"सत्यजित राय": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
No edit summary
पंक्ति 364: पंक्ति 364:
[[श्रेणी:बंगाली सिनेमा]]
[[श्रेणी:बंगाली सिनेमा]]


{{Link FA|bn}}
{{Link FA|en}}
{{Link FA|en}}
{{Link FA|fr}}
{{Link FA|fr}}

18:56, 2 अप्रैल 2008 का अवतरण

सत्यजित राय
जीवनसाथी बिजोय राय
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

सत्यजित राय (बंगाली: সত্যজিৎ রায় सहायता·सूचना शॉत्तोजित् राय्) (2 मई 192123 अप्रैल 1992) एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक थे, जिन्हें 20वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फ़िल्म निर्देशकों में गिना जाता है।[1] इनका जन्म कला और साहित्य के जगत में जाने-माने कोलकाता (तब कलकत्ता) के एक बंगाली परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रेसिडेंसी कॉलेज और विश्व-भारती विश्वविद्यालय में हुई। इन्होने अपने कैरियर की शुरुआत पेशेवर चित्रकार की तरह की। फ़्रांसिसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार से मिलने पर और लंदन में इतालवी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) देखने के बाद फ़िल्म निर्देशन की ओर इनका रुझान हुआ।

राय ने अपने जीवन में 37 फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। यह फ़िल्म अपराजितो (অপরাজিত) और अपुर संसार (অপুর সংসার, अपु का संसार) के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। राय फ़िल्म निर्माण से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पार्श्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फ़िल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे। राय को जीवन में कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न शामिल हैं।

जीवनी

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा

चित्र:Boy ray.jpg
सत्यजित राय, 1932

सत्यजित राय के वंश की कम से कम दस पीढ़ियों पहले तक की जानकारी मौजूद है।[2] इनके दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी लेखक, चित्रकार, दार्शनिक, प्रकाशक और अपेशेवर खगोलशास्त्री थे। ये साथ ही ब्राह्म समाज के नेता भी थे। उपेन्द्रकिशोर के बेटे सुकुमार राय ने लकीर से हटकर बांग्ला में बेतुकी कविता लिखी। ये योग्य चित्रकार और आलोचक भी थे। सत्यजित राय सुकुमार और सुप्रभा राय के बेटे थे। इनका जन्म कोलकाता में हुआ। जब सत्यजित केवल तीन वर्ष के थे तो इनके पिता चल बसे। इनके परिवार को सुप्रभा की मामूली तन्ख़्वाह पर गुज़ारा करना पड़ा। राय ने कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कालेज से अर्थशास्त्र पढ़ा, लेकिन इनकी रुचि हमेशा ललित कलाओं में ही रही। 1940 में इनकी माता ने आग्रह किया कि ये गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में आगे पढ़ें। राय को कोलकाता का माहौल पसन्द था और शान्तिनिकेतन के बुद्धिजीवी जगत से ये खास प्रभावित नहीं थे।[3] माता के आग्रह और ठाकुर के प्रति इनके आदर भाव की वजह से अंततः इन्होंने विश्व-भारती जाने का निश्चय किया। शान्तिनिकेतन में राय पूर्वी कला से बहुत प्रभावित हुए। बाद में इन्होंने स्वीकार किया कि प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस[4] और बिनोद बिहारी मुखर्जी से इन्होंने बहुत कुछ सीखा। मुखर्जी के जीवन पर इन्होंने बाद में एक वृत्तचित्र द इनर आई भी बनाया। अजन्ता, एलोरा और एलिफेंटा की गुफ़ाओं को देखने के बाद ये भारतीय कला के प्रशंसक बन गए।[5]

चित्रकला

चित्र:Ray stu.gif
शान्तिनिकेतन में सत्यजित राय

1943 में पाँच साल का कोर्स पूरा करने से पहले राय ने शान्तिनिकेतन छोड़ दिया और कोलकाता वापस आ गए जहाँ उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन अभिकरण डी. जे. केमर में नौकरी शुरु की। इनके पद का नाम “लघु द्रष्टा” (“junior visualiser”) था और महीने के केवल अस्सी रुपये का वेतन था। हालांकि दृष्टि रचना राय को बहुत पसंद थी और उनके साथ अधिकतर अच्छा ही व्यवहार किया जाता था, लेकिन एजेंसी के ब्रिटिश और भारतीय कर्मियों के बीच कुछ खिंचाव रहता था क्योंकि ब्रिटिश कर्मियों को ज्यादा वेतन मिलता था। साथ ही राय को लगता था कि “एजेंसी के ग्राहक प्रायः मूर्ख होते थे”।[6] 1943 के लगभग ही ये डी. के. गुप्ता द्वारा स्थापित सिग्नेट प्रेस के साथ भी काम करने लगे। गुप्ता ने राय को प्रेस में छपने वाली नई किताबों के मुखपृष्ठ रचने को कहा और पूरी कलात्मक मुक्ति दी। राय ने बहुत किताबों के मुखपृष्ठ बनाए, जिनमें जिम कार्बेट की मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊँ (Man-eaters of Kumaon, कुमाऊँ के नरभक्षी) और जवाहर लाल नेहरु की डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया (Discovery of India, भारत की खोज) शामिल हैं। इन्होंने बांग्ला के जाने-माने उपन्यास पथेर पांचाली (পথের পাঁচালী, पथ का गीत) के बाल संस्करण पर भी काम किया, जिसका नाम था आम आँटिर भेँपु (আম আঁটির ভেঁপু, आम की गुठली की सीटी)। राय इस रचना से बहुत प्रभावित हुए और अपनी पहली फ़िल्म इसी उपन्यास पर बनाई। मुखपृष्ठ की रचना करने के साथ उन्होंने इस किताब के अन्दर के चित्र भी बनाये। इनमें से बहुत से चित्र उनकी फ़िल्म के दृश्यों में दृष्टिगोचर होते हैं।[7]

राय ने दो नए फॉन्ट भी बनाए — “राय रोमन” और “राय बिज़ार”। राय रोमन को 1970 में एक अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला। कोलकाता में राय एक कुशल चित्रकार माने जाते थे। राय अपनी पुस्तकों के चित्र और मुखपृष्ठ ख़ुद ही बनाते थे और फ़िल्मों के लिए प्रचार सामग्री की रचना भी ख़ुद ही करते थे।

