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दण्डनीति

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दण्ड, राजा के लिए निर्दिष्ट चार उपायों (साम, दान, दण्ड, भेद) में से एक है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में दण्ड (punishment) के सभी पक्षों पर गहनता से विचार हुआ है। दण्ड देने का अधिकार राजा का था किन्तु राजव्यवस्था के लिए नियुक्त अन्य अधिकारी भी दण्ड दे सकते थे। दण्ड के अलावा प्रायश्चित की भी व्यवस्था थी। जहाँ दण्ड, राजा के द्वारा दिया जाता था, प्रायश्चित व्यक्ति अपनी इच्छा और विचार से करता था।

प्राचीन भारत में राजशास्त्र को दण्डनीति, राजधर्मानुशासन, राजधर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि नामों से जाना जाता था। यह शास्त्र सर्वाधिक प्राचीन शास्त्रों में एक है। महाभारत की एक कथा ( शांतिपर्व, अध्याय ५९ ) के अनुसार सतयुग में पहले राजा नहीं था, न दण्ड था। प्रजा धर्मानुगामिनी/कर्मानुगामिनी थी। कालान्तर में काम, क्रोध, लोभ आदि दुर्गुण उत्पन्न हुए। कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान नष्ट गया और मात्स्य न्याय का बोलबाला हो गया। इस स्थिति से निबटने के लिए देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की। ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाले 'दण्डनीति' नामक नीतिशास्त्र की रचना की। इसे शिव ने दस हज़ार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे 'वैशालाक्ष' कहा गया। इन्द्र ने इसे पाँच हज़ार अध्याय में संक्षिप्त किया जिसे 'बाहुदन्तक' कहा गया। अपनी बौद्धिक क्षमता से बृहस्पति ने इसे तीन हजार अध्यायों में संक्षिप्त किया जिसे 'बार्हस्पत्य शास्त्र' कहा गया। शुक्र ने एक हजार अध्यायों में इसे संक्षिप्त किया जिसे 'औशनसी नीति' कहा गया। बाद में चाणक्य ने अर्थशास्त्र, कामन्दक ने 'कामन्दकीय नीति', एवं शुक्राचार्य ने 'शुक्रनीतिसार' की रचना की। कुछ जगह यह उल्लेख भी मिलता है कि दण्डनीति की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हैं। दण्डनीति का प्रयोग राजा के द्वारा होता था, जो राजधर्म का प्रमुख अंग था।

कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र' के विद्यासमुद्देश प्रकरण में विद्याओं की सूची में दण्डनीति की गणना की है : 'आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति विद्याः'। कौटिल्य ने कई राजनीतिक संप्रदायों (Schools) की चर्चा की है जिसमें औशनस संप्रदाय का भी उल्लेख किया है जो केवल दण्डनीति को ही विद्या मानता था। परन्तु कौटिल्य ने इसका प्रतिवाद करते हुए चार विद्याओं ( चतस्र एव विद्याः ) को मान्यता दी। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में दण्डनीति के निम्नांकित कार्य बताये हैं-

(१) अलब्धलाभार्था ( जो प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त कराने वाली );
(२) लब्धस्य परिरक्षिणी ( जो प्राप्त है उसकी रक्षा करने वाली );
(३) रक्षितस्य विवर्धिनी ( जो रक्षित है उसकी वृद्धि करने वाली ); और
(४) वृद्धस्य पात्रेषु प्रतिपादिनी ( बढ़े हुए का पात्रों में सम्यक रूप से विभाजन करने वाली )।

प्राचीन भारत में राजा को यह निर्देशित था कि दण्ड द्वारा वह बाह्य तथा अभ्यान्तरिक शत्रुओं का दमन करे। दण्ड नीति का पालन करने वाला व्यक्ति देवताओं से भी पूज्य हो जाता है तथा दण्ड न देने वाले व्यक्ति की प्रसंशा तक नहीं होती है। मत्स्य पुराण में यह उल्लेख आया है कि दण्ड देने के कारण ही इन्द्र, सूर्य, चन्द्र, विष्णु एवं अन्य देवताओं की पूजा सभी लोग करते हैं।[1] दण्ड ही एक ऐसा माध्यम है जो अभिमान से उन्मत्त लोगों को वश में करके उन्हें उसका फल चखाता है। इसलिए दण्ड के द्वारा दुर्जन व्यक्ति को वश में करने तथा दण्ड की महिमा को केवल बुद्धिमान लोग ही जानते हैं। चार उपायों में दण्ड को सर्वोत्तम बताया गया हैं।

