"टिहरी गढ़वाल जिला": अवतरणों में अंतर

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टिहरी गढ़वाल
—  जिला  —
समय मंडल: आईएसटी (यूटीसी+५:३०)
देश  भारत
राज्य उत्तराखण्ड
नगर पालिका अध्यक्ष
जनसंख्या
घनत्व
५,८०,१५३ (२००१ के अनुसार )
क्षेत्रफल ४,४२१ कि.मी²
आधिकारिक जालस्थल: tehri.nic.in

निर्देशांक: 30°23′00″N 78°29′00″E / 30.3833°N 78.4833°E / 30.3833; 78.4833

टिहरी गढ़वाल भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक जिला है। पर्वतों के बीच स्थित यह स्थान बहुत सौन्दर्य युक्त है। प्रति वर्ष बड़ी संख्या में पर्यटक यहां पर घूमने के लिए आते हैं। यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में भी काफी प्रसिद्ध है। यहां आप चम्बा, बुदा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग आदि स्थानों में घूम सकते हैं। यहां की प्राकृतिक खूबसूरती काफी संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर खिंचती है।

इतिहास

टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्‍द ‘त्रिहरी’ से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्‍थान जो तीन तरह के पाप (जो जन्‍मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्‍द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला। सन्‌ 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्‍य करते थे जिन्‍हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इसका पुराना नाम गणेश प्रयाग माना जाता है।[उद्धरण चाहिए]

ऐसा कहा जाता है कि मालवा के राजकुमार कनकपाल एक बार बद्रीनाथ जी (जो आजकल चमोली जिले में है) के दर्शन को गये जहाँ वो पराक्रमी राजा भानु प्रताप से मिले। राजा भानु प्रताप उनसे काफी प्रभावित हुए और अपनी इकलौती बेटी का विवाह कनकपाल से करवा दिया साथ ही अपना राज्‍य भी उन्‍हें दे दिया। धीरे-धीरे कनकपाल और उनकी आने वाली पीढ़ियाँ एक-एक कर सारे गढ़ जीत कर अपना राज्‍य बड़ाती गयीं। इस तरह से सन्‌ 1803 तक सारा (918 सालों में) गढ़वाल क्षेत्र इनके कब्‍जे में आ गया।

उन्‍ही सालों में गोरखाओं के नाकाम हमले (लंगूर गढ़ी को कब्‍जे में करने की कोशिश) भी होते रहे, लेकिन सन्‌ 1803 में आखिर देहरादून की एक लड़ाई में गोरखाओं की विजय हुई जिसमें राजा प्रद्वमुन शाह मारे गये। लेकिन उनके शाहजादे (सुदर्शन शाह) जो उस वक्‍त छोटे थे वफादारों के हाथों बचा लिये गये। धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्‍व बढ़ता गया और इन्‍होनें करीब 12 साल राज्‍य किया। इनका राज्‍य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्‍ट इंडिया कम्‍पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्‍य पुनः छीन लिया।

ईस्‍ट इंडिया कंपनी ने फिर कुमाऊँ, देहरादून और पूर्व (ईस्‍ट) गढ़वाल को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया और पश्‍चिम गढ़वाल राजा सुदर्शन शाह को दे दिया जिसे तब टेहरी रियासत के नाम से जाना गया।

राजा सुदर्शन शाह ने अपनी राजधानी टिहरी या टेहरी शहर को बनाया, बाद में उनके उत्तराधिकारी प्रताप शाह, कीर्ति शाह और नरेन्‍द्र शाह ने इस राज्‍य की राजधानी क्रमशः प्रताप नगर, कीर्ति नगर और नरेन्‍द्र नगर स्‍थापित की। इन तीनों ने 1815 से सन्‌ 1949 तक राज्‍य किया। तब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यहाँ के लोगों ने भी काफी बढ चढ कर हिस्‍सा लिया। आजादी के बाद, लोगों के मन में भी राजाओं के शासन से मुक्‍त होने की इच्‍छा बलवती होने लगी। महाराजा के लिये भी अब राज करना मुश्‍किल होने लगा था। और फिर अंत में 60 वें राजा मानवेन्‍द्र शाह ने भारत के साथ एक हो जाना कबूल कर लिया। इस तरह सन्‌ 1949 में टिहरी राज्‍य को उत्तर प्रदेश में मिलाकर इसी नाम का एक जिला बना दिया गया। बाद में 24 फरवी 1960 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी एक तहसील को अलग कर उत्तरकाशी नाम का एक ओर जिला बना दिया।

