सैनिक मनोविज्ञान
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। (फ़रवरी 2021) स्रोत खोजें: "सैनिक मनोविज्ञान" – समाचार · अखबार पुरालेख · किताबें · विद्वान · जेस्टोर (JSTOR) |
सैन्य मनोविज्ञान ( Military Psychology) में मनोवैज्ञानिक नियमों एवं सिद्धान्तों का उपयोग सैन्य क्षेत्रों में किया जाता है। अमेरिकन सैन्य बलों में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों एवं तथ्यों का पहली बार उपयोग किया गया था। भारत में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से भारतीय सैन्य बलों में मनोविज्ञान का उपयोग किया जा रहा है तथा इसके लिये भारत सरकार ने रक्षा मंत्रालय के तहत एक विशेष संस्था भी खोल रखा है जिसे साइकोलोजिकल इन्स्टीच्यूट ऑफ डिफेंस रिसर्चेज की संज्ञा दी गयी है। इस क्षेत्र के मनोवैज्ञानिकों का मुख्य कार्यक्षेत्र निम्नांकित पाँच तरह की गतिविधियों तक फैला हुआ है।
- (क) विभिन्न स्तरों पर रक्षा कर्मियों का चयन
- (ख) विशेष कार्यक्रम का आयोजन करके ऐसे कर्मियों में नेतृत्व गुणों (leadership qualities) को विकसित करना।
- (ग) विशेष ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों को विकसित करना जिनसे कर्मियों में सुरक्षा कौशलों (defence skills) का विकास हो सके।
- (घ) सैन्य बलों में मनोबल को विकसित करने के लिए विशेष कार्यक्रम तैयार करना।
- (ङ) कुछ विशेष सैन्य समस्याओं जैसे अधिक ऊँचे स्थानों में उचित व्यवहार करने संबंधी सैनिकों की समस्याएँ, चिंता तथा तनाव आदि से उत्पन्न समस्याओं का अध्ययन करना।
सैन्य अभियानों की आवश्यकता के लिए मित्र या शत्रु के सशस्त्र बलों के व्यवहार का अध्ययन, समझ और अनुमान लगाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मनोविज्ञान को सैन्य मनोविज्ञान कहते हैं। सैन्य मनोविज्ञान, एक सैनिक की संपूर्ण गतिविधियों का वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन करता है। वह एक सैनिक के साथ उत्साह, साहस, अनुशासन, भय, नेतृत्व, आदि के विषय में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। सैन्य मनोविज्ञान का उपयोग की सेना को परामर्श देने के लिए, लोगों को उनके तनाव और थकान को कम करने और सैन्य अभियानों की वजह से होने वाले मानसिक आघात की चिकित्सा के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है ।
आधुनिक युद्ध की सफलता के लिए केवल सैनिक कार्यवाही पर ही निर्भर नहीं होती है, बल्कि उसमें मनोवैज्ञानिक तत्वों को भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। मनोवैज्ञानिक उपायों का उपयोग कर दुश्मन के मनोबल तोड़ दिया है। सैन्य कार्यवाही युद्धकाल तक ही तक ही सीमित है, जबकि मनोवैज्ञानिक युद्ध शांतिकाल में भी चलती रहती है।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान मानसिक तनाव की स्थिति में युद्ध के मैदान से पलायन कर रहे सैनिकों के मनोबल को फिर से स्थापित करने के लिए सैन्य मनोविज्ञान का उपयोग किया गया था।
महर्षि शुक्राचार्य ने कहा है, "शत्रुसाधक हीनत्वकारणात् प्रबलाश्रयात्। तद्वीनतोज्जीवनाच्च शत्रुभैदनमुच्यते॥" (शत्रु की प्रजा को साथ में करके, उनमें भेद डालकर, शत्रु को पीड़ा पहुँचाना अपनी विजय का कारण होता है।)
इतिहास
[संपादित करें]रक्षा समस्याएं और मनोविज्ञान
[संपादित करें]मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। कोई किसी कार्य को क्यों करता है और कैसे करता है। इससे सम्बन्धित सभी प्रक्रियायें मनोविज्ञान की परिधि के अन्दर समाहित होती है। अतः सम्पूर्ण प्राणि-जगत मनोविज्ञान का कार्यक्षेत्र है। स्वाभाविक है कि सेना व उससे सम्बद्ध सैन्य कर्मियों के कार्य व्यापार भी मनोविज्ञान की परिधि के बाहर नहीं हो सकते। यही कारण है कि रक्षा समस्याओं के समाधान में भी मनोविज्ञान महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
रक्षा-समस्याओं की दृष्टि से मनोविज्ञान की प्रासंगिकता
[संपादित करें]सेना में सैनिक के पदार्पण के प्रथम प्रयास से ही मनोविज्ञान का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। पहली समस्या होती है रक्षा परिस्थितियों के अनुरूप सैनिक, अधिकारियों व अन्य सैन्य कर्मियों के चयन की। किसका चयन किया जाये एवं किसका चयन न किया जाये? कैसे पता लगाया जाये कि अभ्यर्थियों में से किसमें सैन्य परिस्थितियों की दृष्टि से शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के विकास की सम्भावनायें विद्यमान हैं ? पुनः चयन के बाद सैनिकों के सामने समायोजन की समस्या उठ खड़ी होती है। नये लोग, नई समस्यायें व नई परिस्थितियां-अनेक प्रश्न पैदा करते हैं। इन प्रश्नों के उचित समाधान हेतु विशेषज्ञ मनोवैज्ञानिकों के परामर्श की आवश्यकता पड़ती है।
सैन्य प्रशिक्षण की जटिल प्रक्रिया के दौरान भी कदम-कदम पर मनोविज्ञान की शरण में गए बिना प्रशिक्षण की पूर्णता असम्भव होती है। सेना में सैनिकों के मनोबल, नेतृत्व, तनाव, भय, अफवाह, थकान, प्रोपेगण्डा, मानव-यन्त्र सम्बन्ध, मस्तिष्क-प्रक्षालन व यौन समस्या जैसी अनेक समस्याओं के समाधान हेतु मनोविज्ञान की निर्णायक भूमिका असदिग्ध है।
सैन्य मनोविज्ञान के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों की समय-समय पर अलग-अलग धारणा रही है। प्रारम्भ में यह विषय युद्ध-क्षेत्र एवं सैनिकों के मनोविज्ञान तक ही सीमित था। लेकिन धीरे-धीरे सशस्त्र सेना से सम्बन्धित सभी मनोवैज्ञानिक समस्याओं को इसकी परिधि में समेट लिया गया। युद्धक्षेत्र के विस्तार के साथ ही साथ सैन्य मनोविज्ञान का क्षेत्र विस्तार लेता गया व सम्पूर्ण युद्ध की अवधारणा के साथ सम्बन्धित देश व विश्व में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति सैन्य मनोविज्ञान का विषय क्षेत्र बनता चला गया। 1921 में वारसा से प्रकाशित " दि सेलीबरेटेड बिब्लियोग्राफी ऑफ मिलिट्री सायकोलाजी " में अधोलिखित विषयों पर विचार किया गया -
1. युद्ध एवं शान्ति काल में सैनिक, सेना, संक्रिया एवं युद्ध का मनोविज्ञान व कमान की धारणा विधि।
2. युद्ध का समाजशास्त्र एवं दर्शन।
3. भय, साहस, थकान, सम्मान, जनसमूह का मनोविज्ञान एवं शैक्षिक मनोविज्ञान। सैन्य महत्व की मनो तकनीक एवं कार्य मनोविज्ञान।
5. सैन्य-चिकित्सा, मनोरोग, यौद्धिक स्नायुरोग व विमानन चिकित्सा।
6. मनोबल।
7. युद्ध से सम्बन्धित पुस्तकें, संस्मरण, पत्र एवं युद्ध के मनोवैज्ञानिक पहलुओं का वर्णन करने वाले उपन्यास।
1945 में बोरिंग द्वारा सम्पादित ' सायकोलाजी फार दि आर्मड सर्विसेज ' में सेना के लिये मनोविज्ञान के छ : उपयोग बताये गये हैं
- 1 .अवलोकन ( आब्जर्वेशन ) - प्रत्यक्ष बोध में परिशुद्धता की सीमायें, विशुद्ध प्रत्यक्ष बोध के अर्जन के नियम।
- 2. कार्य-निष्पत्ति ( परफार्मेन्स ) - कार्य एवं गतिविधि, निपुणता की उपलब्धि, कार्य एवं व्यवहार में कुशलता।
- 3. प्रशिक्षण ( ट्रेनिंग ) - शिक्षण एवं सीखना, अभिरुचि का निष्णात में रूपान्तरण।
- 4.वैयक्तिक समायोजन ( परसोनेल एडजस्टमेण्ट ) - सैनिक जीवनचर्या के अनुरूप वैयक्तिक समायोजन, अभिप्रेरण, मनोबल और दबाव एवं भय के दौरान उसकी प्रतिक्रिया।
- 5. सामाजिक सम्बन्ध ( सोशल रिलेशन्स ) – नेतृत्व, अफवाह का प्रभाव एवं नियन्त्रण, आतंक का स्वभाव, विभिन्न जाति और मान्यता के लोगों के बीच सम्बन्ध।
- 6. अभिमत और प्रचार ( ओपीनियन एण्ड प्रोपेगण्डा ) - जनमत और मनोवृत्ति का निर्धारण व मनोवैज्ञानिक युद्ध।
ब्रे ( 1948 ) के अनुसार, " सैन्य मनोविज्ञान, सैन्य अभिरुचि के परीक्षणों तथा वर्गीकरण एवं कार्य प्रणाली, व्यक्ति का प्रशिक्षण, मानव प्रयोग के लिये सैन्य उपकरणों की परिकल्पना, सैन्य संक्रिया की कार्य-प्रणाली का सरलीकरण, असामान्य सैनिकों अथवा नौ सैनिकों की समस्यायें मनोवैज्ञानिक युद्ध, मनोबल और मानव व्यवहार के विकास में मनोविज्ञान का उपयोग है। "
मेलडार्ड ( 1960 ) ने सैन्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत मानव शक्ति-साधन और आवश्यकतायें व्यक्तिगत चयन एवं वर्गीकरण, सैन्य आवश्यकताओं के लिये इंजीनियरिंग ( अभियान्त्रिक ) मनोविज्ञान का उपयोग, सैन्य प्रशिक्षण, निपुणता निर्धारण तथा अन्तर वैयक्तिक सम्बन्धों और मनोबल को समाविष्ट किया है।
वास्तव में सैन्य मनोविज्ञान के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत सैन्य समस्याओं के निराकरण एवं सैन्य उद्देश्यों की प्राप्ति में मनोविज्ञान द्वारा अभिनीत की जाने वाली सम्पूर्ण भूमिका समाहित की जानी चाहिये जिसका स्वरूप नवीन वैज्ञानिक उपलब्धियों और परिदृश्य परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होता रहता है। अमेरिकी व्यावसायिक सैनिकों के जैनोविट्ज अध्ययन ( 1960 ) से पता चलता है कि किस प्रकार समय के साथ-साथ सैन्य समस्याओं में परिवर्तन आता जाता है। इस अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में उस समय सेना-व्यवसाय कई समस्याओं का सामना कर रहा था, ये समस्यायें -
( 1 ) अधिकार और अनुशासन के आधार में परिवर्तन, सत्तावादी प्रभुत्व से छल योजना, अनुनय एवं समूह-सम्मति पर अधिक आस्था व समकालीन समाज में फैल रहे संगठनात्मक क्रान्ति का परिणाम थी।
( 2 ) सेना और असैनिक विशिष्ट जनों के बीच दूरी कम होने व सेना में तकनीकी विशेषज्ञों के बढ़ते हुए केन्द्रीयकरण का परिणाम थी।
( 3 ) विशिष्ट जनों की भरती में उच्च सामाजिक वर्ग की अपेक्षा कुल मिलाकर जनता के विस्तृत प्रतिनिधित्व पर बल के कारण थी।
( 4 ) यद्यपि वहाँ सर्वोच्च सैन्य सेवा हेतु निर्धारित पेशे में उच्च योग्यता के साथ प्रतियोगिता पूरी करने पर प्रवेश सुरक्षित है। ( जहां कि नवीन परिवर्तन परिदृश्य, विवेक-सम्मत दायित्व और राजनीतिक कौशल की आवश्यकता है ) तथापि सैन्य केन्द्रों में रूढ़ि से हटकर अनुकूलता के साथ लोगों को नियुक्त किया जाता है। वास्तव में वर्तमान सामाजिक, तकनीकी, स्त्रॉतिजिक एवं राजनैतिक परिदृश्यों के बदलते परिवेष में अनुकूल सामंजस्य एवं तदनुकूल निर्णय की समस्या ने प्रतिरक्षा मनोविज्ञान की भूमिका को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है।
प्रतिरक्षा मनोविज्ञान ने आज अवलोकन, आसूचना एवं आकारगोपन ( छद्मावरण ) की समस्या के समाधान हेतु प्रायोगिक मनोविज्ञान ( एक्सपेरिमेण्टल सायकोलाजी ), सेना में मानव-यन्त्र व्यवस्था से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु इंजीनियरिंग ( अभियान्त्रिकी ) मनोविज्ञान, सैन्य कर्मियों के चयन, वर्गीकरण एवं प्रशिक्षण की समस्याओं से निपटने के लिये व्यावसायिक अथवा कार्मिक ( परसोनेल ) मनोविज्ञान, सैनिकों के मनोबल और अभिप्रेरण की समस्या एवं प्रोपेगण्डा, नेतृत्व, अन्तर कार्मिक सम्बन्ध, विभिन्न जाति समूहों के बीच सम्बन्ध, राष्ट्रीय चरित्र, सखाभाव और रेजिमेन्टल-उत्साह, से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु सामाजिक मनोविज्ञान, सैन्य परिस्थितियों में समायोजन, यन्त्र विन्यास, आकस्मिक मनोविकृति-सम्बन्धी रोग निदान और उपचार हेतु रोग विषयक ( क्लीनिकल ) और परामर्श ( कौन्सेलिंग ) मनोविज्ञान तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु शान्ति अनुसन्धान को अपने दायरे में समेट लिया है।