फ़िल्म निर्देशन

1947 में चिदानन्द दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ मिलकर राय ने कलकत्ता फ़िल्म सभा शुरु की, जिसमें उन्हें कई विदेशी फ़िल्में देखने को मिलीं। इन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में कोलकाता में स्थापित अमरीकन सैनिकों से दोस्ती कर ली जो उन्हें शहर में दिखाई जा रही नई-नई फ़िल्मों के बारे में सूचना देते थे। 1949 में राय ने दूर की रिश्तेदार और लम्बे समय से उनकी प्रियतमा बिजोय राय से विवाह किया। इनका एक बेटा हुआ, सन्दीप, जो अब ख़ुद फ़िल्म निर्देशक है। इसी साल फ़्रांसीसी फ़िल्म निर्देशक ज़ाँ रन्वार कोलकाता में अपनी फ़िल्म की शूटिंग करने आए। राय ने देहात में उपयुक्त स्थान ढूंढने में रन्वार की मदद की। राय ने उन्हें पथेर पांचाली पर फ़िल्म बनाने का अपना विचार बताया तो रन्वार ने उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया।[8] 1950 में डी. जे. केमर ने राय को एजेंसी के मुख्यालय लंदन भेजा। लंदन में बिताए तीन महीनों में राय ने 99 फ़िल्में देखीं। इनमें शामिल थी, वित्तोरियो दे सीका की नवयथार्थवादी फ़िल्म लाद्री दी बिसिक्लेत्ते (Ladri di biciclette, बाइसिकल चोर) जिसने उन्हें अन्दर तक प्रभावित किया। राय ने बाद में कहा कि वे सिनेमा से बाहर आए तो फ़िल्म निर्देशक बनने के लिए दृढ़संकल्प थे।[9]

फ़िल्मों में मिली सफलता से राय का पारिवारिक जीवन में अधिक परिवर्तन नहीं आया। वे अपनी माँ और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही एक किराए के मकान में रहते रहे।[10] 1960 के दशक में राय ने जापान की यात्रा की और वहाँ जाने-माने फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा से मिले। भारत में भी वे अक्सर शहर के भागम-भाग वाले माहौल से बचने के लिए दार्जीलिंग या पुरी जैसी जगहों पर जाकर एकान्त में कथानक पूरे करते थे।

बीमारी एवं निधन

1983 में फ़िल्म घरे बाइरे (ঘরে বাইরে) पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी 9 सालों में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। घरे बाइरे का छायांकन राय के बेटे की मदद से 1984 में पूरा हुआ। 1992 में हृदय की दुर्बलता के कारण राय का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, जिससे वह कभी उबर नहीं पाए। मृत्यु से कुछ ही हफ्ते पहले उन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार दिया गया। 23 अप्रैल 1992 को उनका देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया और हज़ारों लोग इनके घर पर इन्हें श्रद्धांजलि देने आए।[11]

फ़िल्में

अपु के वर्ष (1950–58)

चित्र:Apu Pather1.jpg
पथेर पांचाली में अपु

राय ने निश्चय कर रखा था कि उनकी पहली फ़िल्म बांग्ला साहित्य की प्रसिद्ध बिल्डुंग्सरोमान पथेर पांचाली पर आधारित होगी, जिसे बिभूतिभूषण बंद्योपाध्याय ने 1928 में लिखा था। इस अर्ध-आत्मकथात्मक उपन्यास में एक बंगाली गांव के लड़के अपु के बड़े होने की कहानी है। राय ने लंदन से भारत लौटते हुए समुद्रयात्रा के दौरान इस फ़िल्म की रूपरेखा तैयार की। भारत पहुँचने पर राय ने एक कर्मीदल एकत्रित किया जिसमें कैमरामैन सुब्रत मित्र और कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता के अलावा किसी को फ़िल्मों का अनुभव नहीं था। अभिनेता भी लगभग सभी गैरपेशेवर थे। फ़िल्म का छायांकन 1952 में शुरु हुआ। राय ने अपनी जमापूंजी इस फ़िल्म में लगा दी, इस आशा में कि पहले कुछ शॉट लेने पर कहीं से पैसा मिल जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पथेर पांचाली का छायांकन तीन वर्ष के लम्बे समय में हुआ — जब भी राय या निर्माण प्रबंधक अनिल चौधरी कहीं से पैसों का जुगाड़ कर पाते थे, तभी छायांकन हो पाता था। राय ने ऐसे स्रोतों से धन लेने से मना कर दिया जो कथानक में परिवर्तन कराना चाहते थे या फ़िल्म निर्माता का निरीक्षण करना चाहते थे। 1955 में पश्चिम बंगाल सरकार ने फ़िल्म के लिए कुछ ऋण दिया जिससे आखिरकार फ़िल्म पूरी हुई। सरकार ने भी फ़िल्म में कुछ बदलाव कराने चाहे (वे चाहते थे कि अपु और उसका परिवार एक “विकास परियोजना” में शामिल हों और फ़िल्म सुखान्त हो) लेकिन सत्यजित राय ने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया।[12]

पथेर पांचाली 1955 में प्रदर्शित हुई और बहुत लोकप्रिय रही। भारत और अन्य देशों में भी यह लम्बे समय तक सिनेमा में लगी रही। भारत के आलोचकों ने इसे बहुत सराहा। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने लिखा — “इसकी किसी और भारतीय सिनेमा से तुलना करना निरर्थक है। [...] पथेर पांचाली तो शुद्ध सिनेमा है।”[13] अमरीका में लिंडसी एंडरसन ने फ़िल्म के बारे में बहुत अच्छी समीक्षा लिखी।[13] लेकिन सभी आलोचक फ़िल्म के बारे में इतने उत्साहित नहीं थे। फ़्राँस्वा त्रुफ़ो ने कहा — “गंवारों को हाथ से खाना खाते हुए दिखाने वाली फ़िल्म मुझे नहीं देखनी।”[14] न्यू यॉर्क टाइम्स के प्रभावशाली आलोचक बॉज़्ली क्राउथर ने भी पथेर पांचाली के बारे में बहुत बुरी समीक्षा लिखी। इसके बावजूद यह फ़िल्म अमरीका में बहुत समय तक चली।

