"श्रीभार्गवराघवीयम्": अवतरणों में अंतर

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'''''श्रीभार्गवराघवीयम्''''' ([[२००२]]), शब्दार्थ ''परशुराम और राम का'', २००२ ई में [[जगद्गुरु रामभद्राचार्य]] ([[१९५०]]-) द्वारा रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें ४० संस्कृत और प्राकृत छन्द में २१२१ श्लोक हैं और यह प्रत्येक १०१ श्लोक ​​के २१ सर्ग में विभाजित है।<ref name="kkbvp">{{cite web | last=संस्थान | first=के. के. बिड़ला | title = वाचस्पति पुरस्कार २००७ | authorlink=के.के. बिड़ला फाउंडेशन| url = http://www.kkbirlafoundation.com/downloads/pdf/vach-2007.pdf | accessdate = मार्च ८, २०११ | archiveurl= http://web.archive.org/web/20110713154542/http://www.kkbirlafoundation.com/downloads/pdf/vach-2007.pdf|archivedate= जुलाई १३, २०११|deadurl= yes}}</ref> महाकाव्य दो विष्णु अवतार की कथा है - परशुराम और राम, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में पाया गया है। ''भार्गव'' परशुराम को संदर्भित करता है, चूंकि वह ऋषि [[महर्षि भृगु]] के परिवार में अवतीर्ण हुए थे, जबकि ''राघव'' राम को संदर्भित करता है चूंकि वह राजा [[रघु]] के राजसी राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। कार्य के लिए, कवि को 2005 में संस्कृत के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा कई अन्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।<ref name="sa2005">{{cite web | title = Sahitya Akademi Awards 2005 | year=2005 | publisher=National Portal of India | url = http://india.gov.in/knowindia/sakademi_awards05.php | accessdate =24 April 2011|archiveurl= http://tesla.websitewelcome.com/~sahit/old_version/awa10318.htm#sanskrit|archivedate= January 24, 2008|deadurl= yes}}</ref>
'''''श्रीभार्गवराघवीयम्''''' ([[२००२]]), शब्दार्थ ''परशुराम और राम का'', २००२ ई में [[जगद्गुरु रामभद्राचार्य]] ([[१९५०]]-) द्वारा रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें ४० संस्कृत और प्राकृत छन्द में २१२१ श्लोक हैं और यह प्रत्येक १०१ श्लोक ​​के २१ सर्ग में विभाजित है।<ref name="kkbvp">{{cite web | last=संस्थान | first=के. के. बिड़ला | title = वाचस्पति पुरस्कार २००७ | authorlink=के.के. बिड़ला फाउंडेशन| url = http://www.kkbirlafoundation.com/downloads/pdf/vach-2007.pdf | accessdate = मार्च ८, २०११ | archiveurl= http://web.archive.org/web/20110713154542/http://www.kkbirlafoundation.com/downloads/pdf/vach-2007.pdf|archivedate= जुलाई १३, २०११|deadurl= yes}}</ref> महाकाव्य दो विष्णु अवतार की कथा है - परशुराम और राम, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में पाया गया है। ''भार्गव'' परशुराम को संदर्भित करता है, चूंकि वह ऋषि [[महर्षि भृगु]] के परिवार में अवतीर्ण हुए थे, जबकि ''राघव'' राम को संदर्भित करता है चूंकि वह राजा [[रघु]] के राजसी राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। कार्य के लिए, कवि को 2005 में संस्कृत के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा कई अन्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।<ref name="sa2005">{{cite web | title = Sahitya Akademi Awards 2005 | year=2005 | publisher=National Portal of India | url = http://india.gov.in/knowindia/sakademi_awards05.php | accessdate =24 April 2011|archiveurl= http://tesla.websitewelcome.com/~sahit/old_version/awa10318.htm#sanskrit|archivedate= January 24, 2008|deadurl= yes}}</ref>