पर्यटन स्थल

बूढ़ा केदार मंदिर

हमारे देश मे अनेक प्रसिध्द तीर्थ स्थल एवम सुन्दतम स्थान है। जहां भ्रमण कर मनुष्य स्वयं को भूलकर परमसत्ता का आभास कर आनन्द की प्राप्ति करता है।केदारखंड का गढ़वाल हिमालय तो साक्षात देवात्मा है, जहां से प्रसिध्द तीर्थस्थल बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के अलावा एक और परमपावन धाम है बूढ़ा केदारनाथ धाम जिसका पुराणो में अत्यधिक मह्त्व बताया गया है। इन चारों पवित्र धामॊं के मध्य वृद्धकेदारेश्वर धाम की यात्रा आवश्यक मानी गई है, फलत: प्राचीन समय से तीर्थाटन पर निकले यात्री श्री बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन अवश्य करते रहे हैं। श्रीबूढ़ा केदारनाथ के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यह भूमि बालखिल्या पर्वत और वारणावत पर्वत की परिधि में स्थित सिद्धकूट , धर्मकूट, यक्षकूट और अप्सरागिरी पर्वत श्रेणियों की गोद में भव्य बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थल पांच नदियों क्रमश: बालगंगा, धर्मगंगा, शिवगंगा, मेनकागंगा व मट्टानगंगा के संगम पर था। सिद्धकूट पर्वत पर सिद्धपीठ ज्वालामुखी का भव्य मन्दिर है। धर्मकूट पर महासरताल एवं उत्तर में सहस्रताल एवं कुशकल्याणी, क्यारखी बुग्याल है। यक्षकूट पर्वत पर यक्ष और किन्नरों की उपस्थिति का प्रतीक मंज्याडताल व जरालताल स्थित है। दक्षिण में भृगुपर्वत एवं उनकी पत्नी मेनका अप्सरा की तपोभूमि अप्सरागिरी श्रृंखला है, जिनके नाम से मेड गांव व मेंडक नदी का अपभ्रंस रूप में विध्यामान है। तीन योजन क्षेत्र में फैली हुयी यह भूमि टिहरी रियासत काल में कठूड पट्टी के नाम से जानी जाती थी, जो सम्प्रति नैल्डकठूड, गाजणाकठूड व थातीकठूड इन तीन पट्टियों में विभक्त है। इन तीन पट्टियों का केन्द्र स्थल थातीकठूड है। नब्बे जोला अर्थात 180 गांव को एकात्माता, पारिवारिकता प्रदान करने वाला प्रसिध्द देवता गुरुकैलापीर है, जिसका मुख्य स्थल (थात) यही भूमि है । श्री बूढ़ा केदारनाथ से महासरताल, सहस्र्ताल, मंज्याडाताल, जरालताल, बालखिल्याश्रम भृगुवन तथा विनकखाल सिध्दपीठ ज्वालामुखी भैरवचट्टी हटकुणी होते हुऐ त्रिजुगीनारायण केदारनाथ की पैदल यात्रा की जाती है। स्कन्द पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रुप में वर्णित भगवान बूढ़ा केदार के बारे में मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु पांडव इसी भूमि से स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की ओर गये तो भगवान शंकर के दर्शन बूढॆ ब्राहमण के रुप में बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर यहीं हुऐ और दर्शन देकर भगवान शंकर शिला रुप में अन्तर्धान हो गये। वृद्ध ब्राहमण के रुप में दर्शन देने पर सदाशिव भोलेनाथ बृध्दकेदारेश्वर के या बूढ़ाकेदारनाथ कहलाए। श्रीबूढ़ाकेदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह में विशाकल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शंकर की मूर्ती,लिंग,श्रीगणेश जी एवं पांचो पांडवों सहित द्रोपती के प्राचीन चित्र उकेरे हुए हैं।