राय की अगली फ़िल्म अपराजितो की सफलता के बाद इनका अन्तरराष्ट्रीय कैरियर पूरे जोर-शोर से शुरु हो गया। इस फ़िल्म में एक नवयुवक (अपु) और उसकी माँ की आकांक्षाओं के बीच अक्सर होने वाले खिंचाव को दिखाया गया है। मृणाल सेन और ऋत्विक घटक सहित कई आलोचक इसे पहली फ़िल्म से बेहतर मानते हैं। अपराजितो को वेनिस फ़िल्मोत्सव में स्वर्ण सिंह (Golden Lion) से पुरस्कृत किया गया। अपु त्रयी पूरी करने से पहले राय ने दो और फ़िल्में बनाईं — हास्यप्रद पारश पत्थर और ज़मींदारों के पतन पर आधारित जलसाघरजलसाघर को इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृतियों में गिना जाता है।[15]

अपराजितो बनाते हुए राय ने त्रयी बनाने का विचार नहीं किया था, लेकिन वेनिस में उठे एक प्रश्न के बाद उन्हें यह विचार अच्छा लगा।[16] इस शृंखला की अन्तिम कड़ी अपुर संसार 1959 में बनी। राय ने इस फ़िल्म में दो नए अभिनेताओं, सौमित्र चटर्जी और शर्मिला टैगोर, को मौका दिया। इस फ़िल्म में अपु कोलकाता के एक साधारण मकान में गरीबी में रहता है और अपर्णा के साथ विवाह कर लेता है, जिसके बाद इन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पिछली दो फ़िल्मों की तरह ही कुछ आलोचक इसे त्रयी की सबसे बढ़िया फ़िल्म मानते हैं (राबिन वुड और अपर्णा सेन)।[17] जब एक बंगाली आलोचक ने अपुर संसार की कठोर आलोचना की तो राय ने इसके प्रत्युत्तर में एक लम्बा लेख लिखा।[18]

देवी से चारुलता तक (1959–64)

चित्र:Charulata1.jpg
अमल को निहारते हुए चारुलता

इस अवधि में राय ने कई विषयों पर फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, ब्रिटिश काल पर आधारित देवी (দেবী), रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर एक वृत्तचित्र, हास्यप्रद फ़िल्म महापुरुष (মহাপুরুষ) और मौलिक कथानक पर आधारित इनकी पहली फ़िल्म कंचनजंघा (কাঞ্চনজঙ্ঘা)। इसी दौरान इन्होने कई ऐसी फ़िल्में बनाईं, जिन्हें साथ मिलाकर भारतीय सिनेमा में स्त्रियों का सबसे गहरा चित्रांकन माना जाता है।[19]

अपुर संसार के बाद राय की पहली फ़िल्म थी देवी, जिसमें इन्होंने हिन्दू समाज में अंधविश्वास के विषय को टटोला है। शर्मिला टैगोर ने इस फ़िल्म के मुख्य पात्र दयामयी की भूमिका निभाई, जिसे उसके ससुर काली का अवतार मानते हैं। राय को चिन्ता थी कि इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से शायद स्वीकृति नहीं मिले, या उन्हे कुछ दृश्य काटने पड़ें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1961 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर राय ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया। ठाकुर के जीवन का फ़िल्मांकन बहुत कम ही हुआ था, इसलिए राय को मुख्यतः स्थिर चित्रों का प्रयोग करना पड़ा, जिसमें उनके अनुसार तीन फ़ीचर फ़िल्मों जितना परिश्रम हुआ।[20] इसी साल में राय ने सुभाष मुखोपाध्याय और अन्य लेखकों के साथ मिलकर बच्चों की पत्रिका सन्देश को पुनर्जीवित किया। इस पत्रिका की शुरुआत इनके दादा ने शुरु की थी और बहुत समय से राय इसके लिए धन जमा करते आ रहे थे।[21] सन्देश का बांग्ला में दोतरफा मतलब है — एक ख़बर और दूसरा मिठाई। पत्रिका को इसी मूल विचार पर बनाया गया — शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन। राय शीघ्र ही ख़ुद पत्रिका में चित्र बनाने लगे और बच्चों के लिये कहानियाँ और निबन्ध लिखने लगे। आने वाले वर्षों में लेखन इनकी जीविका का प्रमुख साधन बन गया।

1962 में राय ने काँचनजंघा का निर्देशन किया, जिसमें पहली बार इन्होंने मौलिक कथानक पर रंगीन छायांकन किया। इस फ़िल्म में एक उच्च वर्ग के परिवार की कहानी है जो दार्जीलिंग में एक दोपहर बिताते हैं, और प्रयास करते हैं कि सबसे छोटी बेटी का विवाह लंदन में पढ़े एक कमाऊ इंजीनियर के साथ हो जाए। शुरू में इस फ़िल्म को एक विशाल हवेली में चित्रांकन करने का विचार था, लेकिन बाद में राय ने निर्णय किया कि दार्जीलिंग के वातावरण और प्रकाश व धुंध के खेल का प्रयोग करके कथानक के खिंचाव को प्रदर्शित किया जाए। राय ने हंसी में एक बार कहा कि उनकी फ़िल्म का छायांकन किसी भी रोशनी में हो सकता था, लेकिन उसी समय दार्जीलिंग में मौजूद एक व्यावसायिक फ़िल्म दल एक भी दृश्य नहीं शूट कर पाया क्योंकि उन्होने केवल धूप में ही शूटिंग करनी थी।[22]

1964 में राय ने चारुलता (চারুলতা) फ़िल्म बनाई जिसे बहुत से आलोचक इनकी सबसे निष्णात फ़िल्म मानते है।[23] यह ठाकुर की लघुकथा नष्टनीड़ पर आधारित है। इसमें 19वीं शताब्दी की एक अकेली स्त्री की कहानी है जिसे अपने देवर अमल से प्रेम होने लगता है। इसे राय की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। राय ने ख़ुद कहा कि इसमें सबसे कम खामियाँ हैं, और यही एक फ़िल्म है जिसे वे मौका मिलने पर बिलकुल इसी तरह दोबारा बनाएंगे।[24] चारु के रूप में माधवी मुखर्जी के अभिनय और सुब्रत मित्र और बंसी चन्द्रगुप्ता के काम को बहुत सराहा गया है। इस काल की अन्य फ़िल्में हैं: महानगर, तीन कन्या, अभियान, कापुरुष (कायर) और महापुरुष

