"नमाज़": अवतरणों में अंतर

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15:06, 9 फ़रवरी 2013 का अवतरण

काहिरा में नमाज़, 1865। ज़ाँ-लेयॉ ज़ेरोम

नामाज़ (उर्दू: نماز ) या सलाह (अरबी: صلوة)

लुगवी मानी

नमाज़ के लुगवी मानी "दुआ" के हैं। फरमान-ए-बारी ताला है

خُذْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيهِمْ بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْ إِنَّ صَلَاتَكَ سَكَنٌ لَهُمْ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ

अनुवाद: ए पैग़ंबर! उन लोगों के अम्वाल में से सदक़ा वसूल करलो जिस के ज़रीये तुम उन्हें पाक क्रुद्वगे और उन केलिए बाइस-ए-बरकत बनूगे, और उन केलिए दुआ करो। यक़ीनन! तुम्हारी दुआ उन केलिए सरापा तसकीन है, और अल्लाह हर बात सुनता और सब कुछ जानता है
--अल-क़ुरआन सूरत अलतोबा:१०

जबकि फरमान-ए-नबवी सिल्ली अल्लाह अलैहि वसल्लम है:

ज़ा दई णहदकम फ़लीजब फ़इन कान साइमन फ़लीसल-ए-ओ- एन कान मफ़तरन फ़लीताम [1]

तर्जुमा: जब तुम में से किसी को दावत दी जाय तो वो उसे क़बूल करले फिर अगर वो रोज़े से हो तो दुआ करदे और अगर रोज़े से ना हो तो
(ताम) खाले

और अल्लाह की जानिब से "सलात" के मानी बेहतरीन ज़िक्र के हैं जबकि मलाइका की तरफ़ से "सलात" के मानी दुआ ही के लिए जाऐंगे। इरशाद-ए-बारी ताला है:

إِنَّ اللَّهَ وَمَلَائِكَتَهُ يُصَلُّونَ عَلَى النَّبِيِّ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا صَلُّوا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا تَسْلِيمًا

अनुवाद: बेशक अल्लाह और इस के फ़रिश्ते नबी पर दरूद भेजते हैं। ए ईमान वालो! तुम भी उन पर दरूद भेजो, और ख़ूब सलाम भेजा करो
--अल-क़ुरआन सूरत अल्लाहज़ अब:५

फ़लसफ़ा-ए-नमाज़

इस्लामी क़वानीन और दुस्सह तीर के मुख़्तलिफ़ और मुतअद्दिद फ़लसफ़े और अस्बाब हैं जिन की वजह से उन्हें वज़ा किया गया है। इन फ़लसफ़ों और अस्बाब तक रसाई सिर्फ वही और मादिन वही (रसूल-ओ-आल-ए-रसूल (ए)) के ज़रीया ही मुम्किन है। क़ुरआन मजीद और मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की अहादीस में बाअज़ क़वानीन इस्लामी के बाअज़ फ़लसफ़ा और अस्बाब की तरफ़ इशारा किया गया है। उन्हें दस्तो रात में से एक नमाज़ है जो सारी इबादतों का मर्कज़, मुश्किलात और सख़्तियों में इंसान के तआदुल-ओ-तवाज़ुन की मुहाफ़िज़, मोमिन की मेराज, इंसान को बुराईयों और मुनकिरात से रोकने वाली और दूसरे आमाल की क़बूलीयत की ज़ामिन है। अल्लाह तआला इस सिलसिला में इरशाद फ़रमाते हैं:

وَأَقِمِ الصَّلَاةَ لِذِكْرِي

अनुवाद: मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम करो
--अल-क़ुरआन सूरत ताहा:१४

इस आयत की रोशनी में नमाज़ का सब से अहम फ़लसफ़ा याद ख़ुदा है और याद ख़ुदा ही है जो मुश्किलात और सख़्त हालात में इंसान के दिल को आराम और इतमीनान अता करती है।

أَلَا بِذِكْرِ اللَّهِ تَطْمَئِنُّ الْقُلُوبُ

अनुवाद: आगाह हो जाओ कि याद ख़ुदा से दिल को आराम और इतमीनान हासिल होता है।
--अल-क़ुरआन सूरत अलराद:२८.