बगल में भू शक्ति,आकाश शक्ति व पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। साथ ही कैलापीर देवता का स्थान एक लिंगाकार प्रस्तर के रूप में है। बगल वाली कोठरी पर आदि शक्ति महामाया दुर्गाजी की पाषाण मूर्ती विराजमान है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय का पीर बैठता है,जिसके शरीर पर हरियाली पैदा की जाती है। बाह्य कमरे में भगवान गरुड की मूर्ती तथा बाहर मैदान में स्वर्गीय नाथ पुजारियों की समाधियां हैं। केदारखंड में थाती गांव को मणिपुर की संग्या दी गयी है। जहां पर टिहरी नरेशों की आराध्य देवी राजराजेश्वरी प्राचीन मन्दिर व उत्तर में विशाल पीपल के वृक्छ के नीचॆ छोटा शिवालय है जहां माघ व श्रावण रुद्राभिषॆक होता है। जबकि आदिशक्ति व सिध्दपीठ मां राजराजेश्वरी एवं कैलापीर की पूजा व्यवस्था टिहरी नरेश द्वारा बसायॆ गयॆ सेमवाल जाति के लोग करते हैं। कुछ पौराणिक मान्यताऒं एवं किन्ही अपरिहर्य कारणॊ से राजमानी एवं क्षेत्र का प्रसिध्द आराध्य देवता गुरु कैलापीर राजराजेश्वरी मंदिर में वास करता है। देवता (श्रीगुरुकैलापीर)को उठाने वाले सेमवाल जाति के ही लोग हैं जिन्हॆ निज्वाळा कहते है। थाती गांव में श्रीगुरुकैलापीर देवता के नाम से मार्गशीर्ष प्रतिपदा को बलिराज मेला लगता है और दीपावली मनाई जाती है।मार्गशीर्ष के इस दीपावली और मेले में देवता के दर्शन व भ्रमण हेतु दूर दूर से लोग थाती गांव में आते हैं। इस क्षेत्र के देश विदेश में रहने वाले प्रवासी अपने आराध्य के दर्शन हेतु वर्ष मे इसी मौके की प्रतिक्छा करते है। कुछ लोग मानते है कि गढवाल के भड बीर माधॊसिंह भण्डारी का इस क्षेत्र से विशॆष लगाव था,जिनकी स्मृति में लोग मार्गशीर्ष में दीपावली मनाते हैं। बूढ़ाकेदार पवित्र तीर्थस्थल होने के साथ साथ एक सुरम्य स्थल भी है। गांव के दोनो ऒर से पवित्र जल धाऱायें बालगंगा व धर्मगंगा के रूप में प्रवाहित होती है। यह इलाका अपनी सुरम्यता के कारण पर्यटकॊं को अपनी ऒर आकर्षित करने की पूर्ण छमता रखता है। घनशाली से 30 कि0मी0 दूरी पर स्थित यह स्थल पर्यटकॊं को शांति एवं आनंद प्रदान करने में सक्षम है। देवप्रयाग एक प्राचीन शहर है। यह भारत के सर्वाधिक धार्मिक शहरों में से एक है। इस स्थान पर अलखनंदा और भागीरथी नदियां आपस में मिलती है। देवप्रयाग शहर समुद्र तल से 472 मी। की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गृद्धाचल के नाम से जाना जाता है। यह जगह गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि के रूप में भी जानी जाती है। माना जाता है कि इस स्थान पर ही भगवान राम ने किन्नर को मुक्त किया था। इसे ब्रह्माजी ने शाप दिया था जिस कारण वह मकड़ी बन गई थी।