कविता की एक प्रतिलिपि, कवि द्वारा हिन्दी टीका के साथ, [[जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय]], [[चित्रकूट]], [[उत्तर प्रदेश]] द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री [[अटल बिहारी वाजपेयी]] द्वारा ३० अक्तूबर २००२ को प्रकाशित कराया गया था।
कविता की एक प्रतिलिपि, कवि द्वारा हिन्दी टीका के साथ, [[जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय]], [[चित्रकूट]], [[उत्तर प्रदेश]] द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री [[अटल बिहारी वाजपेयी]] द्वारा ३० अक्तूबर २००२ को विमोचित कराया गया था।


== संरचना ==
== संरचना ==
[[Image:JagadguruRamabhadracharya006.jpg|thumb|left|महाकाव्य के रिलीज पर कवि (बाएं) अटल बिहारी वाजपेयी के साथ|250px]]
[[Image:JagadguruRamabhadracharya006.jpg|thumb|left|महाकाव्य के विमोचन पर कवि (बाएं) अटल बिहारी वाजपेयी के साथ|250px]]
जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने 2002 में उनके छठे छह महीने के पायोव्रता (दूध केवल आहार) के दौरान चित्रकूट में महाकाव्य रचना की थी.<ref>दिनकर २००८, प्र. १२७.</ref> कवि ने सर्गो की संख्या के रूप में २१ को कई कारणों की वजह से चुना। वह 21 वीं सदी की शुरुआत में महाकाव्य की रचना कर रहे थे, और यह २१ वीं सदी में रचित पहली संस्कृत महाकाव्य थी। २१ संख्या महाकाव्य की कथा के साथ भी जुड़ा हुआ है। रेणुका, परशुराम की माँ, उसकी छाती २१ बार पीटती है जब हैहय राजा उसके पति जमदग्नि की हत्या कर देते है। इसके बाद परशुराम पृथ्वी पर से क्षत्रियों को २१ बार मिटा देते है। कवि द्वारा एक और उद्धृत कारण है कि ''लघुत्रयी''और''बृहत्त्रयी'' में शामिल पिछले संस्कृत महाकाव्य- [[मेघदुत]], [[कुमारसम्भवम्]], [[किरातार्जुनीय]], [[रघुवंशम्]], [[स्हिस्हुपल वध]] तथा [[नैषधीयचरितम्]] क्रमशः २, ८, १८, १९, २० और २२ सर्गो में रचित थे, तथा २१ संख्या इस अनुक्रम से गायब थी।<ref name="sbr-purovak">रामभद्राचार्य २००२, प्रप्र. ''ख''-''घ''.</ref><ref>रामभद्राचार्य २००२, प्र. ''थ''.</ref> यद्यपि महाकाव्य में कोई औपचारिक विभाजन नहीं है, कवि संकेत देता है कि महाकाव्य के नो सर्गो का प्रथम भाग परशुराम के नौ गुणों का वर्णन करता हैं तथा १२ सर्गो का दूसरे भाग में बहादुर और नेक (''धीरोदात्त'') राम को महाकाव्य के नायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और [[सीता]] को नेतृत्व महिला चरित्र के रूप में।<ref name="sbr-purovak"/><ref name="kkbvp"/>
जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने 2002 में उनके छठे छह महीने के पायोव्रता (दूध केवल आहार) के दौरान चित्रकूट में महाकाव्य रचना की थी.<ref>दिनकर २००८, प्र. १२७.</ref> कवि ने सर्गो की संख्या के रूप में २१ को कई कारणों की वजह से चुना। वह 21 वीं सदी की शुरुआत में महाकाव्य की रचना कर रहे थे, और यह २१ वीं सदी में रचित पहली संस्कृत महाकाव्य थी। २१ संख्या महाकाव्य की कथा के साथ भी जुड़ा हुआ है। रेणुका, परशुराम की माँ, उसकी छाती २१ बार पीटती है जब हैहय राजा उसके पति जमदग्नि की हत्या कर देते है। इसके बाद परशुराम पृथ्वी पर से क्षत्रियों को २१ बार मिटा देते है। कवि द्वारा एक और उद्धृत कारण है कि ''लघुत्रयी''और''बृहत्त्रयी'' में शामिल पिछले संस्कृत महाकाव्य- [[मेघदुत]], [[कुमारसम्भवम्]], [[किरातार्जुनीय]], [[रघुवंशम्]], [[स्हिस्हुपल वध]] तथा [[नैषधीयचरितम्]] क्रमशः २, ८, १८, १९, २० और २२ सर्गो में रचित थे, तथा २१ संख्या इस अनुक्रम से गायब थी।<ref name="sbr-purovak">रामभद्राचार्य २००२, प्रप्र. ''ख''-''घ''.</ref><ref>रामभद्राचार्य २००२, प्र. ''थ''.</ref> यद्यपि महाकाव्य में कोई औपचारिक विभाजन नहीं है, कवि संकेत देता है कि महाकाव्य के नो सर्गो का प्रथम भाग परशुराम के नौ गुणों का वर्णन करता हैं तथा १२ सर्गो का दूसरे भाग में बहादुर और नेक (''धीरोदात्त'') राम को महाकाव्य के नायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और [[सीता]] को नेतृत्व महिला चरित्र के रूप में।<ref name="sbr-purovak"/><ref name="kkbvp"/>


