"रोग हेतुविज्ञान": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो Bot: अंगराग परिवर्तन
छो Bot: Migrating 39 interwiki links, now provided by Wikidata on d:q156318 (translate me)
पंक्ति 29: पंक्ति 29:
[[श्रेणी:आयुर्विज्ञान]]
[[श्रेणी:आयुर्विज्ञान]]


[[az:Etiologiya]]
[[bg:Етиология]]
[[ca:Etiologia]]
[[cs:Etiologie]]
[[de:Ätiologie]]
[[en:Etiology]]
[[es:Etiología]]
[[et:Etioloogia]]
[[eu:Etiologia]]
[[fa:سبب‌شناسی]]
[[fa:سبب‌شناسی]]
[[fi:Etiologia]]
[[fr:Étiologie]]
[[he:אטיולוגיה]]
[[hu:Etiológia]]
[[io:Etiologio]]
[[it:Eziologia]]
[[ja:原因療法]]
[[ka:ეტიოლოგია]]
[[kk:Этиология]]
[[krc:Этиология]]
[[ky:Этиология]]
[[ne:रोग हेतु विज्ञान]]
[[nl:Etiologie]]
[[nn:Etiologi]]
[[no:Etiologi]]
[[pl:Etiologia]]
[[pt:Etiologia]]
[[ro:Etiologie]]
[[ru:Этиология]]
[[sh:Etiologija]]
[[sk:Etiológia]]
[[sr:Етиологија]]
[[sv:Etiologi]]
[[ta:நோய் முதலியல்]]
[[te:కారణ శాస్త్రం]]
[[tr:Etiyoloji]]
[[uk:Етіологія]]
[[ur:سببیات]]
[[yi:עטיאלאגיע]]
[[zh:原因論]]

06:32, 13 मार्च 2013 का अवतरण

चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में नाना प्रकार के रोगों के विभिन्न कारणों को वैज्ञानिक विवेचन हेतुकी अथवा हेतुविज्ञान (Etiology) कहा जाता है।

परिचय

मनुष्य को अपनी रक्षा, वृद्धि तथा विकास के लिए विरोधी परिस्थिति से निरतर संघर्ष करना पड़ता है। प्रतिकूल परिस्थिति से निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। प्रतिकूल परिस्थिति को अनुकूल बनाने की चेष्टा में यदि मनुष्य देह विफल होने लगती है, तो वह स्वयं अपने अंग प्रत्यंगों की रक्षा हेतु उनकी रचना तथा क्रिया में आवश्यक हेर-फेर कर विरोधी परिस्थिति से यथासंभव सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है, किंतु जब परिस्थिति की विकटता देह की सहन अथवा समंजन शक्ति से अधिक प्रबल, या वेगवती हो जाती है तो प्रस्थापित सामंजस्य में उलट फेर हो जाता है, जिसके फलस्वरूप विरोधी परिस्थिति का दुष्प्रभाव देह के ऊतकों को विकृत कर पीड़ाकारी लक्षणों से युक्त रोग विशेष को प्रकट करता है।

मनुष्य का जीवन सभी प्रकार की अनुकूल, प्रतिकूल और पविर्तनशील परिस्थितियों का सामना करने के कारण अत्यत जटिल हो गया है। इसलिए रोगों के विभिन्न कारणों की वैज्ञानिक रीति से छानबीन कर किस रोगविशेष का प्रधान कारण तथा उसके सहायक गौण कारणों का पता लगाना एक गोरखधंधा है।

रोगों का वर्गीकरण

रोग हेतुविज्ञान की दृष्टि से प्राय: सभी वंशागत अर्जित रोगों का स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार संभव है :

  • (१) विकास तथा वृद्धि में त्रुटि;
  • (२) भौतिक और रासायनिक द्रव्यों का आघात तथा प्रहार;
  • (३) पोषण में त्रुटि;
  • (४) रोगकार सूक्ष्म जीवों का संक्रमण;
  • (५) अर्बुद (tumor) तथा
  • (६) नवउद्भेदन (newgroth)

