"रानाबाई": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो Bot: अंगराग परिवर्तन
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
'''रानाबाई''' अथवा '''वीराँगना रानाबाई''' के नाम से प्रसिद्ध [[जाट]] वीरबाला गांव [[हरनावा]], [[राजस्थान]] के [[नागोर]] जिले की निवासी थी। वीराँगना रानाबाई का सन् 1543 में चौधरी जालमसिंह घाणा के घर में जन्म हुआ।
'''रानाबाई''' अथवा '''वीराँगना रानाबाई''' के नाम से प्रसिद्ध [[जाट]] वीरबाला गांव [[हरनावा]], [[राजस्थान]] के [[नागोर]] जिले की निवासी थी। वीराँगना रानाबाई का सन् 1543 में चौधरी जालमसिंह घाणा के घर में जन्म हुआ।
<center><big>रानाबाई के पद </big></center>
<center><big>रानाबाई के पद </big></center>
'''रानाबाई (1504-1570)''' एक जाट वीरबाला और एक हिंदू कवयित्री थी । जिनकी रचनाएं राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में लोकप्रिय हैं । वह राजस्थान की दूसरी मीरा के रूप में जानी जाती है । वह संत चतुर दास (जो कि खोजीजी के नाम से भी जाने जाते हैं) की शिष्या थीं । रानाबाई ने राजस्थानी भाषा में कई कविताओं की रचना की थी । सारी रचनाएँ सामान्य लय मे रची गई हैं । उनके गानों के संग्रह को पदावली कहा जाता है । उनके द्वारा रचित पदों के गायन का माध्यम ठेठ राजस्थानी था । रानाबाई के द्वारा लिखे गए कुछ पद प्रस्तुत है-
'''Ranabai (रानाबाई)''' (1504-1570) was a Jat warrior girl and a Hindu mystical poetess whose compositions are popular throughout [[Marwar]] region of [[Rajasthan]], [[India]]. She is known as 'Second Mira of [[Rajasthan]]". She was a disciple of ''sant'' Chatur Das also known as '''Khojiji'''. Ranabai composed many poems (''padas'') in [[Rajasthani Language]]. <ref>[[Dr Pema Ram]] & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 40-41</ref> Ranabai's poem is traditionally called a ''pada'', a term used by the 14th century preachers for a small spiritual song. This is usually composed in simple rhythms and carries a refrain within itself. Her collection of songs is called the Padavali. The typicality of Indian love poetry of those days was used by [[Ranabai]] but as an instrument to express her deepest emotions felt for her Gurudev Khojiji and ishta-devata Gopinath. Her typical medium of singing was [[Rajasthani]]. Some of the ''padas'' by [[Ranabai]] are produced below.


पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज त्यौहार
पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज त्यौहार

13:27, 16 फ़रवरी 2013 का अवतरण

Samadhi of Ranabai at Harnawa

रानाबाई अथवा वीराँगना रानाबाई के नाम से प्रसिद्ध जाट वीरबाला गांव हरनावा, राजस्थान के नागोर जिले की निवासी थी। वीराँगना रानाबाई का सन् 1543 में चौधरी जालमसिंह घाणा के घर में जन्म हुआ।

रानाबाई के पद

रानाबाई (1504-1570) एक जाट वीरबाला और एक हिंदू कवयित्री थी । जिनकी रचनाएं राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में लोकप्रिय हैं । वह राजस्थान की दूसरी मीरा के रूप में जानी जाती है । वह संत चतुर दास (जो कि खोजीजी के नाम से भी जाने जाते हैं) की शिष्या थीं । रानाबाई ने राजस्थानी भाषा में कई कविताओं की रचना की थी । सारी रचनाएँ सामान्य लय मे रची गई हैं । उनके गानों के संग्रह को पदावली कहा जाता है । उनके द्वारा रचित पदों के गायन का माध्यम ठेठ राजस्थानी था । रानाबाई के द्वारा लिखे गए कुछ पद प्रस्तुत है-

   पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज त्यौहार 
   जहि दिन राना जन्म हो, घर-घर मंगलाचार 
   जाट उजागर धून जंग, नामी जालम जाट । 
   बस्ती रचक ओ दौ विगत, गण हरनावो ग्राम ।। 
   जालम सुत रामो सुजन, जा का राम गोपाल । 
   उनका पुत्र भुवन ओरू, बाई बुद्धि विशाल ।। [1]
   राना कहे राम वर मेरा, सतगुरु मेट्या सब उलझेरा । 
   अमर सुहाग अमर वर पाया, तेज पुंज की उनकी काया ।। [2][3]