महासरताल

केदारखंड हिमालय ऋषि मुनियों की तप स्थली रही है।ऋषि मुनियों ने इस पवित्र पर विश्व जन कल्याण के निमित धर्म ग्रन्थॊ की रचना की है। जॊ कि भारतीय संस्कृति के मूल श्रॊत है ऒर यह बात हम दवॆ के साथ कह सकते है कि इसी हिमालय से भारतीय संस्कृति पूरे देश मे फैली। केदारखंड हिमालय की आदिम जातियों मे कील,भील,किन्नर,गंधर्व,गुर्जर, नाग आदि को गिना जाता है।इन जातियॊ से समंधित अनेक गांव आज भी यहाँ मॊजूद है जैसे नागनाथ,नागराजाधार,नगुण,नागेश्वरसौड़,नागणी आदि आदि।।।। बहरहाल यह प्रसांगिक है,इस बारे में आगे कभी उल्लॆख होगा।आज की श्रृंखला में नागॊं का उल्लॆख् करता हूं। केदार हिमालय में नाग जाति के रहने के पुष्ट प्रमाण मिलते है। गढ़वाल मे नागराजा का मुख्य स्थान सेम मुखॆम माना जाता है,इसी संदर्व मे नागवंश मे महासरनाग का विशिष्ट स्थान है।जॊ कि बालगंगा क्षेत्र मे महत्वपूर्ण देवता की श्रॆणी मे गिना जाता है।महासरनाग का निवास स्थान महासरताल है। महासरताल बूढ़ाकेदार से करीब 10 कि।मी।उत्तर की ऒर लगभग दस हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित है।प्राकृतिक सॊन्दर्य से भरपूर, भिन्न भिन्न प्रजातियों एवं दुर्लभ वृक्छॊं की ऒट मे स्थित महासरताल से जुड़ी संछिप्त मगर ऐतिहासिक गाथा के बारे मे जानने के लियॆ करीब तेरह सौ साल पुराने इतिहास को खंगलाना पड़ॆगा। करीब तेरह सौ वर्ष पूर्व मैकोटकेमर मे धुमराणा शाह नाम का राजा राज्य करता था इनका एक ही पुत्र हुआ जिनका नाम था उमराणाशाह जिसकी कोई संतान न थी।उमराणाशाह ने पुत्र प्राप्ति के लियॆ शॆषनाग की तपस्या की।उमराणाशाह तथा उनकी पत्नी फुलमाळा की तपस्या से शॆषनाग प्रस न्न हुयॆ और मनुष्य रूप मे प्रकट होकर उन्हॆ कहा कि मै तुम्हारे घर मे नाग रूप मे जन्म लूँगा।फलत: शॆषनाग ने फुलमाळा के गर्भ से दो नागॊं के रूप में जन्म लिया जॊ कि कभी मानव रूप मे तो कभी नाग रूप मे परिवर्तित होते रहते थॆ ।नाग का नाम महासर (म्हार)तथा नागिन का नाम माहेश्वरी (म्हारीण)रखा गया। उमराणाशाह की दो पत्नियां थी।दूसरी पत्नि की कोई संतान न थी।सौतेली मां की कूटनीति का शिकार होने के कारण उन नाग।नागिन (भाई बहिन)को घरसे निकाल दिया गया।फलस्वरूप दोनो भाई बहिनो ने बूढ़ाकेदार क्षेत्र मे बालगंगा के तट पर विशन नामक स्थान चुना। विशन मे आज भी इनका मन्दिर विध्यमान है। इन नागॊं ने मनुष्य रूप मे अवतरित होकर भट्ट वंश के पुरखॊं से वचनबध्द हुयॆ कि तुम हमारी परम्परा के अनुसार मन्दिर मे पूजा करॊगे। आज भी इस परम्परा का निर्वहन विधिवत किया जा रहा है,यानि भट्ट जाति के लोग नाग की पूजा अनवरत् रूप में करते आ रहे है। उल्लॆखनीय है कि इन भट्ट पुजारियॊ के पास महाराजा सुदर्शनशाह द्वारा नागपूजा विषयक दिया गया ताम्रपत्र सुरक्छित है।बालगंगा क्षेत्र के राणा जाति के लोगो को 'नागवंशी राणा' कहा जाता है (दूसरा वंश सूर्यवंशी कहा जाता है)।