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महाकाव्य के तीसरे सर्ग से निम्नलिखित पद्य (३.२६) में चार शब्द है, लेकिन एक ही अक्षर से चार अलग अलग अर्थों का तात्पर्य निकलता है, प्रत्येक शब्द का एक अर्थ।<ref name="dinkar-fos"/><ref>रामभद्राचार्य २००२, पृष्ठ. ५६.</ref> संपूर्ण पद्य में फैले चौगुनी यमक के इस तरह के प्रयोग भी महायमक कहा जाता है।
महाकाव्य के तीसरे सर्ग से निम्नलिखित पद्य (३.२६) में चार शब्द है, लेकिन एक ही अक्षर से चार अलग अलग अर्थों का तात्पर्य निकलता है, प्रत्येक शब्द का एक अर्थ।<ref name="dinkar-fos"/><ref>रामभद्राचार्य २००२, पृष्ठ. ५६.</ref> संपूर्ण पद्य में फैले चौगुनी यमक के इस तरह के प्रयोग भी महायमक कहा जाता है।



01:46, 30 नवम्बर 2011 का अवतरण

साँचा:श्रेष्ठलेख

श्रीभार्गवराघवीयम्  
Cover
श्रीभार्गवराघवीयम् (प्रथम संस्करण) का आवरण पृष्ठ
लेखक जगद्गुरु रामभद्राचार्य
देश भारत
भाषा संस्कृत
प्रकार महाकाव्य
प्रकाशक जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय
प्रकाशन तिथि ओक्तोबर २१, २००२
मीडिया प्रकार मुद्रित (सजिल्द)
पृष्ठ ५१२ पृष्ठ (प्रथम संस्करण)

श्रीभार्गवराघवीयम् (२००२), शब्दार्थ परशुराम और राम का, २००२ ई में जगद्गुरु रामभद्राचार्य (१९५०-) द्वारा रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें ४० संस्कृत और प्राकृत छन्द में २१२१ श्लोक हैं और यह प्रत्येक १०१ श्लोक ​​के २१ सर्ग में विभाजित है।[1] महाकाव्य दो विष्णु अवतार की कथा है - परशुराम और राम, जो रामायण और अन्य हिंदू ग्रंथों में पाया गया है। भार्गव परशुराम को संदर्भित करता है, चूंकि वह ऋषि महर्षि भृगु के परिवार में अवतीर्ण हुए थे, जबकि राघव राम को संदर्भित करता है चूंकि वह राजा रघु के राजसी राजवंश में अवतीर्ण हुए थे। कार्य के लिए, कवि को 2005 में संस्कृत के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा कई अन्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।[2]