सैन्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत उपर्युक्त मनोविज्ञान की शाखाओं से सम्बन्धित लगभग समस्त विषय-वस्तु समाहित की जा सकती है।
व्यवहार के आयाम
[संपादित करें]मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। अतः उसका समस्त कार्य-व्यापार एवं सोच उसके वातावरण एवं परिवेश से प्रभावित होता है। समाज से ही वह चाल-चलन, रहन-सहन, विचार, विश्वास व मनोवृत्ति आदि ग्रहण करता है तथा सामाजिक आदर्शों, नियमों लोकाचारों को भी स्वीकार करता है। सैनिक सेना का अंग बनने के पश्चात् अपनी यूनिट की परम्परा, प्रशिक्षण, परिवेश, आदर्श तथा सहयोगियों व नेतृत्व से प्रभावित होकर अपने व्यवहार की सीमाओं को निर्धारित करता है। लेकिन फिर भी व्यवहार की मनोवैज्ञानिक गुत्थियाँ इतनी सरल नहीं हैं जितनी कि वे दूर से दिखाई देती हैं। इन गुत्थियों को सुलझाने हेतु मनोवैज्ञानिकों ने हर सम्भव प्रयास किया है तथा सामाजिक व्यवहार के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। ये सिद्धान्त निम्नवत् हैं-
सामाजिक व्यवहार के सिद्धान्त
[संपादित करें]मूल प्रवृत्ति का सिद्धान्त
[संपादित करें]अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडुगल ने मूल प्रवृत्ति को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक "ऐन आउटलाइन ऑफ सायकोलाजी" में लिखा है कि- " मूलप्रवृत्ति (instinct) एक ऐसी मनोदैहिक प्रवृत्ति है जिससे प्रभावित होकर व्यक्ति किसी उत्तेजक विशेष की ओर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है व किसी विशेष प्रकार के संवेग या आवेग का ही अनुभव करता है और उस उत्तेजक विशेष के प्रति किसी विशेष प्रकार की ही प्रतिक्रिया प्रकट करता है। " इस परिभाषा में मूल प्रवृत्ति की अधोलिखित विशेषतायें दृष्टिगोचर होती है
- ( 1 ) मूलप्रवृत्ति एक जन्मजात मनोदैहिक प्रवृत्ति है। इसका व्यक्ति अपने जीवन काल में अर्जन नहीं करता।
- ( 2 ) इससे प्रभावित होकर व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण विशेष प्रकार का हो जाता है अर्थात् वह केन्द्र विशेष पर अपना ध्यान संकेन्द्रित कर पाता है।
- ( 3 ) व्यक्ति को एक विशिष्ट संवेग की अनुभूति होती है।
- ( 4 ) संवेग के प्रतिक्रिया स्वरूप व्यक्ति तदनुरूप एक विशेष प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन करता है अथवा एक विशिष्ट व्यवहार के आवेश का अनुभव करता है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ‘ सहानुभूति ' नामक मूल प्रवृत्ति को ही समस्त कार्य-व्यापार का आधार मानते हैं। थार्नडाइक महोदय ने प्रारम्भ में 100 से अधिक मूल प्रवृत्तियों का उल्लेख किया लेकिन बाद में उसे मात्र 40 तक ही सीमित कर दिया। बोर्ड महोदय ने अपनी पुस्तक " ए स्टडी इन सोशल सायकोलाजी " में 110 मूल प्रवृत्तियों का उल्लेख किया है। मैकडुगल ने मानव व्यवहार की व्याख्या अनुप्रेरणा के आधार पर की है। उन्होंने मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों को मौलिक प्रेरक वृत्तियों के रूप में स्वीकार किया है तथा मूल प्रवृत्ति की तीन अवस्थायें बताया है
- ( 1 ) विचारात्मक ( cognitive )
- ( 2 ) भावात्मक या संवेगात्मक ( affective )
- ( 3 ) क्रियात्मक या संकल्पात्मक ( conative )।
प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के साथ एक संवेग जुड़ा रहता है और आबद्ध संवेग किसी न किसी संकल्प या कार्य-व्यवहार का कारण बनता है।
मैकडुगल महोदय ने विभिन्न मानव व्यवहारों की व्याख्या हेतु 14 मूलप्रवृत्तियों की एक सूची तैयार की और स्पष्ट किया कि प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के साथ कोई न कोई संवेग अवश्य जुड़ा रहता है। ये मूल प्रवृत्तियाँ व उनसे सम्बद्ध संवेग अधोलिखित हैं
मूल प्रवृत्ति | आबद्ध संवेग |
---|---|
1. पलायन | भय |
2. जुगुप्सा | घृणा |
3. जिज्ञासा | आश्चर्य |
4. युयुत्सा | क्रोध |
5. आत्म-गौरव | सकारात्मक आत्म-अनुभूति |
6. आत्म-हीनता | अधीनता |
7. पैत्रिक | वात्सल्य |
8. समूह-प्रवृत्ति | अकेलापन |
9. अर्जनात्मक-वृत्ति | स्वामित्व की अनुभूति |
10. विधायकता | सर्जनात्मक वृत्ति |
11. भोजनान्वेषण | क्षुधा |
12. काम-प्रवृत्ति | कामुकता |
13. अभ्यर्थना | कष्ट |
14. हास | आमोद |
इस सूची को प्रस्तुत करते हुए मैकडूगल ने बताया कि ये मूल प्रवृत्तियाँ किसी न किसी रूप में मानव व्यवहार को प्रभावित करती रहती है।
सैनिकों का व्यवहार भी इन मूल प्रवृत्तियों के द्वारा ही निर्धारित होता है। अतः सैनिकों के मनोविज्ञान एवं व्यवहार को समझने के लिए इन मूल प्रवृत्तियों को समझना आवश्यक है।
- सामाजिक व्यवहार को समझने वाली मूल प्रवृत्तियाँ
अधोलिखित मूल प्रवृत्तियों को विशेष रूप से मानव के सामाजिक व्यवहारों को प्रभावित करने के लिये उत्तरदायी माना गया है
( 1 ) समूह-प्रवृत्ति
( 2 ) पैत्रिक-प्रवृत्ति
( 3 ) आत्मारोपण एवं आत्म-समर्पण की प्रवृत्ति
( 4 ) शरणागत की प्रवृत्ति।
( 1 ) समूह-प्रवृत्ति — मानव स्वभाव से ही समूह में रहना पसन्द करता है। बुद्धिमान होने के कारण उसमें सहयोग की भावना पाई जाती है तथा वह संगठन के महत्व को भी अच्छी तरह समझता है। हाब्स तथा मैकडूगल महोदय ने समूह प्रियता को जन्मजात प्रवृत्ति माना है। टॉटर महोदय ने इस मूल प्रवृत्ति को सभी सामाजिक व्यवहारों की जननी माना है। इस प्रवृत्ति के कारण ही व्यक्ति सामाजिक आदर्शों, नियमों व प्रभावों आदि को स्वीकार करके समाज के अनुकूल ही व्यवहार करता है। इसके अतिरिक्त
( 1 ) समूह शक्ति का निर्माण करता। बाह्य आक्रमणों से बचने के लिये राज्य अथवा राष्ट्र साहसी व्यक्तियों का समूह अर्थात् सैन्य बल का गठन करते हैं। आन्तरिक विद्रोहों के दमन हेतु भी यह गठन आवश्यक होता है।
( 2 ) समूह में रहने पर व्यक्ति को समाज के बुद्धिमान एवं साहसी व्यक्तियों के कार्यों का लाभ प्राप्त होता है।
( 3 ) शारीरिक आवश्यकताओं की संतृप्ति-पूर्ति हेतु भी व्यक्ति को समूह की आवश्यकता होती है।
समूह की महत्ता को स्वीकार करते हुए सैन्य मनोविज्ञान में समूह की विभिन्न समस्याओं का गहन अध्ययन किया जाता है।
( 2 ) पैत्रिक मूल-प्रवृत्ति - मैकडुगल के अनुसार, सामाजिक व्यवहार के संचालन एवं नियन्त्रण में मूल प्रवृत्तियों का विशिष्ट योगदान होता है। कुछ जातियाँ लड़ाकू प्रवृत्ति की होती हैं अतः उन जातियों के सदस्य बहुधा एक कुशल योद्धा की क्षमता से सम्पन्न पाये जाते हैं। समुद्र के किनारे रहने वाले मछुआरे कुशल नौ सैनिक बन सकते हैं। पैत्रिक व्यवसाय अपनाने वाले व्यक्ति शीघ्र ही उस व्यवसाय में दक्षता अर्जित कर लेते हैं।
( 3 ) आत्मारोपण एवं आत्म-समर्पण की प्रवृत्ति - मैकडुगल महोदय ने सामाजिक व्यवहार को स्पष्ट करने के लिये आत्मारोपण तथा आत्म-समर्पण दोनों ही मूल प्रवृत्तियों का सहारा लिया है। मनुष्य में अपने अधिकार या आधिपत्य की भावना को प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। यह प्रवृत्ति जन्मजात होती है। समूह की एकता को बनाये रखने के लिये नेता की उत्पत्ति होती है जो कि समूह के सदस्यों को कार्य करने के लिये आदेश देता है और समूह के सभी सदस्य उसके अनुशासन को स्वीकार करते हैं। यहाँ पर नेता अपने आत्मारोपण की मूल प्रवृत्ति का प्रयोग करता है। इसी के साथ-साथ अनुयायीगण आत्म समर्पण की मूल प्रवृत्ति का सहारा लेते हैं। इस प्रकार ये दोनों ही प्रवृत्तियां व्यक्ति के शारीरिक, नैतिक तथा संयोजन की क्षमता को अभिव्यक्त करने में आत्मारोपण की प्रवृत्ति का सदुपयोग करके समाज को संगठित करता है तथा उसे एक सूत्र में बांधकर उसकी क्रियाओं में एक व्यवस्था, अनुशासन और लक्ष्य उत्पन्न करके उसके विकास के लिये आगे बढ़ता है। अनुयायीगण आत्म-समर्पण की प्रवृत्ति का उपयोग करके अपने नेता के पथ-प्रदर्शन में एक साथ मिलकर समूह के उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
( 4 ) शरणागत की प्रवृत्ति - मैकडुगल के अनुसार, व्यक्त्ति में आग्रह की प्रवृत्ति जन्मजात होती है। यह प्रवृत्ति सामाजिक व्यवहार के साथ ही साथ सैन्य-व्यवहार का भी एक प्रमुख आधार है। युद्ध स्थल में कमजोर द्वारा आत्म-समर्पण की बहुत पुरानी प्रथा रही है।
- बालवृद्धौ न हन्तव्यौ न च स्त्री न च पातकाः। तृणपूर्ण मुखश्चैव यवास्मीति च यो वदेत ।
अर्थात, श्वेत पताका फहराना एवं हथियार डालना आत्म-समर्पण का प्रतीक माना जाता रहा है। ऐसा आचरण शरणागत की प्रवृत्ति के कारण ही होता रहा है।
अनुकरण तथा संसूचन
[संपादित करें]अनुकरण और संसूचन के आधार पर भी सामाजिक व्यवहार की व्याख्या की जाती है। व्यक्ति अनुकरण एवं संसूचन ( सुझाव ) के माध्यम से सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित करता है। सेनापति को आगे बढ़ता देख सैनिक विपरीत परिस्थिति में भी शत्रु को रौंदने के लिये आगे बढ़ने लगता है। नेता द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर उसके समर्थक असम्भव को भी सम्भव करके दिखा देते हैं। ऐसा व्यक्ति के अन्दर निहित अनुकरण एवं संसूचन की प्रवृत्ति के कारण ही सम्भव हो पाता है।
बेजहॉट, टार्डे, ब्राल्डविन व रूसी आदि विद्वानों ने सामाजिक व्यवहार के लिये अनुकरण के महत्व को स्वीकार किया है। इसी प्रकार लीबॉन व ऐश आदि विद्वानों ने सामाजिक व्यवहार के लिये संसूचना के महत्व को स्वीकार किया है। इस प्रकार अनुकरण एवं संसूचन सामाजिक व्यवहार के साथ ही साथ सैन्य-व्यवहार के भी आधार हैं।
सहानुभूति का सिद्धान्त
[संपादित करें]सहानुभूति सामाजिक व्यवहार के साथ ही साथ काफी सीमा तक सैन्य व्यवहार को भी प्रभावित करती है। इसका कारण यह होता है कि हम समुदाय में रहने वाले व्यक्तियों की मानसिक स्थिति को समझते हैं, अतः उसी के अनुरूप व्यवहार भी करते हैं। सहानुभूति के कारण ही दो व्यक्तियों, परिवारों एवं राष्ट्रों मे मैत्री का विकास होता है व शत्रु के घायल सैनिकों को भी पूरी देखभाल की जाती है। सहानुभूति के आधार पर ही समाज की विनम्रता, सेवा भाव, दान-शीलता आदि व्यवहारों की व्याख्या की जाती है। कुछ विद्वानों ने सामाजिक व्यवहार का मूल आधार सहानुभूति को ही माना है, जिसके नाते मानव सामाजिक सूत्र में एक दूसरे से बंधा रहता है।
नर्सिंग सेवा एवं रेडक्रास जैसी संस्थायें सहानुभूति के ही मूल आधार पर खड़ी है।
सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सिद्धान्त
