हम्मीर महाकाव्य

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हम्मीरमहाकाव्य, जैन विद्वान नयचन्द्र सूरी द्वारा रचित एक संस्कृत महाकाव्य है। इसमें रणथम्भौर के महान शासक हम्मीर देव के साम्राज्य का विस्तार से वर्णन किया गया है। हम्मीर महाकाव्य भारतीय इतिहास की एक महान कृति है।

नयचन्द्र सूरी ने इस महाकाव्य में जैत्रसिंह व उससे पहले वाले रणथम्भौर शासकों का भी सारांश रूप में वर्णित किया है। पद्य रूप में लिखा यह महाकाव्य रणथम्भौर साम्राज्य के विभिन्न पहलुओं की जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत है। यह महाकाव्य हम्मीर की वीरता के गान से ओतप्रोत है।

इस महाकाव्य के चतुर्थ सर्ग के द्वितीय श्लोक में पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज चौहान को 'गुर्जर नरेश्वर' कहा गया है। हम्मीर महाकाव्य से ज्ञात होता है कि हम्मीर देव ने धार के परमार वंश के शासक महाराजा भोज द्वितीय को पराजित किया था और 'भोजदेव संवाद वर्णनम्' के श्लोक 23 में परमार भोज द्वितीय को गुर्जरेन्द्र लिखा है जिसका मतलब है गुर्जर राजा। इसमें हम्मीर देव चौहान की जलालुद्दीन खिलजी पर विजय, हम्मीर देव चौहान व अलाउद्दीन खिलजी में रणथम्भौर का भयानक युद्ध, रणथम्भौर युद्ध में हम्मीर देव के बड़े भाई बीरमादेव को वीरगति प्राप्त होने का भी वर्णन है।

चौदह सर्गों से सुशोभित हम्मीर महाकाव्य निश्चय कवि नयचन्द्र की सर्वेत्कृष्ट रचना है। काव्यतत्व मर्मज्ञों की दृष्टि से ऐेतिहासिक महाकाव्यों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। [1]नयचन्द्र ने हम्मीर देव का मुगल शासक अलाउद्दीन के साथ युद्ध का तथा चौहान वंश के कुछ शासकों से सम्बन्धित ऐतिहासिक घटनाओं का अनुकरण कर हम्मीर महाकाव्य की रचना की। इस ग्रन्थ में महाकाव्य में सभी गुण विद्यमान हैं।

महाकाव्य के प्रारम्भ मे चतुर्थ सर्ग में चौहान वंशीय राजाओं के वंश वृक्ष का कालक्रमानुसार विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तृतीय सर्ग में पृथ्वीराज का वर्णन विशेषतया उनके देहावसान का कारण इतिहास के क्षेत्र मे अत्यन्त महत्वपूर्ण है। नयचन्द्र ने वर्णन किया है कि पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन को सात बार पराजित किया और युद्ध के बदले अनुकम्पा के कारण उसे छोड़ दिया किन्तु शहाबुद्दीन से एक बार युद्ध में असावधानी के कारण हार गये और शहाबुद्दीन ने उन्हें पकड़कर कारागार में डाल दिया।

इस महाकाव्य में प्रत्येक सर्ग के अन्त में 'वीर' शब्द का प्रयोग मिलता है। इस कारण से संस्कृत महाकाव्य की परम्परा के अनुसार यह वीराङ्कमहाकाव्य है। इसमें चौहान वंशीय पूर्व पुरुषों वासुदेव, नरदेव, सिंह राज, विग्रह राज, दुर्लभ राज, विशाल देव, अनल देव इत्यादि प्रमुख राजाओं का ललित वर्णन हुआ है। इस महाकाव्य के नायक वीर हम्मीर देव हैं, अतः उनका विस्तारपूर्वक सर्वोत्कृष्ट चित्रण महाकवि ने किया है।

नयचन्द्र ने कहा है कि इस महाकाव्य की प्रेरणा गोपाचल नरेश तोमर राजवंश के राजा वीरमदेव की राजसभा में कही गयी इस उक्ति से प्राप्त हुई कि, "प्राचीन कवियों की तरह इस समय कोई कवि महाकाव्य के निर्माण में समर्थ नहीं है।" राजा वीरमदेव ने निश्चय ही 1422 ई0 वर्ष में राज्य किया। यह उस समय के शिलालेखों से ज्ञात होता है। उस समय वह अत्यन्त वृद्ध हो गये थे। इस कारण से उनका राज्यकाल 1382 से आरम्भ कर 1422 ई0 वर्ष तक स्वीकार किया जा सकता है। उनके राज्य काल के बीच में १४वीं शती के आरम्भ में नयचन्द्र ने इस महाकाव्य को रचा, यह अनुमान से कहा जा सकता है। इसके अनुसार हम्मीरदेव का स्वर्गारोहण काल सौ वर्ष पूर्व हुआ था। दूसरी रीति के अनुसार राष्ट्र वीर हम्मीर देव की मृत्यु के 100 वर्ष पश्चात्‌ उनकी पुण्य स्मृति में कवि ने इस महाकाव्य को लिखा।

