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पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म [[1अगस्त|१ अगस्त]] [[1882|१८८२]] को [[उत्तर प्रदेश]] के [[इलाहाबाद]] नगर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। १८९४ में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। उस समय की रीति के अनुसार १८९७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। १८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९०० में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें १९०१ में वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। १९०३ में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने १९०४ में बीए कर लिया। १९०५ से उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ। १९०५ में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। १९०६ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच उनका लेखन भी प्रारंभ हो चुका था और अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना ''बन्दर सभा महाकाव्य'' 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। इन सब कामों के बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और १९०६ में एल.एल.बी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की। पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने १९०७ में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेग बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए। |
पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म [[1अगस्त|१ अगस्त]] [[1882|१८८२]] को [[उत्तर प्रदेश]] के [[इलाहाबाद]] नगर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। १८९४ में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। उस समय की रीति के अनुसार १८९७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। १८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९०० में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें १९०१ में वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। १९०३ में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने १९०४ में बीए कर लिया। १९०५ से उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ। १९०५ में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। १९०६ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच उनका लेखन भी प्रारंभ हो चुका था और अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना ''बन्दर सभा महाकाव्य'' 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। इन सब कामों के बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और १९०६ में एल.एल.बी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की। पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने १९०७ में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेग बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए। |
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07:08, 12 जुलाई 2012 का अवतरण
पुरूषोत्तम दास टंडन | |
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जन्म: | अगस्त १, १८४८ |
म्रुत्यु: | जुलाई १, १९६२ |
स्वतन्त्रता सेनानी |
पुरूषोत्तम दास टंडन (१ अगस्त १८८२ - १ जुलाई, १९६२) भारत के स्वतन्त्रता सेनानी थे। हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद मे हुआ था। वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता तो थे ही, समर्पित राजनयिक, हिन्दी के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे। हिन्दी को भारत की राजभाषा का स्थान दिलवाने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया। १९५० में वे भारतीय राश्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उन्हें भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नयी चेतना, नयी लहर, नयी क्रान्ति पैदा करने वाले कर्मयोगी कहा गया।[क] वे जन सामान्य में राजर्षि (संधि विच्छेदः राजा+ऋषि= राजर्षि अर्थात ऐसा प्रशासक जो ऋषि के समान सत्कार्य में लगा हुआ हो।) के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ विचारकों के अनुसार स्वतंत्रता प्राप्त करना उनका पहला साध्य था। वे हिन्दी को देश की आजादी के पहले आजादी प्राप्त करने का साधन मानते रहे और आजादी मिलने के बाद आजादी को बनाये रखने का। टण्डन जी का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। १७ फरवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर 'सुहृद संघ` के १७ वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने अपने भाषण में इस बात को स्वीकार भी किया था।[ख]
प्रारंभिक जीवन
पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म १ अगस्त १८८२ को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। १८९४ में उन्होंने इसी विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसी वर्ष उनकी बड़ी बहन तुलसा देवी का स्वर्गवास हो गया। उस समय की रीति के अनुसार १८९७ में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया। १८९९ कांग्रेस के स्वयं सेवक बने, १८९९ इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की और १९०० में वे एक कन्या के पिता बने। इसी बीच वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया किंतु अपने क्रांतिकारी कार्यकलापों के कारण उन्हें १९०१ में वहाँ से निष्कासित कर दिया गया। १९०३ में उनके पिता का निधन हो गया। इन सब कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने १९०४ में बीए कर लिया। १९०५ से उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ। १९०५ में उन्होंने बंगभंग आन्दोलन से प्रभावित होकर स्वदेशी का व्रत धारण किया, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया और गोपाल कृष्ण गोखले के अंगरक्षक के रूप में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। १९०६ में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया। इस बीच उनका लेखन भी प्रारंभ हो चुका था और अनेक पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना बन्दर सभा महाकाव्य 'हिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। इन सब कामों के बीच उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और १९०६ में एल.एल.बी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की। पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने १९०७ में इतिहास में स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेग बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए।
कार्यक्षेत्र
