"उष्मागतिकी": अवतरणों में अंतर

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* फर्मी : थर्मोडाइनैमिक्स।
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भौतिकी मे उष्मागतिकी (उष्मा+गतिकी = उष्मा की गति संबंधी) के अन्तर्गत ऊर्जा का कार्य और उष्मा में रूपांतरण, तथा इसका तापमान और दाब जैसे स्थूल चरों से संबंध का अध्ययन किया जाता है। इसमें ताप, दाब तथा आयतन का सम्बन्ध भी समझा जाता है।

कार्यक्षेत्र

प्रारंभ में उष्मागतिकी विज्ञान की वह शाखा थी जिसमें केवल उष्मा के कार्य में परिणत होने अथवा कार्य के उष्मा में परिणत होने का विवेचन किया जाता था। परंतु अब इसका क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है। अब इसमें ताप संबंधी लगभग सभी बातों का अध्ययन किया जाता है। उदाहरणत: यदि हम निकल जैसे किसी चुंबकीय पदार्थ की एक छड़ को एक कुंडली के भीतर रखें और इस कुंडली में बिजली की धारा प्रवाहित कराकर एक चुंबकीय क्षेत्र स्थापित करें तो छड़ की लंबाई में थोड़ा अंतर आ जाएगा, वह थोड़ा गर्म हो जाएगा, और उसकी विशिष्ट उष्मा में भी अंतर हो जाएगा। ऐसे ही यदि नाइट्रोजन तथा हाइड्रोजन का मिश्रण लेकर हम उसमें एक उत्प्रेरक छोड़ दें तो इस मिश्रण में नाइट्रोजन, हाइड्रोजन तथा अमोनिया एक विशेष अनुपात में रहेंगे। ताप में परिवर्तन होने से इस अनुपात में भी परिवर्तन होता है, और यह परिवर्तन उस उष्मा से संबंधित है जो अमोनिया के संश्लेषण की क्रिया में ताप को अपरिवर्तित रखने के लिए उस मिश्रण से निकालनी आवश्यक होती है। ऐसी ही अन्य बातों का अध्ययन भी अब उष्मागतिकी के अंतर्गत होता है जिससे इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है।

उष्मागतिकी के सिद्धान्त

19वीं शताब्दी के मध्य में उष्मागतिकी के दो सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया था, जिन्हें उष्मागतिकी के प्रथम एवं द्वितीय सिद्धांत कहते हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में दो अन्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जिन्हें उष्मागतिकी का शून्यवाँ तथा तृतीय सिद्धांत कहते हैं।

उष्मागतिकी का शून्यवाँ सिद्धांत : ताप

उष्मागतिकी के अध्ययन में एक नई भावना का समावेश होता है। वह ताप की भावना है। यदि किसी पिंड (बॉडी) के गुणधर्म इस बात पर निर्भर न रहें कि वह कितना गरम अथवा ठंडा है तो उसका पूरा परिचय पाने के लिए उसके आयतन अथवा उसके घनत्व के ज्ञान की ही आवश्यकता होती है। जैसे यदि हम कोई द्रव लें तो यांत्रिकी में यह माना जाता है कि उसके ऊपर दाब बढ़ाने पर उसका आयतन कम होगा। दाब का मान निश्चित करते ही आयतन का मान भी निश्चित हो जाता है। इस तरह इन दो चर राशियों में से एक स्वतंत्र होती है और दूसरी आश्रित अथवा परंतत्र।

परंतु प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं कि आयतन यदि स्थिर हो तो भी गरम या ठंडा करके दाब को बदला जा सकता है। इस प्रकार दाब तथा आयतन दोनों ही स्वतंत्र चर राशियाँ हैं। आगे चलकर आवश्यकतानुसार हम अन्य चर राशियों का भी समावेश करेंगे।

और आगे बढ़ने के पहले हम ऐसी दीवारों की कल्पना करेंगे जो विभिन्न द्रवों को एक दूसरे से अलग करती हैं। ये दीवारें इतनी सूक्ष्म होंगी कि इन द्रवों की पारस्परिक अंतरक्रिया को निश्चित करने के अतिरिक्त उन द्रवों के गुणधर्म के ऊपर उनका अन्य कोई प्रभाव नहीं होगा। द्रव इन दीवारों के एक ओर से दूसरी ओर न जा सकेगा। हम यह भी कल्पना करेंगे कि ये दीवारें दो तरह की हैं। एक ऐसी दीवारें जिनसे आवृत द्रव में बिना उन दीवारों अथवा उनके किसी भाग को हटाए हम कोई परिवर्तन नहीं कर सकते, और उन द्रवों में हम विद्युतीय या चुंबकीय बलों द्वारा परिवर्तन कर सकते हैं क्योंकि ये बल दूर से भी अपना प्रभाव डाल सकते हैं। ऐसी दीवारों को हम "स्थिरोष्म" दीवारें कहेंगे।