रसूल ख़ुदा सिल्ली अल्लाह अलैहि आला वसल्लम ने भी इसी बात की तरफ़ इशारा फ़रमाया है:

नमाज़ और हज-ओ-तवाफ़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया गया है ताकि ज़िक्र ख़ुदा (याद ख़ुदा) मुहक़्क़िक़ हो सके

शहीद महिराब , इमाम मुत्तक़ीन हज़रत अली अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ को इस तरह ब्यान फ़रमाते हैं:

ख़ुदावंद आलम ने नमाज़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया है ताकि इंसान तकब्बुर से पाक-ओ-पाकीज़ा हो जाएनमाज़ के ज़रीये ख़ुदा से क़रीब हो जाओ। नमाज़ गुनाहों को इंसान से इस तरह गिरा देती है जैसे दरख़्त से सूखे पत्ते गिरते हैं,नमाज़ इंसान को (गुनाहों से) इस तरह आज़ाद कर देती हैजैसे जानवरों की गर्दन से रस्सी खोल कर उन्हें आज़ाद किया जाता है हज़रत अली रज़ी अल्लाह अन्ना

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलाम अल्लाह अलैहा मस्जिद नबवी में अपने तारीख़ी ख़ुतबा में इस्लामी दस्तो रात के फ़लसफ़ा को ब्यान फ़रमाते हुए नमाज़ के बारे में इशारा फ़रमाती पैं:

ख़ुदावंद आलम ने नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि इंसान को किबर-ओ-तकब्बुर और ख़ुद बीनी से पाक-ओ-पाकीज़ा कर दे

हिशाम बिन हुक्म ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहि अस्सलाम से सवाल किया : नमाज़ का क्या फ़लसफ़ा है कि लोगों को कारोबार से रोक दिया जाय और उन के लिए ज़हमत का सबब बने? इमाम अलैहि अस्सलाम ने इस के जवाब में फ़रमाया:

नमाज़ के बहुत से फ़लसफ़े हैं उन्हें में से एक ये भी है कि पहले लोग आज़ाद थे और ख़ुदा-ओ-रसूल की याद से ग़ाफ़िल थे और उन के दरमयान सिर्फ क़ुरआन था उम्मत मुस्लिमा भी गुज़शता उम्मतों की तरह थी क्योंकि उन्हों ने सिर्फ दीन को इख़तियार कर रखा था और किताब और अनबया-ए-को छोड़ रखा था और उन को क़तल तक कर देते थे । नतीजा में इन का दीन पुराना (बैरवा) हो गया और उन लोगों को जहां जाना चाहिए था चले गए। ख़ुदावंद आलम ने इरादा किया कि ये उम्मत दीन को फ़रामोश ना करे लिहाज़ा इस उम्मत मुस्लिमा के ऊपर नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि हर रोज़ पाँच बार आँहज़रत को याद करें और उन का इस्म गिरामी ज़बान पर যक़ब लाएंगे और इस नमाज़ के ज़रीया ख़ुदा को याद करें ताकि इस से ग़ाफ़िल ना हो सकें और इस ख़ुदा को तर्क ना कर दिया जाय

इमाम रज़ा अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ के सिलसिला में यूं फ़रमाते हैं:

नमाज़ के वाजिब होने का सबब,ख़ुदावंद आलम की ख़ुदाई और उसकी रबूबियत का इक़रार, शिर्क की नफ़ी और इंसान का ख़ुदावंद आलम की बारगाह में ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ खड़ा होना है। नमाज़ गुनाहों का एतराफ़ और गुज़शता गुनाहों से तलब अफ़व और तौबा है। सजदा, ख़ुदावंद आलम की ताज़ीम-ओ-तकरीम के लिए ख़ाक पर चेहरा रखना है

नमाज़ सबब बनती है कि इंसान हमेशा ख़ुदा की याद में रहे और उसे भूले नहीं ,नाफ़रमानी और सरकशी ना करे । ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू और रग़बत-ओ-शौक़ के साथ अपने दुनियावी और उखरवी हिस्सा में इज़ाफ़ा का तलबगार हो। इस के इलावा इंसान नमाज़ के ज़रीया हमेशा और हरवक़त ख़ुदा की बारगाह में हाज़िर रहे और उसकी याद से सरशार रहे। नमाज़ गुनाहों से रोकती और मुख़्तलिफ़ बुराईयों से मना करती है सजदा का फ़लसफ़ा ग़रूर-ओ-तकब्बुर, ख़ुद ख़्वाही और सरकशी को ख़ुद से दूर करना और ख़ुदाए वहिदा ला शरीक की याद में रहना और गुनाहों से दूर रहना है