रोगों के कारण

रोग के कारण भी कई प्रकार के होते हैं। पूर्वप्रवर्तक (predisposing) अथवा पूर्ववर्ती (antecedent) कारण स्वयं रोगजनक न होते हुए भी मनुष्य की देह की रोगप्रतिरोधक शक्ति को कम कर उसे संवेदनशील (sensitive) या ग्रहणशील (susceptible), बना देते हैं। तात्कालिक अथवा उत्तेजक कारण रोग के प्रकोप को सहसा भड़का देते हैं। परजीवी सूक्ष्म जीवाणु शरीर में प्रवेश कर बढ़ते हैं और विशेष प्रकार का जीवविष (toxin) उत्पन्न कर स्वयं आक्रामक होकर रोग के कर्ता होते हैं। सभी प्रकार के कारणों की शृंखला का तथा उनके परस्पर संबंध और अपेक्षाकृत बलाबल के अध्ययन द्वारा वातावरण की रोगसहायक प्रवृत्तियों को वश में कर अनेक रोगों का सफल नियंत्रण या उन्मूलन संभव हो सका है। अब केवल रोग का ही अध्ययन नहीं किया जाता, अपितु समग्र वातावरण से संयुक्त मनुष्य का मन शारीरिक (psychosomatic) अध्ययन करने की ओर प्रवृत्ति है। इस कारण समाजमूलक चिकित्साविज्ञान (social medicine) के सिद्धांतानुसार रोग की कारणमाला की विभिन्न लड़ियों का ज्ञान मनुष्य के शरीर, मन तथा समाजगत दोषों के अध्ययन से प्राप्त होता है और उनके दूर करने के प्रयास से ही रोग के निरोधन में सहायता मिलती है।

डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व संसार में जीवाणुजन्य संक्रामक रोगों का प्राधान्य इतना अधिक था कि अन्य कायिक अथवा क्रियागत रोगों की ओर वास्तविक ध्यान अकृष्ट नहीं हो सका। विकसित और समृद्ध देशों में संक्रामक रोगों का सफल नियंत्रण हो जाने पर, अन्य रोगों की रोकथाम का प्रयास संतोषपूर्ण ढंग से हो रहा है और अब वृद्धावस्था के रोगों की समस्या पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। जीवन की विषम जटिलता के कारण मानसिक रोगों, औद्योगिकरण के कारण व्यावसायिक रोगों और मशीनों द्वारा दुर्घटनाओं की संख्या अपेक्षाकृत बढ़ रही है, जिनपर ध्यान देना आवश्यक हो गया है। भारत में संक्रामक रोगों की कमी अवश्य हुई है, किंतु उनका पूरा नियंत्रण नहीं हो पाया है। यहाँ कीट, वायु, जल तथा भोजन द्वारा प्रसारित संक्रामक रोगों की प्रधानता के साथ कुपोषणजनित विकार और बालरोगों का बाहुल्य है।

रोग एवं मांद्य

रोग (disease) और मांद्य (illness) में भेद है। दोनों ही अस्वास्थ्यकर हैं। मांद्य की दशा में देह की स्वाभाविक क्रियाओं में ऐसी बाधा पड़ जाती है जिससे मनुष्य अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ सा हो जाता है। यह देह का क्रियागत दोष है। परंतु रोगावस्था में शरीर की अव्यवस्थित क्रिया के दुष्प्रभावों, अथवा घातक पदार्थों और दुर्घटनाओं, के कारण देह में असाधारण रूप से कायिक रोग (organic disease) हो जाता है। इस कारण रोग और मांद्य में केवल आंशिक संबंध है। रोग से मांद्य होना आवश्यक नहीं और मांद्य बिना रोग के भी संभव है। शरीर क्रियाविज्ञान, रसायन-विज्ञान तथा प्राणि-विज्ञान मांद्य के समस्त जटिल कारणों को प्रकट करने में असमर्थ हैं। यह अब स्पष्ट हो गया है कि केवल क्रियागत दोषों से उत्पन्न मांद्य ही नहीं, अपितु देह के अनेक कायिक रोगों का मूल सामाजिक, पारिवारिक अथवा औद्योगिक दुस्सामंजस्य, आर्थिक अरक्षिता, या आहार संबंधी हीनता द्वारा सिंचित होता रहता है। इसी कारण मनुष्य के स्वास्थ्य, सुख सुविधा और दक्षता के लिए क्रियागत दोष, कायिक रोग, मानसिक अस्थिरता और सामाजिक अव्यवस्था का विज्ञानमूलक अनुभवसिद्ध उपचार होना चाहिए। सभी प्राणियों की सभी प्रकार की पूर्ण देखभाल से ही रोग के गुंफित कारणों को दूर किया जा सकता है। अधूरे अथवा एकांग उपाय व्यर्थ ही हैं।

बाहरी कड़ियाँ