हरिवंश महाप्रभु

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गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु (राधावल्लभ संप्रदाय के संस्थापक[1]) सोलहवीं शताब्दी में आविर्भूत विभूतियों में से एक अनन्यतम विभूति थे। उन्होंने अपने अद्भुत चरित और आचरणों के द्वारा उपासना, भक्ति, काव्य और संगीत आदि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी मोड दिए। वह तत्कालीन रसिक समाज एवं संत समाज में श्रीजू, श्रीजी, हित जू एवं हिताचार्य आदि नामों से प्रख्यात थे। उनका जन्म बैसाख शुक्ल एकादशी, विक्रम संवत् १५३० [2][3]को मथुरा से 12 कि॰मी॰ दूर आगरा-दिल्ली राजमार्ग पर स्थित 'बाद' ग्राम में हुआ था। हाल ही में, श्री हित हरिवंश संप्रदाय से श्री प्रेमानंद जी महाराज के द्वारा ब्रज में श्री राधा नाम के पाठन एवं श्री हित संप्रदाय का उल्लेखनीय विस्तार किया है।

गोस्वामी श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु

जीवन[संपादित करें]

हरिवंश महाप्रभु के देववन सहारनपुर निवासी पिता पं. व्यास मिश्र जब ब्रज भ्रमण हेतु आए, उस समय उनकी मां श्रीमती तारा रानी गर्भवती थीं। अतएव उनकी मां को प्रसव पीडा के कारण बाद ग्राम में ठहरना पडा। यहीं पर एक सरोवर के निकट वट वृक्ष के नीचे हरिवंश महाप्रभु का जन्म हुआ। यहां चिरकाल पूर्व से राधावल्लभीय विरक्त संत निवास करते चले आ रहे हैं। इस स्थान का जीर्णोद्धार राजा टोडरमल ने कराया था। वर्तमान में यहां श्री राधा रानी का अत्यंत भव्य मंदिर बना हुआ है। श्री हित हरिवंश चन्द्र महाप्रभु में अनेकानेक विलक्षण प्रतिभाएं थीं। जब वह मात्र 7वर्ष के थे तब वे देववनके एक अत्यधिक गहरे कुएं में कूद कर श्याम वर्ण द्विभुजमुरलीधारीश्री विग्रह को निकाल लाए थे[4]। उन्होंने इसका नाम ठाकुर नवरंगीलाल रखा। यह विग्रह देववन के राधा नवरंगीलाल मंदिर में विराजित है। हरिवंश महाप्रभु राधारानी को अपनी इष्ट के साथ गुरु भी मानते थे। रसिक वाणियों में यह कहा गया है कि हरिवंश जी को हित की उपाधि राधा रानी ने मंत्रदान करते समय दी थी।

हितोपासना का सार

वृंदावन[संपादित करें]

महाप्रभु 31 वर्ष तक देववन में रहे। अपनी आयु के 32 वें वर्ष में उन्होंने श्री राधा रानी की प्रेरणा से वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उन्हें चिरथावलग्राम में रात्रि विश्राम करना पडा। वहां उन्होंने स्वप्न में प्राप्त श्री राधारानी के आदेशानुसार एक ब्राह्मण की दो पुत्रियों के साथ विधिवत विवाह किया। बाद में उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों और कन्यादान में प्राप्त श्री राधावल्लभ लाल के श्री विग्रह को लेकर वृंदावन प्रस्थान किया। श्री हिताचार्य जब संवत् 1562 में वृंदावन आए, उस समय वृंदावन निर्जन वन था। वह सर्वप्रथम यहां के मदन टेर पर रहे और उसी जगह श्री राधावल्लभ लाल को लाड लडाया| बाद में उनके श्री वृंदावन मैं प्रथम शिष्य बने दस्यु सम्राट श्री नरवाहन जी[5] ने श्री हित महाप्रभु को धनुश और बाण दिया और महाप्रभु से कहा जहां पर यह बाण जयेगा वहाँ तक की भुमि आप की। बाण तीर घाट [आज का चीर घाट] तक गया। श्री हित महाप्रभु जी श्री राधावल्लभ लाल के श्री विग्रह को संवत् 1562 की कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को लेकर श्री वृंदावन आये उसी दिन श्री विग्रह को विधिवत् प्रतिष्ठित किया।