नमाज़ अक़ल और वजदान के आईना में

इस्लामी हक़ के इलावा कि जो मुस्लमान इस्लाम की वजह से एक दूसरे की गर्दन पर रखते हैं एक दूसरा हक़ भी है जिस को इंसानी हक़ खा जाता है जो इंसानियत की बिना पर एक दूसरे की गर्दन पर है। उन्हें इंसानी हुक़ूक़ में से एक हक़, दूसरों की मुहब्बत और नेकियों और एहसान का शुक्रिया अदा करना है अगरचे मुस्लमान ना हूँ। दूसरों के एहसानात और नेकियां हमारे ऊपर शुक्र यए की ज़िम्मेदारी को आइद करती हैं और ये हक़ तमाम ज़बानों, ज़ातों, मिल्लतों और मुल्कों में यकसाँ और मुसावी है। लुतफ़ और नेकी जितनी ज़्यादा और नेकी करने वाला जितना अज़ीम-ओ-बुज़ुर्ग हो शुक्र भी इतना ही ज़्यादा और बेहतर होना चाहिए। क्या ख़ुदा से ज़्यादा कोई और हमारे ऊपर हक़ रखता है? नहीं । इस लिए कि इस की नेअमतें हमारे ओपरबे शुमार हैं और ख़ुद इस का वजूद भी अज़ीम और फ़य्याज़ है। ख़ुदावंद आलम ने हम को एक ज़र्रे से तख़लीक़ किया और जो चीज़ भी हमारी ज़रूरीयात-ए-ज़िंदगी में से थी जैसे, नूर-ओ-रोशनी, हरारत, मकान, हुआ, पानी, आज़ा-ओ-जवारेह, गुरावज़-ओ-कवाय नफ़सानी, वसीअ-ओ-अरीज़ कायनात, पौदे-ओ-नबातात, हैवानात, अक़ल-ओ-होश और आतफ़ा-ओ-मुहब्बत वग़ैरा को हमारे लिए फ़राहम किया। हमारी माअनवी तर्बीयत के लिए अनबया-ए-अलैहिम अस्सलाम को भेजा, नेक बुख़ती और सआदत के लिए आईन वज़ा किए, हलाल-ओ-हराम में फ़र्क़ वाज़िह किया। हमारी माद्दी ज़िंदगी और रुहानी हयात को हर तरह से दुनियावी और उखरवी सआदत हासिल करने और कमाल की मंज़िल तक पहुंचने के वसाइल फ़राहम किए। ख़ुदा से ज़्यादा किस ने हमारे साथ नेकी और एहसान किया है कि इस से ज़्यादा इस हक़ शुक्र की अदायगी का लायक़ और सज़ावार हो। इंसानी वज़ीफ़ा और हमारी अक़ल-ओ-वजदान हमारे ऊपर लाज़िम क़रार देती हैं कि हम उस की इन नेअमतों का शुक्र अदा करें और उन नेकियों के शुक्राना में उसकी इबादत करें और नमाज़ अदा करें। चूँकि वो हमारा ख़ालिक़ है, लिहाज़ा हम भी सिर्फ उसी की इबादत करें और सिर्फ इसी के बंदे रहें और मशरिक़-ओ-मग़रिब के ग़ुलाम ना बनें। नमाज़ ख़ुदा की शुक्रगुज़ारी है और साहिब वजदान इंसान नमाज़ के वाजिब होने को दृक् करता है। जब एक कुत्ते को एक हड्डी के बदले में जो उसको दी जाती है हक़शनासी करता है और दुम हिलाता है और अगर चोर या अजनबी आदमी घर में दाख़िल होता है तो इस पर हमला करता है तो अगर इंसान परवरदिगार की इन तमाम नेअमतों से लापरवाह और बे तवज्जा हो और शुक्र गुज़ारी के जज़बा से जो कि नमाज़ की सूरत में जलवागर होता है बेबहरा हो तो क्या ऐसा इंसान क़दरदानी और हक़शनासी में कुत्ते से पस्त और कमतर नहीं है।

सन्दर्भ

  1. सही मुस्लिम, किताब अलनकाह