"ईरान का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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असीरिया के शाह ने लगभग ७२० ईसापूर्व के आसपास इसरायल पर अधिपत्य जमा लिया। इसी समय कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। ५३० ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन फ़ारसी नियंत्रण में आ गया। उसी समय कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए। इस दोरान जो यहूदी मीदि में रहे उनपर ज़रदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।
असीरिया के शाह ने लगभग ७२० ईसापूर्व के आसपास इसरायल पर अधिपत्य जमा लिया। इसी समय कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। ५३० ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन फ़ारसी नियंत्रण में आ गया। उसी समय कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए। इस दोरान जो यहूदी मीदि में रहे उनपर ज़रदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।
===हखामनी===
===हखामनी===
[[Image:Map achaemenid empire en.png|thumb|left|540px|प्राचीन ईरान का [[हख़ामनी साम्राज्य]] 500 ईसापूर्व के आसपास]]
[[Image:Map achaemenid empire en.png|thumb|left|540px|प्राचीन ईरान का [[हख़ामनी साम्राज्य]] ५०० ईसापूर्व के आसपास]]
इस समय तक फारस मीदि साम्राज्य का अंग और सहायक रहा था । लेकिन ईसापूर्व 549 के आसपास एक फारसी राजकुमार सायरस (आधुनिक फ़ारसी में कुरोश) ने मीदि के राजा के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया । उसने मीदि राजा एस्टिएज़ को पदच्युत कर राजधानी एक्बताना (आधुनिक [[हमादान]]) पर नियंत्रण कर लिया । उसने [[हखामनी वंश]] (एकेमेनिड) की स्थापना की और मीदिया और फ़ारस के रिश्तों को पलट दिया । अब फ़ारस सत्ता का केन्द्र और मीदिया उसका सहायक बन गया । पर कुरोश यहाँ नहीं रुका । उसने लीडिया, एशिया माइनर ([[तुर्की]]) के प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया । उसका साम्राज्य तुर्की के पश्चिमी तट (जहाँ पर उसके दुश्मन ग्रीक थे) से लेकर [[अफ़गानिस्तान]] तक फैल गया था । उसके पुत्र कम्बोजिया (केम्बैसेस) ने साम्राज्य को [[मिस्र]] तक फैला दिया । इसके बाद कई विद्रोह हुए और फिर दारा प्रधम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया । उसने धार्मिक कट्टरता का मार्ग अपनाया और यहूदियों के ख़िलाफ जनमत बनाने की चेष्टा की । यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार दारा ने युवाओं का समर्थन प्राप्त कपने की पूरी कोशिश की । उसने सायरस या केम्बैसेस की तरह कोई खास सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की पर उसने ५१२ इसापूर्व के आसपास य़ूरोप में अपना सैन्य अभियान चलाया था । उसके बाद पुत्र खशायर्श (क्ज़ेरेक्सेस) शासक बना जिसे उसके ग्रीक अभियानों के लिए जाना जाता है । उसने [[एथेन्स]] तथा [[स्पार्टा]] के राजा को हराया पर बाद में उसे सलामिस के पास हार का मुँह देखना पड़ा जिसके बाद उसकी सेना क्षत-विक्षत हो गई । क्ज़ेरेक्सेस के पुत्र अर्तेक्ज़ेरेक्सेस ने ४६५ ईसा पूर्व में गद्दी सम्हाली । उसके बाद अर्तेक्ज़ेरेक्सेस द्वितीय , फिर अर्तेक्ज़ेरेक्सेस तृतीय और उसके बाद दारा तृतीय । दारा तृतीय के समय तक (३३६ ईसा पूर्व) फ़ारसी सेना काफ़ी संगठित हो गई थी । सेना में घुड़सवार अधिक मात्रा में हो गए थे और सैन्य कौशल भी बढ़ गया था ।
इस समय तक फारस मीदि साम्राज्य का अंग और सहायक रहा था। लेकिन ईसापूर्व ५४९ के आसपास एक फारसी राजकुमार सायरस (आधुनिक फ़ारसी में कुरोश) ने मीदि के राजा के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उसने मीदि राजा एस्टिएज़ को पदच्युत कर राजधानी एक्बताना (आधुनिक [[हमादान]]) पर नियंत्रण कर लिया। उसने [[हखामनी वंश]] (एकेमेनिड) की स्थापना की और मीदिया और फ़ारस के रिश्तों को पलट दिया। अब फ़ारस सत्ता का केन्द्र और मीदिया उसका सहायक बन गया। पर कुरोश यहाँ नहीं रुका। उसने लीडिया, एशिया माइनर ([[तुर्की]]) के प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। उसका साम्राज्य तुर्की के पश्चिमी तट (जहाँ पर उसके दुश्मन ग्रीक थे) से लेकर [[अफ़गानिस्तान]] तक फैल गया था। उसके पुत्र कम्बोजिया (केम्बैसेस) ने साम्राज्य को [[मिस्र]] तक फैला दिया। इसके बाद कई विद्रोह हुए और फिर दारा प्रधम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उसने धार्मिक कट्टरता का मार्ग अपनाया और यहूदियों के ख़िलाफ जनमत बनाने की चेष्टा की। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार दारा ने युवाओं का समर्थन प्राप्त करने की पूरी कोशिश की। उसने सायरस या केम्बैसेस की तरह कोई खास सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की पर उसने ५१२ इसापूर्व के आसपास य़ूरोप में अपना सैन्य अभियान चलाया था। उसके बाद पुत्र खशायर्श (क्ज़ेरेक्सेस) शासक बना जिसे उसके ग्रीक अभियानों के लिए जाना जाता है। उसने [[एथेन्स]] तथा [[स्पार्टा]] के राजा को हराया पर बाद में उसे सलामिस के पास हार का मुँह देखना पड़ा जिसके बाद उसकी सेना क्षत-विक्षत हो गई। क्ज़ेरेक्सेस के पुत्र अर्तेक्ज़ेरेक्सेस ने ४६५ ईसा पूर्व में गद्दी सम्हाली। उसके बाद अर्तेक्ज़ेरेक्सेस द्वितीय, फिर अर्तेक्ज़ेरेक्सेस तृतीय और उसके बाद दारा तृतीय। दारा तृतीय के समय तक (३३६ ईसा पूर्व) फ़ारसी सेना काफ़ी संगठित हो गई थी। सेना में घुड़सवार अधिक मात्रा में हो गए थे और सैन्य कौशल भी बढ़ गया था।