नई दिशाएँ (1965-1982)

चारुलता के बाद के काल में राय ने विविध विषयों पर आधारित फ़िल्में बनाईं, जिनमें शामिल हैं, कल्पनाकथाएँ, विज्ञानकथाएँ, गुप्तचर कथाएँ और ऐतिहासिक नाटक। राय ने फ़िल्मों में नयी तकनीकों पर प्रयोग करना और भारत के समकालीन विषयों पर ध्यान देना शुरु किया। इस काल की पहली मुख्य फ़िल्म थी नायक (নায়ক), जिसमें एक फ़िल्म अभिनेता (उत्तम कुमार) रेल में सफर करते हुए एक महिला पत्रकार (शर्मिला टैगोर) से मिलता है। 24 घंटे की घटनाओं पर आधारित इस फ़िल्म में इस प्रसिद्ध अभिनेता के मनोविज्ञान का अन्वेषण किया गया है। बर्लिन में इस फ़िल्म को आलोचक पुरस्कार मिला, लेकिन अन्य प्रतिक्रियाएँ अधिक उत्साहपूर्ण नहीं रहीं।[25]

1967 में राय ने एक फ़िल्म का कथानक लिखा, जिसका नाम होना था द एलियन (The Alien, दूरग्रहवासी)। यह इनकी लघुकथा बाँकुबाबुर बंधु (বাঁকুবাবুর বন্ধু, बाँकु बाबु का दोस्त) पर आधारित थी जिसे इन्होंने संदेश (সন্দেশ) पत्रिका के लिए 1962 में लिखा था। इस अमरीका-भारत सह-निर्माण परियोजना की निर्माता कोलम्बिया पिक्चर्स नामक कम्पनी थी। पीटर सेलर्स और मार्लन ब्रैंडो को इसकी मुख्य भूमिकाओं के लिए चुना गया। राय को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उनके कथानक के प्रकाशनाधिकार को किसी और ने हड़प लिया था। ब्रैंडो बाद में इस परियोजना से निकल गए और राय का भी इस फ़िल्म से मोह-भंग हो गया।[26][27] कोलम्बिया ने 1970 और 80 के दशकों में कई बार इस परियोजना को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया लेकिन बात कभी आगे नहीं बढ़ी। राय ने इस परियोजना की असफलता के कारण 1980 के एक साइट एण्ड साउंड (Sight & Sound) प्रारूप में गिनाए हैं, और अन्य विवरण इनके आधिकारिक जीवनी लेखक एंड्रू रॉबिनसन ने द इनर आइ (The Inner Eye, अन्तर्दृष्टि) में दिये हैं। जब 1982 में ई.टी. फ़िल्म प्रदर्शित हुई तो राय ने अपने कथानक और इस फ़िल्म में कई समानताएँ देखीं। राय का विश्वास था कि स्टीवन स्पीलबर्ग की यह फ़िल्म उनके कथानक के बिना सम्भव नहीं थी (हालांकि स्पीलबर्ग इसका खण्डन करते हैं)।[28] 1969 में राय ने व्यावसायिक रूप से अपनी सबसे सफल फ़िल्म बनाई — गुपी गाइन बाघा बाइन (গুপি গাইন বাঘা বাইন, गुपी गाए बाघा बजाए)। यह संगीतमय फ़िल्म इनके दादा द्वारा लिखी एक कहानी पर आधारित है। गायक गूपी और ढोली बाघा को भूतों का राजा तीन वरदान देता है, जिनकी मदद से वे दो पड़ोसी देशों में होने वाले युद्ध को रोकते हैं। यह राय के सबसे खर्चीले उद्यमों में से थी और इसके लिए पूंजी बहुत मुश्किल से मिली। राय को आखिरकार इसे रंगीन बनाने का विचार त्यागना पड़ा।[29] राय की अगली फ़िल्म थी अरण्येर दिनरात्रि (অরণ্যের দিনরাত্রি, जंगल में दिन-रात), जिसकी संगीत-संरचना चारुलता से भी जटिल मानी जाती है।[30] इसमें चार ऐसे नवयुवकों की कहानी है जो छुट्टी मनाने जंगल में जाते हैं। इसमें सिमी गरेवाल ने एक जंगली जाति की औरत की भूमिका निभाई है। आलोचक इसे भारतीय मध्यम वर्ग की मानसिकता की छवि मानते हैं।

इसके बाद राय ने समसामयिक बंगाली वास्तविकता पर ध्यान देना शुरु किया। बंगाल में उस समय नक्सलवादी क्रांति जोर पकड़ रही थी। ऐसे समय में नवयुवकों की मानसिकता को लेकर इन्होंने कलकत्ता त्रयी के नाम से जाने वाली तीन फ़िल्में बनाईं — प्रतिद्वंद्वी (প্রতিদ্বন্দ্বী) (1970), सीमाबद्ध (সীমাবদ্ধ) (1971) और जनअरण्य (জনঅরণ্য) (1975)। इन तीनों फ़िल्मों की कल्पना अलग-अलग हुई लेकिन इनके विषय साथ मिलाकर एक त्रयी का रूप लेते हैं। प्रतिद्वंद्वी एक आदर्शवादी नवयुवक की कहानी है जो समाज से मोह-भंग होने पर भी अपने आदर्श नहीं त्यागता है। इसमें राय ने कथा-वर्णन की एक नयी शैली अपनाई, जिसमें इन्होंने नेगेटिव में दृश्य, स्वप्न दृश्य और आकस्मिक फ़्लैश-बैक का उपयोग किया। जनअरण्य फ़िल्म में एक नवयुवक की कहानी है जो जीविका कमाने के लिए भ्रष्ट राहों पर चलने लगता है। सीमाबद्ध में एक सफल युवक अधिक धन कमाने के लिए अपनी नैतिकता छोड़ देता है। राय ने 1970 के दशक में अपनी दो लोकप्रिय कहानियों — सोनार केल्ला (সোনার কেল্লা, स्वर्ण किला) और जॉय बाबा फेलुनाथ (জয় বাবা ফেলুনাথ) — का फ़िल्मांकन किया। दोनों फ़िल्में बच्चों और बड़ों दोनों में बहुत लोकप्रिय रहीं।[31]

