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भारत में मधुमक्खी पालन का प्राचीन वेद और बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। मध्य प्रदेश में मध्यपाषाण काल की शिला चित्रकारी में मधु संग्रह गतिविधियों को दर्शाया गया है। हालांकि भारत में मधुमक्खी पालन की वैज्ञानिक पद्धतियां १९वीं सदी के अंत में ही शुरू हुईं, पर मधुमक्खियों को पालना और युद्ध में इस्तेमाल करने के अभिलेख १९वीं शताब्दी की शुरुआत से देखे गए है। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित किया गया। मधुमक्खी की पाँच प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं जो कि प्राकृतिक शहद और मोम उत्पादन के लिए व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। मधुमक्खी, शहद और मधुमक्खी पालन का उल्लेख भारत के विभिन्न हिंदू वैदिक ग्रंथों में जैसे ऋग्वेद, अथर्व वेद, उपनिषद, भगवद गीता, मार्कण्डेय पुराण, राज निघटू, भारत संहिता, अर्थशास्त्र और अमरकोश में किया गया है। विभिन्न बौद्ध ग्रंथों जैसे विनयपिटक, अभिधम्मपिटक और जातक कहानियों में भी मधुमक्खी और शहद का उल्लेख है। विस्तार में...
लोधी उद्यानदिल्ली शहर के दक्षिणी मध्य इलाके में बना सुंदर उद्यान है। यह सफदरजंग के मकबरे से १ किलोमीटर पूर्व में लोधी मार्ग पर स्थित है। पहले ब्रिटिश काल में इस बाग का नाम लेडी विलिंगटन पार्क था। यहां के उद्यान के बीच-बीच में लोदी वंश के मकबरे हैं तथा उद्यान में फव्वारे, तालाब, फूल और जॉगिंग ट्रैक भी बने हैं। यह उद्यान मूल रूप से गांव था जिसके आस-पास १५वीं-१६वीं शताब्दी के सैय्यद और लोदी वंश के स्मारक थे। अंग्रेजों ने १९३६ में इस गांव को दोबारा बसाया। यहां नेशनल बोनसाई पार्क भी है जहां बोनसाई का अच्छा संग्रह है। इस उद्यान क्षेत्र का विस्तार लगभग ९० एकड़ में है जहां उद्यान के अलावा दिल्ली सल्तनत काल के कई प्राचीन स्मारक भी हैं जिनमें मुहम्मद शाह का मकबरा, सिकंदर लोदी का मक़बरा, शीश गुंबद एवं बड़ा गुंबद प्रमुख हैं। इन स्मारकों में प्रायः मकबरे ही हैं जिन पर लोदी वंश द्वारा १५वीं सदी की वास्तुकला का काम किया दिखता है। लोदी वंश ने उत्तरी भारत और पंजाब के कुछ भूभाग पर और पाकिस्तान में वर्तमान खैबर पख्तूनख्वा पर वर्ष १४५१ से १५२६ तक शासन किया था। अब इस स्थान को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा संरक्षण प्राप्त है। विस्तार में...
लाला हरदयाल (१४ अक्टूबर १८८४, दिल्ली -४ मार्च १९३९) भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के उन अग्रणी क्रान्तिकारियों में थे जिन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीयों को देश की आजादी की लडाई में योगदान के लिये प्रेरित व प्रोत्साहित किया। इसके लिये उन्होंने अमरीका में जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों के बीच देशभक्ति की भावना जागृत की। काकोरी काण्ड का ऐतिहासिक फैसला आने के बाद मई, सन् १९२७ में लाला हरदयाल को भारत लाने का प्रयास किया गया किन्तु ब्रिटिश सरकार ने अनुमति नहीं दी। इसके बाद सन् १९३८ में पुन: प्रयास करने पर अनुमति भी मिली परन्तु भारत लौटते हुए रास्ते में ही ४ मार्च १९३९ को अमेरिका के महानगर फिलाडेल्फिया में उनकी रहस्यमय मृत्यु हो गयी। उनके सरल जीवन और बौद्धिक कौशल ने प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ने के लिए कनाडा और अमेरिका में रहने वाले कई प्रवासी भारतीयों को प्रेरित किया। विस्तार में...