[संपादित करें]कुछ विद्वान सामाजिक व्यवहार का आधार सम्बन्ध प्रत्यावर्तन मानते हैं। वास्तव में अस्वाभाविक उत्तेजना के प्रति स्वाभाविक प्रतिक्रिया को ही सम्बन्ध प्रत्यावर्तन कहते हैं। पैक्लव, वाटसन तथा हॉल्ट महोदय इसे सामाजिक व्यवहार का आधार मानते हैं। भारतीय दर्शन में कार्य-कारण सिद्धान्त ' की चर्चा अनादि काल से होती आयी है जो कि इसी सिद्धान्त पर आधारित है। मर्फी, श्रीमती मर्फी तथा न्यूकाम्ब महोदय का मानना है कि सम्बन्ध प्रत्यावर्तन के आधार पर ही सामुदायिकता, अर्जनात्मकता तथा सामाजिक व्यवहारों का विकास होता है।
स्थिराकृति का सिद्धान्त
[संपादित करें]स्थिराकृति के आधार पर भी सामाजिक व्यवहार की व्याख्या की जाती है। लिपमैन महोदय ने स्थिराकृति को मस्तिष्क में स्थिर चित्र कहकर पुकारा है जिसके द्वारा हम किसी व्यक्ति के बारे में अपूर्ण ज्ञान की पूर्ति करते हैं। हमारे मानस-पटल पर जो चिन्ह दूसरे के भावों तथा कथनों के आधार पर बन जाते हैं, हम उन्हीं चित्रों के आधार पर दूसरों का प्रत्यक्षीकरण करते हैं अर्थात् हम उसी मानस-संदर्भ में दूसरों को नापते हैं। किम्बल यंग के अनुसार, “ स्थिराकृति वह मिथ्या वर्गशील संवृत्यय ( विचार ) है जिससे अभिरुचि, अनभिरुचि, स्वीकृति या अस्वीकृति का प्रबल संवेगात्मक और भावात्मक पहलू नियमपूर्वक आबद्ध रहता है। " इस प्रकार स्थिराकृति का सम्बन्ध संवेग से अधिक रहता है। इसका विकास तथ्य के बिना भी होता है जिसके कारण व्यक्ति किसी जाति, वर्ग व देश आदि में अभिरुचि रखता है। मिथ्या संवृत्यय भी व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। प्रचलित स्थिराकृतियों जैसे गंदा, सुस्त और संदेही नीग्रो, मेहनती तथा बुद्धिमान जापानी, संदेही तथा लज्जालु चीनी, क्रूर पंजाबी, पेटू ब्राह्मण व बहादुर क्षत्रिय आदि भी व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करती हैं।
सेना में भी शत्रुओं के प्रति, सैनिकों में घृणा पैदा करने के लिये व शत्रु को कमजोर बताने के लिये सुविचारित रूप में स्थिराकृतियाँ पैदा की जाती हैं जैसे शत्रु सेना को ' चाण्डाल सेना ' या उसकी प्रवृत्ति को भगेडू के रूप में बताना आदि।
इन स्थिराकृतियों का प्रभाव पूर्ण कथन आचरण नियन्त्रण, व्यवसाय व संस्था समाज में भी पाया जाता है। अत: स्थिराकृति का प्रभाव व्यक्तिगत, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन को भी प्रभावित करता है।
मनोविश्लेषण का सिद्धान्त
[संपादित करें]मनोविश्लेषकों ने सामाजिक व्यवहार के आधार की व्याख्या करते हुए बताया कि सामाजिक व्यवहार का आधार स्वेच्छा है। इस सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याकार फ्रायड महोदय का मानना है कि मनुष्य स्वभावतः सुखान्वेषणशील प्राणी है। बच्चों में इड, इगो व सुपर इगो का विकास इसी कारण होता है। सामाजिक नियमों, आदर्शों व मानदण्डों की समझ व उसी के आधार पर अभियोजन इसी सिद्धान्त के आधार पर की जाती है।
प्रेरणात्मक सिद्धांत
[संपादित करें]इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति किसी प्रेरणा से प्रेरित होकर ही कार्य करता है। प्रेरणा को दो भागों में विभाजित किया गया है
( 1 ) जन्मजात या शारीरिक प्रेरणा।
( 2 ) अर्जित प्रेरणा।
( 1 ) जन्मजात या शारीरिक प्रेरणा - इसे जैविक प्रेरणा के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है, जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति तरह-तरह का व्यवहार करता है। जन्मजात प्रेरणा के अन्तर्गत भूख, प्यास, नींद व यौन आदि शारीरिक आवश्यकताओं से प्रेरित होकर किये गये कार्य आ जाते हैं। ये सभी जीवों में पायी जाती है अतः इसे मौलिक प्रेरणा भी कहा जाता है। शिक्षण के द्वारा इन प्रेरणाओं से प्रेरित व्यक्तियों के व्यवहार में कुछ परिवर्तन एवं परिमार्जन किया जा सकता है। भूख लगने पर पेट की चिकनी मांस पेशियों में संकुचन की क्रिया होने लगती है तथा पेट की दोनों सतहों में रगड़ होने लगती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति दर्द का अनुभव करता है जो कि भोजन करने के उपरान्त दूर हो जाती है। इसी प्रकार प्यास लगने पर गला सूखने लगता है जिससे व्यक्ति बेचैन हो जाता है। उसकी यह बेचैनी पानी पीने के पश्चात् दूर हो जाती है। ये प्रेरणायें व्यक्ति को अन्न व जल की खोज के लिए विवश करती हैं। धूप व वर्षा से बचने के लिए घर की, यौन आवश्यकता की संतुष्टि एवं परिवार को आगे बढ़ाने हेतु जीवन-साथी की व इसी प्रकार की अन्य जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वह विभिन्न कार्य करता है।
सैनिकों के कार्य भी इन जैविक प्रेरणाओं से प्रभावित होते हैं। शायद यही कारण है कि नेपोलियन को कहना पड़ा कि- " सेना पेट के बल मार्च करती है। " कभी-कभी शत्रु-सेना के मनोबल को नष्ट करने के लिये उसे इन आवश्यक आवश्यकताओं से वंचित करने का भी प्रयास किया जाता है। सम्पूर्ति को बन्द करना तथा शत्रु को पानी व बिजली की सुविधा से वंचित करके उन पर वांछित दबाव डाला जाता है। प्रसिद्ध करबला की लड़ाई में पानी रोककर व पानीपत की तीसरी लड़ाई में सम्पूर्ति को रोककर विपक्षी दल को भूखे प्यासे ही रणभूमि में आने के लिये विवश किया गया।
( 2 ) अर्जित प्रेरणा -आयु की वृद्धि के साथ ही साथ व्यक्ति में अनुभव व ज्ञान की वृद्धि भी होती जाती है जिसके परिणामस्वरूप अर्जित प्रेरणा का जन्म होता है। इन प्रेरणाओं के अन्तर्गत शक्ति, प्रतिष्ठा, मान्यता और सुरक्षा प्रमुख हैं। इन प्रेरक वृत्तियों को दो भागों में विभाजित किया गया है
( 1 ) व्यक्तिगत प्रेरणा।
( 2 ) सामाजिक प्रेरणा।
व्यक्ति में पायी जाने वाली प्रेरक वृत्तियों को व्यक्तिगत प्रेरणा तथा समाज में पायी जाने वाली प्रेरक वृत्ति को सामाजिक प्रेरणा के रूप में जाना जाता है। आदत, जीवन-लक्ष्य, अभिरुचि, मनोवृत्ति तथा अचेतन इच्छायें व्यक्तिगत प्रेरक वृत्तियाँ हैं जबकि समूह-प्रियता, संग्रह-प्रियता, आत्म-स्थापना तथा कलह-प्रियता आदि सामाजिक प्रेरक वृत्तियाँ हैं।
अर्जित प्रेरक वृत्तियाँ व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार का आधार है। व्यक्ति सुरक्षा, प्रतिष्ठा, मान्यता, व शक्ति आदि प्रेरक वृत्तियों से प्रेरित होकर ही सामाजिक व्यवहार करता है। इन्हीं वृत्तियों से प्रेरित होकर राष्ट्र सेना का निर्माण व हथियारों का संग्रह करते हैं। वास्तव में व्यक्ति व राष्ट्र की प्रेरक वृत्तियाँ समान ही होती हैं। व्यक्ति के ही समान राष्ट्र भी सुरक्षा, प्रतिष्ठा, मान्यता व शक्ति आदि प्रेरक वृत्तियों से प्रेरित होकर कार्य करता है। व्यक्ति-हित के समान ही उसके ( राष्ट्र के ) प्रत्येक कार्य के मूल में राष्ट्रीय-हित की प्रेरक-वृत्ति कार्य करती है। इसके विभिन्न संगठन अवयवों की भांति राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति हेतु कार्य करते हैं।
सामाजिक व्यवहार की व्याख्या के लिये व्यक्ति अथवा राष्ट्र की मनोवृत्ति, स्थायी भाव, लक्ष्य, रुचि, आकांक्षा का स्तर अहंभाव व संवेग आदि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये। युद्ध एवं शांति से सम्बन्धित विश्व की समस्याओं को समझने के लिये भी इनका अध्ययन एवं विश्लेषण आवश्यक है।
बुद्धि और उसका मापन
[संपादित करें]बुद्धि के स्वरूप की व्याख्या को लेकर मनोवैज्ञानिक कभी एक मत नहीं रहे। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की भिन्न-भिन्न परिभाषायें प्रस्तुत की हैं। इन परिभाषाओं को एफ० एस० फ्रीमैन महोदय ने चार भागों में विभाजित किया है -
- प्रथम वर्ग के अन्तर्गत उन मनोवैज्ञानिकों की परिभाषाये समाहित की गई है जो बुद्धि को पर्यावरण अथवा नवीन परिस्थितियों के प्रति समायोजन की योग्यता मानते हैं। इन मनोवैज्ञानिकों में स्टर्न, क्रूज, वेल्स तथा बर्ट आदि प्रमुख हैं।
- द्वितीय वर्ग के मनोवैज्ञानिक किसी न किसी रूप में बुद्धि को सीखने की योग्यता मानते है। इस वर्ग के मनोवैज्ञानिकों में मैकडूगल, स्काउट स्पीयर मैन, सकिंघम तथा पिटर्सन आदि आ जाते हैं।
- तृतीय वर्ग के मनोवैज्ञानिक बुद्धि को अमूर्त चिन्तन की योग्यता मानते हैं। बिने, टरमैन, गाल्टन व बिनेट आदि इसी वर्ग में आते हैं।
- चतुर्थ वर्ग के मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की जो परिभाषा प्रस्तुत की है उसमें उन्होंने बुद्धि को किसी न किसी रूप में सामान्य योग्यता अथवा समस्त मानसिक योग्यताओं का समन्वय करने वाली माना है। इस वर्ग में रेक्सनाइट, वेक्सलर, स्टोडर्ड, वगेट्स आदि आते हैं।
इन परिभाषाओं के आधार पर सार रूप में कहा जा सकता है कि ' बुद्धि ऐसी सामान्य योग्यता एवं अनेक मानसिक योग्यताओं का समन्वित रूप है जो कि व्यक्ति के व्यवहारिक जीवन को सफल करने में सहायता देती है। ' वुडवर्थ ने बुद्धि के अधोलिखित चार तत्व बताये हैं
- ( 1 ) अतीत की अनुभूतियों का प्रयोग
- ( 2 ) नवीन परिस्थितियों से अभियोजन
- ( 3 ) परिस्थिति को समझना
- ( 4 ) कार्यों को विस्तृत दृष्टिकोण से देखना।
बुद्धि के सिद्धान्त
[संपादित करें]बुद्धि को समझने के लिये अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। ये हैं-
- ( 1 ) सीमित शक्ति का सिद्धान्त
- ( 2 ) अद्वैत सिद्धान्त
- ( 3 ) दो खण्ड का सिद्धान्त
- ( 4 ) बहु मानसिक योग्यताओं का सिद्धान्त
- ( 5 ) बहु शक्ति सिद्धान्त
- ( 6 ) क्रमिक महत्व का सिद्धान्त।
( 1 ) सीमित शक्ति का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बिनेट महोदय का मानना है कि बुद्धि में कुछ सीमित शक्तियाँ तथा प्रत्यक्षीकरण एवं स्मृति, कल्पना व ध्यान इत्यादि सन्निहित होती हैं। उन्होंने इन शक्तियों को पूर्णतः एक दूसरे से पृथक बताया है।
( 2 ) अद्वैत सिद्धान्त - डॉ ० जान्सन इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं। उनका कहना है कि बुद्धि केवल एक ही है तथा उसका साम्राज्य सर्वत्र विस्तृत है। अर्थात् सम्पूर्ण क्षेत्रों में एक ही बुद्धि व्याप्त है चाहे वह कला का क्षेत्र हो, विज्ञान का क्षेत्र हो अथवा वाणिज्य का क्षेत्र। इस सिद्धान्त को दोषपूर्ण माना गया है क्योंकि सभी व्यक्ति सभी क्षेत्रों में समान रूप में कुशल नहीं हो सकते।
( 3 ) दो खण्ड का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयर मैन महोदय का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि के दो प्रकार के खण्ड या तत्व होते हैं -
- ( अ ) सामान्य तत्व ( ' जी ' फैक्टर )
- ( ब ) विशिष्ट तत्व ( ' एस ' फैक्टर )।
सामान्य तत्व सम्पूर्ण प्रकार की मानसिक प्रक्रियाओं में अन्तर्निहित रहता है। यह तत्व
—प्रत्येक मनुष्य को जन्म से ही मिलता है।
—मनुष्य में एक समान ही रहता है।
-समस्त प्रकार की प्रक्रियाओं में इसकी भिन्न-भिन्न आवश्यकता होती है।
-प्रत्येक मनुष्य की सामान्य योग्यता पृथक-पृथक होती है।
-जिस व्यक्ति में सामान्य तत्व अधिक होता है उसे अन्य व्यक्तियों से अधिक सफलता मिलती है।
विशिष्ट तत्व वह तत्व हैं जो विशिष्ट प्रकार की प्रतिक्रियाओं में प्राप्त किया जाता है। इसके अधोलिखित लक्षण हैं