दूसरे प्रकार की दीवारों को हम "उष्मागम्य" (डायाथर्मानस) दीवारें कहेंगे। ये दीवारें ऐसी होंगी कि साम्यावस्था में इनके द्वारा अलग किए गए द्रवों की दाब तथा आयतन के मान स्वेच्छ नहीं होंगे, अर्थात् यदि एक द्रव की दाब एवं आयतन और दूसरे द्रव की दाब निश्चित कर दी जाए तो दूसरे द्रव का आयतन भी निश्चित हो जाएगा। ऐसी अवस्था में पहले द्रव की दाब एवं आयतन P1 और V1 तथा दूसरे द्रव की दाब एवं आयतन P2 और V2 में एक संबंध होगा जिसे हम निम्नांकित समीकरण द्वारा प्रकट कर सकते हैं :

F (P1, V1, P2, V2) = ० (1)

यह समीकरण उन द्रवों के तापीय संबंध का द्योतक है। दीवार का उपयोग केवल इतना है कि पदार्थ एक ओर से दूसरी ओर नहीं जा सकता। अनुभव द्वारा हम यह भी जानते हैं कि यदि एक द्रव के साथ अन्य द्रवों की तापीय साम्यावस्था हो तो स्वयं इन द्रवों में आपस में तापीय साम्यावस्था होगी। इसी को उष्मागतिकी का शून्यवाँ सिद्धांत कहते हैं।

यदि तापीय साम्यवस्थावाले तीन द्रवों के दबाव तथा आयतन क्रमश:

(P1, V1), (P2, V2), तथा (P3,V3)

हों तो इनमें समीकरण (1) की भाँति निम्नलिखित समीकरण होंगे :

f1 (p1, V1, p2, V2) = 0; f2 (p2, V2, p3, V3)= 0; f3 (p3, V3, p1, V1,)=0, (2)

परंतु उष्मागतिकी के शून्यवें सिद्धांत के अनुसार इन समीकरणों इन समीकरणों में केवल दो ही स्वतंत्र हैं, अर्थात् पहले दोनों समीकरणों की तुष्टि के फलस्वरूप तीसरे की तुष्टि भी अवश्यंभावी है। यह तभी संभव है जब इन समीकरणों का रूप इस प्रकार हो :

f1 (p1, V1) = f2 (p2, V2) = f3 (p3,V3) (3)

इनमें से किसी एक द्रव का उपयोग तापमापी के रूप में किया जा सकता है और उस द्रव के फलन के मान को हम प्रायोगिक ताप की भाँति प्रयुक्त कर सकते हैं। यदि पहले द्रव को तापमापी माना जाए तथा उसके फलन का मान t हो तो दूसरे द्रव के लिए हमें जो समीकरण मिलेगा अर्थात् f2 (p2 V2)= t वह दूसरे द्रव का दशासमीकरण (इक्वेशन ऑव स्टेट) कहा जाएगा।

यों तो द्रव के किसी भी गुण का उपयोग तापमापी के लिए किया जा सकता है परंतु p तथा V के जिस संबंध का उपयोग किया जाए वह जितना ही सरल होगा उतना ही ताप नापने में सुगमता होगी। हम जानते हैं कि समतापीय अवस्था में अल्प दाबवाली गैस की दाब एवं आयतन का गुणनफल अचर होता है। अतएव pV=R0 को ताप नापने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और इस संबंध का उपयोग किया भी जाता है। परंतु यदि (दाब x अयातन) अचर हो तो (दाब x आयतन) का वर्गमूल अथवा (दाब x आयतन) का वर्ग भी अचर होगा। किंतु इनका उपयोग नहीं किया जाता। pV=R0 का उपयोग करने में क्या लाभ है यह आगे चलकर प्रकट होगा।

उष्मागतिकी का प्रथम सिद्धांत : ऊर्जा एवं उष्मा

उष्मागतिकी के शून्यवें सिद्धांत में ताप की भावना का समावेश होता है। यांत्रिकी में, विद्युत् या चुंबक विज्ञान में अथवा पारमाण्वीय विज्ञान में, ताप की भावना की कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत द्वारा उष्मा की भावना का समावेश होता है। जूल के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध होता है कि किसी भी पिंड को (चाहे वह ठोस हो या द्रव या गैस) यदि स्थिरोष्म दीवारों से घेरकर रखें तो उस पिंड को एक निश्चित प्रारंभिक अवस्था से एक निश्चित अंतिम अवस्था तक पहुँचाने के लिए हमें सर्वदा एक निश्चित मात्रा में कार्य करना पड़ता है । कार्य की मात्रा पिंड की प्रारंभिक तथा अंतिम अवस्थाओं पर ही निर्भर रहती है, इस बात पर नहीं कि यह कार्य कैसे किया जाता है। यदि प्रारंभिक अवस्था में दाब तथा आयतन के मान p0 तथा V0 हैं तो कार्य की मात्रा अंतिम अवस्था की दाब तथा आयतन पर निर्भर रहती है, अर्थात् कार्य की मात्रा p तथा V का एक फलन है। यदि कार्य की मात्रा का W हैं तो हम लिख सकते हैं कि

W = U - U0 (4)

