"ग़दर पार्टी": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो →‎बाहरी कड़ियाँ: rm good articles cat
छो r2.7.2) (Robot: Adding ta:கதர் கட்சி
पंक्ति 48: पंक्ति 48:
[[श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम]]
[[श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम]]
[[श्रेणी:भारत का इतिहास]]
[[श्रेणी:भारत का इतिहास]]

[[ca:Partit Ghadar]]
[[ca:Partit Ghadar]]
[[en:Ghadar Party]]
[[en:Ghadar Party]]
[[es:Partido Ghadar]]
[[es:Partido Ghadar]]
[[pt:Partido Ghadar]]
[[pt:Partido Ghadar]]
[[ta:கதர் கட்சி]]

10:11, 5 मई 2012 का अवतरण

गदर पार्टी का झंडा
गदर पार्टी का झंडा

ग़दर पार्टी पराधीन भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से बना एक संगठन था। इसे अमेरिका और कनाडा के भारतीयों ने 25 जून १९१३ में बनाया था। इसे प्रशान्त तट का हिन्दी संघ (Hindi Association of the Pacific Coast) भी कहा जाता था। यह पार्टी "गदर" नाम का पत्र भी निकालती थी जो उर्दू और पंजाबी में छपता था। इस संगठन ने भारत को अनेक महान क्रान्तिकारी दिये। गदर पार्टी के महान नेताओं सोहन सिंह भाकना, करतार सिंह सराभा, लाला हरदयाल आदि ने जो कार्य किये, उसने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को उत्प्रेरित किया। पहले महायुद्ध के छिड़ते ही जब भारत के अन्य दल अंग्रेजों को सहयोग दे रहे थे गदरियों ने अंग्रेजी राज के विरूध्द जंग घोषित कर दी। उनका मानना था-

सुरा सो पहचानिये, जो लडे दीन के हेत ।

पुर्जा-पुर्जा कट मरे, कभूं न छाडे खेत॥

स्थापना

गदर पार्टी का जन्म अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के एस्टोरिया में 1913 में अंग्रेजी साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से हुआ। गदर पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष सरदार सोहन सिंह भाकना थे। इसके अतिरिक्त केसर सिंह थथगढ - उपाध्यक्ष, लाला हरदयाल - महामंत्री, लाला ठाकुर दास धुरी - संयुक्त सचिव और पण्डित कांशी राम मदरोली - कोषाध्यक्ष थे।

स्थापना के बाद गदर पार्टी की पहली बैठक सैक्रामेंटो, कैलिफोर्निया में दिसम्बर 1913 में आयोजित की गयी। इसमें कार्यकारिणी के सदस्यों की घोषणा भी की गयी। जो कि इस प्रकार है-

करतार सिंह सराभा, संतोख सिंह, अरूड़ सिंह, पृथी सिंह, पण्डित जगत राम, करम सिंह चीमा, निधान सिंह चुघ, संत वसाखा सिंह, पण्डित मुंशी राम, हरनाम सिंह कोटला, नोध सिंह थे। गुप्त और भूमिगत कार्यों के लिए एक कमेटी बनायी गयी जिसमें सोहन सिंह भाकना, संतोख सिंह और पण्डित कांशी राम सदस्य थे।

गदर पार्टी का उद्देश्य

गदर पार्टी की पहली सभा के विचार थे कि अंग्रेजी राज के विरूध्द हथियार उठान गद्दारी नहीं महायुध्द है। हम इस विदेशी राज के आज्ञाकारी नहीं घोर दुश्मन हैं। हमारी इसी दुश्मनी को अंग्रेज गद्दरी कहते हैं। इसीलिए वे हमारी 1857 की आजादी की जंग को गदर कहते आ रहे हैं।

गदरियों को कोलम्बिया नदी (अमेरिका) के किनारे के भारतीय मजदूरों में काम शुरू किया। गदर पार्टी ने 21 अप्रैल 1931 को असटेरिया की आरा मिलों में एक बुनियादी प्रस्ताव पास किया जिसके तहत कहा गया कि गदर पार्टी हथियारबंद इंकलाब की मदद से अंग्रेजी राज से भारत को आजाद कर कौमी जम्हूरियत (गणतंत्र) कायम करेंगी। गौरतलब है कि यह प्रस्ताव भारतीय कांग्रेस ने 16 साल बाद पंडित नेहरू के बहुत दबाव के बाद 1929 में लाहौर में पास किया था। सभा में हर वर्ष चुनाव करने का निर्णय लिया। साथ ही यह भी तय किया गया कि इसमें कोई धार्मिक बहस नहीं होगी। धर्म को एक निजी मामला समझा गया था। हर समुदाय प्रत्येक माह एक डालर चंदा देगा, गदर का अखबार हिंदी, पंजाबी और उर्दू में निकाला जाएगा।