हरमनप्रीत कौर एक हरफनमौला भारतीय महिला क्रिकेट खिलाड़ी हैं, जिनका जन्म ८ मार्च १९८९ को पंजाब के मोगा में हुआ था। २०१७ में इन्हें खेलों के क्षेत्र में इनके योगदान के लिए प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ७ मार्च २००९ में इन्होंने अपने एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय करियर का आरम्भ पाकिस्तान के विरुद्ध किया जिसमें इन्होंने गेंदबाजी करते हुए ४ ओवर में मात्र १० रन दिए तथा एक कैच भी लपका। जून २००९ में, उन्होंने ट्वेंटी-२० अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में इंग्लैंड महिलाओ काउंटी ग्राउंड तरौन्तन में पदार्पण किया और जहा उन्होंने ७ गेंदों में ८ रन बनाए। २०१२ में महिलाओं के ट्वेंटी-२० एशिया कप मुकाबले के फाइनल मैच में इन्हें पहली बार भारतीय टीम की कप्तानी करने का अवसर दिया गया। २०१७ महिला क्रिकेट विश्व कप के सेमीफाइनल मुकाबले में हरमनप्रीत कौर ने ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेट टीम के खिलाफ शानदार बल्लेबाजी करते हुए अपने जीवन का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया और मात्र ११५ गेंदों पर १७१ रन बनाए दिए जिसमें इन्होंने २० चौके और ७ छक्के लगाए थे।
कोट्टेरी कनकैया नायडू (जन्म ;३१ अक्टूबर १८९५ नागपुर, देहांत; १४ नवम्बर १९६७, इंदौर) भारतीय क्रिकेट टीम के पहले टेस्ट क्रिकेट मैचों के कप्तान थे। इन्होंने लंबे समय तक प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला था। इन्होंने लगभग १९५८ तक प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेला और अंतिम बार ६८ साल की उम्र में १९६३ में क्रिकेट खेला था। सन १९२३ में इंदौर के होल्कर के शासक ने होल्कर के कैप्टन बनने के लिए भी आमंत्रित किया था। आर्थर गल्लीगां के नेतृत्व में मेरीलेबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) ने भारत का दौरा किया था और मैच मुम्बई के बॉम्बे जिमखाना पर खेला गया था। जिसमें हिंदुओ की ओर से सी के नायडू ने ११६ मिनट में १५३ रनों की पारी भी खेली थी।
विज्ञान एक्सप्रेस (साइंस एक्स्प्रेस) एक रेल पर सवार बच्चों के लिए एक गतिशील वैज्ञानिक प्रदर्शनी है जो पूरे भारत में यात्रा करती है। यह परियोजना ३० अक्टूबर २००७ को सफदरजंग रेलवे स्टेशन, दिल्ली में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार द्वारा शुरू की गई थी। हालांकि ये सभी के लिए खुला है, ये प्रदर्शनी मुख्य रूप से छात्रों और शिक्षकों को लक्षित करती हैं। २०१७ के अनुसार [update] ट्रेन के नौ चरण हो चुके हैं और तीन विषयों पर प्रदर्शन किया गया है। २००७ से २०११ के पहले चार चरणों को साइंस एक्सप्रेस कहा जाता था और ये माइक्रो और मैक्रो कॉस्मॉस पर केंद्रित था। २०१२ से २०१४ के अगले तीन चरणों में जैव विविधता विशेष के रूप में प्रदर्शन को फिर से तैयार किया गया। २०१५ से २०१७ के आठवें और नौवें चरण को जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए बदल दिया गया था।
रामनाथ कोविन्द (जन्म: १ अक्टूबर १९४५) भारतीय राजनीतिज्ञ हैं जो २० जुलाई २०१७ को भारत के १४वें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। २५ जुलाई २०१७ को उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे एस खेहर ने भारत के राष्ट्रपति के पद की शपथ दिलायी। वे राज्यसभा सदस्य तथा बिहार राज्य के राज्यपाल रह चुके हैं। कोविन्द का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर जिला (वर्तमान में कानपुर देहात जिला) की तहसील डेरापुर, कानपुर देहात के एक छोटे से गाँव परौंख में हुआ था। कोविन्द का सम्बन्ध कोरी (कोली) जाति से है जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आती है। वकालत की उपाधि लेने के पश्चात उन्होने दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ की। वह १९७७ से १९७९ तक दिल्ली उच्च न्यायालय में केंद्र सरकार के वकील रहे। ८ अगस्त २०१५ को बिहार के राज्यपाल के पद पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होनें संघ लोक सेवा आयोग परीक्षा भी तीसरे प्रयास में ही पास कर ली थी। विस्तार में...