राय ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध पर भी एक फ़िल्म बनाने की सोची, लेकिन बाद में यह विचार त्याग दिया क्योंकि उन्हें राजनीति से अधिक शरणार्थियों के पलायन और हालत को समझने में अधिक रुचि थी।[32] 1977 में राय ने मुंशी प्रेमचन्द की कहानी पर आधारित शतरंज के खिलाड़ी फ़िल्म बनाई। यह उर्दू भाषा की फ़िल्म 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक वर्ष पहले अवध राज्य में लखनऊ शहर में केन्द्रित है। इसमें भारत के गुलाम बनने के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बॉलीवुड के बहुत से सितारों ने काम किया, जिनमें प्रमुख हैं — संजीव कुमार, सईद जाफ़री, अमजद ख़ान, शबाना आज़मी, विक्टर बैनर्जी और रिचर्ड एटनबरो1980 में राय ने गुपी गाइन बाघा बाइन की कहानी को आगे बढ़ाते हुए हीरक राज नामक फ़िल्म बनाई जिसमें हीरे के राजा का राज्य इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान के भारत की ओर इंगित करता है।[33] इस काल की दो अन्य फ़िल्में थी — लघु फ़िल्म पिकूर डायरी (पिकू की दैनन्दिनी) या पिकु और घंटे-भर लम्बी हिन्दी फ़िल्म सदगति

अन्तिम काल (1983–1992)

चित्र:Sukumar.gif
सत्यजित राय के पिता सुकुमार राय, जिन के जीवन पर सत्यजित ने 1987 में एक वृत्तचित्र बनाया।

राय बहुत समय से ठाकुर के उपन्यास घरे बाइरे पर आधारित फ़िल्म बनाने की सोच रहे थे।[34] बीमारी की वजह से इसमें कुछ भाग उत्कृष्ट नहीं हैं, लेकिन फ़िल्म को सराहना बहुत मिली। 1987 में उन्होंने अपने पिता सुकुमार राय के जीवन पर एक वृत्तचित्र बनाया।

राय की आखिरी तीन फ़िल्में उनकी बीमारी के कारण मुख्यतः आन्तरिक स्थानों में शूट हुईं और इस कारण से एक विशिष्ट शैली का अनुसरण करती हैं। इनमें संवाद अधिक है और इन्हें राय की बाकी फ़िल्मों से निम्न श्रेणी में रखा जाता है। इनमें से पहली, गणशत्रु (গণশত্রু), हेनरिक इबसन के प्रख्यात नाटक एन एनिमी ऑफ़ द पीपल पर आधारित है, और इन तीनों में से सबसे कमजोर मानी जाती है।[35] 1990 की फ़िल्म शाखा प्रशाखा (শাখা প্রশাখা) में राय ने अपनी पुरानी गुणवत्ता कुछ वापिस प्राप्त की।[36] इसमें एक बूढ़े आदमी की कहानी है, जिसने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से बिताया होता है, लेकिन अपने तीन बेटों के भ्रष्ट आचरण का पता लगने पर उसे केवल अपने चौथे, मानसिक रूप से बीमार, बेटे की संगत रास आती है। राय की अंतिम फ़िल्म आगन्तुक (আগন্তুক) का माहौल हल्का है लेकिन विषय बहुत गूढ़ है। इसमें एक भूला-बिसरा मामा अपनी भांजी से अचानक मिलने आ पहुँचता है, तो उसके आने के वास्तविक कारण पर शंका की जाने लगती है।

फ़िल्म कौशल

सत्यजित राय मानते थे कि कथानक लिखना निर्देशन का अभिन्न अंग है। यह एक कारण है जिसकी वजह से उन्होंने प्रारंभ में बांग्ला के अतिरिक्त किसी भी भाषा में फ़िल्म नहीं बनाई। अन्य भाषाओं में बनी इनकी दोनों फ़िल्मों के लिए इन्होंने पहले अंग्रेजी में कथानक लिखा, जिसे इनके पर्यवेक्षण में अनुवादकों ने हिन्दी या उर्दू में भाषांतरित किया। राय के कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता की दृष्टि भी राय की तरह ही पैनी थी। शुरुआती फ़िल्मों पर इनका प्रभाव इतना महत्त्वपूर्ण था कि राय कथानक पहले अंग्रेजी में लिखते थे ताकि बांग्ला न जानने वाले चन्द्रगुप्ता उसे समझ सकें। शुरुआती फ़िल्मों के छायांकन में सुब्रत मित्र का कार्य बहुत सराहा जाता है, और आलोचक मानते हैं कि अनबन होने के बाद जब मित्र चले गए तो राय की फ़िल्मों के चित्रांकन का स्तर घट गया।[37] राय ने मित्र की बहुत प्रशंसा की, लेकिन राय इतनी एकाग्रता से फिल्में बनाते थे कि चारुलता के बाद से राय कैमरा ख़ुद ही चलाने लगे, जिसके कारण मित्र ने 1966 से राय के लिए काम करना बंद कर दिया। मित्र ने बाउंस-प्रकाश का सर्वप्रथम प्रयोग किया जिसमें वे प्रकाश को कपड़े पर से उछाल कर वास्तविक प्रतीत होने वाला प्रकाश रच लेते थे। राय ने अपने को फ़्रांसीसी नव तरंग के ज़ाँ-लुक गॉदार और फ़्रांस्वा त्रूफ़ो का भी ऋणी मानते थे, जिनके नए तकनीकी और सिनेमा प्रयोगों का उपयोग राय ने अपनी फ़िल्मों में किया।[38]

