विद्या

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विद्या वो जानकारी और गुण, जो हम देखने-दिखाने, सुनने-सुनाने, या पढ़ने-पढ़ाने (शिक्षा) के माध्यम से प्राप्त करते हैं । हमारे जीवन के शुरुआत में हम सब जीना सीखते है । शिक्षा लोगों को ज्ञान और विद्या दान करने को कहते हैं अथवा व्यवहार में सकारात्मक एंव विकासोन्मुख परिवर्तन को शिक्षा माना जाता है ।

भारतीय चिन्तन में विद्या[संपादित करें]

विष्णुपुराण में १८ विद्याएँ गिनाई गयी हैं-

अङ्गानि चतुरो वेदाः मीमांसा न्यायविस्तरः ।
पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्याः हि एताः चतुर्दशाः ॥ २८ ॥
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चैव ते त्रयः ।
अर्थशास्त्रं चतुर्थन्तु विद्या हि अष्टादशैव ताः ॥ २९ ॥
( छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र – ये ही चौदह विद्याएँ हैं ॥ २८ ॥ इन्ही में आयुर्वेद, धनुर्वेद और गान्धर्व इन तीनों को तथा चौथे अर्थशास्त्र को मिला लेने से कुल अठारह विद्या हो जाती हैं॥ २९ ॥)

इसी प्रकार 'लोकनीति' नामक पालि ग्रन्थ में १८ विद्याएँ गिनाई गयीं है, जो कुछ भिन्न हैं-

सुति सम्मुति संख्या च, योगा नीति विसेसिका ।
गंधब्बा गणिका चेव, धनुबेदा च पुरणा ॥
तिकिच्छा इतिहासा च, जोति माया च छन्दति ।
हेतु मन्ता च सद्दा च, सिप्पाट्ठारसका इमे ॥
( श्रुति, स्मृति, सांख्य, योग, नीति, वैशेषिक, गंधर्व (संगीत), गणित, धनुर्वेद, पुराण, चिकित्सा, इतिहास, ज्योतिष, माया (जादू), छन्द, हेतुविद्या, मन्त्र (राजनय), और शब्द (व्याकरण) - ये अठारह शिल्प (विद्याएँ) हैं।)[1]

शुक्रनीति में उल्लेख है कि विद्याओं की संख्या यद्यपि अनन्त है, तथापि बत्तीस विद्याएं (एवं चौसठ कलाएं) प्रसिद्ध हैं :[2]

विद्या ह्यनन्ताश्च कलाः संख्यातुं नैव शक्यते।
विद्या मुख्याश्च द्वात्रिंशच्चतुःषष्टिकलाः स्मृताः॥

अर्थात्‌ ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, इतिहास, पुराण, षड्‌-वेदाङ्ग, पितृविद्या (नृवंशविज्ञान), राशिविद्या (गणितशास्त्र), दैवविद्या (वर्षाविज्ञान), निधिविद्या (खनिजशास्र), वाकोविद्या (विधि एवं तकशास्त्र), एकायन (नीतिशास्त्र), देवविद्या (देवशास्त्र), ब्रह्मविद्या (अध्यात्म), भूतविद्या (जन्तुशास्त्र), क्षत्रविद्या (शस्त्रविद्या), नक्षत्रविद्या (ज्योतिष), सर्पेविद्या ( विषविज्ञान), देवजनविद्या (गन्धर्वविद्या) आदि।

भारत के विद्याविद् आचार्यो ने विद्या के चार विभाग बताए हैं- आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीतिऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को त्रयी कहते हैं। वार्ता से आशय अर्थशास्त्र से है। आन्वीक्षिकी का अर्थ है- प्रत्यक्षदृष्ट तथा शास्त्रश्रुत विषयों के तात्त्विक रूप को अवगत करानेवाली विद्या। इसी विद्या का नाम है- न्यायविद्या या न्यायशास्त्र ; जैसा कि वात्स्यायन ने कहा है :

प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षामन्वीक्षा, तया प्रवत्र्तत इत्यान्वीक्षिकीन्यायविद्यान्यायशास्त्रम् (न्यायभाष्य 1 सूत्र)

आन्वीक्षिकी में स्वयं न्याय का तथा न्यायप्रणाली से अन्य विषयों का अध्ययन होने के कारण उसे न्यायविद्या या न्यायशास्त्र कहा जाता है। आन्वीक्षिकी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। वात्स्यायन ने अर्थशास्त्राचार्य चाणक्य के निम्नलिखित वचन को उद्धृत कर आन्वीक्षिकी को समस्त विद्याओं का प्रकाशक, संपूर्ण कर्मों का साधक और समग्र धर्मों का आधार बताया है-

प्रदीप: सर्वशास्त्राणामुपाय: सर्वकर्मणाम्। आश्रय: सर्वधर्माणां सेयमान्वीक्षिकी मता। (न्या.भा. 1 सूत्र)

कॉंटेंट्स:[संपादित करें]

  1. नों असोसीयेटिव लर्निंग.
  2. अभ्यास
  3. सेन्सिचिज़ेशन
  4. असोसीयेटिव लर्निंग
  5. ऑपरेंट कंडीशनिंग
  6. क्लॅसिकल कंडीशनिंग
  7. इमप्रिंटिंग
  8. खेकि
  9. एंकुलतुआलिसटिओं
  10. एपिसॉइक लर्निंग.
  11. मल्टिमीडिया लर्निंग
  12. लर्निंग आंड आरगुएमेंटेड
  13. मेरा पुराना फेसबुकरीट लर्निंग
  14. मीनिंग्फुल लर्निंग
  15. इनस्तरुएमेंटल लर्निंग.
  16. फॉर्मल लर्निंग.
  17. नों- फॉर्मल लर्निंग

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "A Note on PāliNītiLiterature" (PDF). मूल (PDF) से 16 मई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 सितंबर 2018.
  2. प्राचीन भारत में शिक्षक शिक्षा[मृत कड़ियाँ]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]