Ranabai took a live samadhi at village Harnawa on falgun shukla trayodashi samvat 1627 (1570 AD). Birdhi Chand has mentioned in one doha about her taking of samadhi:

   सौला सौ विक्रम सही, सताईस शुभ साल । 
   ली समाधी राना समझ, जग झूठा जंजाल ।। 

Similarly Karnisharan Charan also mentions in a doha about Ranabai leaving this world as under:

   सौला सौ सताईस में, फागन तेरस सुदी स्याम । 
   बा राना बैकुंठ में, रमिया ज्योति राम ।। 

One of Ranabai's pada mentions as under in Rajasthani:

   राना की अरदास नाथ थासूं, राना री अरदास । 
   जनम मरण री फेरी मिट गयी, पायो परम परकास । 
   बिन्दरावन बंशीबत जमना, भलो करायो बास । 
   उछव नित नया ही बिरज में, रमै साँवरो रास । 
   म्हारे संगडे़ मुरधर चालो, पुरवो म्हारी आस । 
   बिनवै 'राना' सतगुरु खोजी, परसराम परकास ।। [4]


   ओ महारा मनड़े रा ठाकुर, गोपीनाथ दयाल । 
   ओ महारा कुञ्ज बिहारी, मो संग मुरधर चहल । [5]


   मुरधर देस सुवावणों रे, आवड़ ज्यासी लाल । 
   आतो जातो रही भला ही, एकर तो तूं चाल । 
   बिन्दरावन रो पंथ बतायो, परसा करी निहाल । 
   'राना' सतगुरु खोजी शरणे, ले आई गोपाल ।। [6] 

(1)

बधावणा


राग - भूपाली

वारी वारी वारी वारी वारी वारी म्हारा परम गुरूजी ।

आज म्हारो जनम सफल भयो , मैं गुरुदेवजी न देख्या । टेक ।


भाग हमारा हे सखी, गुरुदेवजी पधारया ।

काम, क्रोध, मद, लोभ, ने ये, म्हारा दूर निवारया ।।1।।


सोव्हन कलश सामेलसा ये, मोतीड़ा बधास्यां ।

पग मंद पधरावस्यां ये, मिल मंगल गास्यां ।।2।।


बंदन वार घलावस्यां ये, मोत्यां चौक पुरावस्यां ।

पर दिखानां परनाम स्यूं ये, चरनां शीश निवास्यां ।।3।।


ढोल्यो रतन जड़ावरो ये, रेशम गिदरो बिछावस्यां ।

सतगुरु ऊंचा बिराजसी ये, दूधा चरण पखास्यां ।।4।।


भोजन बहुत परकार का ये, कंचन थाल परोसां ।

सतगुरु जीमे आंगणे ये, पंखा बाय ढुलास्यां ।।5।।


चरण खोल चिरणामृत ये, सतगुरुजी का लेस्यां ।

तन मन री हेली बातड़ली ये, म्हारा गुरूजी ने कह्स्यां ।।6।।


आज सुफल म्हारा नेणज ये, गुरुदेवजी ने निरखूं ।

कान सुफल सुन बेणज ये, दूरी नहीं सरकूं ।।7।।


आज म्हारे आनंद बधावणा ये, बायां मन भाया ।

'राना' रे घरां बधावणा ये, गुरु खोजीजी आया ।।8।।


(2)

राग - मिश्र खमाज

रसना बाण पड़ी रटबा की ।


बिसरत नहीं घड़ी पल छिन-छिन, स्वांस स्वांस गाबा की ।।1।।


मनड़ो मरम धरम ओही जाण्यो, गुरु किरपा बल पा की ।।2।।


लख चौरासी जूण भटकती, मोह माया सूं थाकी ।।3।।


समरथ खोजी 'राना' पाया, जद यूँ काया झांकी ।।4।।


(3)

राग - पहाडी

म्हारो म्हारो करतांई जावै ।


मिनख जमारो ओ हे अमोलक, कोडी मोल फिंकावै ।।1।।


गरभ वास में कौल कियो तूं, जिणनै क्यों बिसरावै ।।2।।


पालनहार, करतार,विसंभर, तिरलोकी जस छावै ।।3।।


जिणने थां छिटकाय दियो जद, कुण थांने अपनावै ।।4।।


वाल्मकि सुक व्यास पुराणां, बेद भेद समझावै ।।5।।


कैं म्हारो तू थारो करतां, मिनख जमारो गमावै ।।6।।


'राना' सतगुरु खोजी सरणै, आवागमन मिटावै ।।7।।


(4)