गदर पार्टी का पत्र

गदर पार्टी ने अपना पत्र "गदर" निकाला जिसमें ब्रिटिश हकुमत का खुला विरोध किया गया। गदर नामक पत्र हिन्दी, पंजाबी, उर्दु और अन्य भारतीय भाषाओं में छापा जाता था। "युगान्तर आश्रम" गदर पार्टी का मुख्यालय था। यहीं से गदर पार्टी ने एक पोस्टर छापा था जिसे पंजाब में जगह जगह चिपकाया भी गया था। इस पोस्टर पर लिखा था - "जंग दा होका" अर्थात युद्ध की घोषणा।

गदर की योजना और लाहौर षडयन्त्र

गदर के नेताओं ने निर्णय लिया कि अब वह समय आ गया है कि हम ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उसकी सेना में संगठित विद्रोह कर सकते हैं। क्योंकि तब प्रथम विश्वयुद्ध धीरे-धीरे करीब आ रहा था और ब्रिटिश हकुमत को भी सैनिकों की बहुत आवश्यकता थी। नेतृत्व ने भारत वापिस आने का निर्णय लिया।

अगस्त १९१४ में बड़ी रैलियों और जनसभाओं का आयोजन किया गया। जिसमें सभी हिन्दुओं से कहा गया कि वे हिन्दुस्तान की ओर लौटें और ब्रिटिश हकुमत के विरूद्ध सशस्त्र विद्रोह में भाग लें। इस प्रकार गदर पार्टी के अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना, जो कि जापान में थे, ने भारत आने का निर्णय लिया। उन्होने बड़ी सावधानी से अपनी योजना को तैयार किया। ब्रिटिश हकुमत के दुश्मनों से मदद प्राप्त करने के लिए गदर पार्टी ने बरकतुल्लाह को काबुल भेजा। कपूर सिंह मोही चीनी क्रान्तिकारियों से सहायता प्राप्त करने के लिए सुन-यत सेन से मिले। सोहन सिंह भाकना भी टोकियो में जर्मन कांउसलर से मिले। तेजा सिंह स्वतंत्र ने तुर्कीश मिलिट्री अकादमी में जाना तय कर लिया ताकि प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सके। गदर पार्टी के नेता पानी और जल के रास्ते भारत पहुंचना चाहते थे। इसके लिए कामागाटा मारू, एस.एस. कोरिया और नैमसैंग नाम के जहाजों पर हजारों गदर नेता चढकर भारत की ओर आने लगे।

लगभग ८ हजार गदर सदस्य भारत विद्रोह के लिए लौट रहे थे और उनका पहुंचना १९१६ तक तय था। देहरादून में भाई परमानन्द ने घोषणा की कि ५ हजार गदर सदस्य उनके साथ आयें। लेकिन बीच की किसी कमजोर कड़ी के कारण यह सूचना ब्रिटिश हकुमत तक पहुंच गयी। उन्होने युद्ध की घोषणा वाले पोस्टरों को गंभीरता से लिया। सितम्बर १९१४ को सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया जिसके तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार दे दिया गया कि वे भारत में दाखिल होने वाले किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ कर सकेंगे भले ही वह भारतीय मूल का क्यों न हो। पहले बंगाल और पंजाब की राज्य सरकारों को यह अधिकार दिये गये और इसके लिए लुधियाना में एक पूछताछ केन्द्र भी स्थापित किया गया। कामागाटा मारू के यात्री इस अध्यादेश के पहले शिकार बने। सोहन सिंह भाकना और अन्य लोगों को नैमसैंग जहाज से उतरते समय गिरफ्तार कर लिया गया और लुधियाना लाया गया। वे गदर सदस्य जो पोसामारू जहाज से आये थे वे भी पकड़े गये। उन्हें मिंटगुमरी और मुल्तान की जेलों में भेज दिया गया। जो जमानत पर छूट गए।

