"भूखी पीढ़ी": अवतरणों में अंतर

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* लिंक, जुन, २ ( १९६३ )
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==भुखी पीढी सृजनकर्मों का कापिराइट==
भुखी पीढी आंदोलनकारियों के सृजनकर्मों का कोइ कापिराइट नहीं होता है। वे लोग कहते हैं की यह अवधारणा उपनिवेशवादी है। [[रामायण]], [[महाभारत]], [[गीता]], [[रामचरितमानस]] आदि के तरह ही उनका सृजनकर्म सभी के लिये है, बाजारु नहीं हैं उनके लेखन।
==इन्हे भी देखें==
==इन्हे भी देखें==
*[[मलय रायचौधुरी]]
*[[मलय रायचौधुरी]]

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चित्र:Poetry Sessions.jpg
कवि सम्मेलन

भुखी पीढी (बांग्ला: হাংরি আন্দোলন (हंगरी आन्दोलन)) बांग्ला साहित्य में उथलपुथल मचा देनेवाला एक आन्दोलन रहा है। यह साठ के दशक मे बिहार के पटना शहर मे कवि मलय रायचौधुरी के घर पर एकत्र देबी राय, शक्ति चट्टोपाध्याय और समीर रायचौधुरी के मस्तिष्क से उजागर होकर कोलकाता शहर जा पंहुचा जहाँ उनहोंने नवम्बर १९६१ को एक मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) के जरिये आन्दोलन की घोषणा की। बाद में आन्दोलन में योगदान देनेवाले कवि, लेखक एवम् चित्रकार थे उतपलकुमार बसु, सन्दीपन चट्टोपाध्याय, बासुदेब दाशगुप्ता, सुबिमल बसाक, अनिल करनजय करुणानिधान मुखोपाध्याय्, सुबो आचारजा, विनय मजुमदार, फालगुनि राय, आलो मित्रा, प्रदीप चौधुरि और सुभाष घोष सहित तीस सदस्य ।

गोष्ठी के सदस्यों ने साप्ताहिक बुलेटिन एवम् पत्रिका के माध्यम से अपने नये नन्द्नतत्व प्रसारित किये एवम् सारे भारत मे हलचल मचा दी। उन लोगों के नयेपन से कोलकाता के साहित्य प्रसाशकगण क्षुब्ध हुये । सितम्बर १९६४ को आन्दोलन के ११ सदस्यो के विरुद्ध अश्लीलता के आरोप मे मुकदमा दायर हुया। मलय रायचौधुरी के लिखे हुये कविता प्रचण्ड बैद्युतिक क्षुतार को निम्न अदालत ने अश्लील करार देक्रर एक माह का काराद्ण्ड का आदेश दिया। उच्च अदालत ने कविता को अश्लील नहीं पाया एवम् मलय को बाइज्जत बरी किया। मुकदमे के कारण सारे जगत मे आन्दोलन को प्रचार मिला। भारत एवम् बिश्व के प्रमुख सम्बाद तथा सहित्य पत्रिकाओं मे उनके कॄति के चर्चे हुये। वर्तमान में आन्दोलनकारीयो पर शोधकार्य हो रहे है। उनके मेनिफेस्टो आदि ढाका बांग्ला अकादेमि तथा अमरिका के विश्वविद्यालयों में सुरक्षित किये गये है। गिरफ़्तारी एवम् आन्दोलन में भाग लेने वाले कवि और लेखकगण जो गिरफतार हुये थे वे लोग अपनी नौकरी से निकाले गये थे। गिरफ़्तारी के समय उन लोगों को रस्सी बांधकर, हाथों में हथकड़ी पहनाकर बीच बाजार से आदालत तक पैदल ले जाया गया था। अध्यापक उत्त्म दाश एवम् डक्टर विष्णुच्र्ण दे, जिन्होंने इस आन्दोलन पर शोधकार्य किया है, उनका कहना है कि यह आन्दोलन भारत के उत्तर-उपनिवेशबादी समाज का प्रतिफलन है। आन्दोलन के कवि एवम् लेखक भाषा में अनुप्रबेश किये हुये उपनिबेशिय मनन-चिन्तन को झकझोर देने में जुटे रहे। कोलकाता प्रशासन के लिये यह दुश्चिन्ता पैदा करने में कामियाब हो गया था।

आरम्भिक दौर

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हंगरी मैगज़ीन का कवर पेज
चित्र:Hungry Generation Poets.jpg
हंगरी मैगज़ीन का कवर पेज

हंग्री या भूख शब्द वे लोग ब्रिटिश कवि जिओफ्रे चॅसार के इन दि साओयार हंगरि टाइम वाक्य से लिये। उन्हे लगा था कि उत्तर-उपनिवेशीय भारतीय समय चॅसार कथित हंगरी समय से गुजर रहा है। समय के इस अवधारणा पर उन्होंने दार्शनिक असओयाल्ड स्पेंगलर के ऍतिहासिक तत्त को आरोप किये। स्पेंगलर के पुस्तक दि डिक्लाइन अब दि वेस्ट में कहा गया था कि संस्कृति एक जीवन्त प्राण है एवम् वह एक रेखा के बराबर कभी नहीं चलता। संस्कृति अपनि भुख लेकर आगी बढति है। प्रथम मेनिफेस्टो १९६१ में प्रकाशित होने के पश्चत १९६५ तक करिब ११० बुलेटिन उन्होने प्रकाशित किये। देबी राय के हाओडास्थित घर से बुलेटिन निकाली जाति थी। वे लोग कई पत्रिकायें भी प्रकाश किये। मलय रायचौधुरी सम्पादित जेब्रा, सुबिमल बसाक सम्पादित प्रतिद्व्न्दी, देबी राय स्म्पादित चिह्ण, बसुदेब दाशगुप्ता सम्पादित क्षुधार्त आदि। इसके अलावे उन्होने राजनेता, प्रशासक, अखवार के संवाददाता एवम् अन्य प्रतिष्ठित लोगों को मुखौटा भेजा। मुखौटे पर लिखा था "अपना मुखौटा उतारें"। कविता के अलावे वे धर्म, राजनीति, चित्रकला, नाटक, कहानी, आलोचना आदि पर मेनिफेस्टो प्रकाश किये थे।

भुखी पीढी आंदोलनके सदस्यों का कहना था कि योरोप में जितने साहित्य आंदोलन हुये वे सब थे टाइम स्पेसिफिक अर्थात समय केन्द्रिक जबकि उनका आंदोलन था स्पेस स्पेसिफिक याने कि परिसर केन्द्रिक। बांग्ला भाषा मे> उनलोगों से पहले कल्लोल एवम कृत्तिवास लगु पत्रिका के प्रयास भी योरोप के ही रास्ते पर चल कर एक रैखिक और एक मत्रिक साहित्य को अपनया था। एकही रेखा के बराबर चलने का परम्परा बाइबल की देन है जो भारतके बहु रैखिकता से मेल नहीं खाता। भारत एक बहु संस्कृतिक देश है और इसके इतिहास के गर्भ में बहुत्व चुरचुर कर सदियों से भरा पडा है। कल्लोल या कृत्तिवस जो नवायन ले आये थे वह था कलोनियल इसथेटिक रियलिटि या औपनिबेशिक नन्दन यथार्थ के दायरे में सिमटा हुया जो थे युक्तिनिर्भर और जो यह अनुमान प्र निर्भरशील था कि व्यक्ति स्वयंसम्पूर्ण एकक है; वह भंगुर नही है, उसके व्यक्तित्व का केवल एकही पहलु है। योरोप यह अनुमान लगाये बैठा था कि वर्तमान हमेशा अतीत से आगे है, अतीत से उन्नत है। इस तरह के तर्क के कारण वे स्थानिकता एवम अनुस्तरीय आस्फालनको अवहेलना करते रहे। भुखी पीढी ने पहला मैनिफेस्टो में ही समयताडित चिन्तातन्त्र से निकल कर परिसरलब्द्ध चिन्तातन्त्र तैयार करना चाहा। व्यक्ति के स्थान पर वे समूह को महत्व प्रदान करने का आवाज उठाये। उनका कहना था कि भारत में रामायण एवम महाभारत के लिखनेवाले कवियों का नहीं बल्कि मूल लेखन को महत्व दिये जाने का परम्परा है। बांग्ला साहित्य में पदावली साहित्य किसने लिखे यह नहीं देखा जाता है, मंगलकाव्य, मनसामंगल, कालिका, शिव, चण्डी या धर्मठाकुर के महाकाव्य किसने लिखे यह पहले कभी नहीं देखा गया। यह सिलसिला चालु हुया अंग्रेजों के लादे हुये मूल्य के कारण। उनका कहना था कि भारतमें नश्वरता को लेकर कवि कभी चिन्तित नहीं थे क्यों की भारत में शव को दाह कर दिया जाता है, उसके स्मृति में कोइ इमारत नहीं बनाया जाता। तभी तो भारत का कोइ इतिहास नहीं है। कहीं भी वेदव्यास या वाल्मिकी के मूर्ती नहीं मिले।

समयताडित चिन्तातन्त्र से निकलकर स्थानिक चिन्तातन्त्र में प्रवेश करने के कारणही आंदोलनकारीयों के जीवनमें, कार्यकलापों में, लेखनमें जबरदस्त भुचाल आया, लेखन्प्रक्रिया में उथलपुथल दिखाइ दिये। यही कारण है कि वे लोग राजनीति, धर्म, स्वाधीनता, दर्शनभावना, चित्रकारि इत्यादि विषय पर भी मैनिफेस्टो प्रकाश किये। मुखौटा वितरण किये। कबरगाह, श्मशान, दारु के ठेक में, चौराहों में, बाजारों में, सिनेमा हाल के बाहर कविता पढने का बीडा उठाया। उनका मैनिफेस्टो या बुलेटिनभी एकही पन्ने का हुया करता था जो वे कोलकाता काफि हौस, कालेज एवम विश्वविद्यालयों में मुफ्त बाँटा करते थे। उत्पलकुमार बसु ने अपनी लम्बी कविता पोपेर समाधि कुण्डली के आकार में प्रकाशित किये थे। उनका कहना था कि वह प्रतियथार्थका निर्माण कर रहें हैं।

प्रतियथार्थ याने कि दार्शनिक इलाके कि रदबदल, डिसकोर्स में बदलाव, डिस्कारसिव प्रैकटिस में बदलाव, कथन भंडार में बदलाव, स्तरायण में बदलाव, उपलब्धि के स्तरायण में बदलाव। वे अन्त्यज शब्दों को बढावा दिये, शब्दार्थ में हल्ला बोला, निम्नवर्गीय कथनको सामने लाये, सीमालंघन घटया, युक्ति को आक्रमण किये, भाषिक भारसम्यहीनता को बढावा दिया, पंक्तियों को गतिचंचल किये, परोक्ष उक्तियों का भंण्डार बनाया, अपस्वर-उपस्वर का भंण्डार बनाया, खण्डबाक्य के प्रयोग को बढावा दिया, कविता में चित्रोंको काइनेटिक बनाया और बहुत सारे नये शैली के प्रवर्तन किये जो पहले अनुमोदित नहीं थे।

भुखी पीढी मुकदमा

समीर रायचौधुरी

३५ महीने लगातार चले मलय के खिलाफ मुकदमे में उनके समर्थन में गवाह थे सुनील गंगोपाध्याय, तरुण सन्याल, ज्योतिर्मय दत्त, सत्राजित दत्त एवम् अजय हालदार। अचरज कि बात यह है कि मलय रायचौधुरी के खिलाफ सरकारि गवह थे शक्ति चट्टोपाध्याय, सुभाष घोष, सन्दीपन चट्टोपाध्याय तथा शैलेश्वर घोष। मलय के समर्थन में अपने पत्रिकायों में लेख लिखे थे धर्मवीर भारती, सच्चिदानंद वातसायन, फणीश्वर नाथ 'रेणु', राजकमल चौधरी, मुद्रारक्षस प्रमुख विद्वानो ने। हालांकि बंगालि साहित्यिक उस समय उनके समर्थन में आगे नहीं आये थे। विदेशों में तथा भारत के अन्य भाषा के साहित्यिक उनके समर्थन में मोर्चा खोला था।

भारत के बाहर स्वीकृति

मलय रॉय चौधुरी हॉलैन्ड में
चित्र:Hungry Generation Kathmandu 1965.jpg
काठमाण्डू (1965) - करुणानिधन मुखोपाध्याय, मलय रॉय चौधुरी और अनिल करणजय

भुखी पीढी के सदस्यों पर मुकदमा दायर होने से पहले हि भारत के अखबारों में उन लोगों के बारे में बहुत सारे खबरें प्रकाशित हो रहे थे। संवाद भारत के बाहर भी जा पंहुचा। बिटनिक कवि एवम् सम्पादक लारेन्स फेरलिंघेट्टि ने अपने सिटि लाइटस ज्रर्नल के प्रथम संख्या ( १९६३ ) में सदस्यों के लेख प्रकाश कर अमरिका के साहित्यकारों में आग्रह पैदा किये। उसके पश्चात योरोप एवम् अमरिका में मानो भुखी पीढी के लेखन प्रकाश क्ररने का एक सिलसिला सा चल पडा। उनमें प्रधान-प्रधान प्रकाशन यंहां दिये गये:

  • टाइम, ( नवम्बर, २०, १९६४ )
  • सिटि लाइटस जर्नल # २। सम्पादक: लारेन्स फेरलिंघेट्टि ( १९६४ ) पृ: ११७-१३०
  • कुलचुर # १५ ( १९६४ ) पृ: १०४-१०५। सम्पादक: लिटाहारनिक।
  • एल कारनो एमप्लुमादो # ९। सम्पादक: मार्गारेट रैनडल। ( १९६४ ) पृ: १५३
  • एल कारनो एमप्लुमादो # १०। तदैब। ( १९६४ )। पृ: १२९-१३०
  • एल कारनो एमप्लुमादो # १३ । सम्पादक: तदैब। ( १९६५ ) पृ: १८४-१८५
  • एवरग्रीन रिविउ # ५। सम्पादक: बारनि रासेट। ( १९६५ ) पृ: १०
  • साल्टेड फेदर्स विशेष भुखी पीढी संख्या। सम्पाद्क डिक बाकेन। ( मार्च १९६७ )
  • सिटि लाइटस ज्रर्नल # ३। सम्पादक: लारेन्स फेरलिंघेट्टि। ( १९६६ ) पृ: २१-४५
  • ट्रेस # ५३ ( १९६४ ) पृ: ३१-४३
  • एल रेहेलिते # २८ ( १९६४ ) पृ ४७-५४
  • पेनारोमा ( फरबरि, १९६५ )
  • आइकनोलाट्रे # १०। सम्पादक: एलेन डि लोच। ( १९६८ )
  • इनडियन पोयेट्रि: हंगरी जेनरेशन। हवर्ड मेककार्ड सम्पादित । वशिंटन स्टेट इउनिवरसिटि। ( १९६५ )

शोधकार्य

  • हंगरी, श्रुति एवम् शास्त्रविरोधी आन्दोलन । डक्टर उत्तम दाश, कोलकाता विश्वविद्यालय। प्रकाशक महादिगन्त पबलिशर्स, कोलकाता ७०० १४४। (१९८६)
  • हंग्रि मेनिफेस्टो। अध्यापक एबादुल हक। आ॰ए॰एफ॰ पबलिशर्स। मुर्शिदाबाद। ( २००७ )
  • हंगरी आन्दोलन एवम् विरोधिता । अध्यापक स्वाती बनर्जि। रबीन्द्रभारती विश्वविद्यालय। कोलकाता। ( २००७ )
  • हंगरी आन्दोलन एवम् मलय रायचौधुरी के कवितायें । डक्टर विष्णुच्न्द्र दे। आसाम विश्वविद्याल्य, शिलचर। ( २००८ )

सन्दर्भ

  • धर्मयुग, जनवरि,१७ (१९६५)
  • धर्मयुग, फरबरि, ७ ( १९६५ )
  • धर्मयुग, फ्ररबरि, १४ ( १९६५ )
  • धर्मयुग, मार्च, ७ ( १९६५ )
  • धर्मयुग, मार्च, १८ ( १९६५)
  • धर्मयुग, अप्रिल, १८ ( १९६५ )
  • धर्मयुग, अप्रिल्, २५ ( १९६५ )
  • धर्म्युग्, मे, २३ ( १९६५ )
  • धर्मयुग, जुन्, २७ (१९६५ )
  • सन्मार्ग, अप्रिल, २०, ( १९६५ )
  • युगप्रभात्, मे ( १९६५ )
  • दिनमान, मे, १६ ( १९६५ )
  • दिनमान, जुन्, ६ ( १९६५ )
  • साप्ताहिक हिन्दुस्तान जुन्, १३ ( १९६५ )
  • सप्ताहिक हिन्दुस्तान, अगस्त, २२ ( १९६५ )
  • जनसत्ता, जुलाइ, ४ ( १९६५ )
  • इंगित, अक्तुबर, ३ ( १९६५ )
  • अणिमा # २ ( १९६५ )
  • अणिमा # ४ ( १९६५ )
  • नयीधारा, दिसम्बर, ( १९६६ )
  • युगप्रभात्, फरबरि, ( १९६७ )
  • कारुज # ७ ( २००३ )
  • दिशा, हेमन्त संख्या, ( २००३ )
  • सम्प्रति # ३ ( १९६२ )
  • लिंक, जुन, २ ( १९६३ )

भुखी पीढी सृजनकर्मों का कापिराइट

भुखी पीढी आंदोलनकारियों के सृजनकर्मों का कोइ कापिराइट नहीं होता है। वे लोग कहते हैं की यह अवधारणा उपनिवेशवादी है। रामायण, महाभारत, गीता, रामचरितमानस आदि के तरह ही उनका सृजनकर्म सभी के लिये है, बाजारु नहीं हैं उनके लेखन।

इन्हे भी देखें

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