कविता की एक प्रतिलिपि, कवि द्वारा हिन्दी टीका के साथ, जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रकाशित की गई थी। पुस्तक को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ३० अक्तूबर २००२ को विमोचित कराया गया था।

संरचना

महाकाव्य के विमोचन पर कवि (बाएं) अटल बिहारी वाजपेयी के साथ

जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने 2002 में उनके छठे छह महीने के पायोव्रता (दूध केवल आहार) के दौरान चित्रकूट में महाकाव्य रचना की थी.[3] कवि ने सर्गो की संख्या के रूप में २१ को कई कारणों की वजह से चुना। वह 21 वीं सदी की शुरुआत में महाकाव्य की रचना कर रहे थे, और यह २१ वीं सदी में रचित पहली संस्कृत महाकाव्य थी। २१ संख्या महाकाव्य की कथा के साथ भी जुड़ा हुआ है। रेणुका, परशुराम की माँ, उसकी छाती २१ बार पीटती है जब हैहय राजा उसके पति जमदग्नि की हत्या कर देते है। इसके बाद परशुराम पृथ्वी पर से क्षत्रियों को २१ बार मिटा देते है। कवि द्वारा एक और उद्धृत कारण है कि लघुत्रयीऔरबृहत्त्रयी में शामिल पिछले संस्कृत महाकाव्य- मेघदुत, कुमारसम्भवम्, किरातार्जुनीय, रघुवंशम्, स्हिस्हुपल वध तथा नैषधीयचरितम् क्रमशः २, ८, १८, १९, २० और २२ सर्गो में रचित थे, तथा २१ संख्या इस अनुक्रम से गायब थी।[4][5] यद्यपि महाकाव्य में कोई औपचारिक विभाजन नहीं है, कवि संकेत देता है कि महाकाव्य के नो सर्गो का प्रथम भाग परशुराम के नौ गुणों का वर्णन करता हैं तथा १२ सर्गो का दूसरे भाग में बहादुर और नेक (धीरोदात्त) राम को महाकाव्य के नायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और सीता को नेतृत्व महिला चरित्र के रूप में।[4][1]

महाकाव्य के पंद्रह सर्गो में वर्णित घटनाओं को वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास रामचरितमानस, भागवत पुराण, ब्रह्मा वैवार्ता पुराण, प्रसन्नराघव (जयदेव द्वारा एक नाटक) तथा सत्योपाख्यान सहित अधिकांश हिंदू शास्त्रों में पाया जा सकता है। छह सर्गो की कथा कवि की मूल संरचना है।[6]

कथा

श्रीभार्गवराघवीयम् के केंद्रीय पात्र जसे की सर्ग श्रीभार्गवलक्ष्मणसंवादः में देखा गया है। बाएँ से दाएँ – विश्वामित्र, लक्ष्मण, राम, परशुराम और जनक (केंद्र में), सुनयना और सीता (एकदम दाएं)।

महाकाव्य प्रत्येक १०१ छंद ​​के २१ सर्गो में बना है। पहले नौ सर्ग परशुराम के अवतार, आरोह कैलाश पर भगवान शिव से उनका अध्ययन, अपनी मां और तीन भाइयों को मारने के अपने पिता के आदेश का निष्पादन और उनके अनुवर्ती पुनरूत्थान, हजार सशस्त्र राजा सहस्रार्जुन के साथ लड़ाई, उनके द्वारा क्षत्रिय ("योद्धा") जाति को पृथ्वी से २१ बार मिटाया जाना, और शिव के बेटे और बुद्धि के देवता गणेश के साथ उनका टकराव का वर्णन करते है। अगले पांच सर्ग राम के अवतार और उसकी पत्न, और उनके बचपन के खेलकूद (लीला) का वर्णन करते है। अंतिम सात सार्ग रामचरितमानस के बालकाण्ढ का अनुसरण करते है, जो की विश्वामित्र की दशरथ की राजधानी अयोध्या को यात्रा से शुरू होता है और मिथिला में दशरथ के चार बेटे - जिसमे राम सबसे बड़े थे - की शादी की रस्मों से खतम होता है।[7]