हालांकि दुलाल दत्ता राय के नियमित फ़िल्म संपादक थे, राय अक्सर संपादन के निर्णय ख़ुद ही लेते थे, और दत्ता बाकी काम करते थे। वास्तव में आर्थिक कारणों से और राय के कुशल नियोजन से संपादन अक्सर कैमरे पर ही हो जाता था। शुरु में राय ने अपनी फ़िल्मों के संगीत के लिए लिए रवि शंकर, विलायत ख़ाँ और अली अक़बर ख़ाँ जैसे भारतीय शास्त्रीय संगीतज्ञों के साथ काम किया, लेकिन राय को लगने लगा कि इन संगीतज्ञों को फ़िल्म की अपेक्षा संगीत की साधना में अधिक रुचि है।[39] साथ ही राय को पाश्चात्य संगीत का भी ज्ञान था जिसका प्रयोग वह फ़िल्मों में करना चाहते थे। इन कारणों से तीन कन्या (তিন কন্যা) के बाद से फ़िल्मों का संगीत भी राय ख़ुद ही रचने लगे। राय ने विभिन्न पृष्ठभूमि वाले अभिनेताओं के साथ काम किया, जिनमें से कुछ विख्यात सितारे थे, तो कुछ ने कभी फ़िल्म देखी तक नहीं थी।[40] राय को बच्चों के अभिनय के निर्देशन के लिए बहुत सराहा गया है, विशेषत: अपु एवं दुर्गा (पाथेर पांचाली), रतन (पोस्टमास्टर) और मुकुल (सोनार केल्ला)। अभिनेता के कौशल और अनुभव के अनुसार राय का निर्देशन कभी न के बराबर होता था (आगन्तुक में उत्पल दत्त) तो कभी वे अभिनेताओं को कठपुतलियों की तरह प्रयोग करते थे (अपर्णा की भूमिका में शर्मिला टैगोर)।[41]

समीक्षा एवं प्रतिक्रिया

राय की कृतियों को मानवता और समष्टि से ओत-प्रोत कहा गया है। इनमें बाहरी सरलता के पीछे अक्सर गहरी जटिलता छिपी होती है।[42][43] इनकी कृतियों को अन्यान्य शब्दों में सराहा गया है। अकिरा कुरोसावा ने कहा, “राय का सिनेमा न देखना इस जगत में सूर्य या चन्द्रमा को देखे बिना रहने के समान है।” आलोचकों ने इनकी कृतियों को अन्य कई कलाकारों से तुलना की है — आंतोन चेखव, ज़ाँ रन्वार, वित्तोरियो दे सिका, हावर्ड हॉक्स, मोत्सार्ट, यहाँ तक कि शेक्सपियर के समतुल्य पाया गया है।[44][45] नाइपॉल ने शतरंज के खिलाड़ी के एक दृश्य की तुलना शेक्सपियर के नाटकों से की है – “केवल तीन सौ शब्द बोले गए, लेकिन इतने में ही अद्भुत घटनाएँ हो गईं!”[46] जिन आलोचकों को राय की फ़िल्में सुरुचिपूर्ण नहीं लगतीं, वे भी मानते हैं कि राय एक सम्पूर्ण संस्कृति की छवि फ़िल्म पर उतारने में अद्वितीय थे।[47]

राय की आलोचना मुख्यतः इनकी फ़िल्मों की गति को लेकर की जाती है। आलोचक कहते हैं कि ये एक “राजसी घोंघे” की गति से चलती हैं।[48] राय ने ख़ुद माना कि वे इस गति के बारे में कुछ नहीं कर सकते, लेकिन कुरोसावा ने इनका पक्ष लेते हुए कहा, “इन्हें धीमा नहीं कहा जा सकता। ये तो विशाल नदी की तरह शान्ति से बहती हैं।” इसके अतिरिक्त कुछ आलोचक इनकी मानवता को सादा और इनके कार्यों को आधुनिकता-विरोधी मानते हैं और कहते हैं कि इनकी फ़िल्मों में अभिव्यक्ति की नई शैलियाँ नहीं नज़र आती हैं। वे कहते हैं कि राय “मान लेते हैं कि दर्शक ऐसी फ़िल्म में रुचि रखेंगे जो केवल चरित्रों पर केन्द्रित रहती है, बजाए ऐसी फ़िल्म के जो उनके जीवन में नए मोड़ लाती है।”[49]

राय की आलोचना समाजवादी विचारधाराओं के राजनेताओं ने भी की है। इनके अनुसार राय पिछड़े समुदायों के लोगों के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध नहीं थे, बल्कि अपनी फ़िल्मों में गरीबी का सौन्दर्यीकरण करते थे। ये अपनी कहानियों में द्वन्द्व और संघर्ष को सुलझाने के तरीके भी नहीं सुझाते थे। 1960 के दशक में राय और मृणाल सेन के बीच एक सार्वजनिक बहस हुई। मृणाल सेन स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी थे और उनके अनुसार राय ने उत्तम कुमार जैसे प्रसिद्ध अभिनेता के साथ फ़िल्म बनाकर अपने आदर्शों के साथ समझौता किया। राय ने पलटकर जवाब दिया कि सेन अपनी फ़िल्मों में केवल बंगाली मध्यम वर्ग को ही निशाना बनाते हैं क्योंकि इस वर्ग की आलोचना करना आसान है। 1980 में सांसद एवं अभिनेत्री नरगिस ने राय की खुलकर आलोचना की कि ये “गरीबी की निर्यात” कर रहे हैं, और इनसे माँग की कि ये आधुनिक भारत को दर्शाती हुई फ़िल्में बनाएँ।[50]

साहित्यिक कृतियाँ

सत्यजित राय की कहानियों के संकलन का मुखपृष्ठ

राय ने बांग्ला भाषा के बाल-साहित्य में दो लोकप्रिय चरित्रों की रचना की — गुप्तचर फेलुदा (ফেলুদা) और वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर शंकु। इन्होंने कई लघु-कथाएँ भी लिखीं, जो बारह-बारह कहानियों के संकलन में प्रकाशित होती थीं, और सदा उनके नाम में बारह से संबंधित शब्दों का खेल रहता था। उदाहरण के लिए एकेर पिठे दुइ (একের পিঠে দুই, एक के ऊपर दो)। राय को पहेलियों और बहुअर्थी शब्दों के खेल से बहुत प्रेम था। इसे इनकी कहानियों में भी देखा जा सकता है – फेलुदा को अक्सर मामले की तह तक जाने के लिए पहेलियाँ सुलझानी पड़ती हैं। शर्लक होम्स और डॉक्टर वाटसन की तरह फेलुदा की कहानियों का वर्णन उसका चचेरा भाई तोपसे करता है। प्रोफेसर शंकु की विज्ञानकथाएँ एक दैनन्दिनी के रूप में हैं जो शंकु के अचानक गायब हो जाने के बाद मिलती है। राय ने इन कहानियों में अज्ञात और रोमांचक तत्वों को भीतर तक टटोला है, जो उनकी फ़िल्मों में नहीं देखने को मिलता है।[51] इनकी लगभग सभी कहानियाँ हिन्दी, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं।