भक्ति मार्ग[संपादित करें]

रस भक्ति धारा के प्रवर्तक हरिवंश महाप्रभु ने वृंदावन में भक्ति मार्ग का नवोन्मेषकिया। साथ ही उन्होंने रस भक्ति को ब्रजभाषा का अत्यंत आकर्षक उपास्य तत्व बनाया। उन्होंने समाज संगीत की परिपाटी का शुभारंभ किया। उनके द्वारा राग, भोग और उत्सवों पर आधारित सात भोग और पांच आरती वाली विधि निषेध शून्य अष्टयामीसेवा पद्धति का प्रसार किया गया। उन्हीं ने राधा वल्लभ सम्प्रदाय की नींव डाली। मध्यकालीन हिंदी साहित्य में मात्रा और गुणवत्ता दोनों ही दृष्टियोंसे इस सम्प्रदाय का योगदान अतुलनीय है। नाम, वाणी, लीला, धाम और उपासना आदि के क्षेत्र में उनकी अनेकों महानतम व मौलिक देन हैं। उन्होंने पंचकोसीवृन्दावन में रासमण्डल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीर समीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, श्रृंगार वट और वन विहार नामक लीला स्थलों को प्रकट किया। उन्होंने निर्गुण व सगुण भक्ति मार्गो को पृथक प्रकट करके हिंदी साहित्य के इतिहास में अभिनव व अद्भुत क्रान्ति उत्पन्न की। हितजीने ब्रज भाषा में हित चौरासी व स्फुट वाणी एवं संस्कृत भाषा में राधासुधानिधि व यमुनाष्टकनामक ग्रंथों का प्रणयन किया उनके यह ग्रंथ रसोपासनाके आधार स्तम्भ हैं। हरिवंश महाप्रभु अपने स्वभाव से अत्यंत उदार व कृपालु थे। वे ऊंच-नीच वर्ण-अवर्ण तथा योग्य-अयोग्य का ध्यान न रखते हुए सभी पर समान दृष्टि से कृपा रखते थे। उन्होंने सवर्ण एवं अवर्ण सभी को स्वयं के द्वारा लाभान्वित किया। वह अत्यंत निस्पृह था। लौकिक वैभव से वह अत्यंत विरक्त थे।

रुपयों-मुद्राओं का वह स्पर्श तक नहीं करते थे। वस्तुत:उनमें सुमधुरवादिता, अनुपम उदारता, शरणागत पालिता, निराभिमानता, परोपकारिता एवं निन्दकों पर भी कृपा करने के अनेकानेक गुण थे। युग प्रवर्तक हित हरिवंश महाप्रभु ब्रज में यमुना तट पर मानसरोवर के निकट भांडीरवन के भंवरनीनामक निकुंज में संवत् 1609की आश्विन पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) की रात्रि को प्रिया जी! आप कहां हो? कहां हो? कहते हुए और देखते ही देखते लोक दृष्टि से ओझल हो गए।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Google Books". Google. 24 March 2011. अभिगमन तिथि 5 April 2024.
  2. ब्यूरो, मेरठ (14 September 2023). "Saharanpur News: हित हरिवंश हैं सहारनपुर के पहले सुविख्यात कवि". Amar Ujala. अभिगमन तिथि 5 April 2024.
  3. "मथुरा में हित उत्सव 23 अप्रैल से: राधाबल्लभ मंदिर में आयोजित होगा 10 दिवसीय कार्यक्रम, भगवान का किया जाएगा श्रृंगार". Dainik Bhaskar. 21 April 2023. अभिगमन तिथि 5 April 2024.
  4. ब्यूरो, मेरठ (16 February 2021). "श्री राधा नवरंगी लाल के प्रागट्य दिवस पर भजनों पर झूमे श्रद्धालु". Amar Ujala. अभिगमन तिथि 5 April 2024.
  5. "बृज रस". बृज रस. अभिगमन तिथि 5 April 2024.