-विशिष्ट तत्व जन्मजात नहीं होता। यह अर्जित किया जाता है।
-पृथक-पृथक प्रकार की प्रक्रियाओं के लिए पृथक-पृथक् प्रकार की विशिष्ट प्रतिक्रियायें होती हैं।
-भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग प्रकार के विशिष्ट तत्व होते हैं। जो विशिष्ट तत्व किसी व्यक्ति में अधिक श्रेष्ठ होता है, उसी विषय में वह सफल होता है।
( 4 ) बहु मानसिक योग्यताओं का सिद्धान्त- केली महोदय का मानना है कि निम्नलिखित योग्यताओं से बुद्धि निर्मित होती है
( क ) सांख्यिक योग्यता।
( ख ) वाचिक योग्यता।
( ग ) स्थानिक सम्बन्धों के साथ सफल व्यवहार की क्षमता।
( घ ) संगीतात्मक योग्यता।
( ड. ) क्रियात्मक योग्यता।
( च ) यान्त्रिक योग्यता।
( छ ) सामाजिक बुद्धि।
( ज ) शारीरिक शक्ति, और
( झ ) रुचि।
इसी प्रकार केली महोदय बुद्धि को निम्नलिखित सात प्राथमिक मानसिक योग्यताओं का समूह मानते है
( क ) सांख्यिक योग्यता
( ख ) शाब्दिक योग्यता।
( ग ) आन्तरिक्षिक योग्यता।
( घ ) शब्द प्रवाह योग्यता।
( ड ) तार्किक योग्यता।
( च ) स्मृति सम्बन्धी योग्यता, तथा
( छ ) प्रत्यक्ष सम्बन्धी योग्यता।
( 5 ) बहु शक्ति सिद्धान्त-इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थार्नडाइक महोदय ने किया है। उनके अनुसार बुद्धि में उतनी ही शक्तियाँ या तत्व सन्निहित होते हैं जितनी कि एक व्यक्ति प्रक्रियायें सम्पादित करता है। इन्हीं कार्यों के अनुसार उन्होंने बुद्धि को तीन विस्तृत विभागों में विभाजित किया है
( क ) मूर्त बुद्धि
( ख ) अमूर्त बुद्धि, और
( ग ) सामाजिक बुद्धि।
थार्नडाइक महोदय का मानना है कि सरल बौद्धिक प्रक्रियाओं द्वारा मानसिक संगठन निर्मित होता है।
( 6 ) क्रमिक महत्व का सिद्धान्त-क्रमिक महत्व के सिद्धान्त के प्रतिपादक बर्ट तथा बर्नन महोदय ने अपने सिद्धान्त में मानसिक योग्यताओं को क्रमिक महत्व प्रदान किया। उन्होंने सामान्य मानसिक योग्यता को प्रथम स्तर पर रखा तथा इसे उन्होंने दो भागों में विभाजित किया
( क ) क्रियात्मक, यान्त्रिक, आन्तरिक्षिक व शारीरिक-योग्यता।
( ख ) शाब्दिक . सांख्यिक व शैक्षणिक योग्यता।
तीसरे स्तर पर इन दोनों वर्गों अथवा समूहों को अनेक मानसिक योग्यताओं में विभाजित किया गया। इसके पश्चात अन्तिम स्तर पर विशिष्ट मानसिक योग्यताओं को स्थान दिया गया जो पृथक-पृथक ज्ञानात्मक प्रक्रियाओ से सम्बन्ध रखती हैं।
बुद्धि का मापन
[संपादित करें]प्राचीन काल में ही बुद्धि मापन की अनेक विधियों प्रचलित रही हैं-कभी ज्ञान को इसका आधार बनाया गया, कभी स्मृति को और कभी शारीरिक बनावट के आधार पर बुद्धि-मापन का प्रयास किया गया। लेकिन अब इन आधारों को मनोवैज्ञानिकों ने प्रायः अस्वीकार कर दिया है।
आधुनिक काल में बुद्धि को एक स्वाभाविक तथा जन्मजात शक्ति मान कर उसका परीक्षण किया जाता है। इस क्रम में सर्वप्रथम 1879 में वुन्ट महोदय ने लैपजिक ( जर्मनी ) में एक मनोवैज्ञानिक शाला स्थापित की तथा बुद्धि-परीक्षण का कार्य पारम्भ किया। 1890 तथा 1896 में फैराड तथा कैटिल आदि मनोवैज्ञानिकों ने अनेक बुद्धि परीक्षायें लीं। 1896 में ही इतिहास की बुद्धि-परीक्षा का निर्धारण किया गया। इसी समय स्पीयर मैन महोदय ने अनेक बालकों की बुद्धि परीक्षा लेने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि शारीरिक अंगों तथा बुद्धि में कोई सम्बन्ध नहीं हैं। डॉ ० गोरिंग ने भी अपने परीक्षणों से यही निष्कर्ष निकाला।
1908 में फ्रांस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एल्फ्रेड बिने ने साइमन महोदय के सहयोग से विश्व की सर्वप्रथम बुद्धि-परीक्षा प्रस्तुत की, जो " बिने-साइमन मापदण्ड ' के नाम से जानी जाती है। 1916 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में एम ० एल ० टरमैन महोदय की अध्यक्षता में, " बिने-साइमन-मापदण्ड " में संशोधन किया गया और संशोधित परीक्षण का नाम " स्टेन फोर्ड रिवीजन ऑफ दि बिने-साइमन स्केल " रखा गया। इसी परीक्षण-प्रणाली में सर्वप्रथम बुद्धि-लब्धि की अवधारणा रखी गई। 1917-18 के समय प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सामूहिक बुद्धि परीक्षण ' का प्रतिपादन किया गया। इसके पश्चात् 1937 में मेरिल महोदय के सहयोग से टरमैन ने इसमें संशोधन किया जिसे “ टरमैन-मेरिल स्केल " के नाम से जाना जाता है। बाद में ' बिने-साइमन परीक्षण ' का कई देशों व भाषाओं में अनुवाद तथा संशोधन किया गया। इस दिशा में और भी अनेक बुद्धि-परीक्षणों के निर्माण के प्रयास किये गये हैं जिसका सेना सहित अनेक क्षेत्रों में प्रयोग किया जा रहा है।
बुद्धि-परीक्षणों के प्रकार
[संपादित करें]बुद्धि-परीक्षणों को अधोलिखित दो भागों तथा उनके उपविभागों में विभाजित किया जा सकता है
( 1 ) व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षण
- ( क ) शाब्दिक व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण।
- ( ख ) अशाब्दिक व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण।
( 2 ) सामूहिक बुद्धि परीक्षण
- ( क ) शाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण।
- ( ख ) अशाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण।
( 1 ) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण- व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण से तात्पर्य ऐसे बुद्धि परीक्षण से है जो व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति की बुद्धि-परीक्षा करता है, अर्थात् व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण एक साथ अनेक लोगों की परीक्षा न लेकर केवल एक ही व्यक्ति की बुद्धि की परीक्षा लेता है। यह दो प्रकार का होता है -
( क ) शाब्दिक व्यक्तिगत युद्धि-परीक्षण — इसके अन्तर्गत व्यक्ति की बुद्धि परीक्षा करने में भाषा अथवा शब्दों का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि इन परीक्षणों का प्रयोग भाषा का ज्ञान रखने वाले तथा पढ़े-लिखे व्यक्तियों पर किया जाता है। बुद्धि-परीक्षण हेतु बिने साइमन बुद्धि-परीक्षण प्रणाली ' तथा ' टरमैन बुद्धि परीक्षण प्रणाली का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।
( ख ) अशाब्दिक व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण - अशाब्दिक व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षण ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि की परीक्षा करता है जिन व्यक्तियों को भाषा सम्बन्धी ज्ञान नहीं होता तथा जो अशिक्षित, गूंगे, बहरे या अंधे होते हैं। इन परीक्षणों में भाषा अथवा शब्दों के स्थान पर मूर्त वस्तुओं, चित्रों, व्यूहों तथा ज्यामिति आकृतियों का प्रयोग किया जाता है। इसमें व्यक्ति को हाथ से प्रक्रियायें करनी पड़ती है। इसीलिये इन परीक्षणों को " क्रियात्मक बुद्धि-परीक्षण " भी कहा जाता है।
अशाब्दिक या क्रियात्मक व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण हेतु जिन परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है उनमें चित्र पूर्ति परीक्षा, चित्रांकन परीक्षा, भूल-भुलैया परीक्षा, वस्तु संयोजन एवं आकृति फलक-परीक्षण आदि प्रमुख हैं।
( 2 ) सामूहिक बुद्धि-परीक्षण - सामूहिक बुद्धि-परीक्षण से तात्पर्य उस परीक्षण से है जिनके द्वारा एक ही समय में बहुत से व्यक्तियों अथवा व्यक्तियों के समूह की बुद्धि-परीक्षा ली जाती है। सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों का प्रादुर्भाव प्रथम विश्व युद्ध ( 1917-18 ) के बीच तब हुआ जबकि अमेरिका को लाखों की संख्या में युद्ध में काम आने वाले कुशल सैनिकों व अफसरों की आवश्यकता थी। टरमैन, थार्नडाइक, बेलार्ड, बर्ट साबसी ने तथा पिष्टर आदि मनोवैज्ञानिको से इसे जन्म मिला। इन मनोवैज्ञानिकों ने दो प्रकार के सामूहिक परीक्षण निर्मित किये-
( क ) ' आर्मी अल्फा परीक्षण ' ( यह अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के लिए था। )
( ख ) ' आर्मी बीटा परीक्षण'- ( यह विदेशी अशिक्षित सैनिकों के लिए था। )
इन परीक्षणों के पश्चात् अन्य सामूहिक परीक्षणों का भी निर्माण किया गया जिन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
( क ) शाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण।
( ख ) अशाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण।
इनमें प्रथम प्रकार का परीक्षण शिक्षित तथा भाषा सम्बन्धी ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों के लिये प्रयोग किया जाता है तथा दूसरा परीक्षण अशिक्षित तथा भाषा का ज्ञान न रखने वाले लोगों पर किया जाता है।
( क ) शाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण - इन परीक्षणों का प्रारम्भ प्रथम विश्व युद्ध के दौरान आर्मी अल्फा परीक्षण के निर्माण से किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नौ सेना सामान्य वर्गीकरण परीक्षण ( नेवी जनरल क्लासीफिकेशन अथवा एन ० जी ० सी ० टी ० ) तथा सैन्य सामान्य वर्गीकरण परीक्षण ( आर्मी जनरल क्लासीफिकेशन टेस्ट ) का निर्माण किया गया। कोलम्बिया विश्वविद्यालय में थार्न डाइक महोदय ने डी ० ए ० वी ० डी ० नामक परीक्षण का निर्माण किया। इस संदर्भ में टरसैन मैक नीमर परीक्षण भी अत्यधिक प्रसिद्ध परीक्षण है। नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डस्ट्रियल सायकोलाजी लन्डन की ओर से भी अनेक परीक्षणों का निर्माण किया गया है। इसके अतिरिक्त भारत में भी अनेक शाब्दिक सामूहिक बुद्धि-परीक्षण निर्मित किये गये हैं। इन परीक्षणों में जिन परीक्षण मदों का परीक्षण किया जाता है उनमें सादृश्य, समानता तथा भिन्नता, व विलोम आदि से सम्बन्धित परीक्षण प्रश्न होते हैं।
( ख ) अशाब्दिक सामूहिक बुद्धि परीक्षण - अन्य प्रकार के बुद्धि-परीक्षणों के समान अशाब्दिक अथवा क्रियात्मक सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों का भी निर्माण किया गया है। इनमें से उल्लेखनीय है-आर्मी बीटा परीक्षण, शिकागो अशाब्दिक परीक्षा, नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डस्ट्रयल सायकोलाजी लंदन द्वारा निर्मित एन ० आई ० पी ०70 / 23 परीक्षण, रेबन का प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज परीक्षण तथा कैटल का कल्चर फ्री परीक्षण इत्यादि।
सेना में अधिकारियों व जवानों की नियुक्ति हेतु व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण व सामूहिक बुद्धि परीक्षण ( दोनों का ही ) प्रयोग किया जाता है।
- व्यक्तिगत तथा सामूहिक बुद्धि परीक्षण में अन्तर
व्यक्तिगत परीक्षण | सामूहिक परीक्षण | |
---|---|---|
( 1 ) व्यक्तिगत परीक्षण में समय का व्यय अत्यधिक होता है क्योंकि एक समय में एक ही व्यक्ति की बुद्धि की परीक्षा की जाती है। | ( 1 ) सामूहिक परीक्षण में समय का व्यय कम होता है क्योंकि इसमें एक समय में हजारों व्यक्तियों की परीक्षा ली जाती है। | |
