अनेक स्थानों पर घूम-घूम कर देशाटन, अध्ययन व मनन करते रहे। जर्मनी तथा अमेरिका से शास्‍त्रों के सम्बन्ध में बहुत सी पुस्तकें मंगवाकर उनका गम्भीर अध्ययन किया। जिन दिनों लाला लाजपत राय को देश-निर्वासन की सजा दी गयी सोमदेव उन दिनों लाहौर में ही थे। वहाँ से एक अखबार निकालने की इच्छा से उन्होंने आवेदन दिया। लाहौर का डिप्टी कमिश्‍नर उस समय किसी भी नये अखबार का आवेदन स्वीकार ही न करता था परन्तु जब स्वामी सोमदेव से भेंट हुई तो वह उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ और उसने आवेदन स्वीकार कर लिया। अपने अखबार का पहला ही सम्पादकीय उन्होंने अंग्रेजों को चेतावनी के नाम से लिखा। लेख इतना उत्तेजनापूर्ण था कि थोड़ी देर में ही अखबार की सभी प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गयीं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा।

डिप्टी कमिश्‍नर के पास जैसे ही इसकी रिपोर्ट पेश हुई उसने सोमदेव को अपने कार्यालय में बुलवाया। वह लेख को पढ़कर क्रोध से काँपता, और मेज पर मुक्का मारता। परन्तु लेख के अन्तिम वाक्यों को पढ़कर शान्त हो जाता। उस लेख के अन्त में सोमदेव ने लिखा था - "यदि अंग्रेज अब भी न समझे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य हिन्दुस्तान में फिर दिखाई दें और अंग्रेजों के बच्चों को कत्ल किया जाय व उनकी स्त्रियों की बेइज्जती हो। किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है।" इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिश्‍नर कहता - "स्वामी सोमदेव! टुम निहायट होशियार हो। हम टुमारा कुछ नहीं कर सकता।"

बम्बई प्रवास

भारत-भ्रमण करते हुए वे बम्बई पहुँचे। उनके व्याख्यान सुनकर जनता बहुत प्रभावित हुई। अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई तो उनका व्याख्यान सुनकर इतने अधिक मोहित हुए कि उन्हें अपने घर ले गये। धार्मिक कथाओं का पाठ करने जाना छोड़ वह दिन रात सोमदेव के ही पास बैठे रहते। जब उनसे कहीं जाने को कहा जाता तो रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान से अभिभूत हूँ। मुझे अब किसी भी सांसारिक वस्तु की कोई इच्छा ही नहीं रही। आज़ाद के बड़े भाई स्वयं भी बहुत अच्छे धार्मिक कथावाचक थे और उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्यों को इस बात पर बड़ा क्रोध आया कि उनके इस्लामिक धर्मगुरु सोमदेव नाम के एक काफिर के चक्कर में फँस गये हैं। अतएव सभी शिष्य इकट्ठे होकर स्वामीजी को मार डालने के लिये मकान पर आये। उन्होंने स्वामीजी के प्राणों पर संकट आया देख उनसे बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। स्वामीजी के बम्बई छोड़ते ही अबुल कलाम आजाद के भाई साहब इतने दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या ही कर ली।

काँग्रेस अधिवेशन में

स्वामी जी अंग्रेजी भाषा एवं शास्त्रों के अच्छे जानकार थे। उनकी असाधारण योग्यता के कारण ही उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया था। आगरा की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर उनका व्याख्यान सुनकर राजा महेन्द्रप्रताप अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मान लिया। वे एक निर्भीक वक्ता थे। राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें सन् 1913 में पहली बार शाहजहाँपुर में सुना था। उन दिनों वे बरेली में निवास करते थे और वहीं से शाहजहाँपुर व्याख्यान देने पधारे थे।

सोमदेव का शरीर काफी दुबला-पतला था किन्तु उनकी वाणी बहुत बुलन्द व इतनी स्पष्ठ थी कि बिना माइक के बोलने पर भी तीन-चार फर्लांग की दूरी से बिल्कुल साफ सुनायी देती थी। उन्हें एक अजीब रोग हो गया था। जब कभी शौच जाते, कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। उन्हें बवासीर नहीं थी परन्तु वे ऐसा बताते थे कि योग-क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आँत सड़ गयी। अतएव चिकित्सकों ने उनका पेट चीरकर आँत काट दी थी। तभी से उन्हें मलद्वार से रक्त जाने का भयंकर रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्यों व डॉक्टरों से इलाज भी कराया परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।

सन् 1915 में कुछ लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि शाहजहाँपुर की जलवायु में कठिन से कठिन रोग समाप्त हो जाते हैं। तभी से वे आर्यसमाज मन्दिर शाहजहाँपुर में ही निवास करने लगे। बिस्मिल ने उनकी सेवा-सुश्रूषा में अपना काफी समय दिया।


स्वामीजी

बाहरी कड़ियाँ

  • मेरे गुरुदेव - रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा (हिन्दी विकीस्रोत पर)