==सिकन्दर का आक्रमण ==
==सिकन्दर का आक्रमण ==

11:04, 13 जुलाई 2008 का अवतरण

ईरान का पुराना नाम फारस है और इसका इतिहास बहुत ही नाटकीय रहा है। साम्राज्यों के बनने, बिगड़ने से लेकर पुनरोद्भव और प्रतशोध की कई कहानियाँ ईरानी इतिहास को जीवंत बनाती हैं। ईसा के ६०० साल पहले के हखामनी शासकों द्वारा पश्चिम एशिया तथा मिस्र में विजय से लेकर अठारहवीं सदी में नादिरशाह के भारत पर आक्रमण करने के बीच में कई साम्राज्यों ने फ़ारस पर शासन किया। इनमें से कुछ फ़ारसी सांस्कृतिक क्षेत्र के थे तो कुछ बाहरी। फारसी सास्कृतिक प्रभाव वाले क्षेत्रों में आधुनिक ईरान के अलावा इराक का दक्षिणी भाग, अज़रबैजान, पश्चिमी अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान का दक्षिणी भाग और पूर्वी तुर्की भी शामिल हैं। ये सब वो क्षेत्र हैं जहाँ कभी फारसी सासकों ने राज किया था और जिसके कारण उनपर फारसी संस्कृति का प्रभाव पड़ा था।

