स्वस्तिक मन्त्र

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हिन्दू धर्म का प्रतीक यह चिन्ह है और कई पीढ़ियों से उपयोग में है।

स्वस्तिक मंत्र या स्वस्ति मन्त्र शुभ और शांति के लिए प्रयुक्त होता है। स्वस्ति = सु + अस्ति = कल्याण हो। ऐसा माना जाता है कि इससे हृदय और मन मिल जाते हैं। मंत्रोच्चार करते हुए दर्भ से जल के छींटे डाले जाते हैं तथा यह माना जाता है कि यह जल पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य को शांत कर रहा है। स्वस्ति मन्त्र का पाठ करने की क्रिया 'स्वस्तिवाचन' कहलाती है।

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता है। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गाएँ प्राप्त होती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता है कि विद्युत् इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता है जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता है। गायों को खूब संतानें होती हैं।

यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है । इससे यात्रा सफल और सुरक्षित होती है। मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू नहीं मिलते हैं । व्यापार में लाभ होता है, अच्छे मौसम के लिए भी यह मंत्र जपा जाता है जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।

पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माना जाता है। इससे बच्चा स्वस्थ रहता है, उसकी आयु बढ़ती है और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता है । इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते हैं । षोडश संस्कारों में भी मंत्र का अंश कम नहीं है और यह सब स्वस्तिक मंत्र हैं जो शरीररक्षा के लिए तथा सुखप्राप्ति एवं आयुवृद्धि के लिए प्रयुक्त होते हैं।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]