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सॉरन किअर्केगार्ड

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सोरेन आब्यए किर्केगार्द
A head-and-shoulders portrait sketch of a young man in his twenties that emphasizes his face, full hair, open and forward-looking eyes and a hint of a smile. His attire is a formal necktie and lapel.
किर्केगार्द का अधूरा रेखा चित्र। उनके भाई निएल्स क्रिस्चियन किकेगार्द द्वारा बनया गया (1840)।
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म5 मई 1813
कोपेनहेगन, डेनमार्क
मृत्यु11 नवम्बर 1855(1855-11-11) (उम्र 42 वर्ष)
कोपेनहेगन, डेनमार्क
वृत्तिक जानकारी
युग19 इसवी सदी का दर्शन
क्षेत्रपाश्चात्य दर्शन
विचार सम्प्रदाय (स्कूल)
राष्ट्रीयता डेनिश
मुख्य विचार
प्रमुख विचार
हस्ताक्षरA signature, in a forward-slanting cursive script, which reads "S. Kierkegaard."

सोरेन किर्केगार्द का जन्म 5 मई,1813 को कोपेनहेगन में हुआ था।[1] अस्तित्ववादी दर्शन के पहले समर्थक हालांकि उन्होंने अस्तित्ववाद शब्द का प्रयोग नहीं किया। किर्केगार्द का देहांत 4 नवंबर 1855 को हुआ।[2]


किर्केगार्ड दर्शन

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सॉरेन कीर्केगार्ड को एक दार्शनिक, एक धर्मशास्त्री, अस्तित्ववाद का पिता, नास्तिक और आस्तिक दोनों रूपों वाला, एक साहित्यिक आलोचक, एक सामाजिक सिद्धांतवादी कहा गया है। उन्हें एक मजाकिया, एक मनोवैज्ञानिक,और एक कवि भी माना गया है। "व्यक्तिपरकता" और "विश्वास की छलांग" उनके दो प्रभावशाली विचार है।

कीर्केगार्ड बताते हैं कि अनिवार्य रूप से, सत्य केवल वस्तुनिष्ठ तथ्यों की खोज का मामला नहीं है। यद्यपि वस्तुनिष्ठ तथ्य महत्वपूर्ण हैं, सत्य का एक दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण तत्व है, जिसमें यह शामिल है कि कोई व्यक्ति स्वयं को उन तथ्यों के मामलों से कैसे जोड़ता और देखता है। चूंकि कोई व्यक्ति नैतिक दृष्टिकोण से कैसे कार्य करता है, यह किसी भी वस्तुनिष्ठ तथ्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है, इसलिए सत्य को वस्तुनिष्ठता के बजाय व्यक्तिपरकता में खोजा जाना अधिक आवश्यक है। व्यक्तिपरकता से कीर्केगार्ड का आशय है कि प्रत्येक मनुष्य का जीवन, उसकी परिस्थियां, उसके मूल्य एवं आदर्श भिन्न हैं अतः उसे खुद के लिए सत्य खोजने होंगे; जो हो सकता है समाज द्वारा दिए गए सत्य से अलग हों। कीर्केगार्ड मनुष्य को एकाकी में रहकर, भीड़ से हटकर,अपने अंदर झांककर इन सत्यों को खोजने और फिर उसे जीने के लिए प्रेरित करते हैं।

कीर्केगार्ड के अनुसार मानव जीवन के तीन चरण होते है । वह मानते थे ज्यादातर मनुष्य पहले अथवा दूसरे चरण तक पहुंच पाते हैं। पहला सौंदर्य चरण जिसमे मनुष्य आत्मकेंद्रित और भौतिकवादी सुखों का भोगी होता है। दूसरा चरण नैतिक चरण है। इस अवस्था में मनुष्य सामाजिक उत्तरदायित्यों आदि के कारण अपने अलावा समाज के अन्य लोगो के लिए भी सोचता एवं कार्य करता है। तीसरा और अंतिम चरण धार्मिक अथवा आध्यात्मिक चरण है। इसमें मनुष्य स्वयं एवं ईश्वर के बीच सीधा संपर्क बनाना चाहता है ना कि किसी धार्मिक संस्थान के माध्यम द्वारा । कीर्केगार्ड का मत है कि मानव एवं ईश्वर का संबंध अत्यंत निजी है और इसमें धार्मिक संस्थान(गिरिजाघर,मंदिर,मस्जिद इत्यादि) बाधा उत्पन्न करते हैं। इस चरण में पहुंचा मनुष्य खुद को ईश्वर के प्रति पूरी तरह से समर्पित कर देता है। इस परम विश्वास को जो मनुष्य के तार्किक क्षेत्र से परे है, कीर्केगार्ड ने विश्वास की छलांग कहा है।


सन्दर्भ

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  1. कोप्लेस्तों, फ्रेद्रिच्क (1993). "अ हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी", खंड 7, पृष्ठ 338, डबलडे(प्रकाशक), न्यू यॉर्क , ISBN 0-385-47044-4
  2. कोप्लेस्तों, फ्रेद्रिच्क (1993). "अ हिस्ट्री ऑफ़ फिलोसोफी", खंड 7, पृष्ठ 339, डबलडे(प्रकाशक), न्यू यॉर्क, ISBN 0-385-47044-4

बाहरी कड़ियाँ

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