अधिकांश गदरी सिख मजदूर और सैनिक थे अतएव उन्होने अपनी लडाई पंजाब से प्रारंभ की। भारत में गदर के जवानों ने दूसरे क्रान्तिकारियों के साथ अच्छे रिश्ते कायम कर लिये। इनमें से कुछ ने बंगाल और उत्तर प्रदेश में रेव्यूलूश्नरी पार्टी ऑफ इण्डिया (१९१७) गठित की। विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराबा, रास बिहारी बोस, भाई परमानन्द, हाफिज अब्दुला आदि क्रान्तिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अमृतसर को कन्ट्रोल सेन्टर के रूप में प्रयोग किया गया। उसे गदर पार्टी ने बाद में लाहौर स्थानान्तरित कर दिया। १२ फरवरी १९१५ को गदर पार्टी ने निर्णय लिया कि विद्रोह और क्रान्ति का दिन २१ फरवरी १९१५ होगा। विद्रोह लाहौर की मियांमीर छावनी और फिरोजपुर छावनी से प्रारंभ करना निश्चित हुआ। मियांमीर उस समय अंग्रेजो की 9 डिवीजन में से एक डिजाइन का केंद्र था और पंजाब की सभी छावनियां इसके आधीन थीं। फिरोजपुर की छावनी में इतना हथियार व गोलाबारूद था जिसके इस्तेमाल से अंग्रेज सेना को पराजित किया जा सकता था। उस समय तक गोरी सेना यूरोप भेजी आ चुकी थी और छावनियों में अधिकांश भारतीय मूल के सिपाही और अफसर ही मौजूद थे। थोड़े हथियारबंद लोगों और छावनी के सिख सिपाहियों की मदद से इस जंग को लड़ा जाना था। पूरी रणनीति को मियां मीर, फिरोजपुर, मेरठ, लाहौर और दिल्ली की फौजी छावनियों में लागू किया गया था। कोहाट, बन्नू और दीनापुर में भी विद्रोह उसी दिन होना था। करतार सिंह सराबा को फिरोजपुर को नियंत्रण में लेना था। पिंगले को मेरठ से दिल्ली की ओर बढना था। डाक्टर मथुरा सिंह को फ्रंटियर के क्षेत्रों में जाना था। निधान सिंह चुघ, गुरमुख सिंह और हरनाम सिंह को झेलम, रावलपिंडी और होती मर्दान जाना था। भाई परमानन्द जी को पेशावर का कार्य दिया गया था।

दुर्भाग्य से ब्रिटिश हकुमत को अपने एजेंटों के माध्यम से क्रान्ति की खबर लग गयी। गदर के नायकों ने विद्रोह की तिथि में २१ फरवरी के स्थान पर १९ फरवरी करके परिवर्तन कर दिया। परन्तु ब्रिटिश प्रशासन ने तीव्रता दिखाते हुए कार्य किया और भारतीय सेना को बिना हथियार का बना दिया। बारूद के गोदामों पर कब्जा कर दिया इसके बाद गदर पार्टी के बहुत से नेता और योजक गिरफ्तार हो गये। उन्हें लाहौर में कैद कर लिया गया। ८२ गदर नेताओं के ऊपर मुकदमा चला जिसे लाहौर कांस्पिरेसी केस कहा गया। १७ गदर सदस्यों को भगोड़ा घोषित किया गया।

पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिटिश हकुमत से विशिष्ट कानूनी प्रावधानों की मांग की जिसके तहत कोर्ट में अपील की व्यवस्था न हो सके। अंग्रेज सरकार "डिफेन्स ऑफ इण्डिया रूल" का प्रावधान लेकर आयी जिसके तहत गदर नेताओं के विरूद्ध झटपट निर्णय हो सके। १३ सितम्बर १९१५ को २४ गदर नेताओं को मौत की सजा सुनाई गई शेष को उम्र कैद दी गयी। २५ अक्टूबर १९१५ को दूसरे लाहौर कांस्प्रेसी केस में १०२ गदर नेताओं का मुकदमा प्रारम्भ हुआ, जिसका निर्णय ३० मार्च १९१६ को हुआ, जिसके तहत ७ को फांसी की सजा दी गयी, ४५ को उम्रकैद और अन्यों को ८ महीने से ४ वर्ष की कठोर सजा सुनाई गयी।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