सातवीं सदी में ईरान में इस्लाम आया। इससे पहले ईरान में जरदोश्त के धर्म के अनुयायी रहते थे। ईरान शिया इस्लाम का केन्द्र और जन्मदाता माना जाता है। कुछ लोगों ने इस्लाम कबूल करने से मना कर दिया तो उन्हें यातनाएं दी गई। इनमें से कुछ लोग भाग कर भारत के गुजरात तट पर आ गए। ये आज भी भारत में रहते हैं और इन्हें पारसी कहा जाता है। सूफ़ीवाद का जन्म ईरान में ११वीं सदी के आसपास हुआ। १९७९ की इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान की राजनैतिक स्थिति में बहुत उतार-चढ़ाव आता रहा है। ईराक के साथ युद्ध ने भी देश को इस्लामिक जगत में एक अलग जगह पर ला खड़ा किया है।

आर्यों का आगमन और फारस

माना जाता है कि ईरान में पहले पुरापाषाणयुग कालीन लोग रहते थे। यहाँ पर मानव निवास एक लाख साल पुराना हो सकता है। लगभग ५००० ईसापूर्व से खेती आरंभ हो गई थी। मेसोपोटामिया की सभ्यता के स्थल के पूर्व में मानव बस्तियों के होने के प्रमाण मिले हैं।

ईरानी लोग (आर्य) लगभग २००० ईसापूर्व के आसपास उत्तर तथा पूरब की दिशा से आए। इन्होंने यहाँ के लोगों के साथ एक मिश्रित संस्कृति की आधारशिला रखी जिससे ईरान को उसकी पहचान मिली। आधिनुक ईरान इसी संस्कृति पर विकसित हुआ। ये यायावर लोग ईरानी भाषा बोलते थे और धीरे धीरे इन्होंने कृषि करना आरंभ किया।

आर्यों का कई शाखाए ईरान (तथा अन्य देशों तथा क्षेत्रों) में आई। इनमें से कुछ मिदि, कुछ पार्थियन, कुछ फारसी, कुछ सोगदी तो कुछ अन्य नामों से जाने गए। मिदि तथा फारसियों का ज़िक्र असीरियाई स्रोतों में ८३६ ईसापूर्व के आसपास मिलता है। लगभग इसी समय जरथुस्ट्र (ज़रदोश्त या ज़ोरोएस्टर के नाम से भी प्रसिद्ध) का काल माना जाता है। हालाँकि कई लोगों तथा ईरानी लोककथाओं के अनुसार ज़रदोश्त बस एक मिथक था कोई वास्तविक आदमी नहीं। पर चाहे जो हो उसी समय के आसपास उसके धर्म का प्रचार उस पूरे प्रदेश में हुआ।

असीरिया के शाह ने लगभग ७२० ईसापूर्व के आसपास इसरायल पर अधिपत्य जमा लिया। इसी समय कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। ५३० ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन फ़ारसी नियंत्रण में आ गया। उसी समय कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए। इस दोरान जो यहूदी मीदि में रहे उनपर ज़रदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।