राय के लगभग सभी कथानक भी बांग्ला भाषा में साहित्यिक पत्रिका एकशान (একশান) में प्रकाशित हो चुके हैं। राय ने 1982 में आत्मकथा लिखी जखन छोटो छिलम (जब मैं छोटा था)। इसके अतिरिक्त इन्होंने फ़िल्मों के विषय पर कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से प्रमुख है आवर फ़िल्म्स, देयर फ़िल्म्स (Our Films, Their Films, हमारी फ़िल्में, उनकी फ़िल्में)। 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक में राय की लिखी आलोचनाओं का संकलन है। इसके पहले भाग में भारतीय सिनेमा का विवरण है, और दूसरा भाग हॉलीवुड पर केन्द्रित है। राय ने चार्ली चैपलिन और अकीरा कुरोसावा जैसे निर्देशकों और इतालवी नवयथार्थवाद जैसे विषयों पर विशेष ध्यान दिया है। 1976 में ही इन्होंने एक और पुस्तक प्रकाशित की — विषय चलचित्र (বিষয় চলচ্চিত্র) जिसमें सिनेमा के विभिन्न पहलुओं पर इनके चिंतन का संक्षिप्त विवरण है। इसके अतिरिक्त इनकी एक और पुस्तक एकेई बोले शूटिंग (একেই বলে শুটিং, इसको शूटिंग कहते है) (1979) और फ़िल्मों पर अन्य निबंध भी प्रकाशित हुए हैं।

राय ने बेतुकी कविताओं का एक संकलन तोड़ाय बाँधा घोड़ार डिम (তোড়ায় বাঁধা ঘোড়ার ডিম, घोड़े के अण्डों का गुच्छा) भी लिखा है, जिसमें लुइस कैरल की कविता जैबरवॉकी का अनुवाद भी शामिल है। इन्होंने बांग्ला में मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियों का संकलन भी प्रकाशित किया।

सम्मान एवं पुरस्कार

चित्र:Satyajit-ray-oscar-180.jpg
निधन के कुछ ही दिन पहले राय अकादमी पुरस्कार के साथ

राय को जीवन में अनेकों पुरस्कार और सम्मान मिले। ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय ने इन्हें सम्मानदायक डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्रदान की। चार्ली चैपलिन के बाद ये इस सम्मान को पाने वाले पहले फ़िल्म निर्देशक थे। इन्हें 1985 में दादासाहब फाल्के पुरस्कार और 1987 में फ़्राँस के लेज़्यों द’ऑनु पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मृत्यु से कुछ समय पहले इन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार और भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न प्रदान किये गए। मरणोपरांत सैन फ़्रैंसिस्को अन्तरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में इन्हें निर्देशन में जीवन-पर्यन्त उपलब्धि-स्वरूप अकिरा कुरोसावा पुरस्कार मिला जिसे इनकी ओर से शर्मिला टैगोर ने ग्रहण किया।[52] सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्होंने जो फ़िल्में बनाईं उनमें पहले जैसी ओजस्विता नहीं थी। उनका व्यक्तिगत जीवन कभी मीडिया के निशाने पर नहीं रहा लेकिन कुछ का विश्वास है कि 1960 के दशक में फ़िल्म अभिनेत्री माधवी मुखर्जी से उनके संबंध रहे।[53]

धरोहर

सत्यजित राय भारत और विश्वभर के बंगाली समुदाय के लिए एक सांस्कृतिक प्रतीक हैं। बंगाली सिनेमा पर राय ने अमिट छाप छोड़ी है। बहुत से बांग्ला निर्देशक इनके कार्य से प्रेरित हुए हैं — अपर्णा सेन, ऋतुपर्ण घोष, गौतम घोष, तारिक़ मसूद और तन्वीर मुकम्मल। भारतीय सिनेमा पर इनके प्रभाव को हर शैली के निर्देशक मानते हैं, जिनमें बुद्धदेव दासगुप्ता, मृणाल सेन[54] और अदूर गोपालकृष्णन शामिल हैं। भारत के बाहर भी मार्टिन सोर्सीसी,[55] जेम्स आइवरी,[56] अब्बास कियारोस्तामी और एलिया काज़ान जैसे निर्देशक भी इनकी शैली से प्रभावित हुए हैं। इरा सैक्स की फ़िल्म फ़ॉर्टी शेड्स ऑफ़ ब्लु (Forty Sheds of Blue, चालीस तरह के नीले रंग) बहुत कुछ चारुलता पर आधारित थी। राय की कृतियों के हवाले अन्य कई फ़िल्मों में मिलते हैं, जैसे सेक्रेड ईविल (Sacred Evil, पावन दुष्टता),[57] दीपा मेहता की तत्व त्रयी और ज़ाँ-लुक गॉडार की कई कृतियाँ।[58]

1993 में यूसी सांता क्रूज़ ने राय की फ़िल्मों और उन पर आधारित साहित्य का संकलन करना प्रारंभ किया। 1995 में भारत सरकार ने फ़िल्मों से सम्बन्धित अध्ययन के लिए सत्यजित राय फ़िल्म एवं टेलिविज़न संस्थान की स्थापना की। लंदन फ़िल्मोत्सव में नियमित रूप से एक ऐसे निर्देशक को सत्यजित राय पुरस्कार दिया जाता है जिसने पहली फ़िल्म में ही “राय की दृष्टि की कला, संवेदना और मानवता” को अपनाया हो। 2007 में, ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन घोषणा की कि उनकी दो फेलुदा कहानियों पर रेडियो कार्यक्रम तैयार किए जाएँगे।[59]