  1. श्रीभार्गवावतारोपक्रमः
  2. दीक्षा
  3. गुरूपसत्तिः
  4. समावर्तनम्
  5. पित्राज्ञापालनम्
  6. सहस्रार्जुनवधः
  7. तीर्थाटनम्
  8. न्यस्तदण्ढम्
  9. एकदन्तनाशनम्
  10. श्रीराघवावतारप्रतिज्ञानम्
  11. श्रीराघवावतरणम्
  12. श्रीमैथिल्यवतरणम्
  13. श्रीभार्गवमिथिलागमनम्
  14. श्रीसीतास्तवनम्
  15. अहल्योद्धरणम्
  16. श्रीराघवप्रियादर्शनम्
  17. सीतास्वयंवरम्
  18. श्रीभार्गवलक्ष्मणसंवादः
  19. श्रीराघवे भार्गवप्रवेशः
  20. श्रीभार्गवकृतराघवस्तवनम्
  21. श्रीराघवपरिणयः

काव्य की विशेषताएं

अलंकार

अनुप्रास

परशुराम द्वारा सीता की स्तुति से अनुप्रास के एक उदाहरण (१४.२८) एक ही अक्षर से शुरू ग्यारह शब्द है -[8][9]

रामप्राणप्रिये रामे रमे राजीवलोचने ।
राहि राज्ञि रतिं रम्यां रामे राजनि राघवे ॥

हे जो राम के लिए जीवन जैसा प्रिय में है, हे जो आनंदमय है, हे राम की शक्ति, हे कमल की तरह आंखों वाले, हे रानी, हे सीता, मुझे राम के प्रति सबसे सुंदर भक्ति अनुदान कर दो।॥ १४.२८॥

यमका के साथ मिश्रित अनुप्रास के उपयोग के दो उदाहरण (६.३ और १६.८४) छठे और सोलहवीं सर्गो में हैं -[8][10]

स ब्रह्मचारी निजधर्मचारी स्वकर्मचारी च न चाभिचारी ।
चारी सतां चेतसि नातिचारी स चापचारी स न चापचारी ॥

उन्होंने (परशुराम) ने ब्रह्मचर्य का पालन किया, धर्म का पालन किया, अपने कर्तव्यों का पालन किया, और गलत तरीके से [किसी की ओर] कृति नहीं किया। उन्होंने पुण्य के दिलों के विषय में (रहते थे) चले गए, और कभी पार नहीं किया। वह अपनी धनुष के साथ घूमे, और कभी कष्ट नहीं दिया [किसी को भी]। ॥ ६ .३ ॥

वीक्ष्य तां वीक्षणीयाम्बुजास्यश्रियं
स्वश्रियं श्रीश्रियं ब्रह्मविद्याश्रियम् ।
धीधियं ह्रीह्रियं भूभुवं भूभुवं
राघवः प्राह सल्लक्षणं लक्ष्मणम् ॥

अपनी महालक्ष्मी को अवलोकन करते हुए, जिसके चेहरे की सुंदरता एक भव्य कमल की तरह थी, प्रतिभा की दीप्ति, लक्ष्मी की लक्ष्मी (समृद्धि), ब्रह्म के ज्ञान की प्रतिभा, बुद्धि की बुद्धि, नम्रता की विनम्रता, पृथ्वी की पृथ्वी (धारक), और पृथ्वी की बेटी, राम ने लक्ष्मण को कहा, अच्छे गुणों द्वारा लक्षण वर्णित। ॥ 16.84 ॥

उपमा

निम्नलिखित पद्य (6.97) में, एक आग बलिदान (यज्ञ) प्रदर्शन कर रहे पुजारी के रूपक का उपयोग करते हुए कवि बताता है की कैसे सहस्रार्जुन परशुराम द्वारा मारा जाता है।[8][11]