( 2 ) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षणों हेतु योग्य मनोवैज्ञानिकों की आवश्यकता पड़ती है। | ( 2 ) सामूहिक बुद्धि-परीक्षण एक सामान्य ज्ञान का व्यक्ति भी ले सकता है। | |
( 3 ) व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षणों में प्रायः लोग घबड़ा जाते हैं। | ( 3 ) सामूहिक बुद्धि-परीक्षण में ऐसी घबड़ाहट नहीं होती। | |
( 4 ) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षणों में सामूहिक परीक्षणों की अपेक्षा अधिक धन व्यय होता है। | ( 4 ) सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों में कम धन व्यय होता है। | |
( 5 ) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षणों पर प्रश्नों की भाषा, ज्ञान तथा व्यावहारिकता का परीक्षार्थी पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इसमें परीक्षक का परीक्षार्थी से व्यक्तिगत सम्पर्क होता है। | ( 5 ) इसमें परीक्षार्थी का परीक्षकों से व्यक्गित सम्पर्क नहीं होता और न प्रश्नों की भाषा तथा व्यावहारिकता का ही उस पर प्रभाव पड़ता है। | |
( 6 ) व्यक्तिगत बुद्धि-परीक्षण के प्रश्नों का निर्माण करने में अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है | ( 6 ) सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों के पश्नों का निर्माण सरलतापूर्वक होता है। | |
( 7 ) इसके द्वारा परीक्षार्थी की सामूहिक बुद्धि का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। | ( 7 ) सामूहिक परीक्षणों द्वारा सामूहिक बुद्धि का पता शीघ्र ही लग जाता है। | |
( 8 ) व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षा में परीक्षार्थी स्वतन्त्रता का अनुभव नहीं करते। | ( 8 ) सामूहिक बुद्धि परीक्षणों में परीक्षार्थी स्वतन्त्रता का अनुभव करते हैं। | |
( 9 ) इसमें प्रामाणिकता और विश्वसनीयता अधिक मात्रा में होती है। | ( 9 ) इसमें प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के अभाव की सम्भावना हो सकती है। |
रक्षा सेवाओं में चयन एवं वर्गीकरण
[संपादित करें]प्रथम विश्वयुद्ध से पहले सैन्य क्षेत्र में सैनिकों की भरती के लिये किसी मानसिक मापन की व्यवस्था नहीं थी। पहली बार सेना में चयन हेतु बुद्धि-परीक्षण का प्रयोग सन् 1917 में किया गया। इस हेतु अनुसन्धान एवं परीक्षण-रचना के लिये अमेरिका में जो सैन्य समिति बनी, उसके द्वारा किये गये सर्वेक्षण से अनेक महत्वपूर्ण तथ्य एकत्र किये गये, जिसका सार निम्नवत् है
( 1 ) मानसिक मापन का कार्य केवल मन्द-बुद्धि व्यक्तियों की पहचान ही नहीं है। किसी जन-समूह में सामान्य वितरण के सिद्धान्त के अनुसार अनेक बुद्धि-स्तर वाले व्यक्ति होते हैं। सेना में भी बुद्धि के प्रायः वे ही स्तर होते हैं।
( 2 ) एक निश्चित अवधि में सीमित बुद्धि-परीक्षण से किसी व्यक्ति की बुद्धि के बारे में अनेक सप्ताहों के परिचय के आधार पर प्राप्त तथ्यों से अधिक तथ्य प्राप्त कर सकते हैं।
( 3 ) यह आवश्यक नहीं है कि बुद्धि-परीक्षण व्यक्तिगत रूप ही किया जाये। सामूहिक रूप से भी बुद्धि-परीक्षण सम्भव है। यही कारण है कि सेना में बुद्धि-परीक्षणों की महत्ता काफी बढ़ गई है।
( 4 ) सैन्य अनुसन्धानों से बुद्धि-परीक्षणों के आधार पर व्यक्तियों का वर्गीकरण सम्भव हो सका। सैन्य अधिकारियों ने इस प्रकार के वर्गीकरण के महत्व को समझा। बाद में प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त हो जाने पर सामान्य जीवन में इसका उपयोग होने लगा।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सेना में महत्वपूर्ण सामूहिक बुद्धि-परीक्षण बने, जैसे- आर्मी अल्फा परीक्षण, आर्मी बीटा परीक्षण एवं वुडवर्थ का पर्सनल डाटा शीट। द्वितीय विश्वयुद्ध में बुद्धि-परीक्षणों की महत्ता और बढी। 1917 में बुद्धि-परीक्षण निर्माताओं के पास कोई पूर्व अनुभव न था लेकिन 1939 में परिस्थिति भिन्न थी। परीक्षण-रचना के सम्बन्ध में व्यापक परीक्षात्मक साहित्य उपलब्ध था। अत: मनोवैज्ञानिकों के समक्ष नए सिरे से परीक्षण-निर्माण की समस्या नही थी। द्वितीय विश्व युद्ध में युद्ध-कौशल का और अधिक विकास हो चुका था एवं सैन्य संगठन पहले से भी अधिक जटिल था। इसके अतिरिक्त, दो विश्व-युद्धों के बीच के 20 वर्षों के अनुभव ने भी सामूहिक बुद्धि-परीक्षणों की समस्यायें स्पष्ट कर दी थी। अतः सैन्य सामान्य वर्गीकरण परीक्षण ( आर्मी जनरल क्लासीफिकेशन टेस्ट ) के बनाने में उतनी कठिनाई न हुई। अनेक अभियोग्यता-परीक्षण भी बने। वायुयान चालकों के चयन के लिये भी परीक्षण बने। व्यक्तित्व के गुणों एवं संवेगात्मक स्थिरता का मापन करने वाले परीक्षणों की भी रचना हुई। वायु सेना में विभिन्न कार्यों के लिये व्यक्तियों के चयन करने हेतु परीक्षण बने। गिलफोर्ड तथा लेसी ने अपनी सम्पादित पुस्तक “ प्रिन्टेड क्लासीफिकेशन टेस्ट " में लगभग 800 परीक्षणों का विवरण, निष्कर्ष एवं मूल्यांकन दिया है। इन परीक्षणों में अवयव-विश्लेषण विधि का प्रयोग हुआ है। स्ट्यूट महोदय ने भी अपनी सम्पादित पुस्तक "परसोनेल रिसर्च एण्ड टेस्ट डेवलपमेण्ट इन दि ब्यूरो ऑफ नेवल परसोनेल " में अमेरिकी नौ-सेना में प्रयुक्त विभिन्न परीक्षणों का विवरण दिया है। इस के अतिरिक्त सैन्य विभाग से प्रकाशित अनेक पुस्तकों में भी इन परीक्षणों से सम्बन्धित विवरण उपलब्ध हैं।
सामूहिक बुद्धि-परीक्षण
[संपादित करें]उन परिस्थितियों में, जहां अनेक व्यक्तियों का एक साथ परीक्षण लेना आवश्यक हो, ( जैसे सेना, उद्योग, अनुसन्धान एवं विद्यालय में ), वहाँ सामूहिक बुद्धि परीक्षण विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुये हैं। इन परीक्षणों की मितव्ययिता एवं व्यवहारिकता को देखते हुये सेना में इनका प्रचलन तेजी के साथ बढ़ा है। अनुकूल वातावरण में ये परीक्षण व्यक्तिगत-परीक्षणों से कम विश्वसनीय नहीं है। इनकी पूर्व सूचना-वैधता भी पर्याप्त है। इनको प्रयुक्त करने के लिये अधिक दक्ष परीक्षकों की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनका प्रमाणीकरण अधिक सावधानी से किया जा सकता है और मानक निर्धारित हो सकते हैं।
आर्मी अल्फा परीक्षण - सन 1916 में टरमैन का “ स्टेन फोर्ड-बिने परीक्षण " प्रकाशित हुआ और उसके एक वर्ष बाद ही अमेरिका को प्रथम विश्व-युद्ध सम्मिलित होना पड़ा। इस समय सेना में भरती के इच्छुक लाखों व्यक्तियों में से उन व्यक्तियों को चुनने की समस्या उठी, जो मानसिक दृष्टि से उपयुक्त हो और जिनमें अफसर बनने की क्षमता हो। इस समस्या के समाधान के लिये शीघ्र ही " अमेरिकी मनोवैज्ञानिक संस्था " ने विशेषज्ञों की एक समिति बनाई, जिसे अनेक व्यक्तियों पर एक साथ प्रयुक्त करने के लिये परीक्षण की रचना करनी थी। मेल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रॉबर्ट एम ० मर्स इसके सभापति बने। एम ० एन ० टरमैन, आथर एस ० ओटिस, हेनरी एच ० गोडार्ड, एफ ० एल ० एल ० बैल्स, वाल्टर वी ० विन्धम जी ० एम ० हिपिल तथा एफ ० एच ० हेन्स इसके सदस्य थे। परीक्षण की रचना करने में कमेटी ने इसका विशेष ध्यान रखा कि जन्मजात योग्यता का ही मापन किया जाये एवं परीक्षण जहां तक सम्भव हो सके, शिक्षा एवं प्रशिक्षण के प्रभाव से स्वतन्त्र रहे।
इस कमेटी की देखरेख में आर्मी एल्फा परीक्षण बना। इसमें 8 भाग हैं और प्रत्येक भाग में 12 से लेकर 40 तक प्रश्न है। प्रत्येक भाग में प्रारम्भ में सरल प्रश्न दिये गये हैं और क्रमिक रूप से इनका कठिनाई स्तर बढ़ता जाता है। इसमें सरल प्रश्नों को तो प्रायः सभी हल कर सकते हैं लेकिन कठिन प्रश्नों को विशेष योग्यता वाले प्रतिभागी ही हल कर सकते हैं।
प्रथम परीक्षण में उस समय अधोलिखित निर्देश परीक्षार्थी को जोर से पढ़कर सुनाया जाता था-
"सावधान ! दूसरे प्रश्न को ध्यान से देखो, जिसमें, अंकों के चारों ओर वृत्त खीचे गये हैं। जब मैं ' चलो ' कहूं, तो दूसरे से लेकर पाँचवें वृत्त तक रेखा खींचो जो तीसरे वृत्त के नीचे से चले और पांचवें वृत्त के ऊपर से। ... चलो। " अन्य परीक्षण इस प्रकार है
दूसरा परीक्षण - गणित सम्बन्धी 20 समस्यायें।
तीसरा परीक्षण - सामान्य समझ से सम्बन्ध रखने वाले परीक्षण।
चौथा परीक्षण - शब्दों के 40 जोड़ें . यह निर्णय करने के लिये कि वे पर्यायवाची हैं या विलोमार्थक।
पाँचवाँ परीक्षण - ऐसे शब्द, जिन्हें वाक्यों में व्यवस्थित करना है।
छठा परीक्षण — ऐसे शब्द, जिन्हें वाक्यों में व्यवस्थित करना है।
सातवाँ परीक्षण - अनुपात पूरक प्रश्न, जैसे मेयर, नगर ...।
आठवा परीक्षण सामान्य सूचना।
निर्देश के अतिरिक्त परीक्षण की समयावधि 24 मिनट है। अधिकतम फलांक 212 बिन्दु हैं। 135 श्रेष्ठ, 105-134 बेहतर, 45-104 सन्तोषप्रद। अफसरों का सामान्य फलांक 105 और सिपाहियों का 60 है।
आर्मी बीटा परीक्षण- इस परीक्षण में निर्देश संकेत के माध्यम से दिये जाते हैं। इसमें इस प्रकार की समस्यायें होती हैं -पथ-जाल में रेखा खींचना, दिये हुये ढेर में काष्ठ-पिंड गिनना, अंकों के स्थान पर प्रतीक प्रतिस्थापन करना, अंकों की दो सूचियों में समानताओं तथा अन्तरों को ज्ञात करना, चित्र-पूर्ति करना एवं सरल ज्यामितिक प्रश्नों को हल करना। आर्मी बीटा परीक्षण योग्यता उन्हीं पक्षों का मापन नहीं करता जिनका कि आर्मी अल्फा परीक्षण, वरन् यह उन व्यक्तियों की योग्यता का मापन करने में अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ, जो अंग्रेजी भाषा से परिचित न थे या जिनकी विद्यालयीय शिक्षा कम, अपर्याप्त एवं अपूर्ण रही थी। 1918 में लगभग 15 लाख व्यक्तियों पर आर्मी अल्फा परीक्षण प्रयुक्त किया गया एवं कई सहस्र लोगो पर बीटा परीक्षण। यह परीक्षण उपयुक्त एवं अनुपयुक्त सिपाहियों को छांटने में श्रेष्ठ सिद्ध हुआ। इन परीक्षणों प्रयोग से मनोवैज्ञानिकों को बुद्धि एवं इसके परीक्षण के बारे में पर्याप्त सूचना भी उपलब्ध हुई। इससे अन्य परीक्षणों की रचना करना एवं उनके निष्कर्षों को ज्ञात करना सरल हो गया।
सैन्य सामान्य वर्गीकरण परीक्षण ( आमी जनरल क्लासीफिकेशन टेस्ट )
इस परीक्षण का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये किया गया, जिनके लिये प्रथम विश्व युद्ध में आर्मी अल्फा परीक्षण का विकास हुआ। युद्ध के दौरान लाखों व्यक्तियों पर इसे प्रयुक्त किया गया। 1945 में जब इसका परिवर्धित संस्करण प्रकाशित हुआ । इस परीक्षण का सामान्य तथा असैनिक प्रयोग प्रारम्भ हो गया। इस परीक्षण में शब्द भण्डार, गणितीय तर्क तथा ब्लाकों की गणना आदि से सम्बन्धित प्रश्न-पद हैं। वास्तविक परीक्षण प्रारम्भ करने से पहले, तीन पृष्ठों में अभ्यास के लिए पद दिये गये हैं। फलांश शतांशीय मानक तथा प्रमाप मानकों में दिये गये हैं। इसका मध्यमान 100 है और प्रमाप विचलन 20 । इसकी परीक्षण विश्वसनीयता 82 है एवं अर्ध-विच्छेद विश्वसनीयता 95 । आर्मी अल्फा एवं ओटिस उच्च मानसिक योग्यता परीक्षण के साथ इसका वैधता गुणांक क्रमशः 90 एवं 83 है।