सांस्कृतिक हवाले

अमरीकन कार्टून धारावाहिक द सिम्प्सन्स में अपु नहसपीमापेतिलोन के चरित्र का नाम राय के सम्मान में रखा गया था। राय और माधवी मुखर्जी पहले भारतीय फ़िल्म व्यक्तित्व थे जिनकी तस्वीर किसी विदेशी डाकटिकट (डोमिनिका देश) पर छपी। कई साहित्यिक कृतियों में राय की फ़िल्मों का हवाला दिया गया है — सॉल बेलो का उपन्यास हर्ज़ोग और जे. एम. कोटज़ी का यूथ (यौवन)। सलमान रशदी के बाल-उपन्यास हारुन एंड द सी ऑफ़ स्टोरीज़ (Harun and the Sea of Stories, हारुन और कहानियों का सागर) में दो मछलियों का नाम “गुपी” और “बाघा” है।

यह भी देखें

     बंगाली सिनेमा का इतिहास     
प्रसिद्ध निर्देशक
कलाकार
इतिहास
इतिहास बिल्ल्वमंगलदेना पाओनाधीरेन्द्रनाथ गंगोपाध्यायहीरालाल सेनइंडो ब्रिटिश फ़िल्म कंपनीकानन देवीमदन थियेटरमिनर्वा थियेटरन्यू थियेटर्सप्रमथेश बरूआरॉयल बायोस्कोपस्टार थियेटरअन्य...
प्रसिद्ध फ़िल्में 36 चौरंगी लेनअपराजितोअपुर संसारउनिशे एप्रिलघरे बाइरेचारुलताचोखेर बालीताहादेर कथातितलीदीप जेले जाइदेना पाओनानील आकाशेर नीचेपथेर पांचालीबिल्ल्वमंगलमेघे ढाका तारासप्तपदीहाँसुलि बाँकेर उपकथाहारानो सुरअन्य...   

संदर्भ

टीका-टिप्पणी

  1. “राय, सत्यजित”। Encyclopædia Britannica। एंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका इंकॉर्पोरेशन। <http://www.britannica.com/eb/article-9062818>। अभिगमन तिथि: 1 अप्रैल, 2007
  2. सेटन 1971, पृष्ठ 36
  3. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 46
  4. सेटन 1971, पृष्ठ 70
  5. सेटन 1971, पृष्ठ 71–72
  6. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 56–58
  7. रॉबिनसन 2005, पृष्ठ 38
  8. रॉबिनसन 2005, पृष्ठ 42–44
  9. रॉबिनसन 2005, पृष्ठ 48
  10. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 5
  11. अमिताव घोष. "Satyajit Ray". डूम ऑनलाइन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  12. सेटन 1971, पृष्ठ 95
  13. सेटन 1971, पृष्ठ 112–15
  14. "Filmi Funda Pather Panchali (1955)". द टेलिग्राफ़. 20 अप्रैल, 2005. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद); |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  15. मैल्कम डी. "Satyajit Ray: The Music Room". गार्डियन.को.यूके. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  16. वुड 1972, पृष्ठ 61
  17. वुड 1972
  18. राय ने राय 1993, पृष्ठ 13 में इसका वर्णन किया है।
  19. पालोपोली एस. "Ghost 'World'". मेट्रोएक्टिव.कॉम. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  20. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 277
  21. सेटन 1971, पृष्ठ 189
  22. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 142
  23. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 157
  24. एंटनी जे. "Charulata". स्लांट मैगज़ीन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  25. दासगुप्त 1996, पृष्ठ 91
  26. न्यूमैन पी. "Biography for Satyajit Ray". इंटरनेट मूवी डेटाबेस इंकॉर्पोरेशन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  27. "The Unmade Ray". सत्यजित राय सोसायटी. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  28. न्यूमैन जे (17 सितंबर 2001). "Satyajit Ray Collection receives Packard grant and lecture endowment". यूसी सांता क्रूज़ करेंट्स ऑनलाइन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद); |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  29. सेटन 1971, पृष्ठ 291-297
  30. वुड 1972, पृष्ठ 13
  31. रशदी 1992
  32. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 206
  33. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 188-189
  34. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 66-67
  35. दासगुप्त 1996, पृष्ठ 134
  36. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 353
  37. दासगुप्त 1996, पृष्ठ 91
  38. सेन ए. "Western Influences on Satyajit Ray". परबास. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  39. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 315-318
  40. राय 1994, पृष्ठ 100
  41. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 307
  42. मैल्कम डी. "The universe in his backyard". गार्डियन.को.यूके. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  43. स्वाग्रो एम. "An Art Wedded to Truth". द एटलैंटिक मन्थली. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  44. वुड 1972
  45. एबर्ट आर. "The Music Room (1958)". सनटाइम्स.कॉम. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  46. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 246
  47. रॉबिनसन 2005, पृष्ठ 13-14
  48. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 157
  49. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 352-353
  50. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 327-328
  51. नन्दी 1995
  52. "Awards and Tributes". सैन फ़्रैंसिस्को इंटरनैशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  53. रॉबिनसन 2003, पृष्ठ 362
  54. मृणाल सेन. "Our lives, their lives". लिटल मैगज़ीन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  55. क्रिस इंग्वी. "Martin Scorsese hits DC, hangs with the Hachet". हैचेट. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  56. शेल्डन हॉल. "Ivory, James (1928—)". स्क्रीन ऑनलाइन. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  57. एस. के. झा. "Sacred Ray". टेलिग्राफ़ इंडिया. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  58. एंड्रे हाबीब. "Before and After: Origins and Death in the Work of Jean-Luc Godard". सेंसस ऑफ़ सिनेमा. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  59. दत्त एस. "Feluda goes global, via radio". फ़ाइनैंशियल एक्सप्रेस. नामालूम प्राचल |accessyear= की उपेक्षा की गयी (|access-date= सुझावित है) (मदद); नामालूम प्राचल |accessmonthday= की उपेक्षा की गयी (मदद)

ग्रन्थ एवं निबंधसूची

बाहरी कड़ियाँ

साँचा:Link FA साँचा:Link FA साँचा:Link FA