हखामनी

प्राचीन ईरान का हख़ामनी साम्राज्य ५०० ईसापूर्व के आसपास

इस समय तक फारस मीदि साम्राज्य का अंग और सहायक रहा था। लेकिन ईसापूर्व ५४९ के आसपास एक फारसी राजकुमार सायरस (आधुनिक फ़ारसी में कुरोश) ने मीदि के राजा के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। उसने मीदि राजा एस्टिएज़ को पदच्युत कर राजधानी एक्बताना (आधुनिक हमादान) पर नियंत्रण कर लिया। उसने हखामनी वंश (एकेमेनिड) की स्थापना की और मीदिया और फ़ारस के रिश्तों को पलट दिया। अब फ़ारस सत्ता का केन्द्र और मीदिया उसका सहायक बन गया। पर कुरोश यहाँ नहीं रुका। उसने लीडिया, एशिया माइनर (तुर्की) के प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। उसका साम्राज्य तुर्की के पश्चिमी तट (जहाँ पर उसके दुश्मन ग्रीक थे) से लेकर अफ़गानिस्तान तक फैल गया था। उसके पुत्र कम्बोजिया (केम्बैसेस) ने साम्राज्य को मिस्र तक फैला दिया। इसके बाद कई विद्रोह हुए और फिर दारा प्रधम ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उसने धार्मिक कट्टरता का मार्ग अपनाया और यहूदियों के ख़िलाफ जनमत बनाने की चेष्टा की। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के अनुसार दारा ने युवाओं का समर्थन प्राप्त करने की पूरी कोशिश की। उसने सायरस या केम्बैसेस की तरह कोई खास सैनिक सफलता तो अर्जित नहीं की पर उसने ५१२ इसापूर्व के आसपास य़ूरोप में अपना सैन्य अभियान चलाया था। उसके बाद पुत्र खशायर्श (क्ज़ेरेक्सेस) शासक बना जिसे उसके ग्रीक अभियानों के लिए जाना जाता है। उसने एथेन्स तथा स्पार्टा के राजा को हराया पर बाद में उसे सलामिस के पास हार का मुँह देखना पड़ा जिसके बाद उसकी सेना क्षत-विक्षत हो गई। क्ज़ेरेक्सेस के पुत्र अर्तेक्ज़ेरेक्सेस ने ४६५ ईसा पूर्व में गद्दी सम्हाली। उसके बाद अर्तेक्ज़ेरेक्सेस द्वितीय, फिर अर्तेक्ज़ेरेक्सेस तृतीय और उसके बाद दारा तृतीय। दारा तृतीय के समय तक (३३६ ईसा पूर्व) फ़ारसी सेना काफ़ी संगठित हो गई थी। सेना में घुड़सवार अधिक मात्रा में हो गए थे और सैन्य कौशल भी बढ़ गया था।

सिकन्दर का आक्रमण

पर इसी समय मेसीडोनिया (मकदूनिया) में सिकन्दर का उदय हो रहा था । ३३४ ईसापूर्व में सिकन्दर ने एशिया माईनर पर धावा बोल दिया । दारा को भूमध्य सागर के तट पर इसुस में हार का मुँह देखना पड़ा । इसके बाद सिकंदर ने तीन बार दारा को हराया । सिकन्दर इसापूर्व ३३० में पर्सेपोलिस आया और उसके फतह के बाद उसने शहर को जला देने का आदेश दिया । सिकन्दर ने ३२६ इस्वी में भारत पर आक्रमण किया और फिर वो वापस लौट गया । ३२३ इसापूर्व के आसपास, बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गई । उसकी मृत्यु के बाद उसके जीते फारसी साम्राज्य को इसके सेनापतियों ने अपने में विभाजित कर लिया ।

पार्थियन

ईसा के सौ साल पहले सीथियों (जिसके भारतीय परवर्ती शक नाम से जाने गए) और पार्थियनों का साम्राज्य

सिकन्दर के सबसे काबिल सेनापतियों में से एक था सेल्युकस । उसका नियंत्रण मेसोपोटामिया तथा इरानी पठारी क्षेत्रों पर था । लेकिन इसी समय से उत्तर पूर्व में पार्थियों का विद्रोह आरंभ हो गया था । पार्थियनों ने हखामनी शासकों की भी नाक में दम कर रखा था । पार्थियनों ने पश्चिम में रोमनों का समना किया और पूर्व में शकों (सीथियों) को । इमें उनका शासन प्रायः अशांत रहा । मित्राडेट्स ने ईसापूर्व १२३ से ईसापूर्व ८७ तक अपेक्षाकृत स्थायित्व से शासन किया । मित्रा़डेट्स ने रोमन सीरिया के गवर्नर (राज्यपाल) क्रेसस को कार्हे के युद्ध में हरा दिया । इस युद्ध में क्रेसस ने पार्थियनों के सेनापति सुरेन के साथ समझौता करने की भी कोशिश की, पर उसका अंत सिर कटने के बाद हुई । सुरेन के चरित्र को ही शायद बाद में दसवीं सदी में फ़ारसी कवि फिरदौसी ने अपने ग्रंथ शाहनामे (राजाओं का गुणगान) में रुस्तम नाम से अमर कर दिया है । रुस्तम न सिर्फ एक बहादुर सेनापति था बल्कि एक भावुक प्रेमी भी ।