उस्मानी साम्राज्य (१२९९ - १९२३) (या ऑस्मान साम्राज्य या तुर्क साम्राज्य, उर्दू में सल्तनत-ए-उस्मानिया) १२९९ में पश्चिमोत्तर अनातोलिया में स्थापित एक एक तुर्क राज्य था। महमद द्वितीय द्वारा १४९३ में क़ुस्तुंतुनिया जीतने के बाद यह एक साम्राज्य में बदल गया। प्रथम विश्वयुद्ध में १९१९ में पराजित होने पर इसका विभाजन करके इस पर अधिकार कर लिया गया। स्वतंत्रता के लिये संघर्ष के बाद २९ अक्तुबर सन् १९२३ में तुर्की गणराज्य की स्थापना पर इसे समाप्त माना जाता है। उस्मानी साम्राज्य सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अपने चरम शक्ति पर था। अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष के समय यह एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अफ़्रीका के हिस्सों में फैला हुआ था। यह साम्राज्य पश्चिमी तथा पूर्वी सभ्यताओं के लिए विचारों के आदान प्रदान के लिए एक सेतु की तरह था। इसने १४५३ में क़ुस्तुन्तुनिया (आधुनिक इस्ताम्बुल) को जीतकर बीज़ान्टिन साम्राज्य का अन्त कर दिया। इस्ताम्बुल बाद में इनकी राजधानी बनी रही। इस्ताम्बुल पर इसकी जीत ने यूरोप में पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया था।
निकोलाई गोगोल (२० मार्च, १८०९- २१ फरवरी, १८५२ ई०) यूक्रेन मूल के रूसी साहित्यकार थे जिन्होंने कहानी, लघु उपन्यास एवं नाटक आदि विधाओं में युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप प्रभूत लेखन किया है। गोगोल रूसी साहित्य में प्रगतिशील विचारधारा के आरंभिक प्रयोगकर्ताओं में प्रमुख थे व उनकी साहित्यिक प्राथमिकता जनोन्मुखता का पर्याय थी। आरंभिक लेखन में प्रेम-प्रसंग तत्त्व के आधिक्य होने पर भी बहुत जल्दी गोगोल सामाजिक जीवन का व्यापकता तथा गहराई से बहुआयामी चित्रण की ओर केंद्रित होते गये। मीरगोरोद में संकलित कहानियाँ इस तथ्य का जीवंत साक्ष्य हैं। पीटर्सबर्ग की कहानियाँ में संकलित रचनाओं में भी विसंगतियों एवं विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण हास्य एवं सूक्ष्म व्यंग्य के माध्यम से अद्भुत है; और इनकी बड़ी विशेषता सामान्य जन के साथ-साथ साहित्यकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित करना भी है। कहानियों के साथ-साथ नाटकों के माध्यम से गोगोल का मुख्य प्रकार्य युगीन आवश्यकताओं को इस प्रकार साहित्य में ढालना रहा है जिससे जन-सामान्य की स्थिति में परिवर्तनकारी भूमिका निभाने के साथ-साथ वस्तुतः साहित्य की 'साहित्यिकता' भी सुरक्षित रहे, और इसमें आलोचकों ने उसे सफल माना है।