राग-भूपाली

ऐ तो जाबाला ऐ बाई थारा, मन में निरख निरधार ।

कुण थारा साथी कुण थारा बैरी, कुण थारा गोती नाती ।।1।।


कुण थारा भाई बाप ये मायड़, किस्या जनम की जाती ।

सुरतां सूरत पिछाणी नाही, भाभी भरम में गेली ।।2।।


कुण रोवे कुण हँसे बावळी, कुण किण रो भरतार ।

गया सू आवणा का है नांही, रया सू जावाण हार ।।3।।


दस दरवाजा इण पिंजरा के, पलक पंखेरू जैले ।

चेतन नौबत बजे जठा तक, अंत पछै कुण बौलै ।।4।।


हर सूं हेत चेत मन करलै, मिनख जमारो आयो ।

गुरु खोजी 'राना' रंग रीझी, भरम भूत बिसरायो ।।5।।


(5)

राग-भूपाली

करसण होरयो रे बीरा, भूल्यो जग जंजाळ ।

काया खेत में रे बीरा, पाप पुण्य री नाळ ।।टेक।।


खाद खुटे नहीं रे बीरा, बीज तणी पैछाण ।

जोड़ सागै बणी रे बीरा, हलधर जोय निनाण ।।1।।


भावणी बीजणी रे बीरा, पाणी पाल परमाण ।

रूंखड़ी रोपणी रे बीरा, धरणीधर री छांण ।।2।।


गाज गरजै घणी रे बीरा, बरसै कठेक जाय ।

साख सूखै नहीं रे बीरा, जल जमना रो पाय ।।3।।


चतुर खोजी मिल्या रे पाकी, साख सराई लोग ।

जतन 'राना' करे रे बीरा, स्याम अरोगे भोग ।।4।।


(6)

राग-झिन्झोटी

चूंदड़ मैली न होय म्हारी बाया, चूंदड़ मैली न होय ।


नौ दस मास रही आ ऊंडी, अब सिणगार करण लागी ।

चूंदड़ चिमक चतुर साजन री, निजरया में गौरी आगी ।।1।।


कर मनुहार बुलाई पिवजी, चूंदड़ घणी सराई ए ।

मन की बात करी हित चित सूं, हिवडे घणी लगाई ए ।।2।।


जुग जुग चूंदड़ करे झिलामिल, जतन रतन अनमोल ए ।

'राना' सतगुरु खोजी सरणै, निरभै निसदिन बोला ए ।।3।।


(7)

राग-खमाज

जह हरि-भक्त चरण पधरावै ।

तीरथ एक कहा कहिये, तहां भुवन चतुर्दश धावै ।।टेक।।


भृगुजी क्रोध विवश जायो तज, हरि के लात लगावै ।

प्रभु की प्रभुताई का बरणो, जाकै चरण पुजावै ।।1।।


चतरो बिप्र साथ संगत रहे, बीरा बैर करावै ।

पितृ फूल दे जबरन ताको, हर पेड़ी पठवावै ।।2।।


जहाँ तिरथन को गुरु पुष्कर, सतगुरु धून रमावै

डेरा की धणयाप करता, छत्री मद चकरावै ।।3।।


कथा कीर्तन भंग पड़ता, काम्बल आग बंधावै ।

गठड़ी बंधी देखकर जोड्या, अब तो सकलां नावै ।।4।।


भगवत भक्त निराली लीला, पार कोई न पावै

'राना' सतगुरु तीरथ खोजी, अमरापुर चली आवै ।।5।।


(8)

राग-तिलक कामोद

कोई दिन साथनियाँ संग रमती ।

रमती रमती हीजे रहती, चिरम्या ज्यूं ही गमती ।।टेक।।


म्हारो राम संदेशो भेज्यो, सतगुरु नूत बुलाया ।

हरजी सत सनेह सूं पोखी, नहीं तो काया गमती ।।1।।


मानव पास उदार में राखी, बाबल लाड लडाया ।

जनम जनम रो वर संवरियो, मिनख धार क्यों टलती ।।2।।


काची काया मन मनसौबा, रमती मोह संग माया ।

काहन कुंवर ही मोही 'राना', परम्परा सूं चलती ।।3।।

सन्दर्भ

  1. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  2. Sukhsaran: Ranabai Ki Parchi, pada 10
  3. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 37
  4. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 37
  5. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 37
  6. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 37
  • डॉ पेमाराम एवं डॉ विक्रमादित्य, जाटों की गौरवगाथा , राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2004