जूलियस सीज़र की हत्या के समय पार्थियनों ने कुछ रोमन क्षेत्रों पर अधिकार किया जिसमें मध्यपूर्व का इलाका भी शामिल है । अगले कुछ सालों तक शासन की बागडोर तो पार्थियनों के हाथ ही रही पर उनका नेतृत्व और समस्त ईरानी क्षेत्रों पर उनकी पकड़ ढीली ही रही । अगले कुछ वर्षों में रोमनों के साथ पार्य़ियनों के कई युद्ध हुए जिसमें कई बार पार्थियनों को हार का मुँह देखना पड़ा पर इसी समय उन्होंने पूर्व में पंजाब में एक भारतीय-पार्थियन संस्कृति को जन्म दिया ।

सासानी वंश

सासानी वंश का विस्तार - 610 इस्वी में ।

इसके बाद फारस की सत्ता पर किसी एकमात्र सासक का प्रभुत्व नहीं रहा । हँलांकि रोमनों ने दज़ला नदी (टिगरिस) के पार कभी भी अपना प्रभाव नहीं बढ़ाया पर फारसी शासक रोमनों के मुकाबले दबे ही रहे । पर दूसरी सदी के बाद से सासानी शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई । उन्होंने रोमन साम्राज्य को चुनौती दी और कई सालों तक उनपर आक्रमण करते रहे । सन् २४१ में शापुर ने रोमनों को मिसिको के युद्ध में हराया । २४४ इस्वी तक अर्मेनिया फारसी नियंत्रण में आ गया । इसके अलावा भी पार्थियनों ने रोमनों को कई जगहों पर परेशान किया सन् २७३ में शापुर की मृत्यु हो गई । सन् २८३ में रोमनों ने फारसी क्षेत्रों पर फिर से आक्रमण कर दिया । इसके फलस्वरूप अर्मेनिया के दो भाग हो गए - रोमन नियंत्रण वाले और फारसी नियंत्रण वाले । शापुर के पुत्रों को और भी समझौते करने पड़े और कुछ और क्षेत्र रोमनों के नियंत्रण में चले गए । सन् ३१० में शापुर द्वितीय गद्दी पर युवावस्था में बैठा । उसने ३७९ इस्वी तक शासन किया । ुसका शासन अपेक्षाकृत शांत रहा । उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई । उसके उत्तराधिकारियों ने वही शांति पूर्ण विदेश नीति अपनाई पर उनमें सैन्य सबलता की कमी रही । आर्दशिर ध्वितीय, शापुर तृतीय तथा बहराम चतुर्थ सभी संदिग्ध अवस्था में मारे गए । उनके वारिस यज़्देगर्द ने रोमनों के साथ शाति बनाए रखा । उसके शासनकाल में रोमनों के साथ सम्बंध इतने शांतिपूर्ण हो गए कि पूर्वी रोमन साम्राज्य के शासक अर्केडियस ने यज़्देगर्द को अपने बेटे का अभिभावक बना दिया । उसके बाद बहरम पंचम शासक बना जो जंगली जानवरों के शिकार का शोकीन था । वो ४३८ इस्वी के आसपास एक जंगली खेल देखते वक्त लापता हो गया जिसके बाद उसके बारे में कुछ पता नहीं चल सका ।


इसके बाद की अराजकता में कावद प्रथम ४८८ इस्वी में शासक बना । इसके बाद खुसरो (५३१-५७९), होरमुज़्द चतुर्थ (५७९-५८९), खुसरो द्वितीय (५९० - ६२७) तथा यज्देगर्द तृतीय का शासन आया । जब यज़्देगर्द ने सत्ता सम्हाली तब वो केवल ८ साल का था ।