विशन गाँव के अतिरिक्त नाग वंशी दोनो भाई बहिनो ने एक और स्थान चुना जॊ विशन गाँव के काफी ऊपर है जिसे 'महसरताल' कहते है(पौराणिक नाम कुछ रहा होगा जॊ अग्यात है)।नाग विष्णु स्वरूप जल का देवता माना जाता है और नाग देवता का निवास जल मे ही होता है अत: इस स्थान पर दो बड़ी बड़ी झीलॆं है जिन्हॆ 'म्हार'और 'म्हारीणी' का ताल कहा जाता है।कहते है नागवंशी दोनो भाई बहिन इन्ही दो तालॊं मे निवास करते है। महासरताल मे 'म्हार' देवता का एक पौराणिक मन्दिर है जिसके गर्भगृह मे पत्थर का बना नाग देवता है।गंगा दशहरा के अवसर पर महासरनाग की मूर्ति (नागदेवता)मूल मन्दिर विशन से डॊली मे रखकर महासरताल स्नान के लियॆ ले जायी जाती है। इस पुण्य पर्व पर माहासरनाग को मंत्रॊच्चार के साथ वैदिक रीति से स्नान कराकर यग्य,पूजा।अर्चना आदि करायी जाती है। इस अवसर पर दूर_ दूर से श्रध्दालु आकर इस ताल मे स्नान कर पुण्य कमाते है।गंगा दशहरा को लगने वाला यह मेला प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इस ताल की लंबाई करीब 70 मीटर तथा चौड़ाई 20 मीटर के लगभग है।जबकि 'म्हारीणी' ताल वृताकार है।दोनो तालॊं की गहराई का पता नही चल पाया।

कैम्पटी फॉल

साँचा:Main।कैम्पटी फॉल यह काफी प्रसिद्ध जगह है। मसूरी स्थित केम्पटी फॉल टिहरी से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह हिल स्टेशन के रूप में अधिक जानी जाती है जो यमनोत्री मार्ग पर स्थित है। यहां स्थित वाटर फॉल (जल प्रपात ) खूबसूरत घाटी पर स्थित है। हर साल यहां हजारों की संख्या में देशी एवं विदेशी पर्यटक यहां आते हैं।

नागटिब्बा

यह जगह समुद्र तल से 3040 मीटर की ऊंचाई पर मसुरी से 70 किमी दूर यमनोत्री मार्ग से होते हुये नैनबाग से कुछ दूर स्थित है। यहां से आप हिमालय की खूबसूरत वादियों के नजारों का लुफ्त उठा सकते हैं। इसके अतिरिक्‍त यहां से देहरादून की घाटियों का नजारा भी देखा जा सकता है। नगतिबा ट्रैर्क्‍स और पर्वतारोहियों के लिए बिल्कुल सही जगह है। इस स्थान की प्राकृतिक सुंदरता यहां पर्यटकों को अपनी ओर अधिक आकर्षित करती है। नगतिबा पंतवारी से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान अधिक ऊंचाई पर होने के कारण यहां रहने की सुविधा नहीं है। इसलिए ट्रैर्क्‍स पंतवारी में कैम्प में रहा करते हैं। इसलिए आप जब इस जगह पर जाएं तो अपने साथ टैंट व अन्य सामान जरूर ले कर जाएं। यह स्थान नागराजा मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है

नरेन्द्र नगर

साँचा:Main।नरेंद्रनगर नरेन्द्र नगर मुनि-की-रीति से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह जगह समुद्र तल से 1,129 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।