भारत में रक्षा सेवाओं की भर्ती संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली अखिल भारतीय स्तर की लिखित परीक्षा के माध्यम से और तकनीकी स्नातकों की सीधी भरती सेना चयन बोर्ड के माध्यम से की जाती है। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश के लिये संघ लोक सेवा आयोग वर्ष में दो बार परीक्षा लेता है। भारतीय सैन्य अकादमी, नौसेना एकादमी, वायुसेना अकादमी तथा अफसर प्रशिक्षण में प्रवेश के लिये भी संघ लोक सेवा आयोग वर्ष में दो बार सम्मिलित प्रतिरक्षा सेवा परीक्षायें लेता है। लिखित परीक्षा के परिणाम के आधार पर सेना चयन बोर्ड उम्मीदवारों का साक्षात्कार लेता है। लिखित परीक्षण और साक्षात्कार में प्राप्त अंकों के आधार पर उम्मीदवारों को केवल योग्यता क्रम के अनुसार ही अकादमी में प्रवेश दिया जाता है।
संयुक्त प्रतिरक्षा सेवा हेतु मनोवैज्ञानिक चयन-प्रक्रिया
[संपादित करें]संयुक्त प्रतिरक्षा सेवा (CDS) हेतु सैन्य अधिकारियों का चयन करने वाली चयन परिषद् अनेक मनोवैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा यह जानने का प्रयास करती है कि प्रत्याशियों में एक आदर्श सैन्य अधिकारी बनने के लिये अपेक्षित गुण हैं अथवा नहीं। सफल प्रत्याशियों हेतु मुख्यतः जिन गुणों का होना आवश्यक समझा जाता है, वे निम्नवत् है-
( 1 ) संगठनात्मक गुण - सैन्य सेवा हेतु व्यावहारिक बुद्धि, तार्किक क्षमता, संगठनात्मक शक्ति, प्रशासन की योग्यता तथा आत्माभिव्यक्ति जैसे गुणों की अपेक्षा एक सफल प्रत्याशी से की जाती है। सेना में व्यावहारिक बुद्धि की आवश्यकता पडती है क्योंकि सैन्य-निर्णय भावनात्मक धरातल पर नहीं लिये जा सकते। महिलाओं में भावनात्मक प्रवृत्ति की अधिकता के कारण ही अभी तक चिकित्सा सेवा के अतिरिक्त सेना के अन्य विभागों व क्षेत्रों में उनका प्रवेश वर्जित था। ( खाड़ी युद्ध के बाद इस धारणा में बदलाव के संकेत मिले है। ) मनोवैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा यह भी परखा जाता है कि प्रत्याशी में लक्ष्य-पूर्ति की दशा में उपलब्ध साधनों के अधिकतम प्रयोग की क्षमता है या नहीं।
( 2 ) सामाजिक गुण - सामाजिक अनुकूलन की क्षमता, सहयोग और उत्तरदायित्व की भावना आदि ऐसे गुण हैं जो व्यक्ति में सामाजिक गुण का निर्माण करते हैं। अतः एक सैन्य अधिकारी बनने के लिये समूह मनोविज्ञान के ज्ञान के साथ ही साथ यह भी आवश्यक होता है कि उसमें परिस्थितियों के अनुरूप अपने आपको ढालने की क्षमता हो। सामूहिक कार्य पद्धति से परीक्षण के माध्यम से यह परखने का प्रयास किया जाता है कि प्रत्याशी में उत्तरदायित्व का भार वहन करने की कितनी क्षमता और प्रभावोत्पादकता है।
( 3 ) गत्यात्मक गुण - उत्साह, साहस, धैर्य, दृढ़ संकल्प . सहनशीलता, खतरों से जूझने व निपटने की प्रवृत्ति आदि मिलकर व्यक्ति में गत्यात्मक गुण का निर्माण करते हैं। सैन्य गतिविधियों में कदम-कदम पर संकट का सामना करना पड़ता है जिसका सामना करने की दृष्टि से एक सैन्य अधिकारी में इस गुण की नितान्त आवश्यकता पड़ती है।
( 4 ) प्रभावोत्पादक गुण - आत्म-विश्वास, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता, स्वप्रेरणा, स्वविवेक, हंसमुख होना, भाषण की योग्यता तथा समूह को प्रभावित करने की कला व शक्ति इत्यादि मिलकर प्रभावोत्पादक गुण का निर्माण करते हैं। अतः यह परखने का भी प्रयास किया जाता है कि प्रत्याशी में ये गुण हैं, अथवा नहीं। अनेक मनोवैज्ञानिक परीक्षणों के माध्यम से यह प्रयास किया जाता है कि सही व उपयुक्त प्रत्याशी का ही एक सैन्य अधिकारी के रूप में चयन किया जाये। इस हेतु चयन-परिषद् विभिन्न प्रकार के मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग करके प्रत्याशियों की मनोवैज्ञानिक क्षमता की जाँच करती है। चयन-परिषद चाहती है कि प्रत्याशी स्वीकृति श्रेणी के अन्तर्गत आ जाये। जिन परीक्षणों से उनके गुणों की जाँच की जाती है वे हैं-
मौखिक एवं लिखित बुद्धि-परीक्षण
[संपादित करें]प्रत्याशी की बुद्धि-लब्धि की जाँच के लिये मनोवैज्ञानिक ऐसी रचना तैयार करते हैं कि इससे प्रत्याशी की सद्यः स्फूर्ति बुद्धि और समस्याओं की तीव्रता से ग्रहण करने की शक्ति का पता चल जाये। इस परीक्षण में प्रत्याशी को लगभग आधे घण्टे का समय दिया जाता है। प्रश्नों के उत्तर हेतु 25 सेकन्ड रखे जाते है। इस परीक्षण में बहुत से रेखाचित्र होते हैं। ये रेखाचित्र समस्याओं का ढाचा सामने रखते हैं और इसी ढांचे के आधार पर उन समस्याओं के हल निकालने पड़ते हैं। हल निकालने में दुतगामिता की अपेक्षा रहती है। इस परीक्षण से प्रत्याशी के बुद्धि का तो मापन हो जाता है लेकिन व्यक्तित्व का नहीं।
शब्द साहचर्य परीक्षण
[संपादित करें]चयन परिषद के मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त यह एक प्रक्षेपी परीक्षण है। प्रत्याशी किसी वस्तु को जिस प्रकार से देखता और उसका मूल्याकन करता है उससे यह पता चलता है कि वह किस प्रकार का व्यक्ति है। इस परीक्षण के अन्तर्गत बोर्ड पर लिखित शब्द को पांच सेकेन्ड तक दिखाया जाता है। इसके बाद प्रत्याशी से कहा जाता है कि जो प्रथम विचार उसके मन में आये वह पन्द्रह मिनट में लिख डाले। इस उत्तर के द्वारा प्रत्याशी के संगठनात्मक, सामाजिक, गत्यात्मक और प्रभावोत्पादक गुणों की जांच करके मनोवैज्ञानिक यह पता लगाने में सफल होते हैं कि प्रत्याशी में अपेक्षित गुण हैं या नहीं।
अन्तश्चेतना-बोधक परीक्षण
[संपादित करें]इस परीक्षण के अन्तर्गत कुछ चित्र प्रत्याशी को दिखाये जाते हैं। प्रत्येक चित्र को तीस सेकेन्ड तक दिखाया जाता है। ये चित्र कुछ इस तरह से अस्पष्ट और धुंधले होते हैं कि प्रत्येक प्रत्याशी उन्हें अलग अलग रूप में समझता और व्यक्त करता है। इस परीक्षण के आधार पर प्रत्याशी के व्यक्तित्व, चरित्र और सहानुभूति इत्यादि गुणों का अनुमान मनोवैज्ञानिक लगा लेते हैं।
स्थिति प्रतिक्रिया परीक्षण
[संपादित करें]स्थिति प्रतिक्रिया परीक्षण (situation reaction test) के अन्तर्गत प्रत्याशियों के समक्ष विभिन्न प्रकार की श्रृंखला स्थितियां रखी जाती हैं। परस्पर भिन्न-स्थितियों को प्रत्याशी के सामने रखकर पूछा जाता है कि वह किस प्रकार इन स्थितियों का सामना करेगा ? प्रत्याशी का उत्तर उसके व्यक्तित्व को उजागर करके मनोवैज्ञानिक को उसकी पहचान करा देता है।
आत्म विवरण
[संपादित करें]इस प्रकार परीक्षण से प्रत्याशी की मानसिक संरचना और भावी कार्य-क्षमता की जांच की जाती है। इस परीक्षण की प्रश्नावली प्रत्याशी के जीवन से सम्बन्धित होती है, जिससे उसका जीवन परिचय व उपलब्धियों की जानकारी मिल जाती है। यह चयन प्रक्रिया इतनी वैज्ञानिक होती है कि अक्षम व्यक्ति आसानी से मनोवैज्ञानिक चयन-समिति को दिग्भ्रमित नहीं कर सकता।
सैन्य-प्रशिक्षण में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त
[संपादित करें]सैन्य सेवा हेतु चयन एवं वर्गीकरण के उपरान्त सैनिकों को प्रशिक्षित करना होता है। विभिन्न परिवेश, संस्कार व भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी एवं सोच के चयनित रंगरूटों को अनुशासित करना तथा उन्हें सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करना निश्चित ही कठिन एवं चुनौती पूर्ण कार्य है, लेकिन मनोवैज्ञानिक अध्ययन एवं प्रयोगों ने इस कार्य को काफी सरल कर दिया है।
एक व्यक्ति स्वयं की प्रेरणा अथवा मूल प्रवृत्तियों से प्ररित होकर अनेक कार्य करता है। इसी के फलस्वरूप वह अपने स्वभाव के अनुसार किसी नवीन परिस्थिति के सम्पर्क में आता है। जब व्यक्ति अपनी मूल प्रवृत्तियों की संतुष्टि हेतु अपने पहले के अनुभव के आधार पर अथवा स्वाभाविक आधार पर नवीन परिस्थितियां निर्मित करने में स्वयं को असमर्थ सा पाता है तो वह इन परिस्थितियों के साथ अभियोजन करने के लिये प्रयत्न करने लगता है। इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप वह क्रमानुसार त्रुटिपूर्ण व्यवहार छोड़ने लगता है एवं परिस्थिति के प्रति समायोजन करने में सफल होने वाले व्यवहार को अपनाता जाता है। इस प्रकार उसके स्वाभाविक व्यवहार अथवा अतीत को अनुभूतियों में क्रमानुसार उन्नतिशील परिवर्तन अथवा परिमार्जन को सीखना कहते है। इस प्रकार " सीखने से तात्पर्य उस मानसिक प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति के स्वाभाविक व्यवहार या अतीत के अनुभवों एवं व्यवहार में उन्नतिशील परिवर्तन अथवा परिमार्जन होता है। "
सीखने की प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर क्रमश: निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते है
1. आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रक्रिया या प्रयास करना।
2. नई परिस्थितियों का उत्पन्न होना।
3. नई परिस्थितियों के प्रति अभियोजन की स्वाभाविक प्रक्रिया प्रारम्भ करना।
4. स्वाभाविक व्यवहार अथवा अतीत के अनुभवों के आधार पर नवीन परिस्थितियों के साथ अभियोजन करने में कठिनाई।
5. अभियोजन हेतु नवीन पथ का अन्वेषण करना।
6. नवीन पथान्वेषण के फलस्वरूप व्यक्ति की स्वाभाविक एवं अतीतकालीन अनुभूतियों एवं व्यवहार में उन्नतिशील, परिवर्तन अथवा परिमार्जन का होना।
7. समायोजन करने में सफलता प्राप्त करने के प्रयास की पुनरावृत्ति।
8. सफल होने के लिये प्रयत्न करने के परिणामस्वरूप उन्नतिशील, परिवर्तित व परिमार्जित अनुभवों एवं व्यवहार में स्थायित्व का आ जाना। इसी स्थायी स्वरूप को ही ' सीखने की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है। '
सीखने की प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाने वाले तत्व - सीखने की प्रक्रिया को सुदृढ बनाने वाले तत्वों से तात्पर्य उन परिस्थितियों एवं अवस्थाओं से है जो शिक्षण की प्रक्रिया को दृढ़ बनाती है एवं जिनके अभाव में शैक्षिक प्रक्रिया निर्बल या असम्भव हो जाती है। सीखने की प्रक्रिया को इस प्रकार से प्रभावित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं
( 1 ) प्रेरणा
( 2 ) विषय-सामग्री का स्वरूप
( 3 ) परिणाम का ज्ञान
( 4 ) अभ्यास
( 5 ) रुचि
( 6 ) शिक्षण-विधि
( 7 ) परिपक्वता
( 8 ) बुद्धि।
समायोजन की समस्या
[संपादित करें]सेवा काल में - किसी नवीन परिस्थिति एवं समाज में स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक धरातल पर समायोजित करने की प्रक्रिया को ही समायोजन कहते हैं। कभी-कभी इस प्रक्रिया के दौरान अनेकों समस्यायें पैदा हो जाया करती हैं। बहुधा व्यक्ति का अहं, सम्मान एवं आदतें इन समस्याओं की मूल में हुआ करती हैं।
सैन्य-जीवन में समायोजन का विशेष महत्व है। यह प्रक्रिया सैन्य-जीवन में प्रवेश के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है व अन्त तक किसी न किसी रूप में बनी रहती है। विशेष रूप से दो अवसरों पर सैनिकों को समायोजन की समस्याओं का सामना करना पड़ता है -
( 1 ) रंगरूट के रूप में समायोजन
( 2 ) युद्ध काल में समायोजन
रंगरूट के रूप में समायोजन
[संपादित करें]एक रंगरूट जब पहली बार प्रशिक्षण शिविर में प्रविष्ट होता है उसे अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रशिक्षण शिविर का संसार उसके नागरिक जीवन से पूर्णतः भिन्न होता है। एकाएक वह स्वयं को नियमों व अनुशासन से बंधा पाता है, उसका स्व खो जाता है। उसकी वैयक्तिक आदतो, अहं व सम्मान की चिन्ता किसी को नहीं रहती। समुद्र में बूंद के समान वह खो जाता है और बना दिया जाता है-एक बड़ी मशीन का अंग। एक निश्चित दिनचर्या का उसे पालन करना पड़ता है-प्रातः उठने से लेकर रात्रि में सोने तक। उसे सैनिक जीवन से पहले की दिनचर्या को छोड़कर स्वयं को नवीन दिनचर्या में ढालना पड़ता है। नये लोग, नई परिस्थितियाँ व नवीन दिनचर्या। वह अनुभव करता है कि उसकी अपनी कोई निजता नहीं रह गई है और एकाएक उसका जीवन सार्वजनिक हो गया है। इससे उसे उलझन होती है।
मित्रों व परिवार जनों का अभाव भी उसे खलता है। एक अजनवी वातावरण में वह अपने को नए लोगों के बीच पाता है जहाँ उसे ऐसा लगता है कि यहां उसकी आदतों को व उसकी आवश्यकत्तों को समझने वाला कोई नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे घर की याद सताने लगती है जिसे ' होमसिकनेस ' के नाम से जाना जाता है। नौ-सैनिक मनोवैज्ञानिकों ने इस बीमारी को कियटिक नास्टेल्जिया ' का नाम दिया है, जिसमें रंगरूट खोया-खोया सा रहता है और प्रशिक्षण में उसका मन नहीं लगता।
कुछ दिनों बाद अधिकतर रंगरूट स्वयं को सैन्य जीवन से समायोजित कर लेते हैं। अब उनमें आपस में मित्रता हो जाती है तथा दैनिक दिनचर्या को भी वे स्वीकार कर लेते हैं। इस अवस्था में भी यदि उनमें से कुछ स्वयं समायोजित नहीं कर पाते तो उन्हें घर वापस भेजने को कहा जाता है। इसका सकारात्मक प्रभाव रंगरूट के मस्तिष्क पर पड़ता है और अक्सर वे स्वयं को समायोजित करने का प्रयास करने लगते है।
व्यवस्था की ओर से रंगरूटों की सुविधा का पूरा ध्यान रखा जाता है -भोजन, नाश्ता, वस्त्र, आवास, चिकित्सा व मनोरंजन आदि की समुचित व्यवस्था रहती है। कुछ रंगरूटों के लिये ये सुविधायें आवश्यकता से अधिक संतुष्टि प्रदान करने वाली होती हैं। ऐसा देखा गया है कि विनोद-प्रियता, कठोर प्रशिक्षण से जनित तनाव एवं थकान को दूर करने में काफी सहायक होती है। कुछ समय के लिये कभी-कभी " आउट पास " जारी करने से भी रंगरूटों के तनाव को दूर करने में सहायता मिलती है। जैसे-जैसे रंगरूट नवीन वातावरण तथा परिस्थितियों को समझता जाता है उसकी समस्यायें घटने लगती हैं और वह सैन्य प्रशिक्षण में रूचि लेने लगता है।
युद्ध काल में समायोजन
[संपादित करें]सैन्य-जीवन में समायोजन की अगली समस्या युद्ध-काल में देखने को मिलती है, जिसका मुख्य कारण होता है मृत्यु का भय एवं पारिवारिक दायित्व की चिन्ता। युद्ध प्रारम्भ होते ही कुछ सैनिकों को मृत्यु भय सताने लगता है जिसका प्रभाव उनके मनोबल और कार्य क्षमता पर पड़ता है। उन्हें परिवार के भविष्य की चिन्ता सताने लगती है तथा पत्नी व बच्चों से जुड़ी अनेक समस्यायें उसके ध्यान को बँटाने लगती हैं जिसका सीधा प्रभाव उसके मन, मस्तिष्क व कार्य-क्षमता पर पडना स्वाभाविक होता है।
वर्तमान युद्ध यन्त्रीकृत होता जा रहा है जहाँ मृत्यु अथवा सैनिकों के घायल होने की कम से कम सम्भावना होती है, फिर भी सम्भावना नगण्य नहीं होती। ऐसे में सैनिकों के भीतर से मृत्यु-भय दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिये। उन्हें बताया जाना चाहिये कि-
मृत्यु एक अनिवार्य सच्चाई है जिसका पूरे मनोबल के साथ सामना किया जाना चाहिये। गीता के दूसरे अध्याय में ( श्लोक 30 से 38 तक ) भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाते हुए कहा है --हे अर्जुन ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है, इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिये तू शोक करने योग्य नहीं है। ( श्लोक -30 ) अर्थात् आत्मा अमर है। जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती। ऐसे में न तो स्वयं की मृत्यु के प्रति चिन्तित होने की आवश्यकता होती है और न स्वयं द्वारा शत्रु के मारे जाने पर ही चिन्ता कर की आवश्यकता होती है, क्योंकि कभी-कभी सैनिक शत्रु पक्ष के सैनिकों को मार का अपराधी अपने को मानने लगते हैं। श्लोक 31 में कहा गया है- " जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है। "
श्लोक 22 व 23 में कहा गया है-जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही ( मरने पर ) जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर दूसरे नये शरीर को प्राप्त होती है। इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते इसको आग नहीं जला सकती . इसको जल नहीं गला सकता और न वायु सुखा ही सकती है। अतः ऐसे शरीर की मृत्यु के लिये चिन्ता व शोक करना उचित नहीं।
युद्ध की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान कृष्ण ने अर्जुन से ( श्लोक 31 32 ) गीता में कहा है-युद्ध से बढ़कर कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का कथन करेंगे और मानवीय पुरुष के लिये अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है।
तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीत कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण तू युद्ध के लिये निश्चय करके खड़ा हो जा। ( श्लोक -37 )
अर्थात् युद्ध यश एवं स्वर्ग का द्वार खोलता है। अतः युद्ध के प्रति भय व विपरीत भाव कैसा
देवी देवताओं की शक्ति के प्रति आस्था व प्रार्थना पर विश्वास भी युद्धकाल में सैनिकों के मनोबल को अक्षुण्य रखने में सहायक होता है।
युद्ध-स्थल में मरने वाले सैनिकों के पाल्य अथवा अभिभावकों को मुआवजे की अच्छी खासी राशि की घोषणा व अनिवार्य जीवन बीमा भी सैनिकों के मन से परिवार के भविष्य की चिन्ता को कम करके उसे युद्ध-कर्म की ओर उन्मुख करने में सहायक होती है।
युद्ध-जनित थकान व कठिनाइयों को मनोविनोद की धारणा द्वारा काफी कुछ हद तक कम किया जा सकता है।
उत्कृष्ट देश-भक्ति एवं लक्ष्य की पवित्रता का विश्वास सैनिकों को दिलाया जाना चाहिये ताकि लक्ष्य के प्रति समर्पण का भाव उनमें विकसित किया जा सके। युद्ध काल के दौरान सैनिकों की चिकित्सा, भरण-पोषण, मनोरंजन व पत्रादि की सुनिश्चितता भी उन्हें युद्ध के प्रति स्वयं को समायोजित करने में सहायता प्रदान करते हैं।
मनोवैज्ञानिक-प्रक्रिया
सभी व्यक्ति सैन्य जीवन के साथ समायोजन स्थापित नहीं कर सकते। कुछ प्रवेश के समय निकाल दिये जाते हैं और कुछ प्रशिक्षण के समय टूट जाते हैं, जिन्हें विशेष उपचार की आवश्यकता पड़ती है या फिर उन्हें मुक्त कर दिया जाता है। कुछ लड़ाई के समय स्वयं को समायोजित नहीं कर पाते। ऐसे मनोरोगियों को भी विशेष मनोवैज्ञानिक उपचार की आवश्यकता होती है।
सामान्यतया आवश्यकता-पूर्ति मनोवैज्ञानिक समायोजन की सरलतम प्रक्रिया है। भूखा और अकेला व्यक्ति अपने को असुरक्षित पाता है लेकिन भोजन मिलने के बाद वह संतुष्ट हो जाता है। कभी-कभी तनाव का कारण समझ में नहीं आता। ऐसी परिस्थिति में तनाव के कारणों को समझने का प्रयास किया जाना चाहिये। वैयक्तिक कुंठा को प्रतिरक्षा-प्रक्रिया एवं पलायन-प्रक्रिया ( डिफेन्स मिकैनिज्म तथा इस्केप मिकैनिज्म ) के माध्यम से समझा जा सकता है।
अनेक समस्याओं का कारण हीन भावना होती है जो कि कुंठा का परिणाम होती है। व्यक्ति जो चाहता है यदि वह उसे नहीं मिलता तो उसकी हीन भावना विकसित होने लगती है। एक शिशु तब हीन भावना का शिकार होता है जबकि उसके मां बाप उसे प्यार नहीं करते, जब वह समझता है कि दूसरे की अपेक्षा वह सफल नहीं है, जब उसे महसूस होता है कि वह शारीरिक दृष्टि से कोई कार्य करने में असमर्थ है। यदि ऐसी हीन भावना का शिकार वह बचपन में हो जाता है तो यह भावना बाद में भी उसमें किसी न किसी रूप में बनी रहती है। प्रतिरक्षा व पलायन प्रक्रिया के पीछे ऐसी हीन भावनायें भी हुआ करती हैं। लेकिन व्यक्ति प्रत्यक्षतः तो इसे समझ नहीं पाता और न ही जल्दी इसे स्वीकार करने को तैयार होता है।
हीन समायोजन के लक्षण हैं-हीन भावना एवं चिन्ता महसूस करना, अस्पष्ट शारीरिक बैचेनी, अभिलाषा की क्षति, पेट की छोटी-मोटी गड़बड़ी, सिर दर्द, शिथिलता, थकान व हृदय धड़कना आदि। ये लक्षण अन्य कारणों से भी पैदा हो सकते हैं। अतः सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा इसे समझने का प्रयास किया जाना चाहिये।
पलायन एवं प्रतिरक्षा ( Scape & Defence Mechanism)
[संपादित करें]डिफेन्स मिकैनिज्म (Defence Mechanism) से तात्पर्य एक व्यक्ति के कुंठा, मनोवृत्ति, विचार या व्यवहार में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप जनित हीन भावना ( जो कि पलायन से अधिक रचनात्मक है ) के ( अक्सर अपूर्ण ) समायोजन से है। इस प्रक्रिया में कुठित व्यक्ति अपनी हीन भावना को छिपाने हेतु कुछ सकारात्मक प्रक्रियायें करता है। ये प्रक्रियायें हैं
( 1 ) क्षतिपूर्ति।
( 2 ) एकात्मीकरण।
( 3 ) आत्म प्रदर्शन, तथा
( 4 ) प्रक्षेपण।
( 1 ) क्षतिपूर्ति -कुंठा अथवा अपूर्णता को दूर करने का सरलतम उपाय इसके कारणों को समाप्त करना होता है अर्थात सम्बन्धित सैनिक की कमी को पहचानना और उसे दूर करना। क्षतिपूर्ति कई प्रकार स की जा सकती है जैसे-कुठा के कारणों को समझना व उसे दूर करना। यदि कुठा शारीरिक कमी के कारण है तो अभ्यास द्वारा उस कमी को दूर किया जा सकता है।
( 2 ) एकात्मीकरण - क्षतिपूर्ति का यह एक परोक्ष तरीका है जहाँ सैनिक की कमी को यूनिट की अन्य सफलताओं के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है। जैसे हीन भावना से ग्रसित पुत्र अपनी कमी को अपने पिता की सफलता के पर्दे के पीछ छिपाने का प्रयास करता है।
( 3 ) आत्म-प्रदर्शन-यह एक ध्यानाकर्षण की प्रक्रिया है जिसमें उपेक्षित सैनिक अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ करता है जैसे नियमों का उल्लंघन बहाना बनाना आदि। ऐसी स्थिति में उसकी ओर ध्यान केन्द्रित करके समस्या को समाधित किया जा सकता है।
( 4 ) प्रक्षेपण - इस प्रक्रिया में एक व्यक्ति अपनी गलती का दोष दूसरे पर मढ़ने की कोशिश करता है व स्वयं अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्ति को पहचानना तथा अभ्यास के माध्यम से उसकी कमी को दूर किये जाने का प्रयास करना चाहिये। विशेष परिस्थिति में मनोवैज्ञानिकों की भी सहायता ली जा सकती है।
एकान्त प्रियता निषेधवृत्ति, फन्तासी, प्रतिगमन, निरोधवृत्ति व रिनजोफ्रेनिया ( खंडित मानसिकता ), पलायन-प्रक्रिया के लक्षण हैं।
मनोवैज्ञानिक कुंठित सैनिकों की प्रतिरक्षा व पलायन प्रक्रिया को समझकर उनकी समस्या को सुलझाने का प्रयास करता है और इस प्रकार समायोजन में सहायक होता है।