इस्लाम का उदय और अरब

इसी समय अरब, मुहम्मद साहब के नेतृत्व में काफी शक्तिशाली हो गए थे । सन् ६३४ में उन्होने ग़ज़ा के निकट बेजेन्टाइनों को एक निर्णायक युद्ध में हरा दिया । फारसी साम्राज्य पर भी उन्होंने आक्रमण किए थे पर वे उतने सफल नहीं रहे थे । सन् ६४१ में उन्होने हमादान के निकट यज़्देगर्द को हरा दिया जिसके बाद वो पूरब की तरफ सहायता याचना के लिए भागा पर उसकी मृत्यु मर्व में सन् ६५१ में उसके ही लोगों द्वारा हुई । इसके बाद अरबों का प्रभुत्व बढ़ता गया । उन्होंने ६५४ में खोरासान पर अधिकार कर लिया और ७०७ िस्वी तक बाल्ख ।

शिया इस्लाम

मुहम्मद साहब की मृत्यु के उपरांत उनके वारिस को ख़लीफा कहा जाता था जो इस्लाम का प्रमुख माना जाता था । चौथे खलीफा अली, मुहम्मद साहब के फरीक थे और उनकी पुत्री फ़ातिमा के पति । पर उनके खिलाफत को चुनौती दी गई और विद्रोह भी हुए । सन् ६६१ में अली की हत्या कर दी गई । इसके बाद उम्मयदों का प्रभुत्व इस्लाम पर हो गया । सन् ६८० में करबला में अली के दूसरे पुत्र हुसैन ने उम्मयदों के खिलाफ़ बगावत की पर उनको एक युद्ध में मार दिया गया । इसी दिन की याद में शिया मुसलमान महुर्रम मनाते हैं । इस समय तक इस्लाम दो खेमे में बट गया था - उम्मयदों का खेमा और अली के खेमा । जो उम्मयदों को इस्लाम के वास्तविक उत्तराधिकारी समझते थे वे सुन्नी कहलाए और जो अली को वास्तविक खलीफा (वारिस) मानते थे वे शिया । सन् ७४० में उम्मयदों को तुर्कों से मुँह की खानी पड़ी । उसी साल एक फारसी परिवर्तित - अबू मुस्लिम - ने उम्मयदों के खिलाफ़ मुहम्मद साहब के वंश के नाम पर उम्मयदों के खिलाफ एक बड़ा जनमानस तैयार किया । उन्होंने सन् ७४९-५० के बीच उम्मयदों को हरा दिया और एक नया खलीफ़ा घोषित किया - अबुल अब्बास । अबुल अब्बास अली और हुसैन का वंशज तो नही पर मुहम्मद साहब के एक और फरीक का वंशज था । उससे अबु मुस्लिम की बढ़ती लोकप्रियता देखी नहीं गई और उसको ७५५ इस्वी में फाँसी पर लटका दिया । इस घटना को शिया इस्लाम में एक महत्वपूर्ण दिन माना जाता है क्योंकि एक बार फिर अली के समर्थकों को हाशिये पर ला खड़ा किया गया था । अबुल अब्बास के वंशजों ने कई सदियों तक राज किया । उसका वंश अब्बासी वंश (अब्बासिद) कहलाया और उन्होंने अपनी राजदानी बगदाद में स्थापित की । तेरहवी सदी में मंगोलों के आक्रमण के बाद बगदाद का पतन हो गया और ईरान में फिर से कुछ सालों के लिए राजनैतिक अराजकता छाई रही ।

सूफीवाद

अब्बासिद काल में ईरान की प्रमुख घटनाओं में से एक थी सूफ़ी आंदोलन का जन्म । सूफी वे लोग थे जो धार्मिक कट्टरता के शिकार थे और सरल जीवन पसन्द करते थे । इस आंदोलन ने फ़ारसी भाषा में अभूतपूर्व कवियों को जन्म दिया । रुदाकी, फिरदौसी, उमर खय्याम, नासिर-ए-खुसरो, रुमी, इराकी, सादी, हफीज आदि उस काल के प्रसिद्ध कवि हुए। इस काल की फारसी कविता को कई जगहों पर विश्व का सबसे बेहतरीन काव्य कहा गया है । इनमें से कई कवि सूफी विचारदारा से ओतप्रोत थे और अब्बासी शासन के अलावा कइयों को मंगोलों का जुल्म भी सहना या देखना पड़ा था ।