कैथरीन मैन्सफील्ड (१४ अक्टूबर, १८८८ - ९ जनवरी, १९२३) न्यूज़ीलैण्ड मूल की अत्यधिक ख्यातिप्राप्त आधुनिकतावादी अंग्रेजीकहानीकार थी। बैंकर पिता तथा अपेक्षाकृत संकीर्ण स्वभाव वाली माता की पुत्री कैथरीन नैसर्गिक रूप से ही स्वच्छंद स्वभाव वाली हुई। परंपरागत रूप से स्त्रियों का अनिश्चित भविष्य वाला जीवन उसमें आरंभ से ही विद्रोह का बीज-वपन करते रहा। अपने जीवन को अपेक्षित मोड़ न दे पाने के कारण उसका स्वभाव असंतुलित और जीवन अव्यवस्थित होते रहा। आरंभ में जीवन की कठोरताओं ने उसकी रचनाओं को भी कटुता तथा तीखे व्यंग्य से पूर्ण बनाया। काफी समय तक वह जीवन में उत्तमता एवं व्यवस्था के औचित्य को स्वीकार नहीं कर पायी। काफी बाद में चेखव के प्रभाव से उसने लेखन के साथ लेखक के जीवन में भी अच्छाई का महत्व समझा। उनकी अनेक सफलतम कहानियाँ वहीं लिखी गयीं। मिस ब्रिल, दि स्ट्रेंजर (अजनबी), दि डॉटर्स ऑफ दि लेट कर्नल (दिवंगत कर्नल की बेटियाँ), एट द बे (खाड़ी के किनारे), हर फर्स्ट बॉल (उसका पहला नाच), द गार्डन पार्टी आदि कैथरीन के यश को तेजोद्दीप्त करने वाली इसी दौर की कहानियाँ हैं विस्तार में...
गुर्जर प्रतिहार वंश मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से पर मध्यकाल राज्य करने वाला राजवंश था जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्तिअभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में साम्राज्य पश्चिम में सतुलज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बगांल असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। विस्तार में...
सफ़ेद बारादरीउत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कैसरबाग मोहल्ले में स्थित एक श्वेत संगमर्मर निर्मित महल है जिसका निर्माण अवध के तत्कालीन नवाबवाजिद अली शाह ने मातमपुर्सी के महल के रूप में १८४५ में करवाया था और इसका नाम कस्र-उल-अजा रखा था। इसे इमाम हुसैन के लिये अजादारी अर्थात मातमपुर्सी हेतु इमामबाडा रूप में करवाय़ा था। कुछ अन्य सूत्रों के अनुसार नवाब ने इसका निर्माण १८४८ में आरम्भ करवाया था जो १८५० में पूरा हुआ। इनके अनुसार इसको मुख्यतः नवाब वाजिद अली शाह के हरम में रहने वाली महिलाओं के लिए करवाया गया था। नवाब वाजिद अली शाह के समय के इतिहासकारों के अनुसार सैयद मेहदी हसन ने ईराक के कर्बला से लौटते हुए एक जरीह (हजरत हुसैन के मकबरे से उनकी एक निशानी) लेते आये थे जो पवित्र खाक-ए-शिफ़ा (हजरत हुसैन की शहादत की भूमि की मिट्टी) से बनी थी। मान्यतानुसार इस जरीह में चिकित्सकीय गुण थे, जिनके कारण इसे कर्बना दायनात-उद-दौला में रखा गया था। जब नवाब साहब को इस शिफ़ा का ज्ञान हुआ तो वे अपने सामन्तों सहित काले वस्त्रों में हजरत हुसैन का मातम करने गये थे। कालान्तर में नवाब वाजिद अली ने अपने सामन्तों को आदेश दिया कि इस जरीह को शाही जलूस के साथ सफ़ेद बारादरी लाया जाए और वहीं सहेज कर रखा जाए जिससे वहां मातम मनाया जा सके। विस्तार में...