भूतपूर्व सैनिकों के पुनःसमायोजन की समस्यायें
[संपादित करें]भारतीय सेना को सदैव जवान और जागरुक रखने की दृष्टि से लगभग 80 % सैनिक 35 से 37 वर्ष की आयु में ही सेवा-निवृत्त कर दिये जाते हैं। इस प्रकार लगभग 60,000 सैनिक प्रतिवर्ष सेना से अवकाश ग्रहण करते हैं। आयु के जिस पड़ाव पर उन्हें सेवा-निवृत्त किया जाता है उस पड़ाव पर नागरिक क्षेत्र में अनेक समस्यायें उनके सामने मुँह बाये खड़ी होती है। इसमें से कुछ प्रमुख समस्यायें अधोलिखित है-
( 1 ) रोजगार की समस्या।
( 2 ) आवास की समस्या।
( 3 ) सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की समस्या।
( 4 ) नागरिक जीवन के साथ समायोजन की समस्या।
( 1 ) रोजगार की समस्या- सशस्त्र सेना से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात भूतपूर्व सैनिकों के सामने सबसे बड़ा प्रश्न पुन रोजगार की तलाश करना होता है क्योंकि परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी का उन्हें निर्वहन करना होता है और यह कार्य पेन्शन की राशि से पूरी नहीं की जा सकती। इस कार्य में यदि अड़चनें आती है तो उनमें कुंठा जन्म लेने लगती है।
रक्षा मंत्रालय का पुनर्वास महानिदेशालय भूतपूर्व सैनिकों को सरकारी और और-सरकारी सेवाओं, व्यावसायिक और तकनीकी धंधों, जमीन, कालोनियों और यातायात सेवाओं में रोजगार दिलाने तथा उनके लिये पुनर्वास बस्तियों बनाने का काम करता है। केन्द्रीय सरकार द्वारा वर्ग ' सी ' और ' डी ' में क्रमश : 10 % और 20 % स्थान भूतपूर्व सैनिकों के लिये आरक्षित किये गये हैं। केन्द्रीय सरकार के अधीन सरकारी उद्यमों में इन वगों में आरक्षण 14 1/2 % और 24 1/2 % है। राज्य सरकारों ने भी भूतपूर्व सैनिकों के लिये एक निश्चित प्रतिशत स्थान आरक्षित किये हैं।
स्व-रोजगार बढ़ाने के लिये अनेक योजनायें, चरणों में कार्यान्वित की गई है। कुछ चुने हुए क्षेत्रों में भूतपूर्व सैनिक सहकारी औद्योगिक बस्तियों की स्थापना, फालतू सेना-भूमि ' का औद्योगिक और बिक्री केन्द्र बनाने के लिये उपयोग करना, कारखानों के लिये प्लाट आरक्षित करना और विशेष औद्योगिक परियोजनायें बनाना, इसमें शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कुछ और योजनायें भी कार्यान्वित की गयी हैं जिसके अन्तर्गत उन भूतपूर्व सैनिकों को प्रशिक्षण दिया जाता है जो विशेष जानकारी और प्रशिक्षण वाले धधों में रोजगार पाना पसन्द करते हैं। मार्च 1981 से ऐसी ही एक योजना के अन्तर्गत एक ' सेवा-कालीन प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया है जिसमें चुने हुए सेवा-निवृत्त होने वाले कर्मचारियों को सरकारी उद्यमों में दस अलग-अलग व्यवसायों में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इनमें औद्योगिक और कृषि सम्बन्धी प्रशिक्षण, पशुपालन, अध्यापन और सामाजिक कार्य शामिल हैं।
महानिदेशालय भूतपूर्व सैनिकों को नई गाड़ियाँ, ट्रैक्टर, सेना की अधिशेष गाडियाँ, मरम्मत होने वाले डुप्लीकेटर और टाइपराइटर मशीनें दिलवाने में भी सहायता करता है, साथ ही साथ सरकारी उद्यमों में बनने वाली चीजों, जैसे उर्वरक चाय, सीमेन्ट, खाना बनाने वाली गैस, इस्पाल और वस्त्र आदि की एजेन्सिया भी इन्हें दिलवाने में सहायता की जाती हैं। जिन्हें खेती-बाड़ी का काम आता है उनको निकोबार द्वीप में बसाने का कार्यक्रम हाथ में लिया गया है।
भूतपूर्व सैनिको को विभिन्न ट्रेडों में प्रशिक्षित कर उन्हें स्वतः रोजगार स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करने की दृष्टि से अनेक योजनायें प्रदेश एवं केन्द्र सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में सत्र 1987-88 में स्वतः रोजगार हेतु भूतपूर्व सैनिकों को 2,10,53,640 रुपये का ऋण प्रदान किया गया, जिससे 537 भूतपूर्व सैनिक लाभान्वित हुए, स्व-रोजगार की दृष्टि से ( 1 ) पैक्सम योजना, ( 2 ) सैम्पैक्स योजना, तथा ( 3 ) खादी ग्रामोद्योग योजना प्रारम्भ की गई है। खादी ग्रामोद्योग योजना के अन्तर्गत 1/4/88 से योजना प्रारम्भ की गई है। सत्र 1989-90 में 188 सैनिको ने ग्रामोद्योग लगाया।
(2) आवास की समस्या- सैनिक जीवन का अधिकांश समय सैनिक-क्षेत्र में गुजारने के कारण अपने आवास की ओर ध्यान नहीं दे पाते। परिणामतः सेवा-निवृत्ति के बाद उन्हें आवास से सम्बन्धित समस्या का सामना करना पड़ता है। विशेषकर विकलाग सैनिकों के सामने ये समस्यायें अतिरिक्त जटिलता लिगे हुए आती है। इन सैनिकों हेतु राज्य सरकारो की योजनाओं में नकद अनुदान, कृषि कार्यों हेतु मुफ्त जमीन और रहने के लिये रियायती दर पर प्लाट देने की व्यवस्था है। भू पू ० सैनिकों के पुनर्वास हेतु झंडा दिवस निधि, सशस्त्र सेना हितकारी निधि और सशस्त्र सेना पुनर्निर्माण निधि का भी उपयोग किया जाता है।
( 3 ) सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की समस्या- सेवा-निवृत्ति के पश्चात सैनिकों को अपने पाल्यों की शिक्षा, उनके विवाह व उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की समस्यायें झेलनी पड़ती हैं। वर्तमान समय में सेवा-निवृत्ति होने पर सैनिकों की सामाजिक व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तथा पीड़ित परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिये सरकार ने ग्रुप बीमा योजना शुरू की है जिसमें बहुत कम किश्त देनी होती है। यह योजना सभी पर अनिवार्य रूप से लागू होती है और युद्ध में मृत्यु होने पर भी इसका लाभ मिलता है।
दिसम्बर 1971 में भारत-पाक युद्ध के बाद वीरगति प्राप्त सैनिकों के त्रस्त परिवारों, विशेषतया विधवाओं, अपाहिजों और उनके आश्रितों को लाभ तथा सुविधायें देने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों ने अनेक योजनायें बनायीं। विभिन्न योजनाओं में समन्वय स्थापित करने के लिये रक्षा मन्त्रालय में एक विशेष संगठन बनाया गया है। प्रमुख केन्द्रीय योजनाओं में से एक के अनुसार शहीद जवानों और अफसरों की विधवाओं और परिवारों को तथा अपंग हुए सैनिकों को उदार पेंशन रियायतें देने की व्यवस्था है। 1 फरवरी 1972 से लागू हुई यह योजना विश्व में अन्यत्र लागू हुई ऐसी सभी योजनाओं में सर्वाधिक उदार है। यह 1947 में कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण से लेकर बाद के सभी युद्ध प्रभावित जवानों के लिये है। इसके अतिरिक्त केन्द्र सरकार सेना और अर्ध-सेना के युद्ध में मारे गए सैनिकों या सदैव के लिए अपंग हुए सैनिकों के आश्रितों के लिये पहली डिग्री प्राप्त करने तक की शिक्षा का पूरा खर्च उठायेगी। जो आश्रित पहले ही स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में पढ़ रहे हैं उनकी शिक्षा का भी पूरा खर्च सरकार देगी।
सत्र 1987-88 में प्रदेश में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 3037 छात्रों हेतु रु ० 2,52,697 की धनराशि शैक्षिक सहायता के रूप में प्रदान की गई एवं केन्द्र सरकार द्वारा 609 छात्रों को रु ० 1,68,603 की धनराशि शैक्षिक सहायता के रूप में उपलब कराई गयी। उत्तर प्रदेश सैनिक पुनर्वास निधि से रु ० 12,96,543 = 50 की धनराशि छात्रवृत्ति के रूप में 3700 छात्रों को एवं रु . 7,57,330=99 की राशि 1336 छात्रों को तकनीकी शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति के रूप में प्रदान की गयी।
उत्तर प्रदेश शासन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के भूतपूर्व सैनिकों तथा दिवंगत सैनिकों की विधवाओं को पहली अगस्त 1990 से रु° 100 /-प्रति माह की दर से पेंशन स्वीकृत की गयी है, जिससे प्रदेश के लगभग 35,000 भूतपूर्व सैनिक तथा विधवायें लाभान्वित होंगी। पेंशन वितरण कार्य कल्याण शिविर के माध्यम से कराया जायेगा-तथा इन शिविरों में इन पूर्व सैनिकों व सैनिकों की विधवाओं को सम्मानित भी किया जायेगा।
( 4 ) नागरिक जीवन के साथ समायोजन की समस्या - सैनिक जीवन की संगठनात्मक संरचना लम्बीय ( ऊर्ध्वाधर ) रूप में होती है जहाँ ऊपर का अधिकारी अपने नीचे के अधिकारियों को नियन्त्रित एवं निर्देशित करता है। सैन्य जीवन का यह अनुशासन उनकी आदत बन जाती है। इसके अतिरिक्त उन्हें सारे काम समय पर करने की आदत होती है। लेकिन जब वह सेवा-निवृत्त होकर पुनः नागरिक क्षेत्र में प्रवेश करता है तो उसे इसके ठीक विपरीत स्थिति का सामना करना पड़ता है। ऐसे वातावरण से स्वयं को समायोजित करने में उसे कठिनाई का अनुभव होने लगता है। यह कठिनाई विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न होती है। अधिकारियों की समस्यायें अलग होती हैं और जवानों की अलग। अपनी नाक को ऊँची रखने एवं अहं के पूर्ति की समस्या बार-बार उनके मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करती है। समाज की बुराइयों से भी वह बार-बार टकराने का प्रयास करता है। इन प्रयासों में उसे सफलता व विफलता दोनों का ही सामना करना पड़ता है।
इस प्रकार की समस्यायें प्रारम्भ में प्रायः अधिक होती हैं लेकिन जैसे-जैसे भूतपूर्व सैनिक अपने रोजगार में व्यस्त होता जाता है, ये समस्यायें कम होने लगती हैं और धीरे-धीरे असैनिक क्षेत्र में वह स्वयं को समायोजित कर लेता है। इन समस्याओं के निराकरण हेतु सेवा-निवृत्त होने वाले सैनिकों को नागरिक क्षेत्र के साथ समायोजन करने सम्बन्धी शिक्षा दिये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। सेवा निवृत्ति के तुरन्त पश्चात् रोजगार की गारंटी भी इस समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है।
सैन्य जीवन में समूह-गत्यात्मकता
[संपादित करें]मनोवैज्ञानिक युद्ध
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]( 1 ) रिचर्डसन , एफ . , एम . , फाइटिंग स्प्रिट : सायकोलॉजिकल फैक्टर्स इन वार , देहरादून ( 1978 )
( 2 ) नारायण राज , मिलिट्री सायकोलॉजी ,आगरा ( 1979 )
( 3 ) बोरिंग , एडविन जी . , सायकोलॉजी फार दि आर्ड सर्विसेज देहरादून ( 1979 )
( 4 ) हस्मैन , मेजर कमर , सायकोलॉजी फार दि फाइटिंग मैन , देहरादून ( 1967 )
( 5 ) कूपलैंड , नार्मन सायकोलॉजी एण्ड दि सोल्जर , हैरिस्वर्ग , पेंसिल्वानिया ( 1951 )
( 6 ) पेत्रोवस्की , ए . वी . स्टडीज . इन सायकोलॉजी , मास्को ( 1969 )
( 7 ) ग्राचोव , अ . एवं मेमोरिकन , नि . नयी सूचना व्यवस्था अथवा मनोवैज्ञानिक युद्ध ? ' मास्को ( 1986 )
( 8 ) नार्मन , एल.मन , मनोविज्ञान-मानवी समायोजन के सिद्धान्त , दिल्ली ( 1972 )
( 9 ) मुकर्जी , प्रो . रविन्द्रनाथ , सामाजिक मनोविज्ञान की रूप रेखा , इलाहाबाद ( 1977 )
( 10 ) प्रसाद , नगीना , समाज मनोविज्ञान , इलाहाबाद ( 1976 )
( 11 ) भाटिया , हंसराज , समाज मनोविज्ञान , दिल्ली ( 1969 )
( 12 ) मार्शल , जनरल एस . एल . ए . , दि आफीसर एज ए लीडर , आर्मी पब्लिशर्स , दिल्ली -6
( 13 ) जरनल ऑफ मिलिट्री सायकोलॉजी , इलाहाबाद
( 14 ) जगमोहन , माई फ्रोजन टर्बुलेन्स इन कश्मीर ( 1992 )