चम्बा

साँचा:Main।चंबा चम्बा मंसूरी से 60 किलोमीटर और नरेन्द्र नगर से 48 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान समुद्र तल से 1676 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से बर्फ से ढके हिमालय पर्वत और भागीरथी घाटी का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। चम्बा अपने स्वादिष्ट सेबों के लिए भी प्रसिद्ध है। यह स्थान देवप्रयाग से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंद्रबदनी पंहुचने के लिये आपको देवप्रयाग से जामनी खाल होते हुये नैखरि एवम् जुराना बैन्ड तक गाडी मे जाना होगा। यह एक रमनीक स्थल भी है,उत्तराखन्ड मे माता के तीन सिधपीठ -शुरकन्डा, कुन्जापुरि एवम् चन्द्रबदनी है, जिनके दर्शन आप उपरोक्त तीनो मे से किसी एक मन्दिर मे खडे होकर कर सकते हो, ऐसा माना जाता है कि राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाने के कारण माता सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इसके पश्चात् भगवान शिव ने सती को हवन कुंड से निकाल कर अपने कंधों पर रख लिया। इस प्रकार वह कई वर्षो तक सती को लेकर इधर-उधर घूमते रहे। इसके बाद भगवान विष्णु ने माता सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र द्वारा 52 हिस्सों में कांट दिया। माता सती के शरीर का (बदन) हिस्सा चन्द्रबदनी के नाम से,सिर का हिस्सा सुरकन्डा के नाम से तथा घुटने(गुन्जे)कुन्जापुरी के नाम से प्रसिध हो गये। मंदिर के आसपास कई अन्य छोट-छोटे मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष नवरात्रो में इस स्थान पर बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है।पहले किसी समय यहॉ पर बलि प्रथा का बडा चलन था जिसमे भैसा तथा बकरे का बलीदान दिया जाता था,स्वामी (स्व॰)मनमथन के अथक प्रयासो से इस प्रचलन को बन्द करवाया गया, आप पैदल यात्रा से भी यहॉ जा सकते है, मा चन्द्र्बदनी के चरणो मे बसा एक छोठा सा कस्वा है अन्जनी सैण जिससे २ किमी की दूरी पर स्थित है कैथोली गॉव यहॉ से आप घोघस के रास्ते पैदल चन्द्रबदनी के लिये अपनी यात्रा शुरु कर सकते है।

सेम मुखेम

यह जगह समुद्र तल से 2903 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर नाग राज का है। यह मंदिर पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है। मुखेम गांव से इस मंदिर की दूरी दो किलोमी।है। माना जाता है कि मुखेम गांव की स्थापना पंड़ावों द्वारा की गई थी।

धनौल्टी

साँचा:Main।धनौल्टी धनौलटी एक गांव है। जो कि चम्बा से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह गांव ऑक, देवदार और सदाबहार पौधों (गुलाब जसे दिखने वाला) से घिरा हुआ है। यह गांव छुट्टिया बिताने और पिकनिक स्थल के रूप में बिल्कुल उचित जगह है। यह गांव चारों ओर से जंगलों और बर्फ से ढके पर्वतों से घिरी हुई है। यह जगह काफी शान्तिपूर्ण स्थल के रूप में भी जानी जाती है जिस कारण यहां पर्यटकों की भीड़ अधिक रहती है।

अवागमन

हवाई अड्डा

सबसे नजदीकी हवाई अड्डा जोलीग्रांट हवाई अड्डा है। टिहरी जोलीग्रांट से 93 किलोमीटर की दूरी पर है।

रेल मार्ग

ऋषिकेश सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है। ऋषिकेश से टिहरी 76 किलोमीटर दूर स्थित है।

सड़क मार्ग

नई टिहरी कई महत्वूर्ण मार्गो जैसे देहरादून, मसूरी, हरिद्वार, पौढ़ी, ऋषिकेश और उत्तरकाशी आदि जगहों से जुड़ा हुआ है। आस-पास की जगह घूमने के लिए टैक्सी द्वारा भी जाया जा सकता है।

बाहरी कड़ियां