धनुःस्रुगभिमेदुरे भृगुपकोपवैश्वानरे
रणाङ्गणसुचत्वरे सुभटराववेदस्वरे ।
शराहुतिमनोहरे नृपतिकाष्ठसञ्जागरे
सहस्रभुजमध्वरे पशुमिवाजुहोद्भार्गवः ॥

लड़ाई के महान अग्नि बलिदान – जिसमें धनुष सुंदर करछुल था, परशुराम का क्रोध आग था, रणभूमि चतुष्कोणीय चिमनी (वेदिका या वेदी) थी, बहादुर सैनिकों का रोना था वैदिक मंत्र, परशुराम के तीर आकर्षक चढ़ावा (आहुति) थे, और राजा थे लकड़ी – परशुराम ने सहस्रार्जुन का बलिदान जानवर की तरह बलिदान कर दिया। ॥ 6.97 ॥

महायमक

महाकाव्य के तीसरे सर्ग से निम्नलिखित पद्य (३.२६) में चार शब्द है, लेकिन एक ही अक्षर से चार अलग अलग अर्थों का तात्पर्य निकलता है, प्रत्येक शब्द का एक अर्थ।[8][12] संपूर्ण पद्य में फैले चौगुनी यमक के इस तरह के प्रयोग भी महायमक कहा जाता है।

ललाममाधुर्यसुधाभिरामकं ललाममाधुर्यसुधाभिरामकम् ।
ललाममाधुर्यसुधाभिरामकं ललाममाधुर्यसुधाभिरामकम् ॥

वह, जो त्रिपुन्द्र के आकर्षण के साथ था और जिसका पसंदीदा देवता राम था; वह, जो आभूषण की चमक का धुरा असर था [नवजात चाँद के रूप में] और जो इस खुशी से रुचिकर था; वह, जो अपनी श्रेष्ठता की शक्ति के साथ धर्म की जिम्मेदारी के वाहक का रक्षक था; और वह, जो राम की शरण के कारण नीतिपरायणता का प्रतीक बैल संकेत के चमक का माधुर्य है। ॥ ३.२६ ॥

मुद्रा

भाषण के मुद्रा आंकङे में, पद्य रचना के लिए इस्तेमाल किया छंद पद्य में अपने नाम के उपयोग से संकेत देता है। महाकाव्य में भाषण का यह आंकड़ा सात अलग अलग छंद के साथ आठ बार प्रयोग किया गया है, जैसा कि नीचे दिखाया गया है।

पद्य छंद क्वार्टर मूलपाठ मुद्रा शब्द का अर्थ
८.१०० शिखरिणी निजारामो रामो विलसति महेन्द्रे शिखरिणि पहाड़ पर
११.८३ शिखरिणी जगौ द्यष्टौ भक्त्या रघुतिलककीर्तीः शिखरिणीः शिखरिणी पद्य
१२.४५ आर्य आर्ये रघुवरभार्ये हे भद्र स्त्री!
१६.७६ स्रग्विणी भव्यनीलाम्बरा स्त्रीवरा स्रग्विणी माला धारण करना
१७.९७ शार्दूलविक्रीढितम् त्रैलोक्ये च विजृम्भितं हरियशःशार्दूलविक्रीडितम् एक शेर के तरह अभिनय
१७.१०० पृथ्वी नमोऽस्त्विति समभ्यधाद्रघुवराय पृथ्वीपतिः ॥ पृथ्वी
१९.८५ पुष्पिताग्रा त्रिजगति राम रमस्व पुष्पिताग्राम् पुष्पित
२०.९१ कनकमञ्जरी कनकमञ्जरीकान्तिवल्लरी- स्वर्ण लता

छंदशास्र

कवि ने ४० संस्कृत और प्राकृत छंदो का इस्तेमाल किया है, नामतः अचलधृति (गीत्यार्या), अनुष्टुप्, आर्या, इन्दिरा (कनकमञ्जरी), इन्द्रवज्रा, इन्द्रवंशा, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा, उपोद्गता (मालभारिणी अथवा वसन्तमालिका, अउपच्छन्दसिक का एक प्रकार), कवित्त, किरीट (मेदुरदन्त, सपादिका का एक प्रकार), कोकिलक (नार्कुटिक), गीतक, घनाक्षरी, तोटक, दुरमिला (द्विमिला, सपादिका का एक प्रकार), दोधक, द्रुतविलम्बित, नगस्वरूपणी (पञ्चचामर), पुष्पिताग्रा (अउपच्छन्दसिक का एक प्रकार), प्र्थिवी, प्रहर्षिणी, भ्जङ्गप्रयात, मत्तगजेन्द्र (सपादिका का एक प्रकार), मन्दाक्रान्ता, मालिनी, रथोद्धता, वंशस्थ, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीढित, शालिनी, शिखरिणी, शट्पद, सुन्दरी (वैतालिक अथवा वैतालीय), सुरभि (अउपच्छन्दसिक का एक प्रकार), स्रग्धरा, स्रग्विणि, स्वागता, हरिगीतक, और हरिणी।

अन्य संस्कृत महाकाव्यों के साथ तुलना

पिछले महाकाव्यों के साथ तुलना में इस महाकाव्य की कुछ विशेषताओं को नीचे दिया गया है.

महाकाव्य रचयिता दिनांकित सर्गो की संख्या श्लोको की संख्या प्रयोग किये गए छंदो की संख्या प्रत्येक सर्ग के अंत में आया शब्द
कुमारसम्भवम् कालिदास ५ सी. शती ६१३
भट्टिकाव्यम् भट्टि ७ सी. शती २१ १६०२
रघुवंशम् कालिदास ५ सी. शती १९ १५७२ २१
किरातार्जुनीयम् भारवि ६ सी. शती १८ १०४० १२ लक्ष्मी
शिशुपालवधम् माघ ७/८ सी. शती २० १६४५ १६ श्री
नैषधीयचरितम् श्रीहर्ष १२ सी. शती २२ २८२८ १९ निसर्गोज्ज्वल
श्रीभार्गवराघवीयम् रामभद्राचार्य २१ सी. शती २१ २१२१ ४० श्री

सन्दर्भ

  1. संस्थान, के. के. बिड़ला. "वाचस्पति पुरस्कार २००७" (PDF). मूल (PDF) से जुलाई १३, २०११ को पुरालेखित. अभिगमन तिथि मार्च ८, २०११. नामालूम प्राचल |deadurl= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  2. "Sahitya Akademi Awards 2005". National Portal of India. 2005. मूल से January 24, 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 April 2011. नामालूम प्राचल |deadurl= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  3. दिनकर २००८, प्र. १२७.
  4. रामभद्राचार्य २००२, प्रप्र. -.
  5. रामभद्राचार्य २००२, प्र. .
  6. दिनकर २००८, प्र. ११६.
  7. दिनकर २००८, प्रप्र. ११६–१२७.
  8. दिनकर २००८, प्रप्र. १८६–१८७.
  9. रामभद्राचार्य २००२, पृष्ठ. ३१७.
  10. रामभद्राचार्य २००२, प्रप्र. ११९, ३७७.
  11. रामभद्राचार्य २००२, पृष्ठ. १३९.
  12. रामभद्राचार्य २००२, पृष्ठ. ५६.

उद्धृत कार्य

  • दिनकर, डॉ. वागीश (२००८). श्रीभार्गवराघवीयम् मीमांसा. दिल्ली: देशभरती प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8-19-082766-9. नामालूम प्राचल |trans_title= की उपेक्षा की गयी (|trans-title= सुझावित है) (मदद)
  • रामभद्राचार्य, स्वामी (ओक्तोबर ३०, २००२). श्रीभार्गवराघवीयम् (संस्कृतमहाकाव्यम्) (संस्कृत में). चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, भारत: जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय. नामालूम प्राचल |trans_title= की उपेक्षा की गयी (|trans-title= सुझावित है) (मदद); |date=, |year= / |date= mismatch में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)

बाह्य कड़ियाँ

साँचा:उचित लेख