साफ़वी वंश

पंद्रहवीं सदी में जब मंगोलों की शक्ति क्षीण होने लगी तब ईरान के उत्तर पश्चिम में तुर्क घुड़सवारों से लैश एक सेना का उदय हुआ। इसके मूल के बारे में मतभेद है पर उन्होंने साफ़वी वंश की स्थापना की । वे शिया बन गए और आने वाली कई सदियों तक उन्होंने इरानी भूभाग और फ़ारस के प्रभुत्व वाले इलाकों पर राज किया । इस समय शिया इस्लाम बहुत फला फूला। १७२० के अफगान और पूर्वी विद्रोहों के बाद धीरे धीरे साफावियों का पतन हो गया । अफ़गानों ने सफ़ावी राजधानी इस्फ़हान पर कब्जा कर लिया और शाह अब्बास और उसके पुत्र तहमास्य को कैद कर लिया । तहमास्य भाग निकलने में तो सफल रहा पर इस्फ़हान पर अफ़गानों का नियंत्रण बना रहा ।

नादिर शाह

सन् 1729 में नादिर कोहली ने अफ़गानों के प्रभुत्व को कम किया । उसने अपना जीवन विपन्नता से आरंभ किया था और फारस का शाह ही न बना बल्कि उसने उस समय ईरानी साम्राज्य के सबल शत्रु उस्मानी साम्राज्य और रूसी साम्राज्य को ईरानी क्षेत्रों से बाहर निकाला । वह एक तुर्क था पर उसने साफ़वियों को पश्चिम की ओर से आक्रांत ऑटोमन (उस्मानी) तुर्कों के ख़िलाफ़ मदद दी । इससे वह अवसानप्राय साफवियों की सेना में उच्च स्थान पा सका । तैमूर लंग को अपना आदर्श माने वाला नादिर कोली अफ़शरी कबाले का था और उसका जीवन उसकी सैन्य उपलब्धियों के लिए जाना जाता है । साफवी शाह तहमास्य (तहमाश्प) ने अफ़गानों को सप़वी राजधानी इस्फ़हान से भगाने के एवज में नादिर को कुली तपमास्य (तहमास्य का ग़ुलाम) की उपाधि दी थी जिसके बाद वो सफ़वी दरबार में एक सम्मानित व्यक्ति बन गया । इसके बाद उसने अफ़गानों और उस्मानों को शांत किया और भारत पर भी आक्रमण किया (1739) । मंगोल शाह आलम को पराजित करके वहाँ से कोई 70 करोड़ रूपयों के बराबर सम्पदा लेकर आया जिसमें कोहिनूर हीरा भी शामिल था । इसके अलावा उसने भयंकर मारकाट भी मचाई । उस समय के उर्दू शायर मीर तक़ी मीर (1723-1810) ने आक्रमण के पहले तथा बाद दिल्ली का वर्णन किया जिसमें पता चलता है कि नादिर कोली ने दिल्ली में कितनी तबाही मचाई थी । भारत से लौटने पर उसे पता चला कि उसके बेट रज़ा कोली (या रीज़ा कुली), जिसे उसने अपनी अनुपस्थिति में साम्राज्य देखरेख करने का जिम्मा सौंप के गया था (उस समय तक नादिर कोली शाह नहीं बना था बल्कि फ़ारसी साम्राज्य का सेनापति था) ने फ़ारस की गद्दी पर बैठे शाह तहमास्य की हत्या कर दी है । 1736 में वो शाह बना (नादिर शाह) । इसके बाद वो दागेस्तान के विद्रोह को कुचलने गया जहां मिली असफलता उसे सताने लगी । इसके अलावा जब उसे ये सूचना कुछ सरदारों से मिली कि रज़ा उसे भी मारने का षडयंत्र रच रहा है तो उसने रज़ा को अंधा कर दिया । बाद में उसे जब पता चला कि रज़ा निर्दोष है तो उसे बहुत ग्लानि हुई और उन सरदारों पर गुस्सा आया जिन्होंने उसे अंधा करवाया था । उसने उन्हें मारने का आदेश दे दिया लेकिन फिर भी उसे अपने पर बहुत गुस्सा आया और उसके स्वभाव में परिवर्तन आने लगा । वो अत्याचारी और क्रूर बनता गया साथ ही कमजोर और बीमार भी हो चला था । पश्चिम में उस्मानों के खिलाफ भी वो अधिक सफल नहीं हो पाया और 1746 में किए एक समझौते में उसे नज़फ़ तक से संतोष करना पड़ा । सन् 1747 में उसकी हत्या कर दी गई । उसके मरने के बाद उसका साम्राज्य अधिक दिनों तक नहीं टिक सका । पर वो उस समय की कठिन परिस्थितियों में साम्राज्य को अविभाजित रखने के लिए याद किया जाता है ।