यह समीकरण एक राशि U की परिभाषा है जो केवल उस पिंड की अवस्था पर ही निर्भर रहती है न कि इस बात पर कि वह पिंड उस अवस्था में किस प्रकार पहुँचा है। इस राशि को हम पिंड की आंतरिक ऊर्जा कहते हैं। यदि कोई पिंड एक निश्चित अवस्था से प्रारंभ करके विभिन्न अवस्थाओं में होते हुए फिर उसी प्रारंभिक अवस्था में आ जाए तो उसकी आंतारिक ऊर्जा में कोई अंतर नहीं होगा, अर्थात्

f dU = 0 (5)

और (dU) एक यथार्थ अवकल (परफ़ेक्ट डिफ़रेन्शियल) है।

यदि कोई पिंड एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाए तो (U-U0-W) का मान सर्वदा शून्य के बराबर नहीं होगा। यदि प्रत्येक अवस्था के लिए U का मान ज्ञात कर लिया गया है तो यह अंतर ज्ञात किया जा सकता है। यदि पिंड की दीवारों का कोई भाग उष्मागम्य है तो सर्वदा इस अंतर के बराबर उष्मा उस पिंड को देनी पड़ेगी। यदि उष्मा की मात्रा Q है तो

Q = U - U0 - W (6)

इस समीकरण में Q उन्हीं एककों में नापा जाएगा जिसमें W, परंतु यदि हमने Q का एकक पहले ही निश्चित कर लिया है तो हम इस समीकरण द्वारा इन दोनों एककों का अनुपात ज्ञात कर सकते हैं। इस प्रकार जूल के प्रयोग द्वारा हम उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक निकाल सकते हैं। इस प्रयोग में Q शून्य के बराबर होता है और (U-U0) का मान उष्मा के एककों में ज्ञात किया जाता है।

समीकरण (6) उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत का गणितीय रूप है। इसमें W वह कार्य है जो बाहर से उस पिंड पर किया जाता है। यदि यह पिंड स्वयं कार्य करे, जिसका परिणाम dW हो, और किसी प्रक्रम (प्रोसेस) में निकाय की आंतरिक ऊर्जा जिस परिमाण में बढ़े वह dU हो तो गिनती उष्मा उस निकाय को दी जाएगी वह तो dQ होगी और

dQ = dU + dW (7)

और आगे बढ़ने के पहले हम एक ऐसे प्रक्रम का वर्णन करेंगे जिसका उपयोग उषमागतिकी में बहुत किया जाता है। इसे प्राय: स्थैतिक (सिस्टम) के आयतन को एक अत्यणु परिमाण dV से परिवर्तित करें तो इसका ताप भी थोड़ा परिवर्तित हो जाएगा। साम्यावस्था प्राप्त होने पर इसके आयतन में मान ले हम थोड़ा और अत्यणु परिवर्तित करें। इस तरह हम धीरे धीरे अवस्था 1 से अवस्था 2 में पहुँच जायँगे। यदि हमारे परिवर्तनों का परिमाण धीरे-धीरे शून्य की ओर बढ़े तो अंत में 1 से 2 तक परिवर्तन कहते हैं। ऐसे प्रक्रम का यह भी लक्षण है कि विस्थापनों, किए गए कार्य एवं अवशोषित उष्मा के चिह्नों को उलटकर इस निकाय को अवस्था 2 से कारण इन प्रक्रमों को उत्क्रमणीय प्रक्रम कहते हैं। जो प्रक्रम उत्क्रमणीय नहीं होते उन्हें अनुत्क्रमणीय प्रक्रम कहते हैं।


यह सरलता से सिद्ध किया जा सकता है कि यदि किसी निकाय की दाब p हो तो एक उत्क्रमणीय प्रक्रम में यह जो कार्य करेगा वह pdV के बराबर होगा। अतएव उष्मागतिकी के प्रथम सिद्धांत को हम इस तरह भी लिख सकते हैं :

dQ = dU + pdV (8)

द्वितीय सिद्धांत का स्वयंताथ्यिक प्रतिपादन

ऊपर हमने द्वितीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जो क्लाजिउस आदि के अनुसार है। इसके अतिरिक्त कैराथियोडोरी ने स्वयंताथ्यिक प्रतिपादन दिया है। कैराथियोडोरी का प्रमेय यह है कि दा-आ (द्र-ज्) लेखाचित्र में निकाय की अवस्था में निर्देश बिंदु के आसपास ऐसे अनेक बिंदु हैं जिन तक उत्क्रमणीय-स्थिरोष्म-प्रक्रम द्वारा पहुँचना असंभव है। इस प्रमेय से आरंभ करके परमताप एवं एंट्रापी की भावना तक पहुँचा जा सकता है।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  • गुगेनहाइम : थर्मोडाइनैमिक्स;
  • विल्सन : थर्मोडाइनैमिक्स ऐंड स्टैटिस्टिकल मिकैनिक्स;
  • सोमरफ़ेल्ड : थर्मोडाइनैमिक्स ऐंड स्टैटिस्टिकल मिकैनिक्ल मिकैनिक्स;
  • फर्मी : थर्मोडाइनैमिक्स।

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