"जीव": अवतरणों में अंतर

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अंग्रेजी भाषा में जीव के लिए क्रिएचर,ओर्गनिज्म शब्द प्रयुक्त होते हैं. इससे हिन्दू वेदान्त अथवा भगवद्गीता व अन्य दर्शन ग्रंथों में जगह जगह प्रयुक्त जीव शब्द को समझने में भ्रान्ति हो जाती है. जीव उपाधि युक्त ब्रह्म है अर्थात देह, मन, बुद्धि, अज्ञान आदि के कारण सीमित शक्ति वाला है, यह जीव आत्मा का अज्ञानमय स्वरूप है. इसकी उपस्थति से जीवन है अर्थात यह किसी प्राणी अथवा organism का जीवन सूत्र है. आत्मा आपकी अस्मिता है और पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूप है. परन्तु आत्मा जो अज्ञान से अपने वास्तविक स्वरूप को भुला बैठी है जीव कहलाती है.
अंग्रेजी भाषा में जीव के लिए क्रिएचर,ओर्गनिज्म शब्द प्रयुक्त होते हैं. इससे हिन्दू वेदान्त अथवा भगवद्गीता व अन्य दर्शन ग्रंथों में जगह जगह प्रयुक्त जीव शब्द को समझने में भ्रान्ति हो जाती है. जीव उपाधि युक्त ब्रह्म है अर्थात देह, मन, बुद्धि, अज्ञान आदि के कारण सीमित शक्ति वाला है, यह जीव आत्मा का अज्ञानमय स्वरूप है. इसकी उपस्थति से जीवन है अर्थात यह किसी प्राणी organismका जीवन सूत्र है. आत्मा आपकी अस्मिता है और पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूप है. परन्तु आत्मा जो अज्ञान से अपने वास्तविक स्वरूप को भुला बैठी है जीव कहलाती है.
सन्दर्भ -सरल वेदांत- बसंत प्रभात जोशी
सन्दर्भ -सरल वेदांत- बसंत प्रभात जोशी

04:59, 27 अगस्त 2012 का अवतरण

ब्रह्म एक ऐसी लोकोत्तर शक्ति है जो संपूर्ण ब्रह्मांड के कण-कण, क्षण-क्षण में व्याप्त है। यही लोकोत्तर शक्ति जब संसार की रचना करती है; सृष्टि का प्रवर्तन करती है; प्राणियों का संरक्षण करती है; उनका संहार करती है तो इसे ईश्वर की संज्ञा प्राप्त हो जाती है। ब्रह्म शब्द शक्तिपरकएवं सत्तापरकलोकोत्तर तत्त्‍‌व का बोधक है। ईश्वर और भगवान् जैसे शब्द ऐसे लोकोत्तर तत्त्‍‌व की सृष्टि विषयक भूमिका का बोध कराते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक है। वह असीम है, पूर्णत:स्वतंत्र है। जीव की स्थिति ईश्वर से भिन्न होती है। जीव अल्प शक्तिमान है; उसकी ज्ञान एवं क्रिया सीमा भी अति न्यून है। वह ससीम है, पराश्रित है, परतंत्र है, ईश्वराधीन है। जीव असंख्य है। ईश्वर और जीव के बीच भेद स्पष्ट करते हुए गोस्वामी तुलसीदास अपनी अमरकृतिरामचरितमानस में लिखते हैं-

मायावस्यजीव अभिमानी। ईशवस्यमायागुणखानी।।परवसजीवस्ववसभगवंता।जीव अनेक एक श्रीकंता॥गोस्वामी जी के अनुसार ईश्वर और जीव के बीच तीन बिंदुओं पर भेद है :जीव माया के वश में रहता है, जबकि माया ईश्वर के वश में रहती है। जीव में परतंत्रताहोती है, जबकि ईश्वर स्वतंत्र होता है। जीव असंख्य होते हैं, जबकि ईश्वर एकमेवाद्वितीयहै।

ईश्वर और जीव विषयक ऐसी अवधारणा विश्व के अन्य धर्मों में भी मिलती है। यहूदी धर्म में याहवे(जहोवा) सर्वशक्तिमान सत्ता के रूप में माना जाता है। जहोवासंसार की रचना करता है; प्राणियों का पालन एवं अनुसंरक्षणकरता है। ईसाई धर्म में सर्वशक्तिमान सत्ता इलोई(गॉड) है। इलोईसंपूर्ण जगत् की रचना करता है। ईसाई धर्मानुयायी अपने सर्वशक्तिमान ईश्वर का भजन-पूजन करते हैं। इस्लाम में अल्लाह को सर्वशक्तिमान माना जाता है। पारसी धर्मानुयायी अहुरामज्दाको सर्वशक्तिमान मानकर उसकी पूजा करते हैं।

ईश्वर और जीव विषयक भक्तिमार्गीमान्यता से भिन्न विश्वास परंपराएं भी हैं। वैदिक (औपनिषदिक),बौद्ध-जैन (श्रमण) एवं सूफी धर्म इसके उदाहरण हैं। औपनिषदिक मान्यता के अनुसार ब्रह्म एवं जीव के बीच तात्विकभेद होता ही नहीं। ब्रह्म और जीव के बीच जो भेद दिखलाई देता है, वह भ्रम है, मिथ्या है, मोहजनितहै, अविद्याजनितहै। मोह और विद्या का पर्दा हटते ही जीव में यह बोध उदित हो जाता है कि वह स्वयं ब्रह्म है। इस विषय में गोस्वामी जी लिखते हैं - सो तैंताहि तोहिनहिभेदा। वारि वीचिइवलावहिंवेदा।अर्थात् ईश्वर और जीव के बीच कोई तात्विकभेद है ही नहीं। ईश्वर यदि जल है तो जीव जल की लहर है। अब जल और लहर को एक-दूसरे से भिन्न रूप में कैसे देखा जा सकता है। कबीर भी लगभग ऐसी ही बात करते हैं-

जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी। फूट घडा जल जलहिंसमाना यह तत कथौंगियानी।।

अर्थात् कुएं में मिट्टी का घडा है। घडे में जल है। जब तक घडे की सत्ता है, तब तक वह जल से भिन्न अवश्य है पर जब घडे की पृथक सत्ता समाप्त हो जाती है, तब वह संपूर्ण जल का एक अविभाज्य अंग बन जाता है। यही स्थिति जीव और ब्रह्म की है। अज्ञान की जंजीर से जकडे जीव को ही ब्रह्म से पृथक अपनी सत्ता की भ्रांति होती है। जब अज्ञान का पर्दा हट जाता है, तब जीव को यह प्रकाश मिलता है कि वह तो स्वयं ब्रह्म है। उपनिषदों में ऐसी सूक्तियांयथा सोऽहमस्मि(मैं वही हूं), शिवोऽहम्(मैं शिव हूं), अहं ब्रह्मास्मि(मैं ब्रह्म हूं), अयमात्माब्रह्म(यह आत्मा ही ब्रह्म है), तत्त्‍‌वमसि(तुम वही हो) जीव और ब्रह्म की अनन्यताका उद्घोष करती है।

बौद्धधर्म में नित्य सत्ता का निषेध किया जाता है। इस धर्म में यह माना जाता है कि सब कुछ चलनशीलहै,गतिशील है। चलनशीलताऔर गतिशीलता की ही सत्ता नित्य है। नित्य सत्ता का निषेध करके ईश्वरीय सत्ता को मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि दोनों में तात्विकविसंगति है। इसी विसंगति के कारण बौद्धधर्म में ईश्वर जैसी किसी नित्य सत्ता का निषेध किया जाता है। वैसे, बौद्धधर्म परलोक में विश्वास करता है। इस धर्म में जीव की सत्ता तो है पर ईश्वर जैसे किसी नित्य तत्त्‍‌व के अभाव में दोनों के बीच भेद का प्रश्न ही नहीं उठता। इस धर्म में तथागत बुद्ध एवं ऐसे बोधिसत्त्‍‌वोंकी पूजा होती है जो निर्वाण की स्थिति में आ जाते हैं। जैन धर्म की मूल मान्यता है कि जगत्प्रवाहअनादि और अनंत हैं। इस धर्म में जगन्नियंता, जगत्स्त्र्रष्टाजैसी किसी लोकोत्तर सत्ता में विश्वास नहीं किया जाता है। जैन धर्म की मूल मान्यता है कि जीव यदि क्रमिक आध्यात्मिक उन्नयन करता रहे तो वह स्वयं अर्हत् हो जाता है; ईश्वरत्वको प्राप्त हो जाता है। इस धर्म में चौबीस तीर्थंकरोंको अर्हत् माना जाता है। ईश्वर के रूप में इनकी पूजा होती है। जैनधर्ममें भी ईश्वर और जीव के बीच भेद का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि यहां जीव की सत्ता तो है पर लोकोत्तर ईश्वर की सत्ता का अभाव है।

सूफी धर्म में भी ईश्वर और जीव में अभेद है। एक सूफी था मंसूर। उसने अनलहक का उद्घोष किया। अनलहकका अर्थ होता है, मैं ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्मि)।स्पष्टत:सूफी दृष्टि भी औपनिषदिक दृष्टि के समान है। यहां भी ब्रह्म और जीव (खुदा और बंदा) के बीच अनन्यतामानी जाती है। यहां भी ईश्वर और जीव के बीच भेद का प्रश्न नहीं उठता।

अद्वैतवादी औपनिषदिक परंपरा, श्रमण परंपरा (बौद्ध-जैन) एवं सूफी परंपरा के अनुयायी ज्ञान मार्ग का अनुसरण करते हैं। ज्ञातव्य है कि भक्तिमार्ग का पथिक सेवक-सेव्य भाव अपनाकर परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। इस मार्ग का पथिक स्वयं को सेवक और ईश्वर को सेव्य मानता है। इसी प्रकार ज्ञानमार्गका पथिक अपनी साधना के बल पर परम लक्ष्य (मोक्ष, निर्वाण, कैवल्य) की सिद्धि करता है; आत्मसाक्षातकरता है; परमसत्यका दर्शन करता है। अद्वैतमार्गानुगामीसाधक की दृष्टि में ईश्वर एवं जीव का भेद ही समाप्त हो जाता है। जीव ही ईश्वर का रूप धारण कर लेता है।

जीव

अंग्रेजी भाषा में जीव के लिए क्रिएचर,ओर्गनिज्म शब्द प्रयुक्त होते हैं. इससे हिन्दू वेदान्त अथवा भगवद्गीता व अन्य दर्शन ग्रंथों में जगह जगह प्रयुक्त जीव शब्द को समझने में भ्रान्ति हो जाती है. जीव उपाधि युक्त ब्रह्म है अर्थात देह, मन, बुद्धि, अज्ञान आदि के कारण सीमित शक्ति वाला है, यह जीव आत्मा का अज्ञानमय स्वरूप है. इसकी उपस्थति से जीवन है अर्थात यह किसी प्राणी organismका जीवन सूत्र है. आत्मा आपकी अस्मिता है और पूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूप है. परन्तु आत्मा जो अज्ञान से अपने वास्तविक स्वरूप को भुला बैठी है जीव कहलाती है. सन्दर्भ -सरल वेदांत- बसंत प्रभात जोशी