'नीति' शब्द संस्कृत के 'नी' धातु से निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ नेतृत्व करना अथवा प्राप्त करना हैं। इसी से 'नय' (तर्कशास्त्र) और 'न्याय' (निष्पक्ष निर्णय) शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। कामन्दक ने दण्डनीति का लक्षण देते हुए इसकी व्याख्या ‘नयानान्रीतिरुच्यते' (नयन करने से नीति कही जाती है) किये हैं। आजकल की सरल परिभाषा में नीति वह शास्त्र है- जो शुद्ध-अशुद्ध, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ के आधार पर मानव चरित्र का विवेचन करता हैं। सामादि चतुष्टय उपायों में दण्ड का स्थान अन्तिम हैं। राजशास्त्र प्रेणताओं ने अपने ग्रन्थों में शासक को यह निर्देश दिया है कि जब शान्ति के तीनों उपाय विफल हो जाते हैं तब उसे अन्तिम उपाय दण्ड का आश्रय लेना चाहिए।[2] लालची, क्रूर, आश्रय प्राप्त शत्रु, दुःख देने पर ही संशय छोड़कर वश में आते है। जिसे स्वयं लक्ष्मी प्राप्त है उसे दान देने से क्या फल होगा? अर्थात् दुर्जन व्यक्ति के लिए साम नीति का फल शून्य होता हैं। ये सामनीति को मात्र भय का कारण मानते हैं। अतः उन लोगों के लिए दण्ड नीति का आश्रय लेना श्रेयष्कर है।[3] यही कारण है कि विद्वान व्यक्ति दण्ड की प्रसंशा करते हैं। इसी कारण इसे चार उपायों में सर्वोत्तम बताया गया हैं।[4]

कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में दण्ड की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि तीक्ष्ण, उत्साही, व्यसनी तथा दुर्ग आदि से युक्त शक्तिशाली शत्रु को गूढ़ पुरूष शस्त्र, अग्नि द्वारा मार डाले।[5] इस प्रकार शत्रु के द्वारा किये जाने वाले अपकार हेतु, उसे आक्रान्त करने के लिए जिन उपायों का आश्रय लिया जाता है उसे दण्डोपाय कहते हैं। कामन्दक ने भी अपने नीतिसार में दण्ड के तीन भेद स्वीकार करते हुए कहा है कि शत्रु का धन हरण कर लेना, शारीरिक कष्ट देना तथा उसका बध कर देना ही दण्ड के तीन भेद हैं। इसके अतिरिक्त अन्य दो प्रकार का भेद बताते हुए 'प्रकाश दण्ड' और 'अप्रकाश दण्ड' का उल्लेख करते हैं। इस सम्बन्ध में उनका विचार है कि प्रजाद्वेषी पुरुष और शत्रु पर प्रकाश (प्रकट) दण्ड का प्रयोग करना चाहिए। जिन दण्डों को देने से प्रजा उत्तेजित हो उस दण्ड को अप्रकाश दण्ड या गुप्त रीति से देना चाहिए।[6] शुक्र ने भी दण्ड को उसी समय आचरण करने का आदेश देते हैं जिस समय उसे प्राणों का संसय न हो।[7]

सन्दर्भ

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  1. मत्स्यपुराण, अध्याय २२४
  2. विष्णुधर्मसूत्र ३/८८, याज्ञवल्क्य स्मृति १/१३/३४५
  3. मत्स्यपुरण १४८/६३-७४
  4. महाभारत शान्तिपर्व १४०/८-९
  5. अर्थशास्त्र ९/६/६२-६५
  6. कामन्दक नीतिसार १७/९-१२
  7. शुक्रनीति ४/१/३४-३५

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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