"ब्रह्म": अवतरणों में अंतर

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21:01, 18 जनवरी 2013 का अवतरण

ब्रह्म (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है । वो दुनिया की आत्मा है । वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त मे जिसमें विलीन हो जाता है । वो एक और अद्वितीय है । वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है । वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है । ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है । ब्रम्ह हिन्दी में ब्रह्म का ग़लत उच्चारण और लिखावट है ।

परब्रह्म

परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और असीम है । "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल मे अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है । अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह् ही सत्य है,बाकि सब मिथ्या है। 'ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः

वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है।

अपरब्रह्म

अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं । वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है । अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है ।

............................................................................................................................................................................................................................................................... आनन्द ब्रह्म- श्रुतियों में ब्रह्म को आनंद भी कहा है. पहले आनन्द को जान लें. आनन्द का अर्थ सुख या असीम सुख नहीं है. यह वह स्थिति है जहाँ सुख और दुःख का कोई स्थान नहीं है. यह पूर्ण शुद्ध ज्ञान, परम बोध की स्थिति है. कबीर कहते हैं, वहाँ ज्ञान ही ओढ़नी है ज्ञान ही बिछावन है. नूरे ओढ़न नूरे डासन. मूल तत्त्व परम ज्ञान है जिसे आनन्द कहा है. अंतिम स्थिति जिससे बड़ा कुछ भी नहीं है इस स्थिति को जीव अपने में पाकर परम आनंदित हो जाता है. इसलिए ब्रह्म को आनंद कहा है.

उपनिषदों में ब्रह्म के लिए आनन्द शब्द का प्रयोग -

रसो वै सः.२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्

रस को पाकर जीव यह होता परमानन्द आनंद आकाश नहिं होत यदि को जीवे कोऊ रक्ष प्राण जो सबको आनंद दे रस स्वरूप आनन्द.२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्

विज्ञानमानन्दं ब्रह्म.३-९-२८-वृह उपनिषद

मथ कर पाता अग्नि को वायु रोक सब द्वार आनन्द सोम जँह फैलता मन तंह होत विशुद्ध .६-२ -श्वेताश्वतरोपनिषद्.

आनंदोब्रह्मेति व्यजानात्.३-६- तैत्तिरीयोपनिषद्

आनन्द ही पर ब्रह्म है जान इसे निश्चित परम.३-६- तैत्तिरीयोपनिषद्

जो जाने आनन्द को नहीं कोउ भय होत.१-९- तैत्तिरीयोपनिषद्

तैत्तिरीयोपनिषद् सब आनंदों का केंद्र परमानन्द स्वरूप ब्रह्म को मानता है.

इस प्रकार जगह जगह उपनिषदों में आनन्द शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए जगह जगह हुआ है.

जान ज्ञान विज्ञान को स्वयं आत्म आनन्द परम बोध के अमृत का साधक करता पान.७-२-२. मुंडकोपनिषद

आत्म योग का श्रवण कर अनुभव से जो विज्ञ सूक्ष्म बुद्धी से जानकर आत्मतत्त्व जो भिज्ञ मग्न लाभ आनन्द परम में नचिकेता तू पात्र.१३-२- कठोपनिषद

सकल भूत यह आत्मा रखता वश में लोक बहु निर्मित एक रूप से जान धीर अनुभूत आत्मस्थिति देख ज्ञानी आनन्द मोक्ष उपलब्ध .१२-२-२- कठोपनिषद

एक अकेला बहुत से शासक निष्क्रिय तत्व एक बीज बहु रूप प्रकट हो धीर आत्म में देख धीर देख अस ईश को शाश्वत सुख नहिं अन्य.१२-६ श्वेताश्वतरोपनिषद्..

परन्तु जीवात्मा के लिए आनन्द शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है. जीवात्मा इस रस स्वरूप परमात्मा को पाकर आनन्द युक्त हो जाता है.

सन्दर्भ -सरल वेदांत -बसंत प्रभात जोशी