यूरोपीय प्रभुत्व का काल

कुछ दिनों बाद कजर वंश का शासन आया पर उस समय ईरान के तेल क्षेत्रों की खोज होने और इसके उस्मानी, भारतीय और रूसी क्षेत्रों के बीच स्थित होने के कारण रूसी, अंग्रेजों और फ्रांसीसी साम्राज्यों का प्रभाव बढ़ता ही गया । उत्तर से रूस, पश्चिम से फ्रांस तथा पूरब से ब्रिटेन की निगाहें फारस पर पड़ गईं । सन् १९०५-१९११ में यूरोपीय प्रभाव बढ़ जाने और शाह की निष्क्रियता के खिलाफ एक जनान्दोलन हुआ । इरान के तेल क्षेत्रों को लेकर तनाव बना रहा । प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के पराजित होने के बाद ईरान को भी उसका फल भुगतना पड़ा ।

आधुनिक काल

रजा शाह ने १९३० के दशक में ईरान का आधुनिकीकरण प्रारंभ किया । पर वो अपने प्रेरणस्रोत तुर्की के कमाल फाशा की तरह सफल नहीं रह सका । उसने शिक्षा के लिए अभूतपूर्व बंदोबस्त किए तथा सेना को सुगठित किया । उसने तुर्की के कमाल पाशा की तरह देश के कार्यों में धर्म का प्रभाव कम किया । कट्टर इस्लामियों को जेल या देश निकाला की सज़ा दी गई । अयातोल्लाह खुमैनी इसी के तहत पहले इराक़, फिर इस्ताम्बुल और उसके बाद पेरिस में रहे । उसके बाद १९७९ में एक और आन्दोलन हुआ जिसका कारण धार्मिक था । इसके फलस्वरूप पहलवी वंश का पतन हो गया और अयातोल्ला खोमैनी को सत्ता मिली । उनका देहांत १९८९ में हुआ । उनके शासन काल में ही इस्लामी प्रभाव के तहत उन्हें लेखक सलमान रश्दी के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी करना पड़ा । इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया ।

मोहम्मद ख़ातमी सुधारवादी आन्दोलन हुए । अभी ईरान में सख़्त इस्लामी नियम लागू हैं और महिलाओं को हिज़ाब पहनने की विवशता है । हंलाँकि तेल से पैसे आ जाने की वजह से शहरों में जनजीवन विलासिता पूर्ण है पर इस्लामिक कानून (शरियत) के सख़्त दायरे के भीतर रहकर । राष्ट्रपति अहमदी निज़ाद (अहमनदेनिजाद) पर अपने परमाणु कार्यक्रम रोकने की भरपूर अंतर्राष्ट्रीय दबाब बनाया जा रहा है । अमेरिका सहित कई देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगाने शुरु कर दिये है और इसरायल सैनिक कार्यवाही की धमकी दे रहा है ।