पुरुषोत्तम दास टंडन अत्यंत मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः तीन भागों में बँटा हुआ है- स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और समाज।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में टण्डन जी ने एक योद्धा की भूमिका का निर्वाह किया। अपने विद्यार्थी जीवन में १८९९ से ही काँग्रेस पार्टी के सदस्य थे। वे सन् १८९९ में कांग्रेस के सदस्य बने और १९०६ में इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने गए। १९१९ में जलियांवाला बाग हत्याकाँड का अध्ययन करने वाली काँग्रेस पार्टी की समिति से भी वे संबद्ध थे। १९२० में असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। गाँधी जी के आह्वान पर वे वकालत के अपने फलते-फूलते पेशे को छोड़कर इस संग्राम में कूद पड़े। सन् १९३० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सिलसिले में बस्ती में गिरफ्तार हुए और कारावास का दण्ड मिला। १९३१ में लंदन में आयोजित गोलमेज़ सम्मेलन से गांधी जी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। १९३४ में उन्होंने बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया और बिहार किसान आंदोलन के साथ सहानुभूति रखते हुए उनके विकास के अनेक कार्य किए। टण्डन जी लगातार देश के स्वतंत्रता संग्राम में रत रहे। इसी क्रम में १९४० में नज़रबन्द कर लिए गए और एक वर्ष तक जेल में रहे। अगस्त १९४२ को इलाहाबाद में फिर गिरफ्तार हुए और १९४४ में जेल से मुक्त हुए। यह उनकी अन्तिम एवं सातवीं जेल यात्रा थी। उन्होंने ३१ जुलाई १९३७ से १० अगस्त १९५० तक उत्तर प्रदेश की विधान सभा के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। वे १९४६ में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए।
राजर्षि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्राय: उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। वह एक उच्चकोटि के रचनाकार थे, उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टण्डन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उनके निबंध हिन्दी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से सम्बंधित हैं। भाषा और साहित्य सम्बंधी निबंधों में- कविता, दर्शन और साहित्य, हिन्दी साहित्य का कानन, हिन्दी राष्ट्र भाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिन्दी, हिन्दी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। धर्म और संस्कृति सम्बंधी निबंधों में- भारतीय संस्कृति और कुम्भमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोककल्याण कारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानन्द और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं। काव्य रचनाओं में 'बन्दर सभा महाकाव्य`, 'कुटीर का पुष्प` और 'स्वतंत्रता` अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है।
भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्र सम्मत माना और इसकी पुष्टि की काशी की पंडित सभा ने, १९४८ के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है।
राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को प्रौढ़ता प्रदान करने की पंडित बालकृष्ण और मदन मोहन मालवीय जी ने। १० अक्टूवर १९१० को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए। तदनन्तर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। इस पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता था। इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। सन् १९४९ में जब संविधान सभा सम्बंधी प्रश्न उठाया गया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी। महात्मा गाँधी तो हिन्दुस्तानी के समर्थक थे ही, पं० नेहरू और डॉ० राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता भी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, पर टण्डन जी हारे नहीं, झुके नहीं, परिणामत: विजय भी उनकी हुई। ११, १२, १३, १४ दिसम्बर १९४९ को गरमागरम बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, हिन्दी को ६२ और हिन्दुस्तानी को ३२ मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और 'वन्देमातरम्` को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर और समर्थन पत्र भी एकत्र किए थे।
विवाद
भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही साम्प्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। कुछ नेताओं ने टंडन जी पर भी सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया। यह सच है कि राजर्षि अपनी संस्कृति के परम भक्त और पोषक थे। वे यह कहने में भी हिचक का अनुभव नहीं करते थे कि भारत में दो संस्कृतियों को जीवित रखना देश के साथ विश्वासघात करना होगा, पर इसका मतलब यह नहीं था कि वे साम्प्रदायिक या मुसलिम विरोधी थे। इस सम्बंध कुलकुसुमजी लिखते हैं- ("यदि किसी धर्म या संस्कृति में कोई व्यक्ति विशेष आस्था रखता है, तो उसके विरोधी प्राय: यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि वह आदमी अन्य धर्मों तथा संस्कृतियों का शत्रु है। यही बात राजर्षि टण्डन के साथ हुई। उनके अनन्य हिन्दी प्रेम, भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं की एकनिष्ठा, आस्था और साधुओं के से वेष-विन्यास को देखकर उनके विरोधियों ने जान बूझकर या अनजाने ही यह प्रचार करने की भूल कर दी कि टण्डन जी मुसलमानों के शत्रु हैं।") स्वयं टण्डन जी ने भी लिखा है- ("मेरे हिन्दी के काम के कारण लोगों ने मुझे मुसलमान भाइयों का मुखालिफ समझ लिया। इन लोगों को यह नहीं मालूम कि बहुत से मुसलमान मेरे कितने अच्छे दोस्त हैं। मेरे सामने यदि कोई मुसलमान के साथ अन्याय करे, तो मैं उसके पक्ष में जान की बाजी लगा दूँगा।") वास्तव में टण्डन जी का व्यक्तित्व मानववादी था। उनके घर पर जो बालक उनका सहयोग करता था, वह मुसलमान था, पर कैसी विडम्बना है कि लोग कहते हैं कि टण्डन जी साम्प्रदायिक थे।
टीका टिप्पणी
क. ^ "देखने में एक अस्थिपंजर किन्तु आँखों में अनन्त ज्योतिराशि, मन में अजस्र आत्म शक्ति, माथे की चिन्तित रेखाओं में युग का संघर्ष, वाणी में निसंग निष्ठा, संकेतों में विश्वास और अस्त-व्यस्त केशों तथा रूखे सूखे कलेवर में अनन्त जीवन रस। छेड़िये तो तपस्वी की विभूति मिले, मौन रूप देखिये तो निर्विकल्प समाधि की परिधि तक चले जाइये। विरोध करिये तो फौलाद के स्पर्श का भान मिले। स्वीकृति दीजिए तो एक दिव्य आलोक की अनुभूति।"[1]
ख. ^ "- "हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया।...... हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।"
संदर्भ
- ↑ वर्मा, लक्ष्मीकांत (राजर्षि टण्डन जन्मशती विशेषांक 1983). प्रतीक पुरुष, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन. इलाहाबाद: साहित्य सम्मेलन प्रयाग. पृ॰ 4. नामालूम प्राचल
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इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन (व्योम की डाक)
- पुरुषोत्तम दास टंडन पर एक संक्षिप्त आलेख
- कर्मयोगी, कालपुरुष व तपस्वी थे पुरुषोत्तम टण्डन (दैनिक जागरण)
- पुरुषोत्तम दास टंडन पर एक लेख अंग्रेज़ी में
- Opposition to Partition
- पाथ टू पार्टीशन
- Article saying that Purushottam Das Tandon shifted to Rubber Chappals
- Arrest of Nehru and Purushottam Das Tandon
- Official Website of the Legislative Assembly of Uttar Pradesh
- Official Website of Indian Parliament
- In a time warp
- राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन जी के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचार