"व्याकरण": अवतरणों में अंतर

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19:43, 2 मई 2011 का अवतरण

किसी भी भाषा के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन व्याकरण (ग्रामर) कहलाता है। व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना आता है। किसी भी भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के निश्चित नियम होते हैं भाषा की शुद्धता व सुंदरता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं। व्याकरण भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

किसी भी "भाषा" के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "व्याकरण" कहलाता है, जैसे कि शरीर के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "शरीरशास्त्र" और किसी देश प्रदेश आदि का वर्णन "भूगोल"। यानी व्याकरण किसी भाषा को अपने आदेश से नहीं चलाता घुमाता, प्रत्युत भाषा की स्थिति प्रवृत्ति प्रकट करता है। "चलता है" एक क्रियापद है और व्याकरण पढ़े बिना भी सब लोग इसे इसी तरह बोलते हैं; इसका सही अर्थ समझ लेते हैं। व्याकरण इस पद का विश्लेषण करके बताएगा कि इसमें दो अवयव हैं - "चलता" और "है"। फिर वह इन दो अवयवों का भी विश्लेषण करके बताएगा कि (चल अ त अ आ उ) "चलता" और (ह अ इ उ) "है" के भी अपने अवयव हैं। "चल" में दो वर्ण स्पष्ट हैं; परंतु व्याकरण स्पष्ट करेगा कि "च" में दो अक्षर है "च्" और "अ"। इसी तरह "ल" में भी "ल्" और "अ"। अब इन अक्षरों के टुकड़े नहीं हो सकते; "अक्षर" हैं ये। व्याकरण इन अक्षरों की भी श्रेणी बनाएगा, "व्यंजन" और "स्वर"। "च्" और "ल्" व्यंजन हैं और "अ" स्वर। चि, ची और लि, ली में स्वर हैं "इ" और "ई", व्यंजन "च्" और "ल्"। इस प्रकार का विश्लेषण बड़े काम की चीज है; व्यर्थ का गोरखधंधा नहीं है। यह विश्लेषण ही "व्याकरण" है।

व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है। वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है - बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए। भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, उसकी स्थितिप्रवृत्ति के अनुसार लोकशिक्षण करता है।

संसार का सर्वप्रथम व्याकरण

संसार में सबसे पहले "व्याकरण" विद्या का जन्म कहां हुआ?

संसार के भाषाविदों ने एकमत से स्वीकार किया है कि इस पृथ्वी पर उपलब्ध साहित्य में सबसे प्राचीन वेद है। ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम साहित्य है। जब कोई भाषा साहित्य की समृद्धि से जगमगाने लगती है, तब उसके व्याकरण की जरूरत पड़ती है। "वेद" कैसा महत्वपूर्ण साहित्य है, यह इसी से समझा जा सकता है कि इसे इतने दिनों तक मनुष्य ने गले से लगाकर प्राणों की तरह इसकी रक्षा की है। उसके प्रत्येक मंत्र को यथास्थित रूप में कंठस्थ रखना और बहुत कुछ उसकी "ध्वनि" सुरक्षित रखना सरल काम नहीं है। सूखे चने चबा चबाकर तपस्वी ब्राह्मणों ने वेदों की रक्षा की है। तभी तो वे बने रहे।

वेद जैसे महत्वपूर्ण साहित्य के व्याकरण की जरूरत पड़ी। व्याकरण के सहारे सुदूर देश प्रदेशों के ज्ञानपिपासु कहीं अन्यत्र उद्भुत साहित्य को समझ सकते हैं और अनंत काल बीत जाने पर भी लोग उसे समझने में सक्षम रहते हैं। वेद जैसा साहित्य देशकाल की सीमा में बँधा रहनेवाला नहीं है; इसलिए प्रबुद्ध "देव" जनों ने अपने राजा (इंद्र) से प्रार्थना की-"हमारी (वेद-) भाषा का व्याकरण बनना चाहिए। आप हमारी भाषा का व्याकरण बना दें।" तब तक वेदभाषा "अव्याकृता" थी; उसे यों ही लोग काम में ला रहे थे। इंद्र ने "वरम्" कहकर देवों की प्रार्थना स्वीकार कर ली और फिर पदों को ("मध्यस्तोऽवक्रम्य") बीच से तोड़ तोड़कर प्रकृति प्रत्यय आदि का भेद किया-व्याकरण बन गया।

इस प्रकार भारत में सबसे पहले "व्याकरण" विद्या का जन्म हुआ।

व्याकरण भाषा का विश्लेषक है, नियामक नहीं

व्याकरण से भाषा की गति नहीं रुकती, जैसा पहले कहा गया है; और न व्याकरण से वह बदलती ही है। किसी देश प्रदेश का भूगोल क्या वहाँ की गतिविधि को रोकता बदलता है? भाषा तो अपनी गति से चलती है। व्याकरण उसका (गति का) न नियामक है, न अवरोधक ही। हाँ, सहस्रों वर्ष बाद जब कोई भाषा किसी दूसरे रूप में आ जाती है, तब वह (पुराने रूप का) व्याकरण इस (नए रूप) के लिए अनुपयोगी हो जाते है। तब इस (नए रूप) का पृथक् व्याकरण बनेगा। वह पुराना व्याकरण तब भी बेकार न हो जाएगा; उस पुरानी भाषा का (भाषा के उस पुराने रूप का) यथार्थ परिचय देता रहेगा। यह साधारण उपयोगिता नहीं है।

हाँ, यदि कोई किसी भाषा का व्याकरण अपने अज्ञान से गलत बना दे, तो वह (व्याकरण) ही गलत होगा। भाषा उसका अनुगमन न करेगी और यों उस व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करने पर भी भाषा को कोई गलत न कह देगा। संस्कृत के एक वैयाकरण ने "पुंसु" के साथ "पुंक्षु" पद को भी नियमबद्ध किया; परंतु वह वहीं धरा रह गया। कभी किसी ने "पुंक्षु" नहीं लिखा बोला। पाणिनि ने "विश्रम" शब्द साधु बतलाया; "श्रम" की ही तरह "विश्रम"। परंतु संस्कृत साहित्य में "विश्राम" चलता रहा; चल रहा है और चलता रहेगा। भाषा की प्रवृत्ति है। जब पाणिनि ही भाषा के प्रवाह को न रोक सके, तो दूसरों की गिनती ही क्या।

== व्याकरण और भाषाविज्ञान ==

व्याकरण तथा भाषाविज्ञान दो शब्दशास्त्र हैं; दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न-भिन्न है; पर एक दूसरे के दोनों सहयोगी हैं। व्याकरण पदप्रयोग मात्र पर विचार करता है; जब कि भाषाविज्ञान "पद" के मूल रूप (धातु तथा प्रातिपदिक) की उत्पत्ति व्युत्पत्ति या विकास की पद्धति बतलाता है। व्याकरण यह बतलाएगा कि (निषेध के पर्य्युदास रूप में) "न" (नञ्) का रूप (संस्कृत में) "अ" या "अन्" हो जाता है। व्यंजनादि शब्दों में "अ" और स्वरादि में "अन्" होता है - "अद्वितीय", "अनुपम"। जब निषेध में प्रधानता हो, तब ("प्रसज्य प्रतिषेध" में) समास नहीं होता - अयं ब्राह्मणो नाऽस्ति", "अस्य उपमा नास्ति"। अन्यत्र "अब्राह्मणा: वेदाध्ययने मंदादरा: संति" और "अनुपमं काश्मीरसौंदर्य दृष्टम्" आदि में समास होगा; क्योंकि निषेध विधेयात्मक नहीं है। व्याकरण समास बता देगा और कहाँ समास ठीक रहेगा, कहाँ नहीं; यह सब बतलाना "साहित्य शास्त्र" का काम है। "न" से व्यंजन (न्) उढ़कर "अ" रह जाता है और ("न" के ही) वर्णत्य से "अन्" हो जाता है। इसी "अन्" को सस्वर करके "अन" रूप में "समास" के लिए हिंदी ने ले लिया है - "अनहोनी", "अनजान" आदि। "न" के ये विविध रूप व्याकरण बना नहीं देता; बने बनाए रूपों का वह "अन्वाख्यान" भर करता है। यह काम भाषाविज्ञान का है कि वह "न" के इन रूपों पर प्रकाश डाले।

व्याकरण बतलाएगा कि किसी धातु से "न" भाववाचक प्रत्यय करके उसमें हिंदी की संज्ञाविभक्ति "आ" लगा देने से (कृदंत) भाववाचक संज्ञाएँ बन जाती हैं-आना, जाना, उठना, बैठना आदि। परंतु व्याकरण का काम यह नहीं है कि आ, जा, उठ, बैठ आदि धातुओं की विकासपद्धति समझाए। यह काम भाषाविज्ञान का है। संस्कृत में ऐसी संज्ञाएँ नपुंसक वर्ग में प्रयुक्त होती हैं - आगमनम्, गमनम्, उत्थानम्, उपवेशनम् आदि। परंतु हिंदी में पुंप्रयोग होता है-"आपका आना कब हुआ?" हिंदी ने पुंप्रयोग क्यों किया, यह व्याकरण न बताएगा। वह अन्वाख्यान भर करेगा -"ऐसी संज्ञाएँ पुंवर्गीय रूप रखती है" बस! यह बताना भाषाविज्ञान का काम है कि ऐसा क्यों हुआ! ''''Bold text''''Bold text''''

परकीय शब्दों का शासन

जब कोई भाषा किसी दूसरी भाषा से कोई शब्द लेती है, तो उसे अपने शासन में चलाती है - अपने व्याकरण के अनुसार उसकी गति नियंत्रित करती है। हिंदी का "धोती" शब्द अंग्रेजी में गया, तो वहाँ इसे अंग्रेजी व्याकरण को शिरोधार्य करना पड़ा। प्रयोग होता है अंग्रेजी में - "ब्रिंरग अवर धोतीज"। वहाँ "धोती" का बहुवचन "धोतियाँ" न चलेगा। "ब्रिंग अवर धोतियाँ" प्रयोग वहाँ गलत समझा जाएगा।

इसी तरह अंग्रेजी का "फुट" शब्द हिंदी ने लिया और अपने शासन में रखा। अंग्रेजी में "फुट" का बहुवचन "फीट" होता है; पर हिंदी में अंग्रेजी व्याकरण न चलेगा। प्रयोग होता है - "चार फुट ऊँचाई", "चार फीट ऊँचाई" गलत है। "ऊँचाई" भी गलत है; "उँचाई" शुद्ध है। "निचाई उँचाई" होता है; "नीचाई ऊँचाई" नहीं।

संस्कृत में इकारांत शब्दों के द्विवचन ईकारांत हो जाते हैं- "कवि समागतौ"; हिंदी में ऐसा न होगा। "दो कवि आए" कहा जाएगा। इसी तरह संस्कृत में "राजदपंती समागतौ"। हिंदी में "राजदंपति" सर्वत्र।

परकीय शब्दों को आत्मसात् करने की यह भी एक प्रक्रिया है कि अनमेल रूप को काट छाँटकर अपने मेल का बना लेना। हिंदी का "गंगा जी" शब्द अंग्रेजी में गया; पर "गेंजिज" बनाकर। अंग्रेजी "लैंटर्न" शब्द हिंदी ने लिया; पर "लालटेन" बनाकर और "हॉस्पिटल" को "अस्पताल" बनाकर। "हस्पताल" भी हिंदी में गलत है। "हॉस्पिटल" और "डॉक्टर" जैसे रूप हिंदी को ग्राह्य नहीं। हिंदी का व्याकरण नियमन करेगा कि हिंदी में वह उच्चारण है ही नहीं, जिसे स्वर पर उल्टा टोप रख कर प्रकट किया जाता है। यहाँ "मास्टर" की ही तरह डाक्टर" चलता है। हाँ, नागरी लिपि में अंग्रेजी भाषा लिखनी हो तब वह उलटा टोप काम आएगा - द डॉक्टर वाज़ फुलिश"। इसी तरह नागरी में फारसी जैसी भाषा लिखनी हो तो "बाज़ार", "जरूरत" आदि रूप रहेंगे; पर हिंदी में नीचे बिंदी न रहेगी - "जरूरी चीजों के लिए बाजार है।" उर्दू के शेर आदि लिखने हों तो भी नीचे विंदी लग जाएगी। शब्दों का यह रूपनिर्धारण व्याकरण के वर्ण प्रकरण से होगा।

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