निश्चय ही हम्मीर महाकाव्य उत्तम कोटि का राष्ट्रीय महाकाव्य है। इस प्रकार के उदात्त भावों से परिपूर्ण, रस, अलंकार आदि से परिपूर्ण संस्कृत महाकाव्य सर्वत्र नहीं प्राप्त हो सकता है। न ही यह पौराणिक कथाओं का अनुकरण करने वाला काव्य है और न ही साधारण श्रृंगार रस का पोषण करने वाला। अपितु ऐतिहासिक राष्ट्रीय भावना का उद्दीपक, वीर रस प्रधान यह काव्य है। इस महाकाव्य में आपने राष्ट्र वीर के यश का वर्णन किया है।

चौहानों का मूल निवास स्थान का, शाकम्भरी के सपादलक्ष देश के, अजयमेरू नगर आदि के स्थापना विषयक महत्वपूर्ण तथ्यों का इस महाकाव्य में उल्लेख हुआ है। अजयमेरु नगर के अन्तिम सम्राट पृथ्वीराज चौहान का प्रायः सौ पद्यों में विस्तार से वर्णन किया है। पृथ्वीराज थोड़ी सी राजनीतिक असावधानी और अनुचित आत्म विश्वास के कारण पराजित हुए और म्लेच्छों ने भारत की प्रमुख भूमि पर आधिपत्य प्राप्त कर दिल्‍ली पर भी अपना साम्राज्य स्थापित किया। यह गूढ़ अर्थ पृथ्वीराज के वर्णन से प्रकट होता है। दूसरों के साथ पृथ्वीराज की प्रजा वत्सलता और राष्ट्राभिमान के लिए वीरता का मनोरम चित्रण समास के द्वारा किया गया है और इसमें प्रशस्तपदावली का भी सम्यक्‌ चित्रण है।

पृथ्वीराज के मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र गोविन्द्राज ने रणस्तम्भपुर पर नवीन राज्य स्थापित किया। उनके सप्तम्‌ वंश परम्परा में ये महावीर हम्मीरदेव पैदा हुए। नयचन्द्र ने गोविन्द्राज से आरम्भ कर हम्मीर देव के पिता जैत्रसिंह तक उत्पन्न राजाओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए चतुर्थ सर्ग के अन्तिम भाग में हम्मीर की उत्पत्ति का उल्लेख किया है। अतः चौथे सर्ग में काव्य की परम्परा का आश्रय लेकर बसन्त्स आदि ऋतुओं, जल क्रीड़ा और श्रृंगार के अनुकूल प्रसंगों का सुललित वर्णन दृष्टिगोचर होता है।

नयचन्द्र सूरि[संपादित करें]

हम्मीरमहाकाव्य की प्रशस्ति में नयचन्द्र ने अपनी गुरु-परम्परा का पर्याप्त परिचय दिया है। वे कृष्णगच्छ के प्रख्यात आचार्य जयसिंहसूरि के प्रशिष्य थे। जयसिंहसूरि उच्चकोटि के विद्वान् तथा ख्यातिप्राप्त वाग्मी थे। उन्होंने षड्भाषाचक्रवर्ती तथा प्रमाणज्ञों में अग्रणी सारंग को वादविद्या में परास्त कर अपनी वाक्कला की प्रतिष्ठा की थी। उनकी विद्वत्ता विविध रूपों में प्रस्फुटित हुई । उन्होंने न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ भासर्वज्ञ-कृत न्यायसार पर पाण्डित्यपूर्ण टीका लिखी, एक स्वतन्त्र व्याकरण की रचना की तथा कुमारपालचरितकाव्य का प्रणयन कर अपनी कवित्वकला का परिचय दिया। सम्भवतः इस त्रिविध उपलब्धि के कारण ही जयसिंहसूरि को 'विद्यवेदि-चक्री' की गौरवशाली उपाधि से विभूषित किया गया था। नयचन्द्र ने दीक्षा तो जयसिंह के पट्टधर प्रसन्नचन्द्रसूरि से ग्रहण की थी, किन्तु उनके विद्यागुरु जयसिंह ही थे। जयसिंह के पौत्र होते हुए भी वे, काव्यकला में, उनके पुत्र थे।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]